Wednesday, February 27, 2019

हरी परछाईं


लड़की पुल के नीचे रहती थी। लड़का हमेशा पुल के ऊपर से गुज़र जाता। और वे अरसे तक मिले ही नहीं। पुल एक दुबली नदी पर बना था और वो नदी हमेशा सूखी रहती थी। बारिश के दिनों को छोड़कर। बारिश के दिनों नदी में पानी बहता था। जैसे ही बारिश ख़त्म होती , नदी भी ख़त्म हो जाती। नदी एक हरी सी परछाईं छोड़कर चली जाती।
ये नदी शहर के बीचोंबीच से होकर गुज़रती थी। और ये सिलसिला कई हज़ार बरसों से चला आ रहा था। नदी तब भी इसी जगह थी जब ये शहर नहीं था। नदी तब भी इसी जगह थी जब इस जगह कोई दूसरा और भी ज़्यादा पुराना शहर था, संभवतः जो किसी प्रलय में नष्ट हो गया था। नदी का पता तब भी यही था जब यहां कोई ताम्रकालीन नगरी थी। और तो और ये उससे भी पुरानी प्रस्तर युगीन बस्तियों के वक्त भी यहीं बहती थी। बहुत पुराने क़िस्सों में ही अब ये बात बची है कि नदी असल में एक राजकुमारी थी और अपने पिता की लाड़ली थी। उसके पिता धरती से कई प्रकाशवर्ष दूर ब्रह्माण्ड में बसी एक और धरती के राजा थे और इसी लाड़ली बेटी की ज़िद पर स्वर्ग की प्रतिकृति बनाने का आदेश अपने कारीगरों को दिया था। उन्होंने अपने राज्य के समस्त राजमिस्त्रियों को सिर्फ़ इसी काम में लगा दिया था। राजकुमारी इसी काम में लगे एक युवा कारीगर के प्रेम में पड़ गयी। राजा अपनी बेटी से बहुत नाराज़ हुआ और उसने अपने बेटी को अपने राज्य से हमेशा के लिए निष्काषित कर हमारी धरती पर नदी बना कर भेज दिया, जो उस वक़्त तक मिट्टी का एक  निर्जन पिंड मात्र थी। बरसों बाद राजा अपने बेटे को सत्ता सौंप कर हमेशा के लिए अपनी बेटी के पास आ गया,नीला पहाड़ बनकर।  
इस तरह के मिथक नदी को प्राचीन सिद्ध करते हैं। न भी करें तो भी हर नदी प्राचीन होती है। उसे किसी साक्ष्य या साक्षी की आवश्यकता नहीं। इस तरह आज इस शहर के बीच से ये नदी नहीं बहती थी बल्कि शहर उसके दोनों तरफ बस गया था। कोई एक रहा होगा जो नदी के कलकल को सुनने बैठ गया था और उसने यहां बस्तियां बसा ली।  यही सिलसिला बाबा आदम के ज़माने से हर जगह चला आ रहा है। इस नदी और इस शहर की बात भी इससे अलग नहीं। फ़र्क़ ये आया है, जैसा कि इस शहर के जानकार लोग बताते हैं, कि नदी बहुत मंथर हो गयी है। नदी का वेग अब नहीं रहा। और ये कि पिछले कुछ सालों में तो बारिश में भी बहुत कम समय के लिए यहां आती है।  इतने कम दिनों के लिए जितने दिन कोई उम्रदराज़ महिला पीहर जाया करती है। और देह तो उस नदी की बहुत कमज़ोर हो गयी है। लोग कहते हैं कि नदी तो सिर्फ़ अब 'इत्ती सी भर' रह गई है।  जब इस पर पुल बना था था उन दिनों तो बारिश में एक बड़े हिस्से को जलमग्न कर देती थी। अब पुल बने भी बरसों हो गए है , नदी की याद कम ही आती है। पास बसी बस्तियों को भी नहीं। हाँ बारिश के दिनों में ये पुल के नीचे अपने हिस्से की ज़मीन पर एक रेले की तरह बहती रहती है। 


एक तेज़ बारिश में लड़के ने पुल के किनारे पर लोगों को नीचे झांकते देखा। उसने अपनी बाइक पुल पर ही साइड में खड़ी की और झांककर देखा। नीचे वेग के साथ पानी बाह रहा था। उसने लोगों से कहते सुना , दस बरस बाद फिर से नदी को इस तरह झूमते देखा है। पुल के नीचे रहने वाले लोग अपने पास बहती नदी को चमत्कृत से देख रहे थे। उन्होंने इस जगह कभी इतना जल नहीं देखा था। 

उसी पुल के नीचे लड़के ने उस लड़की को देखा था। अपने घर के बाहर ,अपने से कुछ दूरी पर भागती नदी को देखते हुए। और वो लड़की नदी को गहरे अपनापे से देख रही थी। नदी कुछ वेग से एक पुराने शिलाखंड पर चोट खाकर लंगड़ाती भाग रही थी। और जहां चोट खा रही थी वही छोटे छोटे असंख्य जल बिंदु दिशाहीन से दूर तक उड़ रहे थे। लड़की उन महीन 'जल किरचों' को अपने शरीर पर चुभते अनुभव कर रही थी। 
वो हर बार अपने चेहरे से उछले हुए पानी को हटा रही थी और पानी था कि उसे हर ओर से भिगोये जा रहा था। उसके वस्त्र भीग गए थे ,उसके हाथ भीग गए थे , उसके बाल भीग गए थे, उसका चेहरा भी भीग चुका था। लड़का पुल के ऊपर से उसकी जल-लीला को देख रहा था। पानी की अनगिनत बूंदों ने लड़की पर एक बेहद हल्का आवरण बना दिया था। उसे इस तरह  धुंधली दिखती लड़की बहुत अच्छी लग रही थी। उसका मन हुआ कि वो पुल के नीचे जाकर क़रीब से लड़की को पानी साथ खेलता देखे। और वो नीचे चला गया और सीधा वहीं पहुंचा जहां लड़की अपने घर के बाहर खड़ी थी। लड़की काफ़ी देर तक उसकी उपस्थिति से अनजान अपने में ही पहले की तरह व्यस्त रही। अचानक ऊपर से कुछ शोर जैसा हुआ। लड़की की तन्द्रा टूटी। उसने अपने पास एक अनजान लड़के को देखा तो वो झट से अपने घर के भीतर चली गयी। लड़के को ग्लानि सी हुई। उसीने लड़की के उस अबोध और निर्दोष खेल को बंद करवा दिया था। वो काफी देर अन्यमनस्क सा वहीं खड़ा रहा। नदी चोट खाती रही। पानी की नन्ही बूँदें उछलती रही उसका चेहरा भिगोती रही। अचानक उसका ध्यान घर की खिड़की पर गया।  लड़की खिड़की से पानी का खेल देख रही थी। पुल पर खड़े लोगों के लिए नदी कौतुक का विषय थी। लड़के के लिए नदी प्रेम लेकर आई थी। 

