Sunday, July 26, 2009

सुबह शाम की किताब


एक

आबादी यहाँ कई सालों से थी पीछे की पहाडियां ही इससे ज्यादा पुरानी थी बाकी कुँआ, पेड़, मन्दिर सब धीरे धीरे बनते रहे आदमी के पैर यहाँ सबसे पहले पड़े फ़िर कुआँ खुदा,घर बने पेड़ उगे और मन्दिर बना भगवान् तो हमेशा उनके बीच रहा होगा पर उसकी ज़रूरत सबसे बाद में महसूस हुई होगी यूँ मन्दिर भी अब तो खासा पुराना हो गया था उसकी पठियाल में कई लोगों ने अपने दिवंगतों की याद में राशि दान करने का सगर्व विवरण प्रस्तरों पर अंकित करवा रखा था
आबादी के इस घर के अन्दर अभी अभी एक दुल्हन आई है और दूल्हे के साथ उसकी पहली 'जात्रा'की तैयारियां चल रही है जात्रा सामने के चबूतरे पर ऊर्ध्व गडी शिला पर उत्कीर्ण एक मानव प्रतिमा की हो रही है जिसका रक्त वर के कुटुंब में दौड़ रहा है इस पूर्वज की मृत्यु का उल्लेख शिला पर पूरे विवरण के साथ अंकित है...घटि, पल, नक्षत्र, वार, संवत सहित कुटुंब के हर नवविवाहित को वधु के साथ उसके सम्मान में फेरी देनी होती है
पचास सौ सवा सौ या दो सौ सालों के गुज़र जाने के बाद भी पूर्वज की मृत्यु- उसके देवलोक गमन- की स्मृतियाँ आज भी प्रगाढ़ रूप में अपनी उपस्थिति को अंकित करवाती है
मृत्यु के कारणों में ज़्यादा संभावना तो चेचक की लगती है, पर शायद प्लेग भी हो सकता है कुछ कम संभावना गायों के लिए डकैतों से संघर्ष में जान गंवाने की भी है परिवार के लिए कारण की प्रकृति स्मृति को धुंधलाने में बाधा नही बनती यह पूर्वज पौरुष का प्रतीक हो चुका हैं उसकी मृत्यु तिथि वार नक्षत्रों की सटीकताओं के साथ रह रह कर स्मृति में प्रकट होती हैं वह कुटुंब की महिलाओं के करुणगान में लौटती है वह सम्मान में झुके नव दंपत्ति के लिए आशीष बन कर व्यापती है
उस पूर्वज की स्मृति अनिष्ट की आशंकाओं में, कुछ कुछ भय के साथ भी दबे पाँव प्रवेश करती है

दो

चबूतरे के सामने अपने घर में, अधिकांशतः बाहर ही बैठे, समय को निरपेक्ष- निरर्थक भाव से गुज़रते देखती है एक वृद्धा अपने ही घर में निरी अकेली सी कभी जिसके सदानीरा वात्सल्य में तीन बेटों की माँ होने का दर्प दौड़ता था, आज, कभी उस वात्सल्य का सगर्व भार उठाती, उसकी छातियाँ सूखे काष्ठ में बदल चुकी हैं
दो बेटे परदेस में हैं जहाँ उसके लिए जगह नहीं है, तीसरा नशे और ऊटपटांग दवाईयों के बीच अपना अस्तित्व ही खो चुका है बुढिया की ज़िन्दगी की शाम तो कब की ढल चुकी, आज सुबह की शाम अब आई हैमुहल्ले की ही एक और गली में उसका पीहर है यूँ इस उम्र में तो पीहर लोकगीतों में भी याद नहीं आता पर वृद्धा को सिर्फ़ वही याद आता है जहाँ उसका उससे भी उम्रदराज़ सगा भाई शाम होते होते एक बार फ़िर बेचैन है वह रसोई की टोकरी से कुछ टमाटर अपने कमीज़ में छुपाता, बहुओं के कोप से बचता, अपने कमज़ोर क़दमों को मजबूती से बढाता बहन के घर को रवाना होता है सोचते हुए कि शायद कुछ सब्जी जैसा बना लेगी इन क़दमों में कमजोरी तो थी,भटकाव कहीं नुमाया नहीं था
मृत्यु की प्रगाढ़ स्मृतियों में भी जीवन का ये चरम उत्सव था

