Sunday, May 31, 2009

लॉन्ग शॉट में एक आदमी को देखते हुए

डिस्क्लेमर- मैं यह स्वीकार करता हूँ कि इस आदमी को नज़दीक से मैं नहीं जानता। हाय-हेलो के अलावा शायद ही कभी मैंने उससे बातचीत की है और मुझसे उम्र में बड़ा होने के कारण मैंने अपनी समझ आने पर उसे हमेशा बड़ा ही देखा है। फ़िर भी, कई सालों से उसे अलग अलग भूमिकाओं में देखने और उसके बारे में जानने वालों के किस्सों से मैं उसके बारे में लिखने, उसका शब्दचित्र बनाने का जोखिम उठा रहा हूँ। मेरी तमाम ईमानदारी के बावजूद इसमे सूक्ष्म डिटेल्स का अभाव रहेगा और अपने सर्वोत्तम रूप में भी, ज़्यादा से ज़्यादा ये उसके दूर से खींचे गए फोटो से अधिक कुछ नहीं होगा। कहीं अगर मेरा प्रयास उसे और स्पष्ट करता लगता है तो कृपया इसे मेरा लेखकीय कांइयापन माना जाय।
वो-
उसका नाम प्रवीण है ज़ाहिर है इस नाम का व्यक्ति आज की पीढी का नहीं होगा....आजकल प्रवीण नाम रखना कहाँ फैशन रह गया है ? हाँ प्रणय नाम होता तो शायद उसे बाद की पीढी का माना जा सकता था।
क़स्बे के क्रिकेट क्लब में वो ओपनिंग बैट्समैन था। उसका काम नई गेंद की शाइन को ख़त्म करना था और तीसरे नम्बर के बल्लेबाज़ के लिए कुशन प्रदान करना था। कई मैच खेलने के बाद भी उसने गिनती के ही चौके लगाए थे। उसे टुकटुकिया मास्टर कहा जाता था। अपने दम पर सिर्फ़ एक बार उसने मैच बचाया था जब वो अंत तक आउट नही हुआ और दूसरे एंड पर बल्लेबाज़ रन बनाते रहे,आउट होते रहे। और जब १०वें नम्बर पर बैटिंग करने आए फास्ट बॉलर ने सिक्सर लगाकर मैच टीम के कब्जे में कर लिया उस वक्त भी शीट एंकर बने प्रवीण के खाते में कम ही तालियाँ आई। वो फास्ट बॉलर ही सारी तारीफ बटोर ले गया। उस बॉलर को लोगों ने गुटखे के पाउचों से लाद दिया जबकि प्रवीण को गुटखा भी जेब से खर्च कर खाना पड़ा। वो इस शानदार प्रयास के बावजूद unsung हीरो ही बना रहा।
एक क्रिकेटर के तौर पर लड़कियों की पसंद वो कभी नहीं रहा क्योंकि अजय जडेजा ६ नम्बर पर बल्लेबाजी करने आता था लिहाजा जो ग्लैमर ६ नम्बर के साथ जुदा था वो ओपनिंग स्लॉट के साथ हरगिज़ नही हो सकता था।
एक क्रिकेटर के तौर पर बेहद संक्षिप्त और नाकामयाब कैरियर के समाप्त हो जाने के बाद उसका एक बेरोजगार के रूप में अन्तराल लंबा चला। इस दौर में उसके बारे में जो किस्सा चल पडा था वो ये था कि वो सामूहिक भोज में बढ़िया बैटिंग करता था, बिल्कुल जडेजा की तरह। जीमने का कपिलदेव!कहते हैं कि वो जीम चुकने के बाद ५ लड्डू खा सकता था।
हर साल आसपास उड़ती बाल विवाह की ख़बरों के बीच वो ज़िन्दगी के ३५ साल पार कर चुका था। एक क्रिकेटर के तौर पर तो वो संन्यास ले ही चुका था, एलिजिबल बैचलर के लिहाज़ से भी उम्र पार कर चुका था।
अपने दोस्तों में अक्सर वो जी एस का ज़िक्र करता था। जी एस यानी गीता शर्मा। गीता शर्मा से रिश्ते को लेकर उसमे हमेशा उम्मीद धड़कती रहती थी। वो कहता कि जी एस से उसकी शादी का रिसेप्शन ज़बरदस्त भव्य होगा। क़स्बे के सबसे बड़े टेंट वाले को कह रखा है कि कभी भी काम पड़ सकता है, तैयार रहना!
