tag:blogger.com,1999:blog-90221772865613861682024-03-13T15:14:17.523+05:30संजय व्यासsanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.comBlogger100125tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-35250337024993843372019-05-24T16:55:00.001+05:302019-05-24T17:07:58.064+05:30जब परिचित लोगों में ज़्यादा संख्या मरे हुओं की हो जाती है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgx1WcFgh46yxXXKAKBmVDhd3gkMgRWLcCO_UGwwRV0HK9_rE1dUupCX0-WYhEzfktgbF2Recnp6AJnOM3QyoehI9scOjv1DbrJCLwd2zu20D8TB_8bZH0JtuKeQlC31BpmWckdJPYKjKs/s1600/IMG_20190521_174054.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1129" data-original-width="1600" height="281" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgx1WcFgh46yxXXKAKBmVDhd3gkMgRWLcCO_UGwwRV0HK9_rE1dUupCX0-WYhEzfktgbF2Recnp6AJnOM3QyoehI9scOjv1DbrJCLwd2zu20D8TB_8bZH0JtuKeQlC31BpmWckdJPYKjKs/s400/IMG_20190521_174054.jpg" width="400" /></a></div>
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इतालो कल्विनो की मशहूर किताब 'इनविजिबल सिटीज़' बहुत समय से मेरे पास है। किताब को मैंने अपने मुताबिक इस तरह बनाया है कि इसे जब इच्छा होती है कहीं से भी पढ़ सकता हूँ। इसमें मार्को पोलों बहुत सारे शहरों के बारे में बताता है। हालांकि वो तमाम शहरों के हवाले से सिर्फ़ अपने शहर वेनिस की बात ही कर रहा होता है, पर मैं तमाम कल्पित शहरों के टुकड़े टुकड़े वृत्तांतों को भी फंतासी की तरह पढ़ना पसंद करता हूँ। </div>
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किताब से एक अंश - </div>
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(सिटिज़ एंड द डैड - 2 )</div>
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मेरी यात्राओं में मैं एडेलमा जितना दूर कभी नहीं गया।</div>
<div style="text-align: justify;">
ये गोधूलि का वक़्त था जब मैंने वहां क़दम रखा। डॉक पर जिस जहाजी ने रस्सी खूँटे से बांधी थी वो उस आदमी से मिलता जुलता था जिसने मेरे साथ फौज़ में नौकरी की थी और अब मर चुका था। ये वक़्त थोक मच्छी बाज़ार का था। एक बूढ़ा आदमी सी-अर्चिन से भरी टोकरी गाड़ी में लाद रहा था। मुझे लगा मैं उसे जानता था। मैं जब तक मुड़कर उसे देखता वो गली के छोर से ग़ायब चुका था। लेकिन मैंने महसूस किया कि वो मेरे बचपन में देखे उस बूढ़े मछुआरे से काफ़ी मिलता था जो अब, ज़ाहिर है, ज़िंदा नहीं हो सकता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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बुख़ार में तपते उस आदमी को देखकर मैं असहज हो गया जो ज़मीन पर खुद को सिकोड़ कर पड़ा था। उसके माथे पर कम्बल थी। ठीक इस आदमी की तरह ही मेरे पिता की भी मौत से कुछ दिन पहले आँखें इसी तरह ज़र्द हो गयी थीं, दाढ़ी बढ़ गयी थी।</div>
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<br /></div>
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मैंने अपनी नज़रें हटा लीं। इसके बाद किसी आदमी के चेहरे में झाँकने की हिम्मत मैंने नहीं की।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने सोचा - " एडेलमा वो शहर है जो मैं सपने में देख रहा हूँ और जिसमें आपकी मुलाक़ात मृत लोगों से होती है, तो ये सपना डरावना है। और अगर एडेलमा सचमुच का शहर है, ज़िंदा लोगों का, तो सिर्फ़ उनकी ओर देखते रहना है और मिलती जुलती परिचित शक़्लें अपने आप मिट जाएंगी, पीड़ा लिए अजनबी चेहरे उभर आएँगे। जो भी हो मेरे लिए सबसे ठीक यही है कि मैं उनकी तरफ़ न देखूं। "</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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सब्ज़ी- ठेले वाली गोभी तौल कर उसे उस टोकरी में रख रही थी जिसे एक लड़की ने अपने बालकनी से डोर ज़रिये नीचे लटका रखा था। वो लड़की मेरे गाँव की उस लड़की से हूबहू मिलती थी जिसने प्रेम में पागल होकर अपनी जान दी थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
