Wednesday, November 23, 2011

एक यात्रा की उड़ती धूल


चलती रेलगाड़ी का जनरल कोच.

अभी अभी गए स्टेशन के प्लेटफोर्म पर बिकती सब्ज़ियों और तली हुई पूड़ियों की गंध इतनी भारी और ठोस थी कि रेल के डिब्बे में वो अभी तक टंगी हुई थी.अगर किसी को वहाँ से उठकर टॉयलेट भी जाना हो तो गंध के उस दलदल में से कुछ जद्दोजहद करके ही निकला जा सकता था. उसी एक में अहर्निश तले जाने से गाढे और झागदार हो चुके तेल में, जिसकी गंध ही इतनी वज़नी थी, तली गयी पूड़ियों और फिर तेल की ही एक इंच परतवाली तीखी सब्ज़ी से जन्मों की भूख मिटती थी. डब्बे में सब भकोस रहे थे.गाड़ी ने प्लेटफोर्म अब काफी पीछे छोड़ दिया था. मेरा गंतव्य आने वाला था. बस अगला ही स्टेशन. एक गाँव. मेरी तरह जो अपना सामान संभाल रहे थे वे ही उतरेंगे इस गाँव. बाकी लोग ज़र्दा चूना घिस रहे थे.घिसने की ये प्रक्रिया कई सारे सूक्ष्म चरण लिए थी.इसे तय भी ऐसे ही किया जा रहा था जैसे परम तत्व फांकना तक पहुँचने के लिए पहले के दैवीय विधिविधान पूरे किये जा रहे थे.

गाड़ी रुकने से पहले पटरियों को खरोंचती चली गयी.जो खड़े थे वे अपना जडत्व संतुलित करने में लग गए.मैं गाड़ी के पूरी थमने के बाद ही उठा और दो चार लोगों की तरह नीचे उतर गया.रात बहुत तो नहीं पसरी थी पर गाँव में अँधेरा भरपूर हो गया था.मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ट्रेन जा चुकी थी. सर्द रात में सामने सिर्फ एकाध जगह रौशनी दिख रही थी.ये गाँव का चौक था. मैं उधर ही चलता गया. गाँव का चौक खम्भे पर टंगे एक बल्ब से कातर भाव में उजास मांग रहा था.पर जीर्ण रोशनी नीचे पहुँचने से पहले ही बिखर रही थी. बल्ब भी बेचारा पूरा ज़ोर लगा रहा था.उसके चेहरे की तमतमाहट इस बात की गवाही दे रही थी.गाँव जैसे इस आलोक को करबद्ध होकर अपेक्षा भरी नज़र से निहार रहा था.चौक पर ही खीमराज भोजनालय था जो बंद हो चुका था. भोजनालय जब इस वक्त नहीं खोलना था तो फिर खोला ही क्यों.पर किससे कहता? ढाबे का दरवाज़ा था ही नहीं बस चौखट पर कोलतार के खाली ड्रम ही अवरोध का काम कर रहे थे.हां,पान का एक केबिन ज़रूर लालटेन की हताश रौशनी में खुला था. पानवाला बड़ी फुर्ती से पान पर कत्था चूना लगाए जा रहा था जैसे उसे कोई बड़ा आर्डर मिल चुका था.केबिन में पस्त बैटरी से कैसेट प्लयेर इक तरफ है घरवाली इक तरफ बाहर वाली चला रहा था.कैसेट इतनी धीमी रफ़्तार में चल रही थी कि एक यही लाइन पूरी होने में ज़माना बीत रहा था. इस गाँव में कोई विकास पुरुष था ही नहीं और कोई था भी तो उसका पौरुष इतना दूर जा चुका था कि उसे चिल्लाकर भी बुलाया नहीं जा सकता था. पर अपने को क्या? अपने को तो इसी गाँव के रहने वाले एक दोस्त के घर जाना था जहां इस वक्त उसकी रिंग सेरेमनी होने वाली थी.


