Tuesday, December 1, 2015

बाज़ार और बैंचें

एक लम्बी सड़क थी जिसके दोनों ओर श्रृंखला में दुकाने ही दुकाने थीं । सड़क के इस तरफ और सामने दुकानों के बीच फासला बहुत कम था। सड़क एक पतली सी पट्टी थी। एक ग्राहक को सड़क लांघ कर सामने जाने की ज़रुरत नहीं थी। वो लगभग फुसफुसा कर भी सड़क के उस ओर की दूकान वाले को अपनी कोई बात कह सकता था या किसी चीज़ के बारे में पूछ सकता था। सड़क एक निरंतरता में पुराने बाज़ारों से होकर चलती थी।यानी दोनों ओर की पच्चीस-पचास दुकानें एक ही तरह की चीज़ों से पटी पड़ी होतीं फिर उससे आगे नए ही तरह के सामानों से भरी  दुकानें आ जातीं। पान सुपारी तमाखू रस्सियाँ मूँज चूर्ण वगैरह की चीज़ों का मार्किट ख़त्म होता तो कपड़ों का शुरू हो जाता । कपड़ों का बाजार पीतल कांसे और स्टील के बर्तनों की दुकानों से मिलकर विदा लेता था।धात्विक बर्तनों से टनकता ये बाज़ार आगे उस बाज़ार के आने पर ख़त्म हो जाता जहां चूड़ियाँ मालाएं नकली आभूषण रेडीमेड कपड़े वगैरा मिलते थे। दुकानों का सिलसिला एकबारगी एक पुराने मंदिर के चौक में ख़त्म हो जाता था। मंदिर का चौक छोटा ही था पर अब तक चले आ रहे संकरे रास्ते के लिहाज़ से बड़ा और खुला खुला सा लगता था। यहां अधेड़ और बूढ़े लोग ज़्यादा जमा होते थे।वे इस चौक के आसपास ही कहीं खड़े या बैठे रहते थे।दुकानें और बाज़ार सुबह दस ग्यारह बजे के आसपास गर्म होते और रात आठ नौ बजे के करीब ठन्डे पड़ने लग जाते। पुराने बाज़ार देर रात तक नहीं चला करते।इस लिए यहां के बाज़ार भी दिन के बाज़ार ही थे पर ये मंदिर-चौक सुबह जल्दी चेतन हो जाता और रात में बाज़ार बंद हो जाने के बाद भी हलकी चहल पहल बनाए रखता। दिन में बेशक इसकी गतिविधियाँ पाने उच्चतम बिंदु पर रहतीं।