सब्ज़ी बेचने वाली ने अपना चेहरा उठाया - वो मेरी दादी थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने सोचा - "हरेक अपनी ज़िन्दगी में उम्र के उस पड़ाव पर ज़रूर पहुंचता है जब उसके अब तक के परिचित लोगों में ज़्यादा संख्या उनकी होती है जो मर चुके होते हैं, और दिमाग़ इससे ज़्यादा चेहरे और भाव याद रखने से मना कर देता है, हर नए सामने आने वाले चेहरे पर ये पुरानी शक़्लें ही छाप देता है, हरेक के लिए ये उपयुक्त मुखौटा ढूंढ ही लेता है। " </div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-2132970270880943982019-03-18T12:19:00.003+05:302019-03-19T11:48:25.071+05:30ढाबा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiR4evByDWpjG7xpo8_juJDeK_eFjjgkWycbQ8jXGNUN2xAzWZ8UwdhjeT6kJE_wdQm-KO1nvQ6taEyfW6gURUxjFrN-TTLwNPLppK3-nzNI4qlovmz6Equ2jTQdAZX8YDUe8_SUijCvxs/s1600/DSC_0566.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1060" data-original-width="1600" height="261" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiR4evByDWpjG7xpo8_juJDeK_eFjjgkWycbQ8jXGNUN2xAzWZ8UwdhjeT6kJE_wdQm-KO1nvQ6taEyfW6gURUxjFrN-TTLwNPLppK3-nzNI4qlovmz6Equ2jTQdAZX8YDUe8_SUijCvxs/s400/DSC_0566.JPG" width="400" /></a></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो इस मैदानी शहर की सर्द रात थी। अरसे बाद वो यहां आया था। इस शहर की एक ख़ासियत थी। ये शहर जल्दी सो जाता था। दिन भर ये शहर भीड़ भाड़ ,गाड़ियों की चिल्ल पौं, मॉल्स, और फैशन की चमक दमक के बीच इतराता पर रात के पहले कुछ घंटों में ही इसका शहर शहर खेलना बंद हो जाता, और ये अपना शहरी मुखौटा उतार देता। किसी मासूम बच्चे की तरह ये शहर रात ढलते ही जैसे सोने की तैयारियों में मुब्तिला हो जाता। और फिर सो जाता। जल्द। आप रात के 10 बजे शहर में घूमना चाहें तो सड़कें अमूमन वीरान ही मिलेंगीं। और फिर ये तो रात के 11 बजे के बाद का वक़्त था। वो चौराहे से एक तरफ कोने में दबे पान के केबिन के पास खड़ा था। वो भी बंद हो चुका था। आसपास कोई हलचल नहीं। इक्का दुक्का कोई गाड़ी आकर उस जमे हुए ठोस सन्नाटे को भंग कर रही थी। उसने एक नज़र कुछ ही दूर उस जगह पर डाली जो कभी वो कॉलोनी हुआ करती थी जहां वो रहता था। जी हाँ, अब उस जगह कॉलोनी नहीं, बल्कि कई मंज़िल ऊंची कोई मीनार थी। इस मीनार में जगह जगह लोहे की मशीने लगी थीं जो उसे कोई दैत्यनुमा अजूबा बना रही थी। आसपास ही कहीं एक चाय की दुकान भी हुआ करती थी जो किसी ज़माने में उसकी पसंद <span style="text-align: left;">का अड्डा हुआ करता था। चायवाला 30-35 की उम्र का आदमी हुआ करता था। उसके चेहरे पर गरीबी, बेचारगी और अपराधबोध की त्रयी के स्थायी भाव छपे थे। बिना कुछ किये चेहरे पर ग्लानि के निशान ग़रीबी के अस्थियों की मज्जा तक घुस जाने से बनते हैं। ये तय था कि वो चायवाला अब तक तो धरती के गाल से भी साफ़ किया जा चुका था। उस चाय की थड़ी का भी अब दूर दूर तक कोई चिह्न नहीं था। ज़ाहिर था अब ये जगह उसके लिए नितांत अपरिचित थी। पर शायद नहीं। उसकी नज़र सामने पीली मरी हुई रौशनी में टिमटिमाते एक भोजनालय पर गई। आसपास की रौशन मीनारों के साये में भी ये दुर्बल ढांचा अभी बना हुआ था इस बात में आश्चर्य था। उसे कुछ याद आया। हाँ इसी जगह तब भी एक भोजनालय हुआ करता था जब वो यहां रहता था। नाम ज़रूर बदला हुआ लग रहा था पर उसे महसूस हो रहा था कि दिखने में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ था। वैसे नाम पर उसने कभी गौर नहीं किया था पर चूँकि वो सामने ही रहता था और कितनी ही बार उसका वहां से गुज़रना होता था इसलिए उसे याद था इसका नाम - बजरंग बली वैष्णव भोजनालय।</span></div>