(फोटो सौजन्य- फ्लिकर)

Wednesday, November 16, 2011

बातूनी






तुमसे बात करते समय फोन पर मैं ढूँढता हूँ याद में बातपोशों के उस गाँव को जिसका रास्ता भी एक महान किस्सागो की बात में ही था जिसकी कस्बे में अलाव के धुंए के साथ चढती आकाशगामी लंबी सर्पिल बात की निरंतरता को दूर देस से आती रात दो बजे की रेल की सीटी तोड़ती थी,जो इतनी ठोस और धारदार होती थी कि अलाव के गिर्द ठिठुरन से जमा क्षीण धूम्र-पट किरचों में बिखर जाता.और उस महान किस्सागो के होठ हठात कह उठते- “ओह, कराची की गाड़ी भी आ गयी.चलो रात बहुत हो गयी.तो बातपोशों के गाँव में से जिसकी इस वक्त भौगोलिक स्थिति मेरी स्मृतियों के किसी खोखल में है, मैं तलाशता हूँ बात पेश करने का हुनर जिससे तुम्हारे सामने दे सकूँ सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति.उस वक्त मैं अपने मौलिक संकोच को कहीं छोड़ता अपनी बात अपने स्वर यंत्र से नहीं कई योजन दूर की स्मृतियों से निकालता हूँ तुम्हारे किसी अवश्यम्भावी वाह की प्रतीक्षा में.कि तुम सुनती रहो और बात मेरी टूटे देर रात की किसी गाड़ी के सीटी देने से.

Thursday, October 20, 2011

एक गलत नंबर का चश्मा भी नहीं था सही विकल्प



यूं तो सिर्फ वो ही नहीं था

जो अंक गणितीय पूर्णता के साथ

यहाँ आया था

सबसे हरे पत्ते में भी ढूँढा जा सकता था

एक सूक्ष्मदर्शीय पीला चकत्ता

उसैन बोल्ट के फेंफडों में भी पाया जा सकता था

कोई विकार

आइंस्टीन के जीवन का भी कोई वाकया

साबित कर सकता था उसे उस क्षण में

मंद बुद्धि.

पर उसका मामला यूं कुछ अलग भी था

सुबह आँखें खोलते ही दुनिया जिस आक्रामकता के साथ

घुसी चली जाती थी

उसके दृष्टि पटल पर एक विस्फोट के साथ

आवाजों का एक कर्कश हुजूम

त्वरा के साथ गिरता कान के परदे पर

छील जाती थी उसकी त्वचा का आवरण

वो अनिमंत्रित पर अवश्यम्भावी मुलाकात

खिडकी से आती धूप में

नज़र आते थे तैरते

उसकी मृत कोशाओं के छिलके

ये उस रोज़ की दुनिया से

उसका पहला घर्षण होता था.

वो शायद इस योग्य दुनिया

का तगड़ा विकल्प नहीं था.

बेहतरीन से बेहतरीन दर्जी की जींस भी

उसकी देह का आकार नहीं ले पाती थी

उसे उसके स्वाद की चाय और

उसकी पसंद की कलम आज तक

नहीं मिली थी

जैसे उसकी स्वाद-कलिकाओं को

विलक्षण जायकों में से भी सबसे सुलभ का

हकदार भी न माना गया हो.

और न ही इस लायक भी कि वो

लिख सके अपनी जिंदगी के साथ

कोई सम्मानजनक इकरारनामा.

उसकी सोच की हद यहीं तक थी कि

एक गलत नंबर का चश्मा भी

दुनियां को उसके त्रिआयामी यथा रूप से

धकेल नहीं सकता था

मज़बूत से मज़बूत अवरोध भी

रोक नहीं सकता था

कानों में

उस काल भैरवी हुंकार की धमक

और न कोई मलहम दे सकता था

रोशनी के धुंए में उड़ती

निर्जीव कोशिकाओं को चिरंजीविता.