( photo courtesy-freeparking )

Saturday, July 18, 2009

एक छलाँग भर दूर है ये फासला

मेरा इनसे रिश्ता तेरह साल पहले कहीं जाकर जुड़ता था। उसके बाद के इन सालों में इस रिश्ते को कई मुलाकातों से होकर और बड़ा होना था ख़ास कर तब जबकि पिछले आठ सालों से मैं इन्हीं के शहर में था। पता नहीं ऐसा क्या था कि आज से पहले मेरा इनसे सिर्फ़ एक ही बार मिलना हुआ था और ये आंकडा एक पर ही अटक गया।
१९९५ में मैं जैसलमेर में नौकरी कर रहा था। नई नई ही थी नौकरी। लगभग घर जैसा ही था जैसलमेर। भाषा, माहौल और लोग। एक जैसे। घर था बाड़मेर में और मैं था जैसलमेर में। फासला भी बहुत ज़्यादा नहीं। एक सुस्ताते शहर से दूसरे अलसाए में। इन की निद्राएं सदियों में टूटती थी।उन दिनों भी जागने को तैयार नहीं थे ये शहर।
उन्ही दिनों एक कहानी लिखने की कोशिश की थी। और आख़िर कुछ पन्नों में उसे समेट कर पहले हंस पत्रिका को भिजवाया।वापसी का लिफाफा इतना जल्द वापस आया कि लगा जैसे डाक विभाग ने ही अपने स्तर पर उस कहानी को खारिज कर दिया था। हार नहीं मान कर, उस कहानी को फ़िर से छोट मोटे परिवर्तनों के साथ फ़िर लिखकर इस बार 'चर्चा' पत्रिका के लिए सम्पादक योगेन्द्र दवे को भेज दिया। कुछ दिन बाद डाक से एक पत्र आया जिसमे योगेन्द्र जी ने कहानी की तारीफ करते हुए इसे 'चर्चा' के अगले ही अंक में छापने की बात कही। मेरे लिए ये उत्सव मनाने का अवसर था। चर्चा पत्रिका उन दिनों जोधपुर से छपने वाली एक प्रतिष्टित पत्रिका थी जिसे योगेन्द्र दवे अपने नितांत निजी प्रयासों से अनियमित रूप से निकालते थे।
इस बात को छः महीने गुज़र गए। पत्रिका का अंक आ नहीं रहा था। एक दिन जोधपुर पहुँच ही गया और अपने भाई साहब जो जोधपुर में ही रहते थे को लेकर योगेन्द्र जी के घर दरवाजा खटखटाने लगा। योगेन्द्र जी से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी।