चौक में कबूतरों के लिए अनाज के दाने भी एक ओर फेंके जाते थे। सुबह की धूप में कबूतरों के झुण्ड समूह-भोज में व्यस्त हो जाते थे। आसपास बैठे वृद्धजन पार्श्व में बजती कबूतरों की गुटरगू से बेपरवाह आपस में बातें करते रहते थे।यहां कुछ ठेले वाले भी थे जो कुल्फियां और नर्गिस कोफ्ते एक साथ बेचते थे।इन ठेलों के आसपास भिखारी  भी खड़े रहते जो दिन भर में कुछ न कुछ पा ही जाते थे। वक्त के साथ इन भिखारियों के चेहरों से दयनीयता जाती रही थी। समुदाय और व्यक्ति दोनों रूपों में भिखारी अपरिचित ही बने रहते है। एक ही मोहल्ले में आने वाले भिखारी सालों बाद भी वहां रहने वालों से दोस्ती का रिश्ता नहीं जोड़ पाते। पर यहां के भिखारियों ने अगर अपने चेहरे से बेचारगी का अस्त्र खोया था तो 'अनौपचारिक होकर मांगने' का बख्तर भी पहन लिया था। वे इस चौक में मांगने को हक़ की तरह इस्तेमाल कर किसी को भी चिढ़ा देने की हद तक परेशान कर देते थे। और लोग बिना परेशान हुए उन्हें कुछ न कुछ दे देते थे। ये इस स्थान पर आने पर किसी अनुष्ठान की तरह किया हुआ काम ही था जैसे।
कई बार भिखारी भीख प्राप्त कर लेने पर इस तरह ठहाका मारते थे जैसे देने वाला कोई बेवकूफ हो। कोई नया आदमी भिखारियों के इस तरह ठहाका लगाने पर झेंप जाता। पर जिनके  लिए यहां आना रोज़ का काम था वे इस पर ध्यान नहीं देते थे।पतली सड़क और ऊंची दुकानों के बीच मंदिर-चौक की तरह कई और चौड़े स्थान बीच बीच में आते रहते थे। सड़क दोनों और दुकानों की लम्बी श्रृंखला के बीच की संकीर्ण विभाजक रेखा थी। ये लाइनसर दुकाने मध्यकालीन बाज़ारों के हिस्से थीं। बाज़ार अगर कहीं थक जाते तो वे एक छोटे चौक में सुस्ताने लगते। इन छोटे स्पेस में हवा अपेक्षाकृत पतली और स्फूर्त होतीं।लोग अपनी हड़बड़ी छोड़ आराम की मुद्रा में रहते। और यहां से निकलते ही फिर दुमंजिला तिमंजिला दुकानों की लड़ियों में लोग दम भर सांस के लिए जगह ढूंढने लग जाते। लम्बे संकरे मार्ग के बीच बीच में हवा से नहाए खुले चौक दुकानों के साथ चलते चले जाने वाले लंंबे रास्ते के भी सुस्ताने के ठिकाने थे जो याद  दिलाते थे कि मंज़िल से ज़्यादा रास्तों के बीच पड़ी बैंचें चाहत जगाती हैं।

Wednesday, October 14, 2015

कोलतार की शै

इस शहर की एक सड़क ऐसी थी जो उसके दैनंदिन विश्व के भूगोल से बाहर लगती थी.ये किसी अजाने क़स्बे की सड़क लगती थी,यद्यपि ये थी उसी शहर में जिसमें वो रहता था.वो शहर की आतंरिक संरचना का भाग नहीं लगती थी.वो शहर के अंगों-उपांगों में से कोई एक नहीं लगती थी.ऐसा सिर्फ उस सड़क के मिज़ाज के कारण नहीं था.न जाने क्यों उसका रंग भी शहर की बाकी सड़कों जैसा नहीं था.वो काली न होकर हरी- मटमैली सी दिखती थी. और करीब आने पर वो किसी और तरह के हलके रंग में दिख जाती थी.वो कोई पुरातात्विक रचना नहीं थी यद्यपि वो कई प्राचीन इमारात के करीब से सकुचाती सी चलती थी.सड़क की ऊपरी ओपदार परत इतनी आश्वस्त करती थी कि जैसे आसपास के पुरातात्विक मलबे को वो अकेली थिर रखे हुए थी.यूँ वो दिखने में ठोस थी पर उस पर चलते वक्त लगता था जैसे वो रेत पर चल रहा हो.क़दम रखते ही जूते के ठीक नीचे का हिस्सा किसी मखमली चूर्ण में बदल जाता था और आगे बढ़ते ही सारे अणु जैसे सटकर फिर से ठोस रूपाकार में आ जाते थे.

 उसका उस सड़क पर जाना कम होता ही था. पर उस पर चलना हमेशा जैसे उस के साथ चलना होता था. शहर की बाकी सड़कें खुद मुर्दा लगतीं सिर्फ़ उनके गिर्द का परिदृश्य ही ज़िन्दा कहा जा सकने वाला था.इस एक सड़क के साथ ऐसा नहीं था. वो कभी भी एक निर्जीव काली चपटी पट्टी नहीं लगी.वो बल्कि करतब करने वाली कोई शै लगती थी. वो नगर की प्राचीन प्रोलों के भीतर से गुज़र कर कई घरों और आटा चक्कियों से सट कर चलती थी.वो ब्लाउज मैचिंग की दुकानों को करीब से झांकती चलती थी.उसके ठीक ऊपर लटके बिजली के सामानांतर तार अपने ऊपर के आसमान को इस तरह प्रस्तुत करते थे जैसे वो कोई सलेटी आइना हो और उसमें सड़क का प्रतिबिम्ब देखा जाता तो वो तारों पर झूलती नज़र आती.

