Thursday, December 21, 2017

झूला पुल

क्या कोई खिलौना ट्रांजिस्टर बज सकता है?
क्या किसी नक़ली घड़ी की सुइयां चल सकती है?

उसके लिए इसका उत्तर 'ना' में नहीं था. 'हां' में भी नहीं था. बस शक और भरोसे के बीच निलंबित सा कुछ था. बात बहुत पुरानी हो गई थी इसलिए उसे खुद इस बात का विश्वास नहीं रह गया था पर उसने एक दर्शक की हैसियत से जो देखा था उसकी धुंधली याद भी इतनी चित्रात्मक थी कि उसे वो पूरा दृश्य अपनी जगह, पृष्ठभूमि, केंद्र, परिधि, पात्रों- गौण पात्रों के साथ याद था. बस, एक जगह वो झूला पुल डगमगा रहा था. कुछ उधड़ा सा था वोपड़-चित्र. उसकी तुरपाई भी नहीं हो सकती.
वो एक लकड़ी का रेडियो था. उसके घर का छोटा आंगन था. एक पड़ौस का 'शौकिया मिस्त्रिनुमा लड़का था जो उस रेडियो को जिज्ञासावश उलट पुलट रहा था.
आखिर उस लड़के ने रेडियो को खोल दिया. रेडियो में अंदरूनी तार और मशीनों की जगह बटन और धागे थे. सफ़ेद और रंग बिरंगे धागे जो कई सारे बड़े छोटे बटन से गुज़र रहे थे.
ये बात उसे क्यों याद थी कि रेडियो खरीद कर लाए जाने के बाद एक बार बजा था. खुद उसने उसे बजते हुए सुना था. पर बटन और धागों का जटिल आयोजन फिर किसी आवाज़ को पैदा नहीं कर पाया. उसने फिर उसे कभी सुना नहीं. उस लकड़ी के पिटारे का क्या हुआ उसे नहीं मालूम.
ऐसा ही कुछ उस घड़ी के साथ भी था.
वो घड़ी पिताजी ने ट्रेन में खरीदी थी. ट्रेन में कोई आदमी ख़ूब सारी घड़ियाँ बेच रहा था. दो-पांच घड़ियाँ वो हाथ में थामे था. दो पांच घड़ियाँ उसकी कलाई से बांह तक बंधी थी. उसके पिताजी ने एक कत्थई डायल वाली घड़ी खरीदी थी. उसके वास्ते. वो पहन कर ख़ूब इतराया था. बात ये भी पुरानी थी. वो छोटा था. उसने उस घड़ी की बाकायदा नुमाइश कर स्कूल का ग्रुप फोटो खिंचवाया था.उसकी याददाश्त के मुताबिक घड़ी चलती थी. उसकी सुइयां जैसे चिकने फर्श पर बेआवाज़ सरकती थीं. बेशक वो दीवार घड़ी की तरह शोर नहीं करती थी. दीवार घड़ी के हाथ सरकते वक़्त आवाज़ करते थे. एक लय के साथ दीवार घड़ी बोलती थी जो 'घड़ीक्यम घड़ीक्यों टिटक टिटक' की तरह सुनाई देता था.

कलाई घड़ी की सुइयां समय के साथ चलती थीं ये बात आज वो कैसे कह सकता था? घड़ी का पिछला ढक्कन एक दिन खुल गया और उसने देखा उसमें कोई चकरी या गिर्री नहीं थी. बस कागज़ भरा था.निरा कागज़. वो घड़ी कैसे चल सकती थी? पर... वो जो समझता था वो सच था या नहीं? यकीन की जीन पर कसकर इसे कैसे दौडाए?
उसे याद आया उसके दादाजी सुनाते थे कि पास के गाँव जाते समय उन्होंने एक आदमी को देखा था. उनसे बात करते करते वो अचानक मिट्टी के ढूह में बदल गया.
वो बहुत हंसा था दादा की बात पर. वे नहीं हँसे थे, पर उन्होंने कोई इसरार भी नहीं किया था.
वो इस समय हैंगिंग ब्रिज पर था. दो ठोस कगारों के बीच झूलता हुआ.

Monday, December 11, 2017

मिट्टी की परात



तुम प्रेम में इतने डरे डरे क्यों हो ?