शहर के कुछ बुज़ुर्ग राज़दार लोगों का मानना था कि नदी बरसों बरस अपने पिता से मिलने इस शहर से गुज़रती थी। शहर की सबसे ऊंची जगह से देखने पर वो नीला पहाड़ दीखता था जिसे राज़दार लोग नदी का पिता मानते थे। उनका अब भरोसा हो गया था कि स्टोन माफिया के ब्लास्ट में वो पिता भी किसी दिन बिखर जाएंगे, फिर वो नदी कभी लौटकर नहीं आएगी। 
ख़ैर , लड़का बारिश के बाद भी, जब उस नदी की सिर्फ हरी परछाईं ही बची रह जाती थी,  कई बार पुल के नीचे से झांकता था और उसे वो लड़की दिखाई देती थी। नदी के चले जाने के बाद लड़के को लड़की की शक़्ल बहुत साफ़ साफ़ दिखती थी। एक बार उसने बेध्यानी में लड़की की तरफ देखकर हाथ हिला दिया। जवाब में लड़की ने भी उसकी ओर देखते हुए हाथ हिला दिया। लड़की शायद मानने लगी थी कि पिछली बारिश में नदी ने जो वसीयत लिखी थी उसमें उसके साथ उसका भी नाम था। 

फ़िर वे दोनों कई बार मिले। उनकी बार बार मिलने की इच्छा होने लगी। लड़के को लड़की का धुंधला चेहरा याद आने लगता और वो उससे कहता, मुझसे दिन के उजाले में मत मिलो जब सब कुछ साफ़ साफ़ दीखता है। मुझे किसी कोहरे से भरे दिन में मिलो। अब चूँकि उस शहर में कोहरा नहीं होता था तो वे दिन के उस प्रहर में मिलते जब सब कुछ साफ़ साफ़ नहीं दीखता। एक दिन लड़के ने लड़की से फ़रमाइश की कि वो अँधेरी रात में जुगनुओं की प्रदीप्ति में उसका चेहरा देखना चाहता है। अँधेरे के समुद्र में रौशनी के बल्ब लिए घूमते जुगनुओं का फ़ीका  प्रकाश उसके चेहरे पर पड़ेगा तो वो एक पेंटिंग में बदल जाएगी । 

वे दोनों उम्र में धीरे धीरे बड़े होते गए पर उनकी स्मृति में नदी का छोटे छोटे जल बिंदुओं में टूटना हमेशा बना रहा। ये उनके प्रेम का स्थायी दृश्य था। 

एक दिन लड़की ने लड़के का हाथ पकड़ लिया। लड़के ने लड़की का हाथ पकड़ा। उन्होंने परिणय के बंधन में आने का निश्चय किया। बस यहीं से उनकी बाधाएं शुरू हो गयीं। दोनों के घरवाले उनके प्रेम को नष्ट करना चाहते थे।  लड़की एक अँधेरी रात दबे पाँव लड़के के घर तक पहुंची, और उसने लड़के के कमरे की खिड़की को सांकेतिक अंदाज़ में दस्तक दी। लड़का उसका संकेत समझ गया। वो तुरंत बाहर आया और उसे घर के पिछवाड़े ले गया। लड़की के चेहरे पर सितारों का प्रकाश गिर रहा था। रात लेकिन इतनी अँधेरी और रौशनी इतनी क्षीण थी कि वो सिर्फ एक कांपती आकृति में ही दिख रही थी। लड़का उसके चेहरे पर दृढ़ता के साथ कातरता भी साफ़ देख पा रहा था। कातरता साथ चलने के निवेदन की। तभी लड़के के घर की सांकल बजी। लड़की भय के मारे वहां से भाग गयी। वो चाहती थी कि लड़का भी उसके पीछे भागकर आये। पर ऐसा न हो सका। लड़का वहीं जड़ खड़ा रहा। उसके पाँव ठण्ड में जैसे वहीं जम गए थे। 

 लड़की की उसके बाद कोई ख़बर नहीं मिली। लड़के ने कई बार पुल के नीचे झाँका पर उसे सिवा सन्नाटे के कुछ भी नज़र नहीं आया। नदी की हरी परछाईं भी ग़ायब हो चुकी थी। अब उस जगह मिट्टी में भीषण दरारें थी और शुष्क, तप्त बालू थी जो हवा में उड़ उड़ कर लोगों को काट खाती थी। नदी अब ग़ायब हो चुकी थी। पुल के नीचे बारिश में सिर्फ कीचड़ नज़र आता था। राज़दार लोगों ने चुप्पी साध ली थी। इस नदी की गोद में कितने शहर बने और मिट गए पर नदी हमेशा बनी रही थी। इस बार जाने क्या हुआ कि एक शहर ने नदी को ही लील लिया था। कुछ अरसे पहले एक भयानक विस्फोट ने नीले पहाड़ को भी चूर्ण में बिखेर दिया था। 

लड़के ने लेकिन, बरसों तक पुल के नीचे झांकना बंद नहीं किया। हालांकि वहां न तो अब नदी थी, न लड़की, न शिलाखंड, और न ही वो मकान जिसकी खिड़की से लड़की ने उसे पहली बार देखा था। कोई नियम-धर्म की तरह लड़का पुल से झांकता था। वो अब अधेड़ हो चला था। घर गृहस्थी में आये बरसों हो चुके थे उसे।  उसका अपना एक बेटा था जो जवान हो रहा था। एक दिन उसके बेटे ने उससे कहा कि उसे एक लड़की से प्रेम है। लड़के ने, जो अब अधेड़ था उससे कहा कि अब वो क्या करने के बारे में सोच रहा है। अधेड़ के बेटे ने कहा अगर वो लड़की किसी अँधेरी रात मेरे घर के पिछवाड़े आएगी तो मैं सांकल बजने पर भी उस लड़की के साथ भाग जाऊँगा। बरसों पहले उस नीच,कापुरुष की तरह वहीं खड़ा नहीं रहूँगा जो घर की सांकल बजने पर वहीं खड़ा रह गया था। 
अधेड़ सिहर गया। उसने अपने बेटे से पूछा - 'तुम्हे ये बात किसने बताई '?
'शहर के राज़दार लोगों ने' बेटे ने जवाब दिया। 
लड़के ने जो अब अधेड़ था , राहत की सांस ली। राज़दार लोग हमेशा संकेतों में बात करते थे। वे सबसे शापित लोगों में से थे। शहर के सारे राज़ जानते थे। उनके भीतर ठोस, अंधेरे राज़ थे। वे शहर के अच्छे दिनों को याद ही नहीं कर पाते थे। शहर के दुःख उनके पीछे प्रेत की तरह पड़े रहते थे।       