सड़क सबसे चुलबुली पतंग और मांझे की दुकान के पास होती थी.सड़क को समकोण पर जिस जगह एक गली काटती थी ये दुकान ठीक वहीं थी.यहाँ सड़क बच्चों के शोर और साइकल की घंटियों से गूंजती रहती.ऐसा नहीं है कि सड़क इसी जगह शोर करती थी बल्कि वो हर कहीं एक बोलती सड़क थी.सड़क पर वैसे भी ट्रैफिक ठसाठस और निस्बतन सुस्त ही रहता था.यहाँ खड़ी,रेंगती और चलती गाड़ियों का अपना शोर था.इस पर ट्रैफिक चलने और रेंगने की गति में ही सीमित रहता था पर जहां जहां इसके साथ गलियां मिलने आतीं थीं, वहां तो वो रुंधा हुआ ही मिलता.फिर किसी की पहल पर वो रफ़्तार पकड़ने लगता.अगर कोई पहल न करे तो किसी को कोई जल्दी नहीं थी.शहर की मुख्य कही जाने वाली सड़कों पर जो जल्दबाज़ी मची रहती थी वो यहाँ नहीं दिखती थी.

सड़क पर सब कुछ बहुत करीब से और चुपचाप घटता था.लोग आपस में रगड़ खाकर गुजरते तो भी नज़रंदाज़ कर चले जाते थे.इस पर चलते समय वो आदमी बार बार चिकोटी काट कर अपने को 'रियल' साबित करता था.

Monday, August 17, 2015

फिल्म-सिन सिटी

चित्रकथाओं के आरेखों ने जो काला धुंआता अँधेरा रचा था,स्क्रीन की चमक में वो और भी वाचाल हो गया.

एक काले,कीच से सने,बारिश की लकीरों में भीगकर ढीठ हुए, टार के चिपचिपे गड्ढों से भरे एक शैतान शहर में खून का रंग भी सफ़ेद है.

एक पैदाइशी हत्यारा, जिसके चौंध मारते चश्मे के पीछे किसी स्कूली बच्चे का चेहरा है.वो मासूमियत के पीछे छुपी क्रूरता नहीं है, वो क्रूरता की हदें लांघ चुकी मासूमियत है.अपने वध होने के अंतराल में भी उसके मुंह से कोई चीत्कार नहीं.बस एक भयावह मुस्कान.अंत तक. वो शिष्ट हत्यारा लोगों के धड़ तक के हिस्से का भक्षण कर उनके सर दीवाल पर टांग देता है.इतने से ही जुगुप्सा होने लगती है. पर वो पढ़ाकू मनुष्यभक्षी तो इससे भी आगे जाकर 'उन सबकी आत्माओं को भी कुतर कर खा जाता है'.

इस पाप नगरी में जीवन नहीं जीवन का उच्छेद रोज़मर्रा का सच है.जीवन एक शापित शब्द है और मृत्यु शुभ्र.शुभ्र इसलिए कि मृत्यु यहाँ नहीं दिखाई देती,वो किसी और भूगोल में कब्र के नीचे सो रहे लोगों के शांत चेहरों पर ही हो सकती है.इस लिजलिजे कीचड़ में जीवन का स्वाभाविक समापन नहीं होता,वो मज्जा तक पीटी-कुचली गयी किसी एक देह से दूसरी देह तक भागता है,भय से भरा.और फिर तीसरी,चौथी, करते करते आखिरी देह तक. 

