Saturday, June 20, 2009

कायांतरण


क़स्बे के व्यक्तित्व में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा था। रात में मुस्कुराते तारे निर्जीव होकर टंगे लगते थे। सबने जैसे सामूहिक रूप से फांसी खा ली थी। आसमान की प्रांजलता समाप्त हो गई थी। एक पीपल का पेड़ जो क़स्बे में सबसे बूढा था अब सूखने लग गया था। ये उसकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं थी क्योंकि नज़दीक समय में कभी उसने वैद को बुलाया नहीं था। असल में वो क़स्बे में इन्हीं दिनों उग आए एक चार मंजिला मॉल के परिसर में रात को जगमगाते रौशनी के पेड़ से खौफज़दा था। मॉल इतना भव्य था जैसे इसका निर्माण ब्रह्माण्ड के किसी दूसरे ही कोने से आए शिल्पियों ने किया था। क़स्बे के सारे घडीसाज़ पहले ही भाग चुके थे उनके अनुसार सृष्टि की घड़ी में ही खोट आ गई थी तो अब उनका कोई काम बचता नहीं था। मॉल में दुनिया की हर चीज़ पेकेट में बंद मिलती थी। जो नहीं चाहिए वो भी मिलता था। चीन के संतरे और ऑस्ट्रेलियाई सेब मिलते थे। पीछे झूलने वाली कुर्सीयों पर सिनेमा दिखाया जाता था।
क़स्बे के लोगों ने मारे डर के उसके पास फटकना बंद किया तो वो दुगनी तीव्रता से चमकने लगा। इस मॉल का खौफ सिर्फ़ पीपल को ही नहीं ले डूबा बल्कि क़स्बे के अपने सात आर्श्चय भी देह त्यागने लग गए थे। पहाडी के कपालेश्वर मन्दिर का पाताल तोड़ कुआ जिसका पानी अर्जुन के बाण से निकला था ,पहली बार सूख गया। श्री पद की सनातन जल धार भाप बन कर उड़ गई। जिन पुरातन पत्थरों से होकर वह गुज़रती थी उन पर अब सिर्फ़ उसके निशान भर बचे थे। पांडवों की १३ वें वर्ष के वनवास की आश्रय कुटी अंधड़ में उड़ गई थी।छोटे किले के झरोखे झूल कर ज़मीन चाट गए थे।
और
ऐसे ही क़स्बा अपनी देह में परिवर्तन होता देख रहा था। ये कायांतरण उसकी समझ से परे था।
एक लेखक इन परिवर्तनों को अपनी डायरी में दर्ज कर रहा था। वो क़स्बे का नामचीन साहित्यकार था। उसके कई आलोचना के पोथे छप चुके थे।नवोदित लेखकों की कविताओं की मात्राएँ वो ठीक किया करता था। सर उठा कर उसने अपने प्रिय क़स्बे के परिदृश्य पर नज़र डाली। उसे फौरन कोई कबिता याद नहीं आई। पर तुंरत उसे याद आया कि उसे थैला पकडाया था श्रीमती जी ने ।उसने काफ़ी देर से निचले होठ और दांतों के बीच पड़े ज़र्दे को जिह्वाग्र से एकत्र कर प्रक्षेपास्त्र की तरह फेंका और मॉल की तरफ बढ़ गया।
लेखक की इस ज़ल्दबाजी में एक महत्वपूर्ण घटना क्रम उसके बही खाते में दर्ज होने से रह गया। उसी सूखते पीपल के नीचे राजू टायर ट्यूब पेचिंग वाला चिंतन में व्यस्त था। ये चिंता युक्त चिंतन था क्योंकि हेमी, उसकी प्रेमिका, उसे लगातार सुनाए जा रही थी-
"आज शाम को मैं अपना सामान लेकर आ रही हूँ, हम कही भाग जाते हैं।"
"आज कैसे होगा, अब तक तो सिर्फ़ दो ही पंचर निकले है,घर से भागने के लिए पैसे भी तो चाहिए।"
"मैं कुछ नहीं जानती मैं अपना सामान लेकर आ रही हूँ"