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उसे अचानक घर जैसा महसूस होने लगा। इस सर्दी में उसे सामने दीखते ढाबे में से अपनेपन की धीमी आंच आने लगी थी। सर्द एकांत में उसे ढाबे का खुला होना बड़ा भला लग रहा था। वो इस नाउम्मीद समय में उम्मीद की तरह रोशन था। ढाबा अगर था तो तय था कि उसमें भट्ठी थी। और अगर खुला था तो तय था कि उसकी भट्ठी में ताप था। "कितना सुखद होता है किसी चूल्हे का ताप!" उसने सोचा। अपनी अंदरूनी भित्तियों से आभा बिखेरता, तमतमाया चूल्हा कितना सुंदर लगता है! एक किस्म की लाल रौशनी में चमकता। उसे सहसा तेज़ भूख का अहसास होने लगा। उसने फ़ैसला किया, वो ढाबे में जाकर छक कर खाना खाएगा। जो भी उपलब्ध होगा उस वक़्त, उसे अच्छा ही लगेगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बीच की सड़क पार कर वो ढाबे पर पहुंचा। उसे तसल्ली हुई की उसमें कुछ लोग थे। खाना खाने वाला ग्राहक शायद कोई नहीं था, स्टाफ ही खाना खाने की तैयारी में था।</div>
<div style="text-align: justify;">
खाना मिलेगा भाई साब ? उसके सवाल पर एक आदमी ने उसकी ओर देखा और काफ़ी देर तक कोई जवाब नहीं दिया। उसने स्टाफ की तरफ देखा और वहां से तसल्लीबख़्श जवाब आने पर उसे अंदर आने का इशारा किया।</div>
<div style="text-align: justify;">
वो एक ख़ाली टेबल पर बैठ गया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"कभी यहां बजरंग बली वैष्णव भोजनालय हुआ करता था..."</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उस मुसाफिर ने बात इस तरह अधूरी छोड़ी कि उसमें और कुछ न जोड़ा जाय तो भी काम चल जाए। पर उसकी बात का गज़ब असर हुआ और जिस आदमी ने उसे खाने की टेबल पर बैठने का इशारा किया था उसकी आँखे चौड़ी हो गयी। उसकी दिलचस्पी मुसाफ़िर में अचानक से बढ़ गयी। वो टेबल पर मुसाफिर के सामने आकर बैठ गया। उसकी इस हरकत से रात के इस वक़्त बचा हुआ स्टाफ हरकत में आ गया। तुरंत पानी रखा जाने लगा। प्याज़ और मिर्ची काट कर रख दिए गए। और टेबल पर एक थाली और दो कटोरियां रखीं गयी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुसाफिर समझ गया था कि उसी बात का असर है और ढाबे का मालिक या संचालक या जो भी वो था, उसके सामने यों ही नहीं बैठ गया था। मुसाफिर ने आखिर उसे पूछा-</div>
<div style="text-align: justify;">
" आप इस ढाबे के मालिक है? क्या आप वाक़िफ़ हैं कि यहां बजरंग बली भोजनालय हुआ करता था ?"</div>
<div style="text-align: justify;">
ढाबे का मालिक या संचालक कुछ नहीं बोला। मुसाफिर ने अपने पहले कहे में कुछ ओर जोड़ते हुए कहा -</div>
<div style="text-align: justify;">
" मैं असल में, सामने कभी गणेश कॉलोनी हुआ करती थी उसमें रहता था। यही कोई बीस बरस पहले...." उसकी बात को अधूरा छोड़ने की शायद आदत थी। या शायद उसका बोलने का तरीका जो बात पूरी होने पर भी अधूरे की तरह छोड़ने वाला था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