….. और इसके उत्तर में काफ़ी देर शून्य में ताकता रहा. फिर जैसे उसने बहुत गहरे कुँए से अपनी आवाज़ को खींचा और बोला-
मैं पश्चाताप का आदिपुरुष हूँ. कहीं भी कुछ ग़लत होता है मेरी आत्मा उसका प्रायश्चित करने लगती है. बरसों पहले जब मैं बहुत छोटा था. अबोध. तब पहली बार मेरी आत्मा एक निरर्थक वाक़ये के बाद ईंधन की तरह जलने लगी. मैं अपने ननिहाल में आया हुआ था. वो घर पुराना था. उस घर की मरम्मत शायद कभी नहीं हुई थी. उसके कमरे, दीवारें, दालान सब कुछ धूल मिट्टी में सने रहते. कच्चे आँगन में असंख्य दरारें थी जिनमे चींटियों की प्राचीन बस्तियां थी. दीवार के सहारे एक मिट्टी की परात खड़ी थी.बरसों से. उस परात का कोई इस्तेमाल नहीं था. बस, वो घर के भूगोल का हिस्सा भर ही थी. मैं कुछ खेलते खेलते उस परात के पास पहुंचा और अनायास ही पाँव की ठोकर से वो परात अपने बारीक संतुलन से हिल गयी. गिर गयी. और टुकड़े टुकड़े हो गयी. मैं दहशत से भर उठा. जैसे मैंने कोई हादसा अंजाम दे दिया था. मैंने जैसे घर का भूगोल ही बिगाड़ दिया था. मुझे शायद हल्की डांट पड़ी थी पर आज मैं सोचता हूँ वो नकली ही रही होगी. उस घर के लिए वो परात जैसे थी ही नहीं, उसका कोई क्या शोक मनाता. पर मैं उस मिटटी की परात को लेकर परेशान था. जब भी आने वाले दिनों में मैं उस जगह टूटे हुए टुकड़ों को देखता मैं डरने लगता, मैं अपने आप को घर का नक्शा, हुलिया बिगाड़ देने का दोषी ठहरता. आखिर घर वालों को समझ में आया और उन्होंने उन टूटे हुए टुकड़ों को वहां से बाहर फेंक दिया. परात के भौतिक अवशेषों के वहां से हटने के बाद भी मेरा मन वहां उन्हें ढूंढता रहा…

मैं पछतावे से भरा हूँ. मेरी आत्मा किसी अनाम पश्चाताप से धूंआती- सुलगती रहती है. आम दिनों में भी मैं इसकी आंच महसूस करता हूँ पर कुछ ग़लत का ज़िम्मेदार होने पर तो तो ये कपूर की तरह जलने लगती है. अब मुझे ये कई बार अच्छा भी लगता है. मैं उस दहन की गंध को सुवास की तरह  लेता हूँ.

‘एक और दिन की बात है. मेरे कोई रिश्तेदार अपने बच्चे को डांट रहे थे. वो बच्चा मेरा भी दोस्त था. उसने अपने ही घर में कोई चोरी की थी. कुछ पैसों की. डांटने के दौरान में भी वहां खड़ा था…’  बोलते बोलते उसकी आवाज़ में खुश्की आ गयी थी. वो आस पास पानी ढूँढने लगा पर कहीं ग्लास न पाकर उसने उसी आवाज़ में बोलना जारी रखा-

मैं भी वहां खड़ा था और डांट का असर अपने ऊपर महसूस कर रहा था. रंगे हाथों जैसे मैं ही पकड़ा गया था. मैंने उसी समय कसम खाई कि मैं कभी चोरी नहीं करूंगा यद्यपि मैंने कभी चोरी की नहीं थी. डांट में आवाज़ की सख्ती जब एक सीमा से बढ़ गयी तो मैं बोल उठा कि ये काम मैंने नहीं किया था.

उसकी प्रेमिका उसे देखे जा रही थी. उसने पूछा-
‘तुम सारे गुनाह क्यों अपने ऊपर लेते हो' ?
‘मैं गुनाहगार नहीं हूँ, पर गुनाहों का दंश मुझे फिर भी बींधता है.’
‘तो क्या ऐसे में तुम मुझसे प्रेम कर पाओगे?
‘मुझे पता नहीं पर मैं तुम्हे प्रेम दूँ तो क्या तुम मुझे अपनी करुणा दोगी? मुझे करुणा की ज़रुरत है जिससे मैं अपनी दग्ध आत्मा को शीतल कर सकूं. एक ये गुनाह मुझे करने की अनुमति दो.