यहाँ हाथ हत्यारे है,आँखें शिकार ढूंढती है,पाँव भागते है,और शरीर भोग का आयतन है.ये कोई शहर है इसका अंदाज़ा इसी से ही लग पाता है कि उसकी कुछ संस्थाओं के नाम इधर उधर पहचान में आते हैं.
सुन्दरता छलावा है,जीवन को यहाँ भी ठौर नहीं.प्रेम नहीं एक बेचैनी है. चाहना नहीं भोग है.इस भोग और आत्मा कुतरने में कोई फर्क नहीं.दोनों भूख का विरूपण है.

एक पीला शैतान इस भोग और भोज का कातिल संयोग है.एक खतरनाक मिश्रण.उसे चीखते बच्चे चाहिए.उसका पीला शरीर परपीड़ा के नीच आनंद और भोग की अधम लिप्सा से बना शैतान है.
जहां एक पढ़ाकू हत्यारा अपने वध की पीड़ा में मुस्कुराकर और भयानक हो उठता है वहीं इस पीले शैतान के दिए घावों में भी एक लड़की का अपनी चीखें रोकना एक साहस लगता है.यहाँ एक चुप्पी हत्यारी है तो एक चुप्पी मानवीय. हां बस इस शहर में यहीं एक-दो जगहों पर ये अहसास होता है कि ये सब हमारी ही दुनिया का शहर है.ये हमारे कोई बहुत निकट के शहर की दास्तान है.सफ़ेद रक्त में लिखी.

"एक बच्ची जीती है,
एक बूढ़ा मरता है.
सौदा बुरा नहीं है". 
ये कहता हुआ जब कोई मृत्यु के शांत,निस्पंद जल में उतरता है,अपने ही हाथों,तो वाकई हम भय से और सिहर उठते है.ये कोई चित्रकथा में रेखाओं का जाल तोड़कर परदे पर चलती सुदूर,सौरमंडल से परे की कहानी नहीं,हमारे निकट की,और शायद हमारे भीतर की भी,कहानी है.ये मृत्यु तो हमारी कामनाओं की मृत्यु है.ये जीवन की भयाक्रांत दौड़ नहीं जो 'सिन सिटी'में शवों से भाग छूटती है,ये जीवन की पूर्णता की हैप्पी एंडिंग है. जिंदगी के युवतर हाथों में जाने की आकांक्षाओं का  सिरफिरा प्रलाप हमारे स्मृति के तंतुओं में अब तक कहीं उलझा हुआ है.ये अब तक हमारी सामूहिक इच्छाओं का हिस्सा रहा है.ये हमारी समझ के इंसान की अंतिम इच्छा का पितृ-रूप है.

Friday, July 24, 2015

स्मृति में जुगनू

उसकी स्मृतियों में जिस कीट की फड़फड़ाहट सबसे ज़्यादा थी वो जुगनू था।उसकी स्मृतियों में जिस दिये का उजाला सबसे ज़्यादा था वो जुगनू था।उसकी स्मृतियों में देर शाम गाँव के जिस तालाब का पानी झिलमिलाता था उसमें क्षीण कौंध जुगनू की थी। 
उसकी याद में उमस भरी हर रात में ऊपर बादलों से रिसती सितारों की हलकी रौशनी थी तो उसी रात ज़मीन पर जुगनुओं की हल्की दिप  दिप भी।


और फिर भी उसने जुगनुओं को कभी देखा नहीं था। सच में उसने जुगनुओं को कभी नहीं देखा था।  बावजूद इसके, अगर स्मृतियाँ भौतिक तुलाओं से तौली जा सकती, तो उसकी स्मृतिओं के कुल भार का कई तोला जुगनुओं के हिस्से था और और यदि स्मृतियाँ बड़े तराजुओं से तुलती, तो कई सेर भार जुगनुओं का था उसके भीतर। 

और अगर स्मृतियों से कोई गाँव बसाया जा सकता, उसमें जुगनू उस गाँव के बड़े से तालाब के जल में वैसी ही हल्की चमक से कौंधते।


बड़ा मुश्किल होता है सोचना कि हमारे स्मृति लोक में ऐसी भी कोई चीज़ हो जिसे हमने अभी तक देखा न हो और उससे भी मुश्किल होता है ये सोचना कि उसका वज़न और आकार  भी इस कदर बड़ा हो। 