अधेड़ के बेटे ने उससे ज़रूर अपने प्रेम की बात बताई थी और कहा था कि वो सांकल बजने पर भी रात के अँधेरे में दबे पाँव उसके घर आई लड़की के साथ भाग जाएगा पर ..  वो मौका नहीं आया। वो लड़की किसी भी अँधेरी रात में उसके घर तक नहीं आई। किसी ने उसकी खिड़की पर सांकेतिक दस्तक़ न दी। बल्कि उसने कहा हम अपने अपने घर वालों को मनाते हैं। प्रेमी लड़का भी तुरंत इस प्रस्ताव पर राज़ी हो गया। ये सुविधाजनक तरीका था और इसमें नौबत आने पर प्रेम की अंत्येष्टि करने में कोई ग्लानि भी पीछा नहीं करती। प्रेमी बेटे ने अब अधेड़ हो चुके अपने पिता से डरते डरते पूछा तो पिता समझ गया कि ये भी आख़िर बेटा तो उसी का है, जो  बरसों पहले वही लड़का हुआ करता था जो अपने घर की देहरी लांघ नहीं पाया था, जो घर की सांकल से डर गया था कि कहीं पिताजी ग़ुस्सा न हो जाये।

 बेटे ने जब अधेड़ को अपने प्रेम को परिणय बंधन में बाँधने के बारे में बताया तो वो तुरंत राज़ी नहीं हुआ। वो देखना चाहता था कि उसका बेटा उससे अलग है या नहीं। क्या उसका संकल्प मज़बूत है या नहीं। उसने मना कर दिया। लड़का तुरंत याचना वाली मुद्रा में आ गया। वो चिरौरियाँ करने लगा। अधेड़ समझ गया,  इस प्रेम का रेशा अलग है। पर तीव्रता इसकी वैसी ही थी जैसी वो स्वयं जानता था। उसने फिर भी मना ही किया और कहा कि पहले सबकी सहमति ले आओ फ़िर सोचते हैं। सबकी सहमति में बहुत वक़्त लगा। लड़की के घरवाले बहुत मुश्क़िल से माने। लड़का तपस्वियों की तरह लगा रहा। उनके क्रोध को सहता रहा। लड़की के पिता और भाई कई मौकों पर हिंसक भी हुए पर वो धैर्य के साथ उन्हें मनाता रहा। आखिर उसकी ज़िद और ढीठता रंग लाई और वे इस शर्त  पर माने कि लड़के को अपने पिता को भी राज़ी करना होगा। लड़के ने अब अपने अधेड़ पिता से कहा कि अब सिर्फ़ उनका आशीर्वाद बाकी है। अधेड़ ने अपनी हामी भरी।  सबको मनाने में सात साल लगे। लड़का और लड़की अपने प्रेम पर विश्वास करते रहे। अधेड़ ने सात बरस बाद जब उसका बेटा दूल्हा बनने जा रहा था , आख़िर मान लिया कि अपने तात्विक रूप में भिन्न होने के बावजूद ये खरा प्रेम है। उसका बेटा प्रेम का निर्भीक योद्धा न सही एक सच्चा और धैर्यवान भक्त था। उसे अपने बेटे पर गर्व होने लगा।  
अपने बेटे को दूल्हे के रूप में देखकर अधेड़ पिता अपने को भीतर से बेहद भरा भरा सा महसूस करने लगा। बेटे के दोस्त ख़ूब नाच गाना कर रहे थे। उसने अपने बेटे की ओर देखा जो अपने दोस्तों के साथ डांस करने लग गया था। तमाम पारम्परिक वस्त्रों के साथ दूल्हे को एक गाम्भीर्य भी ओढ़ना होता है। इस वक़्त उसका बेटा अपने दोस्तों के साथ थिरक कर इस औपचारिक भारीपन को उतार कर अलग कर रहा था। पिता को इस क्षण वो बच्चा नज़र आने लगा जो अपनी बाल सुलभ मुद्राओं को फिर उसके सामने अनायास ही रख रहा था। पिता को अपने बेटे पर दुलार आने लगा। पर बरसों पुरानी एक गहरी टीस उसके भीतर कही अब भी गड़ी थी। शादी के बाद उसने अपने नवविवाहित बेटे और बहू को पुल के नीचे पूजा के लिए चलने को कहा। बेटे ने जब पूछा कि  पुल के नीचे क्या कोई मंदिर या थान बगैरह है तो वो बोला - 'एक पुरानी नदी वहां बहती थी, नदी क्या साक्षात् गंगा माई ही समझो। उसी की बिछड़ी धार थी। उसका आशीर्वाद लेना ही होगा हमें बेटा।' कहते कहते अधेड़ समय में कई बरस पीछे चला गया, इतना पीछे...... जब वो पुल के किनारे खड़ा होकर नीचे झांकता था और किसी बारिश वाले दिन नीचे बहती गंगाजी के पास उसे वो लड़की दिखाई दी थी।     

Friday, February 22, 2019

दोस्ती ज़िंदाबाद

अनंग नाम था उसका। नाम का अर्थ ढूंढें तो कामदेव। कामनाओं और विषय वासनाओं में आसक्ति रखने वाला। पर वो इसका उलट था। उसकी आसक्ति विषय वासनाओं में नहीं गणित विषय में थी। सहपाठियों के बीच गणित विषय में वो उदयपुर का रामानुजन कहा जाता था। हालांकि ये थोड़ी बड़ी उपमा हो जाएगी पर चूँकि इसमें 'उदयपुर का' विशेषण जुड़ा है तो इसे लगभग न्यायसंगत कहा जा सकता है। अपने सामने इस उपमा का प्रयोग करने पर अनंग नाराज़ हो जाता था। वो लगभग डांटने वाले अंदाज़ में बोल उठता - ' तुम सूरज की तुलना दिये से कर रहे हो।  बल्कि सूरज की तुलना लप झप करने वाले छुटकू बल्ब से कर रहे हो जो दिवाली वगैरा के टाइम झालर में लगता है। '