" जिसकी तुम बात कर रहे हो वो ढाबा तो कब का बंद हो चुका, " आखिर ढाबेवाले ने असह्य रूप से भारी और गाढ़े हो चुके मौन तोड़ते हुए कहा, " वो भी क्या दिन थे" - वो कहीं जाता जा रहा था - " मैं तब उसमें कुक था और मुझे बनवारी यहां लाया था। बनवारी इस ढाबे का पहला मालिक। वो हनुमान जी का पक्का भक्त था। इसलिए सोचने की ज़रुरत थी ही नहीं और बजरंग बली भोजनालय इस दुनियां में आया। अपने आने के कुछ ही दिनों में ढाबा रौनके भी ले आया। ग्राहकों की ठीक ठाक भीड़ रहने लगी। ढाबे के अंदर धुआँ, सिके गेहूं और मिर्च के बघार की गंध का अपना एक संसार बन गया।"</div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ देर तक फिर से एक चुप्पी पसर गई। उसने आख़िर अपनी बात फिर शुरू करते हुए कहा -</div>
<div style="text-align: justify;">
" एक असगुन अचानक बनवारी की ज़िन्दगी में आ गया। बनवारी की बेटी की शादी के ठीक दस दिन पहले वो मर गई। किसी ने उसका क़त्ल कर दिया। बनवारी को पता नहीं था पर लोग ऐसा मानते थे कि लड़की के प्यार में पागल एक शख़्स को उसकी शादी किसी और से मंज़ूर नहीं थी और वहशी ने उसका क़त्ल कर दिया। बनवारी गुड्डो से बहुत प्यार करता था और उसके साथ ऐसा होने पर पागल हो गया। बनवारी इस सदमे से कभी बाहर नहीं आ पाया। वो अचानक किसी के भी पीछे भागने लगता और चिल्लाता जाता, पकड़ो ! यही है कातिल। "</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"कई महीनों तक बंद रहने के बाद ढाबा बिक गया।"</div>
<div style="text-align: justify;">
" फिर इसे महादेव ने ख़रीदा। नाम दिया ' ए-वन' भोजनालय। "</div>
<div style="text-align: justify;">
"बहुत गन्दा खाना था इस नए ढाबे का। फिर भी ये चलता रहा। यहां लोग खाना खाने की बजाय चाय पीने ज़्यादा आते थे। यहां की चाय बहुत फेमस हो गई थी। ढाबे से ज़्यादा ये टी स्टाल था। तमाम तरह के लोग यहां आते थे। कॉलेज के छोरे छोरियां, नौकरी वाले, रिटायर्ड , पार्षद, मंत्री नेता सब। गंजेड़ी, भंगेड़ी, भिखारी भी। खूब चला ये ठिकाना, पर महादेव के मन में सिर्फ चाय की दूकान होने की कहीं न कहीं टीस थी। वो नाम के अनुरूप इसे प्रॉपर ढाबा बनाना चाहता था। लोग जहां अपनी फॅमिली के साथ आएं और खूब डट कर खाना खाकर जाएं। महादेव ख़ुद कुक ही था। ढाबे का मालिक बनने के बाद भी उसके अंदर का रसोइया जागा रहता था। असल में वो अपने आप को बहुत मंझा हुआ रसोइया मानता था। वो कलकत्ते में मारवाड़ी सेठों का रसोइया रह चुका था। इस बात की उसके मन में बहुत आंट थी। गुरूर किस बात का था उसे ये मैं समझ नहीं पाया। जब ढाबा अपने खाने के लिए शुरू से ही नहीं चला तभी उसे समझ जाना चाहिए था कि ये हुनर उसके पास नहीं है। हाँ मालिक होने के नाते वो किसी ढंग के कुक को रखकर कमा सकता था। और फिर चाय उकाळ उकाळ कर पैसे तो वो ठीक ठीक खड़े कर ही रहा था।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो ढाबे के दूसरे मालिक की कहानी सुन रहा था पर न जाने क्यों उसकी दिलचस्पी इसके बाद थोड़ी कम हो गयी थी। उसे तगड़ी भूख सता रही थी। सिके गेहुओं की गंध उसके दिमाग़ में उत्पात मचा रही थी। उसने अपने मेज़बान की तरफ देखा तो वो चौंक गया। उसकी आँखों की पुतलियां ऊपर चढ़ी हुई थी। साफ़ तौर पर वो समय के किसी और ही तल पर खड़ा था। उसने अपनी भूख को भरसक काबू में रखा और फिर से उसके बोलने का इंतज़ार करने लगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
" मदादेव " - उसने फिर बोलना शुरू किया - " दो कौड़ी का रसोइया था ये बात खुद महादेव की समझ में आ जानी चाहिए थी। पर वो कहाँ समझने वाला था। उस पर तो कलकत्ता का रसोइया सवार था। एक दिन उसने चाय का भगौला बाहर फेंक दिया और ढाबे पर नया बोर्ड टांग दिया ' महादेव भोजनालय' । उसने चाय बनाने वाले कारीगर को नौकरी से निकाल दिया और तमाम लोगों से कह दिया कि चाय यहां नहीं मिलेगी।"</div>