Thursday, October 6, 2011

दो बहनें


बड़ी बहन का स्वप्न

उसके सपने में है एक बड़ा घर. सफ़ेद दीवारों से बना. आँख की पुतलियों के व्यस्ततम समय में रचा गया ये घर अक्सर उसके सपनों में आता है.और नींद से लेकर जागने तक की दुनियाओं में उसका पीछा करता रहता है. नींद और जाग की दो दुनियाओं के बीच भी बहुत कुछ होता है. आँख का खुलना और बंद होना सिर्फ सोये और जागे में देखना नहीं है.पलकों की हर एक झपक जैसे इन दो स्थितियों के बीच के कई वैकल्पिक विश्व क्रमवार सामने रखती जाती है. पर सफ़ेद दीवारों वाला घर हर बनते बिगड़ते भूगोल में रहा है, बिलकुल एक जैसा.कम ही ऐसा होता है कि जागने के कम उपलब्ध चिल्लर समय में उसे वो घर न दिखाई दे.पर हां इसके आसपास का भूदृश्य कई बार वो खुद चुनती है.चुनकर हटाती है,कुछ नया रखती है, फिर हटाती है. केन्द्रीय भाव को यथा स्थित रखे रखे.

उसके सपने में लॉन की आराम कुर्सी पर दादी बैठी है. बरसों पुराना अखबार उसके हाथ में है.वो हमेशा वही पुराना अखबार पकडे रहती है.इसका कारण कुछ भी हो सकता है. जैसे कुछ भी पढ़ना.अखबार की ओट में छुप सकने की सहूलियत भी एक अन्य कारण हो सकता है.कोई सोचेगा कि अखबार पढ़ रही है या ज्यादा से ज्यादा कि चेहरे पर पड़ती धूप से बचाव हो रहा है.

दादी की आँखों पर एक विशाल फ्रेम वाला नज़र का चश्मा है पर उसका चेहरा इतना निश्चेष्ट है कि सोचना ज़रा मुश्किल है कि वो सो रही है या अखबार पढ़ रही है.

एक अदेखा पक्षी पास में खड़े पेड़ पर बैठा है. वो अकेला विदूषक की तरह हरकतें कर रहा है जिससे पता चलता है कि ये सब एक थिर चित्र मात्र नहीं हैं.

और वो खुद एक भारी लिबास में चल रही है.इस बेहद भव्य,भव्यतम लिबास को ज़मीन पर घिसटने से बचाने के लिए छोटी बहन निचले किनारे से उसे उठाए साथ साथ चल रही है.

छोटी बहन का स्वप्न

छोटी बहन के सपनों में रंगों को लेकर अजीब सा उत्साह था. उसके सपनों में चटख रंग बिखरे रहते.मटमैले, धूसर रंगों से उसे ख़ास चिढ थी. चिढ तो उसे खैर रोज़ होने वाले रोज़मर्रापन से भी थी.इसीलिए शायद उसके सपनों में चाँद गायब था और उसकी जगह कोई चमकीला नीला आकाशीय पिंड आकाश के वितान में लटका रहता था. सितारे अपनी मद्धिम टिमटिम से राख न गिराकर स्वर्णिम आभा से दिप दिप किया करते.

घर की दीवारों से वो आराम से गुज़र सकती थी. उसमें से होकर. मां, दादी भी ऐसा कर सकते थे.गुरुत्वाकर्षण के नियम में भी उसके लिए कुछ छूट थी.

एक दिन बड़ी बहन भी उसके पीछे दीवार में से होकर गुजरने लगी तो उसका सर टकराकर रह गया.उसके लिए दीवार एक दम पत्थर की हो गयी. वो बड़ी बहन को देखकर हंसने लगी और कहा तुम हमेशा थोड़े ही ऐसा कर सकती हो. मैं जब अपना मैजिक वॉन्ड घुमाती हूँ तभी ऐसा होता है. ये लो कह कर उसने अपना मैजिक वॉन्ड बड़ी बहन पर घुमाया और कहा अब तुम दीवार में से होकर जा सकती हो.

कुछ इस तरह से आते थे उनके सपने.वे दोनों सपने भले ही अलग अलग देखती थीं पर उनमें भी वे बहनें ही हुआ करतीं थीं.


(चित्र साभार- विकिमीडिया)

Sunday, September 18, 2011

साईकल की घंटी


वो मानता था कि नामों का भी भूगोल होता है.