सच में वो रामानुजन को भगवान मानता था। और वो गलत कहाँ था। रामानुजन तो गणित के देवता ही थे। पर अनंग का गणित को लेकर पैशन कम नहीं था। ऐसे में उसे लोग उदयपुर का रामानुजन कहकर उसके गणित प्रेम को ही एक तरह से उजागर कर ही रहे थे , और साथ में रामानुजन को भी एक तरह से श्रद्धांजलि ही दे रहे थे। 
अनंग गणित में अच्छे नंबर ले आता था।  बल्कि एकाध बार तो वो पूरे में से पूरे नंबर भी ले आया था। बाकी विषयों में उसकी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी, पर ठीक ठाक नंबर आ जाते थे। उसे भी बाकि बच्चों की तरह घरवालों ने 10 वीं के बाद ही कोटा भेज दिया था ताकि वो  एंट्रेंस टेस्ट के ज़रिये आईआईटी में दाखिला ले सके। वहां उसका मामला बैठा नहीं। कोटा जाने के महीने भर बाद ही फ़ोन पर उसकी कोटा में रहने को लेकर अनिच्छा बातों बातों में प्रकट  होने लगी। जैसे खाना बहुत गन्दा है। फैकल्टी परेशान करती है। यहां का पानी सूट नहीं हो रहा। रोज़ पेट में दर्द रहता है। यहां का मौसम अजीब है, वगैरह वगैरह।
पर घर वाले उसे मोटीवेट करते रहे। उसमें उन्हें भविष्य का आईआईटीयन जो नज़र आ रहा था। हालाँकि बाद में धीरे धीरे उस आईआईटीएन की शक़्ल धुंधला रही थी।
आखिर में अनंग के साथ वही हुआ जो कोटा जाने वाले ज़्यादातर बच्चों के साथ होता है। उसका आई आई टी में नहीं हुआ।  वो डमी स्कूल से कोटा में रहकर 12 वीं कर वापस घर आ गया।  उसने जब यहाँ आकर विश्वविद्यालय में बीएससी मैथमैटिक्स में एडमिशन लिया तो वो बहुत ख़ुश हुआ। घर वालों को उसकी ख़ुशी समझ नहीं आई। पर बात ये थी कि गणित से उसका प्यार अनकंडीशनल था। अब वो अपने प्यार को जैसे पुनः पा गया था , उसके और प्यार के बीच अब अपेक्षाओं का भार नहीं था। करियर के  लिहाज़ से कह सकते हैं कि मन ही मन वो गणित का प्राध्यापक बनना चाहता था।
पर वो बाद की बात थी और इस पर उसने एकाध बार से ज़्यादा नहीं सोचा था।
जहां गणित उसकी ख़ासियत थी , वहीं गणित ही उसकी कमज़ोर नस भी थी। उसे बाकी किसी में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी।

कॉलेज में गणित , लाइब्रेरी , प्रोफ़ेसर्स और एकाध दोस्त के बीच दिन गुज़रते रहे और वो दूसरे साल में भी प्रवेश कर गया। 

ये क्या दिन था कि उसके दोस्त सुमित ने आज उसे ख़ूब ढूंढने की कोशिश की, पर वो कहीं नहीं मिला। उसका मोबाइल स्विच्ड ऑफ आ रहा था। अनंग के घरवाले तो और भी परेशान थे। क्या पता वो अपनी पढ़ाई को लेकर परेशान हो। पिछले कुछ अरसे से वो कुछ ज़्यादा ही चुप्पा हो गया था। वैसे बीएससी में ये उसका दूसरा साल था और ऐसा लगता था कि वो अपनी पढाई को एन्जॉय कर रहा है। फिर भी जवान लड़के के मन में क्या चल रहा है कुछ कह नहीं सकते।  'कहीं लड़का कोई उल्टा कदम न उठा ले' ये आशंका उनको  सताए जा रही थी। उनके हिसाब से पिछले कुछ समय से अनंग ने 10 वीं और 12 वीं के बच्चो को गणित का ट्यूशन पढ़ना शुरू किया था, इससे उसकी जेब में कुछ पैसे ज़रूर आ गए थे पर हो सकता था इससे उसे अपनी पढाई का समय मैनेज करने में परेशानी महसूस हो रही हो।   

ख़ैर वो शाम को घर आ गया। उसके चेहरे पर हताशा का कोई निशान नहीं था। बल्कि वो निश्चिन्त ही लग रहा था। एक एंगल से ख़ुश जैसा। घर वालों को इस बार फिर उसकी ख़ुशी समझ नहीं आई पर उन्होंने राहत की साँस ली। फिर भी मां से रहा न गया तो पूछ बैठी ' खुश हो ? 'ख़ुश ही नहीं बल्कि क्लाउड 9 पर हूँ' अनंग ने जवाब दिया हालांकि उसके जवाब में क्लाउड 9 जैसी कोई बात नहीं लग रही थी। पर ख़ैर घरवाले निश्चिन्त से हो गए।