एक दिन जी एस की शादी किसी और के साथ हो गई।
प्रवीण ने उस रात कफ सीरप की पूरी बोतल पी ली। सुबह उसकी आंखों में कफ सीरप से बलात् लाई गई खुमारी में उस एकतरफा रिश्ते का अंत भी नुमाया था।
यूँ ज़िन्दगी के मामूलीपन और उसमें भी उसके साथ घटे हादसों ने प्रवीण को घर में भी बाँझ गाय की तरह अवांछित बना दिया। "स्साले ज़िन्दगी के बहीखाते में उसके हिस्से 'बरकत' लिखा कभी आया क्यों नहीं?" ये सवाल उसे परेशान करता रहता। इसी वाहियात समय में उसके दोस्त पहले शादीशुदा फ़िर बाल बच्चेदार होते रहे और वो ऐसा किरदार बना रहा जिसका भगवान् की बनाई कहानी में कोई रोल ही नहीं था।
उसे लगता उसमे छटांक भर भी काबिलियत नहीं है जिसके ज़रिये वो कुछ भी साबित कर सके।
मैं-
सड़क पर पड़े हजारों लावारिस फोटो वक्त के जूतों तले दबते रहे। मेरी नज़र में प्रवीण भी समय के भारी बूटों तले पददलित हो चुका था। मैं उसके बारे में इतना कुछ लिखने वाला भी नहीं था पर एक दिन......
एक दिन जैसे सड़क पर बरसों से फडफडाते ,महत्वहीन फोटोग्राफ्स में से एक उसका फोटो उड़कर मेरे चेहरे से चिपक गया। मुझे किसी ने बड़े लापरवाह अंदाज़ में बताया कि प्रवीण की आजकल बड़ी पूछ है। वो highly sought after हो गया है। लोग दूर दराज़ के गाँवों तक से उसे वाहन भेज कर बुलाते है और बासम्मान वापस घर छोड़ते है।
"क्यों ऐसा क्या कर दिया उसने?"मैंने पूछा।
"अरे वो बिच्छू उतारने का मन्त्र सीख गया है"।
अब बारी मुझे बिच्छू काटने की थी। मैंने चिहुँकते हुए पूछा -"बिच्छू उतारने का मन्त्र?"
" हाँ, प्राथमिक योग्यता तो उसकी बिच्छू उतारने में है। लोग मानते है कि कैसा भी ज़हरीला क्यों न हो, "प्रवीण महाराज" मिनटों में उतार देते है। और द्वितीयक योग्यता ये कि वो छोटे मोटे कर्मकांड भी करवा लेता है।
मैं चकरी की तरह घूमने लग गया। मुझे सुरेन्द्र मोहन पाठक के चरित्र विमल उर्फ़ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल का ऐसे वक्त में बोलने वाला वाक्य याद आया-
"धन्न करतार"

( फोटो जोधपुर के युवा चित्रकार मनीष सोलंकी की एक पेंटिंग का है, साभार)

Tuesday, May 12, 2009

अभिशप्त क़स्बे से आरम्भ



क़स्बे की जन्मपत्री में कोई भयानक गड़बडी थी। आजकल इसकी पुष्टि कम्प्यूटरीकृत कुंडली से सूक्ष्म विवेचन करने वाले प्रख्यात ज्योतिषी भी कर रहे थे। इन दिनों ख्याति अर्जित कर रहे क़स्बे के ही एक वास्तु शास्त्री के अनुसार क़स्बे की बसावट में ही बहुत भारी त्रुटि थी, इस कारण सारे देवता यहाँ से भाग छूटे थे और पितर अत्यधिक बेचैनी का अनुभव कर रहे थे। अब उनका आर्शीवाद यहाँ के कुटुंब ले नहीं पा रहे थे। हर मन्दिर के विग्रह उलटी दिशाओं में घूम गए थे और पंडित वैदिक कर्म भूल कर गैर सनातनी परम्पराओं में रत हो गए थे।
ऐसे ही विचित्र माहौल में क़स्बे की उस लड़की का विवाह सम्बन्ध कहीं निश्चित नहीं हो पा रहा था। सनातनी परम्पराओं की क्षीण स्मृति से युक्त एक विद्वान् ने सुझाया कि विवाह अगर शातातप गोत्र के लड़के से हो तभी कुल- कुटुंब के लिए शुभ होगा और पितर किंचित शान्ति का अनुभव कर सकेंगे।