वो इस कीट के बारे में अक्सर सोचता रहता था। मतलब जब भी मौका हाथ लगता।और इस नाम के दिमाग़  में आते ही एक जलता बुझता सा चित्र भी उसके दिमाग में बनने बिगड़ने लगता। जुगनू की छवि उसके दिमाग में स्थिर कभी नहीं हो पायी। वो हमेशा बनती बिगड़ती रहती थी। कभी उस छवि में बेहद नन्हा सा कीट होता जो एक चमक को लिए मंडरा रहा होता, कभी सिर्फ रौशनी का नन्हा सा घेरा ही उस छवि में दीखता। इस घेरे की रौशनी दीवाली पर छूटती रंगीन दियासलाई की धुएँदार ऑलिव ग्रीन रौशनी की तरह होती। 




जुगनुओं के बारे में पढ़ने से या गल्प कथाओं में रखी किसी बोतल में इन्हें चमकते देखने से ये रिश्ता नहीं बना था। अगर ऐसा होता तो उसकी स्मृति में हमिंग बर्ड,पांडा या कोई कीटभक्षी पौधा भी इसी तरह की जगह अख्तियार किये होता।  किन्ही अदेखी सुन्दरताओं के बारे में सोचने भर से स्मृति के पात्र में उनका आयतन नहीं बनने लग जाता। सिर्फ सोच कर उन्हें स्मृति के अंश नहीं बनाया जा सकता।चीज़ें हमारी स्मृति की दलदली भूमि में धँसकर मैंग्रोव की तरह बाहर फूटती हैं तब कहीं जाकर एक जैविक रिश्ता बनता है।



उसकी स्मृति में जुगनू रौशनी की मूल इकाई की तरह से थे शायद। उसके लिए रौशनी का मतलब जुगनू से था। वो रौशनी को जुगनुओं से ही मापने लगा था। एक दिए की रौशनी यानी एक हज़ार जुगनू। एक बल्ब की रौशनी दस हज़ार जुगनू। दीवाली की रात पूरे ब्रह्माण्ड के जुगनू धरती पर उतर आया करते थे।




उसकी स्मृति में जुगनू थे। वो स्मृति को जुगनुओं के सहारे देखता था। यद्यपि उसने जुगनू कभी देखे नहीं थे।  

Friday, April 24, 2015

तीन रोज़ इश्क़- इस प्रिज़्म से कुछ देखते-दिखते हुए

इस किताब को अनगिनत रंगों  से लिखा गया है। पर इसका कोई भी रंग  हमारे किसी कलर कलेक्शन में नहीं है। हैं इसमें भी हमारे देखे हुए रंगों से मिलते जुलते रंग ,पर वे सिर्फ मिलते जुलते ही हैं। इनकी छटा और चमक स्वप्न के रंगों की है।ये रंग ड्राइंग शीट पर सपाट आकारों में भरे रंग नहीं हैं बल्कि अपने प्रवाह और गतिशीलता से एक सचल संसार की निर्मिति करते है।फिर अपने ही बनाए लोक के बाहर भी अपने गाढ़ेपन के साथ बहते भी रहते हैं. 

ये रंग हमारे गिर्द बहते हैं और हमें आवरित कर लेते हैं।सारे के सारे रंग जिस एक प्राइमरी रंग से निकले हैं वो है प्रेम। एक ही रंग प्रेम में रंगी, 'प्रेम-रंजित' होकर भी किताब एकवर्णी नहीं है, बल्कि यहां पूरा का पूरा विब्ग्योर है। बल्कि उससे भी पहले और परे को भी समाहित करती है ये किताब। 

हर कहानी हमारे सामने एक दुनिया खड़ी करती है और हम उस दुनिया को चमत्कृत से देखते रहते हैं।और देखते देखते हम अपना कोण थोड़ा बदलें तो उस दुनिया के नए ही चित्राम  हमारे सामने उजागर होते हैं।

अपनी रचनात्मकता में ये फंतासीलोक लगता है पर इन्हें छूकर या थोड़ा पलटकर देखें तो इसमें हमारी ही दुनियां नज़र आती हैं।प्रकारांतर से ये हमारी दुनिया पर लेखक का रंगावरण है। यूँ कह सकते हैं कि शायद हमारी अपनी दुनिया अपने स्वप्न में अपने आप को कुछ इस तरह का देखती होगी। इसमें भाषा अपने पूर्ण सौंदर्य के साथ दिखती है.