वो आज देर तक तन्वी के साथ था। और दोनों ने लेमन टी पी थी। तन्वी उसके कॉलेज में ही थी। उसकी हमउम्र। अब तक उसकी दोस्त। पर आज वो दोस्ती और प्यार को पृथक करने वाली रेखा लाँघ गया था।   
तन्वी से उसे प्यार हो गया था। आप सोचेंगे कि प्यार तो उसे गणित से था तो ये तन्वी कहाँ से बीच में आ गयी ? बात ये थी कि गणित से उसका प्यार मां और बेटे के प्यार जैसा था। वो गणित को मां मानता था। उसे लगता, गणित हम सबकी आदि माई है। और तन्वी से उसके प्यार से गणित के प्रति उसके आदर और सम्मान के साथ प्यार में क्या कमी आएगी!
तन्वी से उसकी जान पहचान सुमित के ज़रिये हुई थी। सुमित और तन्वी दोनों एक दूसरे को चाहते थे। आलम ये था कि कॉलेज में अगर सुमित और तन्वी दोनों नहीं दिखाई दे रहे हैं तो इसका मतलब वे फ़तेहसागर के किसी तन्हा कोने पर बैठे हैं। अनंग सुमित का तो पुराना दोस्त था ही, तन्वी भी सुमित के ज़रिये उसकी दोस्त हो गयी थी। सुमित और तन्वी आपस में एक दूसरे पर जान छिड़कते थे। दोनों के प्यार की पहली पंक्ति कॉलेज फेस्टिवल में लिखी गयी थी। कॉलेज के फेस्ट में सुमित ने 'ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना.....' गाकर आग लगा दी थी। हल्की सर्दी और पूरे चाँद में इस गाने का जादुई प्रभाव हुआ। उसके बाद तन्वी ने सोलो गाया - 'अजनबी कौन हो तुम, जब से तुम्हे देखा है.. '
इस गाने ने सुमित को दीवाना बना दिया और वो अगले ही दिन तन्वी से दोस्ती का निवेदन कर बैठा। बेशक कुछ अरसा बाद ये दोस्ती झीने अपनापे और फिर प्रगाढ़ प्रेम में बदल गई।
पर जितनी जल्दी ये प्रेम शुरू हुआ था उतनी ही जल्दी समाप्त भी हो गया। सुमित दिल लेने और देने में शायद व्यापारी किस्म का आदमी था। तन्वी के बाद उसने छिपे छिपे ही केतकी को भी दिल दे दिया। कई दिनों तक वो दोनों के साथ फ़रेब का खेल खेलता रहा पर एक बार तन्वी उन दोनों के रोंदेवू पर पहुँच गयी। तन्वी कई दिनों से ऐसा कुछ सेंस कर रही थी, आखिर इश्क़ और मुश्क़ छिपाए जो नहीं नहीं छिपते।  सुमित का उस दिन डबल ब्रेक अप हुआ था। तन्वी और केतकी दोनों से।
वहीं अनंग उसके सुमित और तन्वी की लाइफ में आये इस भूकंप से अनजान लाइब्रेरी में रामानुजन के प्रमेय को समझने में लगा हुआ था। उसे गणित के अमूर्त सपने आने लगे थे। जो सपने स्टूडेंट्स को डराते थे वे ही सपने अनंग को थपकियां दे। ऐसे में अचानक लाइब्रेरी में तन्वी आई और किताबों से घिरी एक तंग गली में अनंग के सामने रोने लगी। तन्वी को अनंग थोड़ा कम दुनियादार ज़रूर लगता था पर उसमें दुसरे की बुराई करना, मज़ाक उड़ाना जैसे दुर्गुण नहीं थे और वो अपने अनुभव से जानती थी कि अनंग को अपने मन की बात कहना मतलब उसे लॉकर में सुरक्षित रखना है। उससे अपने दिल की बात साझा की जा सकती है। उससे राज़ कहना पहाड़ को अपनी बात साझा करने जैसा नहीं था जो पूरी दुनिया को कई बार ईको करके कह देता है।  बल्कि उससे अपनी सबसे गहरी बात कहना, जैसे समंदर को अपनी बात कहना है। कि जिस तरह उसके भीतर और अनंत विस्तार में सब कुछ घुल जाता है।
तन्वी ने सारी बातें अनंग को बता दीं। अनंग कुछ नहीं बोला। तन्वी जानती थी कि अनंग इतना जल्दी जजमेंटल नहीं होता। उसकी ये बात भी उसे अच्छी लगती थी। वो एक परफेक्ट दोस्त था।  उसके बाद अनंग तन्वी को कॉफ़ी पिलाने ले गया। इस बात को कई दिन हो गए। एक दिन अचानक अनंग तन्वी को फ़ोन करके बोला ' तुम्हारे साथ सज्जनगढ़ जाना चाहता हूँ। तुम सुबह साढ़े 11 बजे मुझे महाकाल मंदिर के गेट पर मिलो वहां से मेरी बाइक पर चलेंगे। आज कॉलेज बंक करते हैं। ' तन्वी को लगा कि अनंग ज़रूर कोई अपने मन की बात शेयर करना चाहता है। ऐसे में उसका साथ देना चाहिए। यद्यपि अनंग इस तरह की पहल के लिए जाना नहीं जाता था पर तन्वी को इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगा। सुमित से उसके ब्रेकअप के बाद अनंग ही उसका सच्चा दोस्त था। उसने तुरंत हाँ कह दी। मानसून पैलेस के लिए चढ़ाई वाली सड़क पर अनंग ने कुछ ही दूरी पर बाइक रोक दी। उसने अपना मोबाइल स्विच्ड ऑफ कर जेब में रख दिया, फिर तन्वी से कहा 'मुझे कुछ बुख़ार सा लग रहा है अगर थोड़ी देर बाइक तुम चलाओ।'
 तन्वी को इसमें भी कुछ ख़ास अजीब नहीं लगा। रास्ते में अनंग बार बार उससे चिपकने लगा तो तन्वी ने उसे आराम से बैठने को कहा ताकि उसका बैलेंस न बिगड़े।  वो बोला उसे बुख़ार परेशान कर रहा था।
बहुत सारी तीखी चढ़ाइयों के बाद बाइक ऊपर पहुंची। बाइक को पार्किंग स्पेस में खड़ी कर वे दोनों पैलेस के लॉन में लगी बेंच पर काफी देर बैठे रहे। तन्वी ने अनंग से पूछा तो उसने कुछ ख़ास बताया नहीं। हालाँकि ऐसा लगा कि वो कुछ कहना चाहता है। तन्वी को लगा अनंग ज़रूर किसी बात को लेकर परेशान है। उसने पूछा - ' घर में सब ठीक तो है ?' वो कुछ नहीं बोला। कुछ देर बाद दोनों उठ गए।  बाइक अब लौटते रास्ते की ढलान पर उतर रही थी। नीचे आकर अनंग फ़िर एक ज़िद करने लगा। लेमन टी पी जाय। तन्वी को लग गया कि अनंग के भीतर जो बात अटकी है, जिसे वो कहना भी चाहता है और कह भी नहीं पा रहा, इस खींचातानी से शायद लेमन टी उसे छुटकारा दिला दे।  उसने हामी भर दी और वे दोनों लेमन टी के लिए रुक गए।
लेमन टी कुछ ज़्यादा ही खट्टी थी। अनंग ने खट्टेपन से बिगड़ते मुंह के आकार की परवाह न करते हुए, भरसक ताक़त बटोर कर उससे प्रेम निवेदन करदिया।
तन्वी भौचक्की रह गयी। उसने अनंग के साथ इस तरह के अंतरंग संबंधों के बारे में कभी सोचा न था। वो उसमें एक प्यारा दोस्त और अच्छा इंसान देखती थी, पर एक प्रेमी के तौर पर वो कभी उसके ख्यालों में नहीं आया था। 

उसने अनंग का प्रस्ताव अस्वीकार कर लिया। बिना कोई कारण, तर्क या सफ़ाई के। ये सिंपल और प्लेन रिजेक्शन था।