हनुमान जी का ये मंदिर उसे प्रिय था क्योंकि पूरी पृथ्वी पर यही एक जगह थी जहां उसे वो पहली बार मिली थी.धीरे धीरे उसकी आस्था हनुमान जी में भी बढती गयी, पर उसे हनुमान नाम काफी सुदूर सा लगता था.उसके परिचित भूगोल के आसपास का नहीं. इसी वज़ह से उसने हनुमान जी को 'हडुराम जी' कहना शुरू किया था. ये नाम पडौस का ही लगता था. इस तक पहुंचा जा सकता था. उसका सोचना था कि इसमें खासा तर्क भी था. आप सिल्विया की बजाय सीमा तक अधिक आसानी से पहुँच सकते है.या मार्था की बजाय मीरा तक.अपने अपने तर्क हैं. और हर तर्क अंततः अब्सर्ड ही होता है.

इस मंदिर में खासी भीड़ रहती थी.खास कर मंगलवार को.उसे बाद में पता चला की शनिवार को भी वीर बजरंगी अपना दरबार लगाते हैं. इस दिन भी भीड़ कोई कम नहीं होती. ऐसे ही एक भीड़ भरे वार को उसने उसे देखा था.मंदिर के पास. हालांकि परिचय थोडा अधिक पुराना था पर इस जगह उस दिन उसे देखना एक अलग ही अनुभव था उसके लिए.परिचय इतना भर था कि दोनों इस धरती पर उनके देखी किसी जगह पर रहतें है,बस! चौमासे के दिनों में बादल कई दिनों के छलावे के बाद सच में उस दिन कुछ करने पर उतारू थे .शाम कुछ पहले ही अँधेरी हो गयी थी.और इतने लोगों के साथ मंदिर, उसकी ध्वजा और ड्योढ़ी पर गेरुए में बैठे भिखारियों के साथ प्रसाद बेचने वाले सौदागरों की अन्यथा रंगीन दिखने वाली छवियों को श्वेत श्याम चित्रावली में बदल दे रही थी.ये उसे पता नहीं था कि उसका, उसे, यहाँ मिलना कितना आकस्मिक था और कितना सुचिंतित.या शायद दोनों में से कुछ भी नहीं.मंदिर और महात्माओं के साथ चौमासे का ये सुरमई पल सबसे बड़ा उद्दीपक था जिसने उनके बीच के तार में विद्युत धारा बहा दी थी. कोई ख़ास क्षण उत्प्रेरक बन बैठता है.कुछ कुछ वैसे ही जैसे ट्रेन के डिब्बे में सामने बैठी कोई अनजानी लड़की कभी कभी सबसे करीब हो सकने की लालसा से भर देती है. इसमें भी पटरियों पर भीषण गतिमान, बीहड़ के बीच फिसलते वक्त में सब कुछ बेहद कीमती और जीवन से भरा लगने लगता है.ऐसे ही सर्वथा उचित पल को लपकने का मन करता है.पर ये अक्सर अनायास ही, बिलकुल अनपेक्षित रूप से उपस्थित हो जाया करता है.

प्रेम सबके जीवन में आता है.इसके आगमन को समझने के लिए किसी महान किताब को पढ़ना ज़रूरी नहीं है,किसी क्लासिक फिल्म को देखा होना भी अनिवार्यता नहीं. कान नाक या नेत्र खुले रखना भी कतई शर्त नहीं.चाय के ढाबे पर या नाई की दुकान पर जागते या सपने में एक दिन अचानक इसका आगमन होता है और ट्रेन के डिब्बे में बैठे बैठे इंजन लगने के धक्के की तरह ये पूरे भार के साथ अपनी अनुभूति करा देता है.एक बार, कम से कम एक बार ये हरेक में उतरता है.गंजेड़ी चिलमची साधू गृहस्थ मुनीम व्यौपारी जवान अधेड खिलाड़ी भिखारी. सब के भीतर.

तो वो कोई अपवाद तो था नहीं. पर उसे विश्वास नहीं हुआ कि भाई बहनों में सबसे नाकारा माना जाने वाला वो शख्स जिस पर बड़ी भाभी कई बार इलज़ाम लगा चुकी थी कि वो फ्रिज में से फ्रूट चुरा कर खाता है और जिसकी गवाही भैया ने भी दी थी, इस लायक माना जाएगा कि वो प्रेम का स्पर्श कर सके.