<div style="text-align: justify;">
" और इस तरह ये भोजनालय एक दिन फिर से बंद हो गया। चाय पीने वालों ने शहर में नया अड्डा ढूंढ लिया। अच्छा खाना जिनको चाहिए था उनके लिए तो ये वैसे ही काम की जगह थी नहीं। लोग इस जगह को जल्द ही भूल गए। मैंने महादेव से यहां काम माँगा था पर उसने मुझे दुत्कार दिया, कहा, दो रसोइये यहां क्या करेंगे। मैंने कहीं और काम कर लिया। मुझे असल में बनवारी के इस ढाबे पर काम चाहिए था। मुझे काम की कमी नहीं थी। पर खैर.."</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेहमान भूख से उतावला हो रहा था पर उसने अपने मेज़बान को वापस इस रात पर आने तक इंतज़ार करना ठीक समझा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"बरसों तक ये ढाबा फिर बंद पड़ा रहा। इस बीच इस इलाके का काया पलट होता रहा। गणेश कॉलोनी बिखर कर सपाट हो गई। उस पर एक मीनार खड़ी हो गयी। कई कंपनियों के टावर इधर उधर लगते रहे। इलाके में जगह जगह सफ़ेद लाइटें लगती रहीं। पर इस बंद जगह पर चूल्हा बना रहा। बुझे चूल्हे में शायद कोई चिंगारी जली रह गयी।"</div>
<div style="text-align: justify;">
" बनवारी को चैन शायद इस जगह पर ही मिलता था। बरसों तक पागलपन और नीमबेहोशी के बाद आख़िर वक्त के हाथों मरहमपट्टी से वो कुछ होश में आने लगा। उसके पास ज़्यादा कुछ था नहीं पर गाँव का खेत बेचकर उसने फिर से इस ढाबे को खरीद लिया। मैं फिर उसके साथ आ गया। आखिर बनवारी मेरा दोस्त जो था। अब वो दिन भर यहीं बैठा रहता है। बहुत ज़्यादा रौनक तो नहीं पर थोड़ी बहुत से ही उसका मन लगा रहता है।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसने अपनी भूख के बीच पूछा - " अब तो लोगों की पसंद का ठिकाना होगी ये जगह?"</div>
<div style="text-align: justify;">
" अरे अब कहाँ, अब लोगों के लिए घर की रसोई कहाँ चाहिए। अब तो विदेशी नाम वाली चीज़ें काबिज़ हो गयीं हैं। गेहूं की रोटी ने अपनी पकड़ खो दी है। अब तो ठीक है .. कोई परदेसी आ जाए, या गाँव से कोई भूला भटका..</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक हल्की धप्प की आवाज़ से नौकर ने मेहमान की थाली में रोटी रख दी। साथ में ग़र्म, तेज़ मसाले वाली पीली दाल उसकी कटोरी में डाल दी। अब उससे रहा नहीं गया। उसने बिना मेज़बान की ओर ध्यान दिए उतावला होकर खाना शुरू कर दिया। मेज़बान को उसका ध्यान ही था। उसकी आँखों की पुतलियां अब भी उल्टी हो रखी थीं। वो अब भी बनवारी का पहला कुक बना हुआ था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-12342029943267148502019-03-13T13:11:00.000+05:302019-03-13T13:11:40.798+05:30मंदिर को जाती सड़क<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
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<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZvgLchzqdZaQ_McndsEXZa7p0zGblNmB6ZcOsfG8b9q-bzUV2JfKg8rEnAIW0vhAG1cfAeGqFTeDfHOT5E7uaJ1wlcdILga2fVAFbiy9yQllGM7gUKP72K8QFon8JoHBjFIGCUE_BMpw/s1600/DSC_1011.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1060" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZvgLchzqdZaQ_McndsEXZa7p0zGblNmB6ZcOsfG8b9q-bzUV2JfKg8rEnAIW0vhAG1cfAeGqFTeDfHOT5E7uaJ1wlcdILga2fVAFbiy9yQllGM7gUKP72K8QFon8JoHBjFIGCUE_BMpw/s640/DSC_1011.JPG" width="423" /></a></div>