अनंग ने उसके जाने के बाद एक और नीम्बू चाय पी और अपना मोबाइल पुनः ऑन कर दिया। अब उसके लिए वापसी का ठिकाना सीधा घर ही था। और उसके बाद सुमित। तन्वी को डिच करने के बाद अनंग सुमित से नाराज़ ज़रूर हुआ था पर  दोनों की दोस्ती बनी रही थी। उनकी दोस्ती एक स्वतंत्र एंटिटी थी जो अपने इतिहास में उन दोनों के बचपन तक जाती थी। और एक बात ये भी थी कि तीनो में कोई प्रेम त्रिकोण नहीं बना था। अनंग ने जब तन्वी को प्रेम का निवेदन तब सुमित उसकी लव लाइफ से निकल चुका था।

अनंग काफी देर बाइक से टिक कर खड़ा रहा और ख़ामोशी से अपने ठीक पास से निकलती दुनिया को देखता रहा। उसका दिमाग़ कुछ देर बाद कई जालों से मुक्त हो चूका था। उसे गलती साफ़ महसूस हुई। किसी लड़की से दोस्ती की तार्किक परिणति प्यार में हो ये ज़रूरी नहीं। बल्कि दोनों अलग चीज़ें हैं।  



वो घर से चाय पीकर सीधा सुमित की दुकान पर गया।  सुमित उसका दोस्त , जो उसके लिए सुबह से परेशान था।  उसकी शहर के भीतरी हिस्से में मनिहारी की दुकान थी। चूड़ियां, लिपस्टिक, बिंदी, आई लाइनर, औरतों के अन्य सामान। उसकी दुकान पर महिलाओं की रेलमपेल लगी रहती थी। दिन में उसके पिताजी और बड़े भाई  दुकान सँभालते थे और कॉलेज से छूटने पर वो भी दुकान में आकर उनका हाथ बांटता था। उसके आने से उसके पिताजी और भैया थोड़े फ्री हो जाते थे। वे दुकान छोड़कर थोड़ा रिलैक्स होने इधर उधर भी चले जाते थे।
अनंग के दुकान पर आते ही सुमित ने उसे दोस्ती वाली ख़ूब सारी  गालियां दीं। आज के  दिन का  न जाने क्या असर था कि थोड़ी ही देर में सुमित उससे गले लग कर रोने लगा।  उसने स्वीकार किया कि उसने तन्वी का जो प्यार खोया है उसका ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ वो ख़ुद है। "क्या मैं तन्वी का दोस्त बन सकता हूँ ? वैसे तो मैं
उसकी दोस्ती का भी हक़दार नहीं।  इस पर अनंग ने तुरंत प्रत्युत्तर में कहा-
 " दोस्ती और प्यार दो अलग अहसास है। ऐसा नहीं है कि दोस्ती से एक सीढ़ी ऊपर चढ़े तो प्यार पर पहुँच गए और प्यार से जब मर्ज़ी नीचे उतरे और दोस्ती पर पहुँच गए। हाँ, कई बार दोस्त से प्यार हो जाता है पर तब हम दोस्त और प्रेमी दोनों होते हैं " अनंग ने गणित का विद्यार्थी होकर भी अपना दर्शन सामने रखा और फिर सुमित से निर्णायक स्वर में बोला -  "तुम तन्वी के दोस्त कभी नहीं थे। वो तुमसे बहुत बहुत प्यार करती थी पर तुम उसे डिज़र्व नहीं करते"

ये स्वर इतना निर्णायक और अंतिम था कि कुछ देर दोनों में संवाद जैसा कुछ बचा ही नहीं। पर अंततः उनके भीतर की दोस्ती और अपनापे ने फिर से माहौल पर अपना अधिकार जमा लिया। दोनों ने खूब बातें की, गले मिलना हुआ। चाय नाश्ता हुआ और फिर विदा हुए।


अगले दिन अनंग ने तन्वी को टेक्स्ट किया -
" कल के लिए माफ़ी। क्या हम अब भी दोस्त बने रह सकते है?
कई देर तक तन्वी का कोई मैसेज नहीं आया। फिर लम्बी प्रतीक्षा के बाद तन्वी की तरफ से बहुत संक्षिप्त सन्देश आया -

" दोस्ती ज़िंदाबाद "

Thursday, February 14, 2019

नील कुरिंजी का फूल



ये उन दिनों की बात है जब मौत की सूचना लोग टेलीग्राम के ज़रिये भेजते थे। जब टेलीफोन इक्का दुक्का घरों में ही थे। जब शहर कई सारे मोहल्लों का जमावड़ा हुआ करता था। जब लड़की का घर की छत पर बार बार जाना घरवालों में शक पैदा करता था। जब प्रेम करना मुश्किल था, उसे निभाना बहुत मुश्किल और प्रेम के लिए मरने से प्रेम में जीना बहुत बहुत मुश्किल था। 

उन्हीं दिनों में से एक दिन उस लड़की ने लड़के से कहा ये रास्ता खतरनाक है। तुम्हारा और मेरा प्रेम असंभव है। इस पर हमारे घरवाले कभी राज़ी न होंगे। तब लड़के ने कहा मैं इस प्रेम के लिए जान तक दे सकता हूँ। लड़की ने हंस कर कहा ये तो बहुत आसान है। प्रेम के लिए जी सकते हो?
लड़के ने लड़की का हाथ अपने हाथ में लेना चाहा तो लड़की उससे दूर हो गई। लड़के ने बहुत इसरार किया। अपने प्रेम के निर्दोष होने की बात कही। तब लड़की ने कहा अगर तुम्हारा प्रेम खरा है तो मेरे लिए नील कुरिंजी का फूल ले आओ। लड़के ने इस फूल का नाम पहली बार सुना था। उसने भटक भटक कर पता किया। वो फूल उसके यहां से बहुत दूर दक्षिण में खिलता था और वो  बारह साल में एक बार। लड़का, जब भी वो फूल खिला,  लड़की के लिए वो फूल ले आया। इसके लिए उसने क्या कुछ नहीं किया। उसके साथ क्या कुछ नहीं हुआ। उसने बंजारों की सोहबत की। साधू फकीरों के पास गया। हाथियों की सवारी की। ठगों-लुटेरों ने उसे कई जगह लूट लिया। जंगली जानवरों ने उसकी देह को जगह जगह से नोच खाया। वो हफ़्तों भूखा रहा, तब जाकर उसे नील कुरिंजी का फूल नसीब हुआ। और हज़ारों योजन की यात्रा के बाद जब वो फूल उसने लड़की को दिया तो वो फूल एकदम ताज़ा था।  बिलकुल उस लड़की की तरह जो अभी अभी नहा कर आई हो।
लड़के ने पूछा क्या मेरा प्रेम एक दम खरा नहीं है ? लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। अब उसे कोई जवाब देने की ज़रुरत भी नहीं थी। लड़के ने जवाब की प्रतीक्षा भी नहीं की। लड़की ने हंसकर कहा - 'तुम इस सवाल की तरह एकदम फालतू हो।'
उसके बाद दोनों ने क़सम खाई कि इस प्रेम को जीवन भर साथ रखना है।