पर था कुछ ऐसा ही. घर से पहले अच्छी खासी चढाई और फिर सीधी ढलान के आखिर में था ये मंदिर.वो साइकल को चढाई पार कर वहाँ लाता जहां से ढलान शुरू होती थी.और वहाँ वो दो एक मिनट सुस्ताता.ये ख्याल उसमे पर्याप्त ऊर्जा भर देता कि अब साइकल की ढलान यात्रा शुरू होगी.साइकल को ढलान पर लुढकाना उसे बहुत अच्छा लगता था.इन दिनों वो ढलान रहते लगातार घंटी बजाता रहता.उस गबदू को ऐसा करना सिर्फ सुहाता था बस. पर कोई अक्लमंद भी सोच सकता है भले जिसकी मति इश्क में अभी मारी नहीं गयी हो, कि असल में साइकल की घंटी कुछ सबसे चुनिन्दा रूमानी ध्वनियों में से एक होती है.

मौसम की पहली बारिश जैसी पवित्र शीतलता और कहीं नहीं होती. उसी बारिश में एक बार मंदिर तक जाती ढलान से वो साइकल पर उतर रहा था.फुहारों के नर्तन के साथ साइकल की घंटी की गूँज दिव्य जुगलबंदी कर रही थी. मंदिर की आरती के समय बजने वाली घंटी में अभी देर थी. पर उसका यहाँ आने का क्रम पिछले कई सालों से था. लड़की अरसे से यहाँ नहीं आ रही थी. बल्कि वो इस शहर में थी भी या नहीं ये भी तय नहीं था.उसके और लड़की के बीच इस बारे में कोई संवाद नहीं हुआ था. सच तो ये था कि उनके बीच में आज तक किसी तरह का कोई संवाद नहीं हुआ था. ये परिचयहीन प्रेम था. अनाम. सम्बोधनरहित. निराकार. निरुद्देश्य. गंतव्य से परे.

उसकी साइकल की घंटी में मिठास आज भी वैसी ही थी.



( photo courtesy - NoiseCollusion )

Wednesday, August 31, 2011

बारिश से ठीक पहले


ऊपर आसमान में घने बादलों भीड़ थी.शाम का वक़्त था पर रौशनी बहुत तेज़ भागती कहीं दूर जा पहुंची थी.ये शाम हर रोज़ जैसी नहीं थी.कुछ कुछ ज़िंदगी की शाम की तरह भारी, अवसाद से भरी हुई. अजीब सी घुटन फेफड़ों को मसल डालने में लगी थी. और गर्मी तो ऐसी कि कछुए की खाल तक से पानी निचोड़ दे.हवा में हल्कापन बिलकुल नहीं था.वो सब कुछ को पृथ्वी के गुरुत्व के हवाले करती जा रही थी. बाकी दिनों में गर्व के साथ आकाश बींधती ऊंची ऊंची इमारतें आज ऐंठ कर दोहरी होना चाहती थी.अपनी पीठ न खुजा पाने की बेबसी से भरा दुर्ग अपने शिल्प की तमाम शास्त्रीयताओं को तोडना चाह रहा था.

ये जानलेवा उमस काले, ठोस बादलों के अभेद्य आवरण में एक अजीब सी तड़प भर रही थी जो कुछ कुछ सृजन की इच्छा जैसा था. रोड लाइट से रौशनी के साथ स्लोमोशन में झरते कीट अपने सर्वश्रेष्ठ समय में जी रहे थे.उनके गिरने का अनुमान भौतिकी का कोई भी नियम नहीं लगा सकता था.ये बारिश से ठीक पहले का समय था इसे कोई भी बता सकता था पर साथ ही ये भी बात सही थी कि बारिश के ठीक पहले के इस समय के बाद बारिश होगी ही इसे कोई भी ठीक ठीक नहीं कह सकता था.इस वक्त कहीं भाग छूटा जाय इसकी कतई चाह नहीं थी,जो शिद्दत से महसूस होता था वो ये कि सीधे ऊपर उड़ लिया जाय और बेहतर तो ये कि कोई धरती के पलायन वेग की सीमा से परे जाकर प्रक्षिप्त कर दे आसमान से भी ऊपर कहीं.

पर सब कुछ पृथ्वी के हवाले किया जा चुका था, उसका गुरुत्व असीम था. सतह के साथ बंधे होना ही जैसे पर्याप्त नहीं था, एक तलहीन गड्ढा खींचता था अपनी ओर. और हमारी आँखें देखती थीं स्वप्न अपनी मांद का.