ये एक बड़ी समस्या थी। उस टोले में ये गोत्र ख़त्म हो चुका था। इस गोत्र से पितृ-पक्ष की ओर से सम्बन्ध रखने वाली एकमात्र वृद्धा भी हरि-शरण हो चुकी थी।अब इस गोत्र का कोई भी, वहाँ या आसपास, नहीं था।
जाति-प्रजाति के मसलों को भी ध्यान में रखते हुए गूगल सर्च की गयी तो पता चला कि कच्छ के रन में बसे एक गाँव में इस गोत्र के परिवार रहतें हैं। वे अपने को चातुर्वेदज्ञाता कहतें हैं पर उनसे चारों वेदों के नाम पूछे जाएँ तो वे एक दो के ही बता पाएंगे। एक अड़चन उनके साथ सम्बन्ध करने में और थी, वे बकरी पालते थे जो इधर के लोगों के लिए अस्वीकार्य था भले ही स्वयं इनकी स्मृति में वेद और पुराण की जगह नरेंद्र चंचल के जगराते गूंजते रहते थे।
पर उपचार तो यही था अतः ऐसे विकट योग के निराकरण के लिए लड़की का भाई सम्बन्ध निश्चित करने के उद्देश्य से शातातप गोत्र धारी लोगों के गाँव रवाना हुआ। उसने साथ किसी भी अनिष्ट का सामना करने लिए भूतोपचार पुस्तिकाएं भी ले ली। एक बड़ी समस्या उस गंतव्य तक जाने के लिए उपलब्ध संसाधनों की भी थी। इक्का दुक्का बस वहाँ जाती थी जिसकी जानकारी उसको जुटानी थी। और last but not the least समस्या के रूप में था देवशोक गाँव जो उसके गंतव्य से ५ किलो मीटर पहले पड़ता था। बस इस गाँव से होकर ही जाती थी इसका उसे पता था।उसने सुन रखा था कि ये गाँव कुछ 'ठीक' नहीं था। यही वो जगह थी जहाँ देवासुर संग्राम में देवता असुरों से हार गए थे। उनके भाग छूटने के निशान आज भी उस गाँव में मौजूद बताये जाते थे। कहतें हैं गाँव के ज़्यादातर लोग आसुरी प्रभाव से ख़ुद को बचाने के लिए 'शैतान आत्माओं'की चापलूसी करते थे। एक प्रभावी असुर 'देवजयी' की प्रशस्ति में ६०० साल पहले वहीं के कवि 'असुरदास' ने देवजयी को देवताओं के पाचन की सबसे बड़ी बाधा 'काचर का बीज' बता डाला था। ६१ पंक्तियों की इस प्रशस्ति में देवजयी के बारे में कहा गया कि एक प्रेमासक्त देव के मस्तक पर उसने ऐसा प्रहार किया कि वो देव आजीवन अपनी प्रेमिका का नाम भूल बैठा।
देवशोक गाँव में चापलूसी की इस परम्परा का निर्वाह आज तक हो रहा था। शैतान की चापलूसी में कई चालीसाएं लिखी गयीं थी।
विवाह योग्य बहन के उस भाई ने अंततः उचित बस को खोज लिया जो उसे गंतव्य तक ले जाने वाली थी। सब कुछ समयानुसार होने पर शाम को चली वो बस रात के पौने बारह बजे भावी समधियों के गाँव पहुँचती जहाँ वे लोग सामने उसके इंतज़ार में खड़े मिलते।
कई जगह बस रूकती रही और यात्री उतारते रहे। चढ़ने वाला को नहीं था। फ़िर एक स्थिति ऐसी आयी जब वो उस बस में ड्राईवर और परिचालक के अलावा अकेला रह गया था। देवशोक अभी आया नहीं था पर उसकी बढती समीपता से उसके सीने में बाँई और कुछ बेहद गति से धड़कने लगा था। उसकी इच्छा हो रही थी कि बस यू- टर्न ले ले, वापस चली जाय, रास्ता भटक जाए पर यूँ सामान्य रूप से न चलती रहे।
और ऐसा ही हुआ...... उसकी इच्छा का तो नहीं पर हाँ बस एक जगह रुक गई।
"कहाँ रुक गई भाई साब?"