इस कहानी के पचास बरस बाद दुनिया बहुत बदल चुकी है। संवाद अब 4 जी की तरंग पर सवार होकर किया जाता है। रोज़मर्रा के  काम अब ऐप के ज़रिये किये जाते हैं। शहरों का हुलिया बदल चुका है। ऊंची इमारतें हैं। खरीददारी के लिए अब वो दुकानें नहीं हैं जिनमें बोरियों में गुड़ रक्खा रहता है  और भिनभिनाती मक्खियां रहती है, बल्कि चमचमाते और जगमगाते मॉल्स हैं। लेकिन हवा में अब भी प्रेम है भले उसकी तासीर और तरीके में फ़र्क़ आ गया है।


संदीप और कांची इस बदली हुई दुनिया में रहने वाले नौजवान हैं। संदीप और कांची एक ही शहर में रहते हैं और सोशल मीडिया के ज़रिये एक दूसरे से जुड़े हुए भी हैं। दोनों का परिचय सामान्य सा है पर उनके कई साझे दोस्त हैं जो उनके वास्तविक दुनिया के दोस्त हैं। संदीप एक चित्रकार है सोशल मीडिया पर अपनी पेंटिंग्स के बारे में में बताने के साथ साथ कुछ न कुछ लिखता रहता है। कभी सामाजिक मुद्दों पर तो कभी कोई कहानी कविता। वो  व्यक्तिगत बातें भी शेयर करता रहता है। सोशल मीडिया पर उसकी निरंतर उपस्थिति रहती है। पेंटिंग्स के दुनियां में तो बेशक उसका नाम है, वो लिखता भी अच्छा है।  इसलिए उसकी फ्रेंड लिस्ट भी खूब लम्बी चौड़ी है। कई बार उसकी पोस्ट को कांची ने लाइक किया है और कुछेक बार हल्की फुल्की तारीफ की टिप्पणी भी डाली है। लेकिन इससे ज़्यादा नहीं। संदीप को कभी नहीं लगा कि कांची उसकी करीबी दोस्त है। ऐसा लगने का कोई कारण भी नहीं था। दोनों एक ही शहर के थे, उनके कॉमन फ्रेंड्स थे पर वे दोनों परस्पर सिर्फ परिचित भर थे। संदीप इतना ज़रूर जानता था कि कांची एक सिंगर है। उसकी आवाज़ में नैसर्गिक मिठास थी और वो संगीत की दुनियां में मज़बूती से आगे बढ़ रही थी। दोनों का मिलना अभी कुछ अरसा पहले ही तो हुआ था जब संदीप की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में कांची अपने दोस्तों के साथ आई थी। दीर्घा में संदीप ने सबको वेलकम किया था। कांची से मिलकर उसे अच्छा लगा था। कांची ने उसके चित्रों को बहुत मन से देखा था। वास्तविक दुनिया की इस मुलाकात के बाद दोनों सोशल मीडिया पर औपचारिक रूप से जुड़े रहे पर दोनों में कई दिनों तक अगली किसी 'वन ऑन वन' मुलाक़ात का आग्रह नहीं था। पर ये सिलसिला एक दिन टूटा।  हुआ यूँ कि संदीप ने पिछले वैलेंटाइन्स डे पर एक पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर की थी जिसमें उसने लिखा था -

"आज प्रेम दिवस है। मैं आज बरसों पुराने प्रेम के अटूट बंधन को यहां उजागर कर रहा हूँ। मेरी दादी पिछले महीने स्वर्ग सिधार गयी है। उन्होंने जीवन को भरपूर जिया था। उन्होंने अपने आखरी दिनों में मुझसे एक बात कही थी। अपने प्यार के बारे में। शादी से पहले मेरे दादाजी से उन्होंने नील कुरिंजी का फूल लाने को कहा था और मेरे दादा ने इस फूल के लिए खूब कष्ट उठाकर लम्बी यात्राएं की थी। आखिर में वे इस फूल को लाने में कामयाब हुए थे।  फूल हासिल करने के महीनों बाद इस शहर में आकर उन्होंने दादी को फूल दिया तो वो बिलकुल ताज़ा रहा।  प्रेम की ताज़गी उसमें बनी रही। आप सबको प्रेम दिवस मुबारक "

इस पोस्ट को पढ़ने के तुरंत बाद इनबॉक्स में कांची का सन्देश चमका -
"मुझे आपसे जल्द मिलना है। दिन, जगह और समय बताएं। और क्या ये जल्द हो सकता है ?"
मैसेज पढ़कर संदीप कुछ सोचने लगा। क्या कांची पेंटिंग- प्रदर्शनी के बाद से ही मुझसे अलग से मिलना चाहती थी और वैलेंटाइन्स डे की पोस्ट ने इसमें किसी उत्प्रेरक का काम किया है?  कांची से एक खास मुलाकात करने का विचार संदीप के कोमल कोनों को छू गया। उसने तुरंत मैसेज का जवाब दिया और अगले दिन दोपहर 12 बजे मॉल के फोर्थ फ्लोर के फ़ूड कोर्ट में इंतज़ार करने का वादा कर दिया।