एक दूसरे शहर से जोधपुर की इस कदीम, भूल भुलैयानुमा बसाहट में मिलने आए, इस छोरे से दिखने वाले युवक से योगेन्द्र जी जिस आत्मीयता से मिले उसका प्रभाव स्थाई था। योगेन्द्र जी का व्यक्तित्व सरल और सहज था। कोई भी उनसे दोस्ती कर सकता था। ख़ुद उनकी कई किताबे आ चुकी थी और बच्चो के लिए उनका अपना मौलिक- काम था। एक लेखक के तौर पर उनका अवदान महत्वपूर्ण गिना जा चुका था।
जब मैंने पत्रिका के प्रकाशन में देरी के विषय में पूछा तो उन्होंने उन्ही कुछ दिक्कतों के बारे में बताया जो लघुपत्रिका चलाने में आमतौर पर आती आई हैं। कुल मिलाकर पत्रिका अब सिर्फ़ योगेन्द्र दवे के एकल प्रयासों पर ही टिकी थी।
खैर, पत्रिका का वो अंक असंख्य पन्नों के रूप में उनके घर में ही पड़ा था जिसे बाईंड होना था।
मैं वहाँ से लौटा तो फ़िर से उत्साहित था। हालांकि अंक अंततः मेरे हाथ में कोई महीने दो महीने बाद ही आ पाया था।
सन २००१ में मैं जोधपुर आ गया था और अभी तक यहीं टिका हुआ हूँ। इस बीच चर्चा पत्रिका बंद हो चुकी थी। एक लेखक के रूप में अभी भी मेरे पास चर्चा में छपी कहानी ही एक बड़ी पूँजी है। ब्लॉग में लिखने से इस पूँजी का विस्तार हुआ है ऐसा भी मानता हूँ। जोधपुर आने के इन आठ सालों में मैं योगेन्द्र जी से कभी नहीं मिला। उनके बारे में भी सुना था कि आजकल वे लिखते नहीं। रेडियो में, जहाँ मैं काम करता हूँ वहाँ भी इन सालों वे कभी आए नही अन्यथा यहाँ उनके पहले के लिखे कई नाटक आज भी टेप्स में सुरक्षित है। कई बार उनसे मिलने के बारे में सोचा पर आख़िर अनिच्छा हावी हो जाती। एक ही शहर में रहते हुए न मिलना शायद आज उतना आर्श्चय न लगे पर इसे दोष मेरा ही माना जाएगा। उनका पता उनके नाम के अलावा सिर्फ़ दो शब्दों का था। फ़ोन भी किया जा सकता था। शहर अभी भी बहुत बड़ा हुआ नही था। फ़िर भी.....
पर एक दिन, इन्हीं दिनों
हंस पत्रिका के जुलाई अंक में उनकी लघुकथा देखी तो महसूस हुआ कि समय चाहे जितना च्युंग गम की तरह खिंच जाय इसकी आरंभिक मिठास होठों पर बनी रहती है। मुझे लगा मैं आज भी योगेन्द्र जी से उतनी ही सहजता से मिल सकता हूँ।पर अभी भी शायद, मिलने की उम्मीद से ज्यादा, ये खुशी उन्हें एक लेखक के रूप में वापस देखने की थी।