(photo courtesy- dbgg1979)

Tuesday, July 26, 2011

ठेले पर कमीज़


पुराने शहर की तंग गलियाँ. इतनी तंग कि कितना भी बचें आपके कंधे इन्हें तकरीबन छूते हुए ही आगे बढतें है. पर चिंता की कोई बात नहीं, बरसों के मानवीय स्पर्श ने इनके कोनों को काफी दोस्ताना बना दिया है.हां चलते वक्त फर्श के चिकने हो चुके पत्थरों का ध्यान रखना ज़रूरी है.

इनमें से एक गली सुस्त क़दमों से आगे बढती एक छोटे से चौक में खुलती है.जहां छोटी छोटी दुकानों का अजायबघर है. कहीं से तेल में खौलते समोसों से आती भारी गंध है. कोने में एक मंदिर है जिसकी जीर्ण शीर्ण पताका ऊपर की स्फूर्त हवा में कांपती है.एक बीमार गाय, जिसके थूथन से कोई तरल बहता रहता है,इस चराचर जगत के दयनीय होने की घोषणा करती है.यह डिब्बे झाडू हमामदस्ते सिलालोढ़ी वगैरह का प्रागैतिहासिक संसार है.

यहीं एक ठेले पर बिकते है कमीज़, पतलून, फ्रॉक, बंडी जैसे रेडीमेड कपड़े.कभी किसी समय में इस्तेमाल किये हुए फिर घर घर फेरी लगाने वालों को बेचे हुए, जो गठरी में बंद पड़े पुरानी फैशन के कपड़े तौल के भाव ले जाते है और बदले में स्टील का कोई छोटा मोटा बर्तन दे जाते है. घर वाले भी खुश कि पुराने कपड़े किसी काम तो आये. देखिये ये शर्ट सिर्फ साठ रूपये का है.धुला हुआ, इस्त्री किया हुआ.कोई अच्छे ब्रांड का लगता है.पहली बार खरीदा गया होगा तो सात आठ सौ से कम का क्या होगा. अब फिर से इसे कोई पहनने के लिए ले जाएगा. सिर्फ साठ रुपये में. मौल भाव थोड़ा ठीक से किया जाय तो पचास में भी हाथ लग सकता है. पर ये कमीज़ बाकी पड़े कपड़ों के ढेर से कुछ अलग लगता है.हाथ में उठा कर देखो तो सिर्फ इसके कन्धों से रंग थोड़ा फीका पड़ा है. हो सकता है इसी वज़ह से इसे पहनना बंद किया गया हो.क्या इसे शादी कि पहली एनिवर्सरी पर पत्नी ने उपहार में दिया था? नहीं, फिर तो ये यहाँ नहीं हो सकता. पर कमीज़ दुल्हन के शादी के जोड़ों की तरह सम्हाल कर कहाँ रखे जाते है? इसे संदूक में जगह नहीं दी गयी होगी. ये जिस दिन गठरी में आया उसी दिन से नश्वर हो गया.

ये बात अलग है कि पुराने कपड़ों के ढेर में जाने में जाने से ठीक पहले इसका अपना एक व्यक्तित्व उभर आया था.
कितनी ही बार पत्नी की उँगलियों का स्पर्श इसके ऊपर वाले बटन पर दर्ज है.इस दौरान कितनी ही बार ऑफिस जाने के ज़ल्दबाज़ पलों को धता बताकर पत्नी के हाथों को थाम लिया गया होगा.जाने कितनी बार कमीज़ के खुले बटन से होकर स्त्री का चेहरा पुरुष के सीने में धंसा होगा.उसके पसीने की पौरुषेय गंध से भरी उमस को महसूसते हुए. साठ रुपये की इस कमीज़ में कितना कुछ अंतरंग और कितना कुछ गोपन बसता है! इसके कन्धों से रंग ज़रूर फीका पड़ गया है पर इसके तंतुओं की मज्जा में घुले प्रेम के चटख रंग क्या इतनी जल्दी चले गए होंगे? स्वेद में घुली वो मीठी सी घुटन जो पत्नी ने महसूस की होगी उसकी गंध क्या अब जाती रही होगी? या अनगिन बार इसकी सतह पर नामालूम वजह के उसके आंसूं क्या इतनी जल्दी डिटर्जेंट से साफ़ हो गए होंगे?यहाँ तक कि पुरुष के कमज़ोर क्षणों में भीगी आँखों को भी इसकी आस्तीन ने ही सहलाया होगा, उसकी स्मृतियाँ बाजुओं पर अंकित नहीं रही होंगी?