उसने परिचालक से इतना पूछने के लिए हलक से कुछ शब्द मुश्किल से बाहर फेंके।
"देवशोक! खराबी आ गई है बस में, इसलिए यहीं से बस वापस रवाना हो रही है, आगे नहीं जायेगी, आप यहीं उतरिये।"
परिचालक ने इतना सब बड़ी आसानी से बोल दिया।
रात के साढे ग्यारह बजे देवशोक में उतरना पड़ेगा! जिस जगह से होकर गुजरने मात्र से उसका रक्त द्रव नाइट्रोजन में रखे खून की तरह जम रहा था उसे वहाँ उतरना होगा!!!
" हे भगवान्!ये कौनसे पाप का प्रतिफल मिल रहा है मुझे?" उसने ज़ोर ज़ोर से सोचा।
और उसे अनमना पाकर परिचालक ने उसे ज़बरदस्ती बस से बाहर धकेल दिया।
नीचे उतरने पर उसे ये भूमि साक्षात असुरों की राजधानी लग रही थी। उसने उल्लू की भांति गर्दन घुमाई तो एक उम्मीद की लालटेन कहीं जलती नज़र आई। जी हाँ एक चाय की दूकान पर टंगी लालटेन उस समय भी दूकान के आबाद होने की घोषणा कर रही थी। उसके कदम वहीं खिंच गए।
"एक चाय देना!"उसने चाय वाले को आदेश दिया। उसे इस समय ये पेय डेरे में सबसे सात्विक लग रहा था।
दुकानदार चुपचाप चाय बनाने में व्यस्त हो गया। उसे लगा चाय वाला उससे बात नहीं करना चाहता। उसने ऊपर देखा, काले आसमान में चाँद बड़ा मलिन नज़र आ रहा था। हजारों अपराध होते देख चुका चाँद हर अपराध में मूक समर्थक की भूमिका में था।
उसने चाय का घूँट भरा। चाय बड़ी खट्टी स्वाद दे रही थी।
"क्या दूध ख़राब हो गया है?"
"यहाँ गाय का दूध काम नहीं आता, जरख के दूध से चाय बनती है। इससे काटने के दांत मज़बूत होते है।"
उसने बिना चाय पिए पैसे देना बेहतर समझा। उसके कदम जड़ हो रहे थे जैसे शरीर धीरे धीर लोहे में बदल रहा हो।
तभी दूर से दो हेड लाइट्स से रौशनी फेंकती एक जीप पास आकर रुकी। उसके आर्श्चय का पारावार न रहा, होने वाले समधी उसे लेने आए थे।
"आपको परेशानी हुई इसका खेद है....चलिए हमारे साथ। बस अड्डे पर खूब इंतज़ार किया बाद में पता चला बस यहीं से वापस लौट गई।"
"पंडित जी पाय लागूं"। चाय वाले ने भी अपनी जान पहचान को दोहराया।
"क्यों भाई , फटे दूध की चाय तो नही पिलाई मेहमान को? और बाद में हमेशा वाला बहाना बना दिया , हें?हा हा ॥"
इस हृष्ट पुष्ट हँसी में लड़की के भाई ने भी अपनी फीकी हँसी मिला ली।