Thursday, July 2, 2009

क़स्बे में प्रेम- कुछ चित्र

एक
जटा शंकर जी का घर क़स्बे के इस पुराने मोहल्ले में सबसे ग़लत जगह पर था। एक अत्यन्त जटिल ज्यामितीय संरचना में बसे पुराने घरों की जमावट असंख्य वीथीयों की दुरूह प्रणाली का निर्माण करती थी। कोई गली खूब अन्दर तक जाकर किसी घर में गुम हो जाती तो कोई किसी चबूतरे पर तमाखू से दांत रगड़ती वृद्धा के पैरों तले विलीन हो जाती, और कोई अंततःक़स्बे के किसी मुख्य चौराहे पर दम तोड़ती।
जटाशंकर जी का घर इस मोहल्ले में ग़लत जगह फंसा हुआ था जिसने उनके प्रेम के आरम्भ को ही असंभव बना डाला था। उनके घर में कोई वास्तु दोष नहीं था बल्कि गृह-स्थिति और सामाजिक नियमों की संगति उनके प्रेम को असंभव बना रही थी। उनके घर से लगते और उसके पीछे के सारे मकान सगोत्रियों के थे,घर से आगे बाएँ तरफ समाज का सामुदायिक भवन था जहाँ पंचों का डेरा रहता था,आगे दाएँ तरफ़ के तीन घरों में प्रेम संभव था क्योंकि यहाँ अलग गोत्र वाले बिराजते थे पर यहाँ उनकी हम उम्र कन्या का जन्म ही नहीं हुआ और घर के ठीक सामने की गली में जटा शंकर जी का ननिहाल था जहाँ वे पैदा हुए थे।
तो यों इस मोहल्ले में भू-सामाजिक कारणों से जटाशंकर जी प्रेम ही नहीं कर पाये। उनके कदम इस मोहल्ले से बाहर उनकी २० की उम्र में पड़े जो रोज़गार की तलाश में किसी सेठ की पेढी पर सर टेकने पर ही रुके। सर, उसके बाद, उनके बुढापे तक उस पेढी से ऊंचा ही नहीं उठ पाया।
दो
बाहर से नौकरी करने इस क़स्बे में आए उस युवक ने मोहल्ले की तरफ़ जाने वाली गली के नुक्कड़ और मुख्य सड़क पर स्थित 'पुरोहित भोजनालय' के बाहर उस लड़की का इंतज़ार शुरू कर दिया जो टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज से उधर आने वाली थी,हमेशा की तरह। लड़की के आते ही वो उसे कनखियों से देखता था ताकि लोग उसके मन की थाह न ले सके। लड़की भी नहीं। पुरोहित की दाल आज अतिरिक्त तीखी थी जिसे वो प्रतीक्षा के कारण भरसक नज़रंदाज़ कर रहा था। पानी पीने के चक्कर में लड़की वहाँ से गुज़र कर गली में चली गई तो....
उसके आने की धमक वो कोसों दूर से सुन सकता था। ये एक अजीब बेचैनी थी। तभी दो चीज़ें एक साथ हुई। लड़की उसे आती दिखी और सड़क पर विदेशी युगल भी उस ओर बढ़ते दिखे। उस युगल ने माहौल को एक exotic touch दे दिया। उस युवक का ध्यान लड़की पर ही एकाग्र होता पर अचानक उस युगल ने बीच सड़क पर एक दूसरे को चूमना शुरू कर दिया। इसे देख लड़की भी हलके से ठिठकी। युवक ने लड़की की ओर देखा तो लड़की के होंठों पर अत्यन्त सूक्ष्म डिग्री की मुस्कान आ गई। लड़की उसके वहाँ खड़े होने के मंतव्य को समझती थी शायद।
तीन
पिचासीवें साल की उम्र में जटाशंकर जी उसी क़स्बे में, उसी मोहल्ले में, उसी घर में दुबारा थे। आज वे मृत्यु शैया पर थे। कई दिनों से खाना बंद था। प्राण उनके शरीर से सिर्फ़ क्षीण पकड़ द्वारा ही चिपका था। शायद प्राण बाहर निकलने का कोई मुहूर्त ही ढूंढ रहा था। वे इस जन्म में प्रेम नहीं कर पाये थे। घर के लोग कई बार उन्हें खाट से नीचे भूमि पर सुला चुके थे पर चेतना का दिया बुझने में ज़रूरत से ज्यादा समय लगा रहा था।
कोई घर में बात कर रहा था कि मोहल्ले का लड़का क़स्बे की किसी लड़की के साथ भाग गया था, अब दोनों के घरवाले राज़ी होकर उनकी शादी की तैयारियां कर रहे थे।
जटा शंकर जी के प्राण ठीक इसी वक्त मुक्त हुए।
चार
सदियों पहले जिस लड़की के लिए सिंध का राजकुमार अपने ऊँट पर यहाँ आता था। वो शादीशुदा था पर उस लड़की की एक झलक ने उसके मस्तिष्क में जो तूफ़ान खड़ा किया उससे गृहस्थी के सारे धर्म पानी मांगने लगे। उस कथा के अंत से ज़्यादा महत्व पूर्ण उस कथा के घटने में था।
आज भी इसी क़स्बे में उस लड़की के घर के खंडहर मौजूद थे। कोई पगडण्डी , कोई सड़क, कोई गली उस तरफ़ नहीं जाती थी पर कहते है क़स्बे के प्रेमी किसी तरह वहाँ पहुँच कर एक दूसरे से वादे करते थे।
तमाम असहमतियों के बावजूद लोग इस बात पर एकमत थे कि आजकल समय ठीक नहीं है।