शाम तक सिर्फ साठ रुपयों में ये कमीज किसी और घर की खूँटी पर टंगी होगी. इसे कल पहना जाएगा.


( photo courtesy- jude hill )

Wednesday, July 20, 2011

जीवन की आंच में प्रेम के स्फुलिंग


मैं इस पर कुछ दिन पहले लिखना चाहता था जब विषय वस्तु और चित्रावलियाँ अपने सघन रूप में मौजूद थीं और मन इसी के आस पास टिका था.तब सोच भी बार बार इसी सवाल के गिर्द थी कि सब कुछ भयावह के बावजूद प्रेम यहाँ कितना सुंदर है! धीरे धीरे सरलतर होता हुआ अंततः जिसका रेशमी सूत्र सुंदर और ऋजु होकर हमारे पास रह जाता है.अब फिल्म की कई बातें तभी दिमाग में आएँगी जब इसे फिर से देखा जाएगा पर कथानक की चौहद्दी और उसका असर अभी भी सुरक्षित सा है.

जितना याद रह गया है उसके मुताबिक़ फिल्म ' नेवर लेट मी गो' दो लड़कियों और एक लड़के की कहानी है जो परस्पर प्रेम के त्रिकोण में कैद हैं.ये तीनों बचपन से ही एक रिहायशी स्कूल में पढते हैं जहां बहुत सारे दूसरे बच्चे भी रहते हैं. एक दिन एक टीचर उन्हें बताती है कि वे सब असल में दूसरे लोगों को अपने महत्वपूर्ण अंग दान करने वाले है और उनकी जिंदगी का और कोई मकसद नहीं है. उन्हें इसी लिए दुनिया में लाया गया है ताकि थोड़े बड़े होने पर उनके अंग एक एक कर बीमार लोगों में प्रत्यारोपित किये जा सकें.
वे सब एक नज़रिए से अपने शरीर को शनैःशनैः गिराते किसी भूतहा हिमालय की यात्रा पर है जहां से मृत्यु तक वे एक पूर्व निर्धारित मार्ग से पहुंचेंगे.

इस जानकारी के बाद मृत्युबोध लगातार एक कूबड़ की तरह साथ बना रहता है.दोनों लड़कियों में से एक का प्रेम उदात्त है और दूसरी का ईर्ष्या, अधिकार और जीतने के भाव वाला.इस तरह ये असल में त्रिकोण न होकर एक जटिल ताना बना है जो अपने सरलतम रूप में तभी आ पाता है जब देह अंग विहीन होती छीजने लगती है.आखिर में एक लड़की अपना अधिकार ईर्ष्या और जय सब छोड़ देती है और बाकी दो विशुद्ध प्रेम में आतें हैं और पहली बार मृत्यु के आयत से बाहर आने के लिए असफल प्रयास करतें है.

इस कल्पित दुनिया में जीने वालों के लिए भी बेहतर जीवन के साधनों की आकांक्षा नहीं पनपती. जो सहज रूप में उनमें उपजता है वो है प्रेम. हम नहीं जानते कि जिनकी देह एक विराट प्रयोग का हिस्सा भर है और आत्मा सिर्फ मृत्यु बोध से भारी उनमें प्रेम किस तरह आता है पर फिल्म बताती है या ये कल्पना करती है कि उनमें भी प्रेम सहजता से आ सकता है. जटिल समाजों से उपजी स्मृतियों के बिना भी प्रेम अपने गुम्फित ताने बाने के पूरे लाव लश्कर के साथ आ सकता है. और वो आखिर में जीवन की तीव्र लालसा पैदा करता है. वो जीवन मांगता है. 'मृत्यु के साथ और उसके बाद भी' वाला किताबी प्रेम यहाँ खारिज है. उसे जीवन चाहिए लंबा नहीं पर भरा भरा सा.