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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वो जहां रहता था वहां का आसमान बिजली और टेलीफोन के तारों में उलझा था। इन तारों पर शाम के समय लम्बी लम्बी कतारों में कबूतर बैठा करते थे। पानी की ऊंची टंकियों, मंदिरों की फरफराती ध्वजाओं और खम्भे या तार या जहां जगह मिली वहां अटकी पतंगों ने भी अपने अपने हिस्से के आसमान को कब्ज़ा रखा था। आकाश का नीला कैनवास इस मोहल्ले में तो जैसे किसी बच्चे की ड्रॉइंग बुक का पन्ना था। नीचे ज़मीन पर तो आलम कुछ ऐसा था कि जैसे इस ड्राइंग बुक के पन्ने को बच्चे के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ा हो । इस मोहल्ले में इंसान ज़रूर रहते थे पर सबसे बेफ़िक्र यहां कुत्ते और सांड थे। ये मोहल्ला इन दो प्राणियों का अघोषित अभयारण्य था। समय के साथ इंसानों से इनका ऐसा समझौता अमल में आया लगता था कि दोनों ने एक दूसरे को सेफ पैसेज दे रखा था। काफ़ी समय से किसी बच्चे को भी इस मोहल्ले के कुत्ते ने काटा नहीं था और न ही किसी सांड ने किसी वृद्ध को अपने सींगों से क्षति पहुंचाई थी। इस तरह इस मोहल्ले में रहने वाले लोग कुत्तों और सांडों के साथ एक करार से बंधे थे जो टिका तो हालांकि किसी बारीक संतुलन पर ही था। बेशक ये एक आम दिनचर्या की बात थी और इसमें अपवाद शामिल नहीं थे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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इसी मोहल्ले में पलाश यानी पोलू का घर था। उसका घर मोहल्ले के चौक में था जहां आसपास अलग अलग तरह की छोटी मोटी दुकानें थीं। एक पेड़ के नीचे मुक्ताकाशी हेयर कटिंग सलून , चाय की थड़ी , कुछ सब्ज़ियों के ठेले , किराना शॉप , पान कार्नर वगैरह की वजह से उसके घर के बाहर सुबह से देर रात तक लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। कई बार पोलू को इससे कोफ़्त होती थी पर उसके दादाजी के लिए ये एक अनवरत थियेटर जैसा था जिसे वे अपने कमरे की झरोखेनुमा खिड़की में बैठ कर देखा करते थे। वे इसमें मूक दर्शक की तरह हिस्सा लेते थे। चाहे मोहल्ले में झगड़ा हो जाये , सांड बिफर जाए या परदेसी आ जाय, वे इस थियेटर को लगभग अविचल सिर्फ़ देखा ही करते थे। निस्पृह। निर्लिप्त। साक्षी भाव से मात्र। वे अपनी आँखों के आगे बहुत सारी कहानियां घटित होते देखते थे। बिना किसी भी कहानी का पात्र बने। लेकिन दादाजी को ये पता नहीं था कि जिस घर की खिड़की से वे मोहल्लायन देखा करते थे वो घर इसमें शामिल हो चुका था। इस घर का ही पोलू यानि उनका पोता इसी मोहल्ले की, उनके घर के पीछे रहने वाली एक लड़की के प्रेम में आ चुका था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पोलू के लिए ये एक तरह से ठीक ही था कि दादाजी को उसके इस एडवेंचर का पता ही नहीं चला। ये बात सही थी कि वे ख़ुद मोहल्ले की लीलाओं में शामिल नहीं होते थे पर उनकी रूचि थी। तभी तो वे दिन भर दर्शक दीर्घा में बैठे रहा करते थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
और फ़िर मामला घर का हो, आग घर में ही लग जाय तो कौन आदमी इस पर भी सिर्फ मज़े लूटने के लिए दर्शक की तरह बैठा रहेगा। आखिर इसकी आंच कभी न कभी तो देखने वाले तक भी पहुंचनी ही थी। इसलिए दादाजी को पोलू के प्रेम के बारे पता नहीं लगा ये ठीक ही हुआ। इसमें लड़की का घर चौक में न होना भी एक बड़ी वजह थी क्योंकि चौक में जो कुछ भी होता था वो दादाजी की नज़र से बच जाए ये संभव नहीं था।