संदीप को अपने किसी ख़ास से मिलने  के लिए इस मॉल का फ़ूड कोर्ट ही सबसे ठीक लगता था। तमाम भीड़ के बावजूद मॉल में आपकी प्राइवेसी को कोई खतरा नहीं है। असल बात तो ये है कि लोग अब आपकी परवाह नहीं करते। कोई जान पहचान वाला मिल भी जाए तो उसके पास ठहर कर बात करने ले किये समय नहीं होता। और वैसे भी मॉल अपने आप में एक अलग ही दुनिया है। आप एक बार घुस जाइये तो पूरा घूमकर बाहर आने में कई घंटे लग जाते है।मां बाप खरीददारी में व्यस्त रहते है तो बच्चे आइस पाइस खेलते रहते हैं।
फिर भी संदीप को दोपहर का वक्त ठीक लगता था जब मॉल में गिनती के लोग होते थे और फ़ूड कोर्ट में आपको अपनी पसंद का कोना आसानी से मिल जाता था। आज वो कांची से मिलने के लिए इसी मुक़र्रर जगह आ रहा था। अपने घर से यहां तक आने में उसे शहर को ऊपर से नीचे तक पूरा काटना पड़ता था। शहर को स्मार्ट बनाने के लिए उसे पूरा खोद दिया गया था। आधुनिक मशीनों से शहर के पथरीले सीने को छलनी किया जा रहा था। बाद में इन सबका का कुछ अच्छा ही बने, फिलहाल शहर में सड़कों पर जगह जगह 'असुविधा के लिए खेद है' के बोर्ड टंगे थे। इस वजह से ट्रैफिक का हाल बुरा था। उसे बेहद कोफ़्त होने लगी। उसे बार बार  लग रहा था कि उसके आगे सारे के सारे गाड़ी वाले कहीं सो तो नहीं  गए थे। खीझ में वो हॉर्न पर हॉर्न दिए जा रहा था। चूँकि वो घर से काफी पहले रवाना हो गया था इसलिए वो सही वक्त पर मॉल पहुँच गया और कुछ ही देर बाद फ़ूड कोर्ट में था। कांची एक कार्नर टेबल पर पहले ही वहां बैठी थी। उसके अलावा वहां उस वक्त कोई और नहीं था।

उसने संदीप का मुस्कुराकर स्वागत किया। बैठने के बाद कांची की इजाज़त से उसने दोनों के लिए एकबारगी कॉफ़ी आर्डर की।
"मैंने कल की आपकी पोस्ट पढ़ी थी, नील कुरिंजी...... " सिर्फ सन्दर्भ की और इशारा कर बात अधूरी रख दी।
" हाँ, कल वैलेंटाइन्स डे था तो दिन के हिसाब से मैंने अपनी एक निजी बात शेयर कर दी। मेरी दादी ने ही मुझे बताया था कि उन्होंने शादी से पहले मेरे दादा से नील कुरिंजी की फरमाइश की थी जो आज भी पूरी करना मुश्किल है तो उस ज़माने में तो एक असंभव काम था। पर प्यार तो असंभव कामों का हौसला दे देता है। "
" एक बात पूछूं" - कांची ने कहा - " क्या जिनसे आपकी दादी ने वो फरमाइश की थी वो आपके दादा ही थे ?"
"आप भी क्या बात करती हैं। और कौन होगा"? संदीप ने बेहिचक जवाब दिया।
कांची कुछ देर चुप रही। फिर उसने कहा -
" असल में मेरे दादा की मृत्यु भी कुछ महीने पहले ही हुई है। वो मेरे बेस्ट बडी थे। मैं उनसे कई बातें शेयर करती थी। और मैं अक्सर उनसे पूछती थी कि दादा आपने कभी किसी से प्रेम  किया, और वो हर बार मेरी बात टाल देते थे। अपनी मृत्यु का जैसे उन्हें पूर्वाभास हो गया था। अपने अंतिम प्रयाण से एक दिन पहले उन्होंने मुझे बुलाकर कहा था कि बरसों पहले उन्हें एक लड़की से प्रेम हो गया था और उस प्रेम के लिए वे सुदूर दक्षिण में नील कुरिंजी का फूल लेने चले गए थे। फूल हासिल करने और लड़की तक पहुँचाने में महीनों लग गए थे पर उन्होंने कहा वो फूल एकदम ताज़ा रहा। मेरे दादा ने स्वीकार किया कि जिस लड़की से उन्हें प्रेम हुआ था वो मेरी दादी नहीं थी। "

अचानक संदीप के मन आलोक से भर उठा।  उसे समझ आया था कि उसकी दादी ने ये कभी नहीं कहा था कि उन्होंने 'दादा' से ऐसी फरमाइश विवाह से पहले की थी। ख़ुद उनके शब्दों में " मैंने 'उनको' नील कुरिंजी का फूल लाने को कहा। " ये जो 'उनको' शब्द था ये दादा के लिए नहीं उस लड़के के लिए था जो बाद में कांची के दादा हुए।
संदीप काफी देर तक चुप रहा। अपने में ही खोया। फिर उसने कहा - " सच में दोनों अपने प्रेम को साथ लेकर जिए। उनकी शादी भले ही नहीं हो सकी पर उनके बीच का प्रेम दोनों में ज़िंदा रहा। अपने विशुद्ध अपरिवर्तित और पवित्र रूप में। "
संदीप की आँखों में पानी भर आया था। कांची की आँखें भी छलक रही थी।

इसके बाद दोनों कई बार मिलते रहे। कोई आग्रह नहीं। मिलने की कोई व्यग्रता नहीं। वे दोनों एक अनजान रिश्ते से बंध गए थे। अपने पूर्वजों के प्रेम से वे इतने आप्लावित थे कि अभी उन्हें किसी नाम विशेष वाले बंधन में बंधने की जल्दी नहीं थी। वे इस अहसास से ही संतृप्त थे कि  आधी सदी पहले एक लड़के और लड़की ने ऐसा प्यार किया था जिसके साथ कोई शर्त अटैच्ड नहीं थी। साथ रहने की भी नहीं। और जो अपने तात्विक रूप में इतना पवित्र था कि संदीप और कांची के मन में अब तक चन्दन की तरह महक रहा था। दोनों को लग रहा था कि उन्हें बताकर उस प्यार के अंश को हस्तांतरित किया गया है। और अब इस अमूल्य विरासत की रक्षा का दायित्व उनका है।

आज 14 फरवरी है। वैलेंटाइन्स डे।  संदीप और कांची एक बार फिर मॉल के उसी फ़ूड कोर्ट के कोने पर बैठे हैं। दोनों काफी देर से अपने में ही खोये हैं। वे तीसरी कॉफी ख़त्म कर चुके हैं। पर दोनों में से कोई इस मुलाक़ात को आज खत्म नहीं करना चाहता। मॉल में आज और लोग भी आस पास बैठे हैं। कई उस फ्लोर पर यूँ ही गुज़र रहे हैं। उन दोनों के बीच एक साझा एकांत है जिसमें वे बैठे है। ये एकांत बहुत घना और ठोस नहीं है बल्कि एक झीना और रेशमी आवरण की तरह उनसे लिपटा है।
कांची के मोबाइल की स्क्रीन नोटिफिकेशन साउंड के साथ चमक उठी।  कांची ने देखा - नीलकुरिंजी के फूल की फोटो थी और सिर्फ इतना लिखा था - " मुबारक "
भेजने वाला उसके सामने बैठा संदीप ही था। कांची ने उसकी और देखा तो वो मुस्कुरा रहा है। उसके चेहरे पर भी मुस्कान की रेखा फ़ैल गई।