मॉल से चुंधियाते क़स्बे में जीवन के ऐसे ही स्फुरण को लेखक दर्ज नहीं कर पा रहा था, उसके उपकरण इन सूक्ष्म हरकतों की रीडिंग लेने में असमर्थ भी थे। पर सवाल ये भी था कि इनका क़स्बे की जीवन मृत्यु से कोई लेना देना था भी या नहीं।


(photo courtesy- wikimedia)

Thursday, June 11, 2009

दुनिया के तापमान से एक डिग्री ज़्यादा में जीते हुए

हर रोज़ बिना पढ़े वो उस लड़की के मेसेजेज़ 'इन बॉक्स' से डिलीट कर देता था जिनमे ज़िन्दगी के गूढ़ भावों को सरलीकृत अंदाज़ में लिखा होता था। जिनमे प्यार को किसी बेरोजगार कवि या शायर की चार पंक्तियों में परिभाषित किया होता था। संदेश जो सरल हास्य से लेकर भीषण अश्लील चुटकुलों से भरे होते थे। एक तरह से वे सारे संदेश उस लड़की की तरफ़ से प्रणय निवेदन थे इन्हे वो रोजाना कई कई बार ठुकरा देता था। ये शायद उसकी उदासीनता थी या धूर्तता, हद बाँधने का काम आप ही करें, उसने कभी संदेशों की आमद रोकने की कोशिश नहीं की। वो दो साल से और ही एक लड़की के इंतज़ार में था। अन्तिम कॉल उसने की थी, उसके बाद सामने से लड़की ने कहा था कि वो उसे फ़ोन करेगी। भौगोलिक दूरियों के लंबे और भयावह फासलों के साथ रूखे और बेजान मौसमों की लम्बाइयां उनके बीच की दूरियों को प्रकाश वर्षों में बदल रही थी....
इस बार गर्मी तो ऐसी थी कि जैसे नर्क की आग धरती के हिस्से में आ गई हो।
एक कॉल...... सिर्फ़ एक कॉल इस दूरी को ऐसे पाट देती जैसे हॉकिंग की समय में सूराख की अवधारणा!
किसी अच्छे मौसम में उनका मिलना हुआ था जो अपरिचय से औपचारिक परिचय तक ही बढ़ पाया था। अलग होते वक्त वे फ़िर से दुनियावी प्राणी होते अगर उस समय उनके बीच पैदा हुई कुछ कैलोरी की ऊष्मा जाते समय वे साथ न ले गए होते।
ये क्या था पता नहीं। शायद कोई नया ही रसायन जन्म ले गया था। वे टाइटेनिक के मुख्य पात्रों की तरह सुंदर नहीं थे न उनमे कोई जादुई शक्तियां थी। आम इंसानों की तरह उनके अपने निजी भय थे। उनके वेतन उन्हें तमाम चमकीले विज्ञापन देखने से रोकते थे। दफ्तर में समय पर जाना उनकी मजबूरी थी और यूँ उनकी कई मजबूरियां थी।
उनकी औपचारिक मुलाक़ात, जो अन्तिम थी, के समाप्त होने से ठीक पहले कोई ऐसा कमज़ोर सा पुल उनके बीच बना जो एक को दूसरे तक ले जाने का भरोसा देता था। एक कम ताप की लौ जो जलाने के बजाय कोई सूक्ष्म कोना प्रदीप्त करती थी....इतनी जो किसी सूखे बर्फ को ज़बान फेरने लायक बनाती थी। एक क्षीण उत्तेजना, जो ह्रदय की धडकनों को एक मिनट में ७२ से ७३ ही करती थी। ये समझ और नासमझी के बीच कुछ था....थोड़ा लौकिक थोड़ा अतीन्द्रीय।
उसकी कई बार इच्छा हुई कि क्यों न वो ही दुबारा कॉल करे पर दो साल पुराना वादा याद आते ही उसके हाथ रुक जाते।
उसने अपने सीने के बाँई ओर हाथ से महसूस करने की कोशिश की....धड़कने अभी भी ७३ ही थी।