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पोलू को अपने प्यार में होने का पता एक दिन अचानक चला। वो लड़की को तो बचपन से ही जानता था, उसे आये दिन देखता था। उसे कभी लगा नहीं कि उसके साथ प्यार जैसा कुछ है। उसने जब इस प्यार के उत्स को खोजने की कोशिश की तो वो एक बुख़ार में मिला। हुआ ये कि लड़की जिसका नाम नीलू था मोहल्ले में ही रहती थी और उसका इस मोहल्ले में आना जाना ज़ाहिर सी और सामान्य सी बात थी, जैसे कि पोलू का आना जाना। पोलू ने कभी मोहल्ले में उसकी उपस्थिति पर अतिरिक्त ग़ौर नहीं किया था। पिछले दिनों जब उसकी मामी हॉस्पिटल में भर्ती थीं तो जनाना वार्ड में उसने मामी के बेड के पास ही नीलू को भी लेटे पाया था। उसे बुख़ार के साथ कुछ कॉम्प्लीकेशन्स की वजह से भर्ती करना पड़ा था। उसने देखा था नीलू का चेहरा उदास सा था। चेहरे का रंग कागज़ की तरह सफ़ेद हो चुका था। ये नीलू उस नीलू से अलग थी जिसे वो जानता था। वो जिसे जानता था वो जीवन से लबरेज़ नीलू थी। ये जबकि, पस्त, पराजित दिखती थी। अगर ये अस्पताल न होता और उसे पता न होता कि वो बीमार है तो कोई भी देखने वाला कह सकता था कि लड़की किसी बड़े हादसे से बाहर आई है।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
चूँकि वो उसे और उसके परिवार को जानता था इसलिए उसने आकर हालचाल पूछा और बाहर से दवाइयां वगैरह लाने और नर्स को बुला लाने जैसे कामों में मदद भी की थी। वो उस दिन काफ़ी देर तक बैठा रहा था। नीलू की तबीयत में गंभीर जैसा कुछ नहीं था पर उसे विशेषज्ञों की देखरेख की ज़रुरत थी।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कई दिनों तक उसने नीलू को मोहल्ले में नहीं देखा। इससे पहले उसने नीलू के दिखने या न दिखने पर शायद ही कभी ग़ौर किया होगा। पर जब से उसने नीलू का ज़र्द चेहरा देखा था, उसे तुरंत मोहल्ले में दिखने वाली नीलू याद हो आई। चुलबुली सी नीलू। उसके कुर्ते पर कई सारे रंग बैठे दीखते। उसके चेहरे पर मुस्कान की लम्बी रेखा खिंची रहती। और अब उतरा हुआ ज़र्द चेहरा। उसने नीलू को उस दिन हस्पताल में देखने के बाद कई दिन तक मोहल्ले में नहीं देखा तो उसके मन में आया कि वो उससे जाकर कहे कि वापस पहले वाली नीलू हो जाओ। तुमने कुछ ज़्यादा ही आराम कर लिया है तुम इतने दिन तक बीमार नहीं रह सकती। </div>
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<br /></div>
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पर ख़ैर , उसने पता किया तो बताया गया कि वो अब ठीक है। हॉस्पिटल से भी उसे कुछ दिन पहले छुट्टी दे दी गयी है।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कई दिन बाद पोलू को वो दिखी। वो अपने भाई के साथ बाइक की पिछली सीट पर बैठी कहीं जा रही थी। उसने अपनी तरफ देखते पोलू को देखा तो वो धीमे से मुस्कुराई। उस दिन अस्पताल में उसके पास भी पोलू आया था, उसका ये मुस्कुराना उसकी तरफ़ से शायद 'थैंक यू' जैसा था। पोलू को अच्छा लगा पर भाई के साथ उसे देखकर मन में ये शंका पैदा हुई उसे अभी भी घरवाले अकेले नहीं भेज रहे हैं। वो अभी भी बुख़ार की कमज़ोरी से पूरी तरह बाहर नहीं आई है। वो अभी भी पहले वाली नीलू नहीं थी। उसके चेहरे पर थकान के निशान साफ़ पढ़े जा सकते थे।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फिर कई दिनों का अंतराल रहा। पोलू ने इस बीच प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग ज्वाइन कर ली थी। साइकिल से एक दिन शाम को कोचिंग के बाद घर लौटते समय उसे फ़िर नीलू दिखी। उसके हाथ में छोटा सा पॉलिथीन बैग था जिसमें दूध की दो तीन थैलियां थीं। पोलू ने साइकिल उसके पास रोक ली। नीलू के चेहरे पर फिर से एक फ़ीकी मुस्कान उभर आई।</div>
<div style="text-align: justify;">
"तुम अब ठीक हो "</div>
<div style="text-align: justify;">
"हाँ "</div>
<div style="text-align: justify;">