पूनम के चाँद में आलोकित कोई नदी जैसे किसी जगह बल खाकर अपने में बहती चांदनी को देखती हो। हर कहानी में कुछ कुछ ऐसे ही चाक्षुष बिम्ब लड़ियों में टंगे लगते हैं। और जब हम मानने लगते हैं कि सब कुछ चांदनी में नहाया, रूप-मुग्ध है तो आगे अचानक आई धूप में जैसे हमारी ही दग्ध दुनिया में आगे की कथा लौट आती है।चांदनी और धूप दोनों का दाह बराबर पर तासीर में एक दम भिन्न होने के कारण हम स्वप्न और जाग में डूबते उतराते रहते हैं।

इस किताब में इस तरह की दर्शनीयता का जादू इतना लम्बा है कि हम ये मानते रहते हैं कि कहानियां भले ही छोटी छोटी और अलग अलग हैं पर वे एक मधु-ताल में बहते नीले पात हैं जो मद्धम मद्धम एक ही दिशा में बह रहे हैं।

सब कहानियों पर,खैर ये बात लागू नहीं होती। क्योंकि संग्रह  में कई कहानियों हैं जो अलग अलग समय में लिखी गयीं हैं और इन पर अलग अलग चर्चा और तवज्जो की दरकार है। जो सही में इनके साथ न्याय भी होगा।

आकुल,तड़प से भरा,क्रुद्ध,हिंस्र,डबडबाया,मानवीय,दिव्य,वनैला सब तरह का प्रेम इसके पन्नों पर बिखरा है। कहीं नदी की धार में बहते चाहना के नीले दुपट्टों में असल कहानी के शुरू होने का इंतज़ार है,तो कहीं प्रेम में आत्मपीड़न के तीव्र आवेग को उलीच दिया गया है। कहीं वनगन्ध की स्मृतियों को पुकार है,तो किन्हीं पन्नों पर दवात से लुढ़का पड़ा नीला नास्टैल्जिया है। हम चाँद को यहां कई कई बार सिर्फ छूने लायक फासले पर पाते है। 
कितनी छोटी फिर भी कितने बड़ी हैं कहानियां।तहों को में लिपटी कहानियां। तहों को खोलने के लिए कई कई बार कहानियों को पढ़ना होगा। इन कहानियों की भाषा में भी वैविध्य है। इनमें कुछेक में अंगिका का लालित्य भी है। 

आखरी कहानी इस संग्रह की आखरी कहानी ही हो सकती थी। लेखक कहानियों की मोहिनी रचते रचते इस कहानी के इंद्रजाल में खुद भी आ जाती हैं। एक पात्र की तरह जैसे। खुद लेखक का ही रचा।
एक खूबसूरत, वास्तविक सी लगती दुनिया में लेखक की कलम के पात्र जुड़ जाते हैं और ये सब कुछ इतना सीमलैस है कि रचनाकार के लिए असंभव सा हो जाता है कि वो चयन कर एक परिधि खींच सके। इसमें यही स्वाभाविक है कि जो कुछ रचित है वो भी वास्तविक है क्योंकि उंसकी भी मन पर वैसी ही छाप पड़ती है जो अनुभूत की होती है।

प्रूफ की अशुद्धियाँ अखरतीं नहीं पर इनसे बचा जा सकता था।  

                 

                                

                                           कहानी संग्रह- तीन रोज़ इश्क़ 
                                            लेखक - पूजा उपाध्याय 
                                            प्रकाशक- पेंगुइन इंडिया 
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