"पहले वाली बनने में कितना वक़्त लगेगा "? पोलू का ये सवाल उसकी उम्र से ज़्यादा बचकाना था। इस सवाल से नीलू अचकचा गई। उसे तुरंत जवाब नहीं सूझा पर वो हंस पड़ी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसके बाद पोलू के कोचिंग से लौटने पर कई बार वो हाथ में दूध की थैलियां लिए मिली। वो हर बार रुकता और किसी न किसी बचकानी बात से उसे हंसाता। कई बार उसकी कोशिशों के बाद भी वो सिर्फ़ फ़ीकी सी मुस्कान किसी तरह होठों पर ला पाती। इस वाली मुस्कान में उसके चेहरे पर कोई रौशनी नहीं आती थी। बल्कि ऐसी ज़बरिया प्रतिक्रियाओं में खिंची मांसपेशियों से अगले ही पल एक थकान उसके चेहरे पर पसर जाती। पोलू समझ जाता। उसकी ये कोशिश सिर्फ उसका मन रखने के लिए थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
अब पोलू जैसे ही कोचिंग से छूटता उसके पाँव साइकिल के पैडल पर ज़ोर से पड़ते। वो जल्दी से मोहल्ले में आना चाहता था जहां नीलू उसे दूध की थैलियों के साथ खड़ी मिलती। कई बार उसकी पूरी कोशिशों के बावजूद वो नहीं मिलती। तब उसका मन अजीब सी बेचैनी से भर जाता। ऐसे ही किसी वक़्त में उसने सोचा कि कहाँ से शुरू हुआ था ये सब ? और पीछे की तरफ ट्रेस करने पर जवाब मिला - बुख़ार से। जब वो हॉस्पिटल में नीलू से मिला था और उसे रोज़ दिखने वाली नीलू से बिलकुल अलग, उदास पाया था तभी उसके मन में उसे लेकर कुछ विशिष्ट भावों ने शायद जगह बनानी शुरू की थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पोलू की ज़िन्दगी में नीलू थी तो थोड़ी ही पर उसका असर उसके सारे अस्तित्व पर था।जितना सतह पर उतना ही गहरे भी। वो जैसे जल में गिरी रंग की कोई बूँद थी, धीरे धीरे एक एक अणु पर चढ़ती।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अगली बार जब वो मिली तो पोलू ने उसे कहा तुम भी अपनी साइकिल ले आओ , सड़क से मंदिर वाली पहाड़ी चढ़ते हैं। ऊपर से शहर को देखेंगे। नीलू ने कहा मैं इतनी ऊंची साइकिल नहीं ले जा पाउंगी। तब पोलू उसे साइकिल पर बिठा कर ऐन ऊपर तक ले गया था। ऊपर पहुंचकर वो हल्का हांफने लग गया था। पर नीलू को जो हुआ उसने उसे चिंता में डाल दिया। पहाड़ी पर मंदिर की कुछ सीढ़ियां चढ़ते ही नीलू की सांस जैसे किसी लोहे से छिल कर आ रही थी। वो बेहद तक़लीफ़ में थी। दोनों साइकिल से नीचे आ गए। नीचे आते आते नीलू की सांस पुनः सामान्य होने लग गयी थी। पोलू जानता था कि घर में नीलू ऊपर जाने की बात को छुपा जाएगी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि नीलू के बारे में उसके घरवालों को वो कैसे बताए। वो कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं था। उसने नीलू को घर जाकर आराम करने के सलाह दी।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
नीलू का अब बाहर आना बंद सा हो गया था। पोलू समझ गया था कि नीलू बीमार थी और उसकी बीमारी किसी आम सर्दी बुख़ार वाली बीमारी नहीं थी।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मोहल्ले में दिन कुछ ही गुज़रे थे पर पोलू के लिए जैसे कई सारे मौसम सामने से गुज़र गए। उसे अब समझ में आ रहा था कि दादाजी असल में सिर्फ़ खिड़की पर ही बैठे रहते हैं, देखते कुछ नहीं है। या ये कहना ठीक होगा कि वे देखते सिर्फ़ अपने अंदर थे। उनकी दिलचस्पी बाहर नहीं अंदर के थियेटर में थी। वे अपने भीतर कई सारे शहरों को, जहां वे कभी रहे थे, देखते थे। वे उन शहरों के रास्तों पर अपने को निर्णयहीन सा खड़ा देखते थे। वे अपनी ही किताब को पढ़ते थे। वे वर्तमान में घटित होना बंद हो गए थे।</div>
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<div style="text-align: justify;">
एक दिन पोलू सच में नीलू के घर चला गया। उसका घर उसके लिए कितना पास फिर भी कितना दूर जैसा था। उसकी देहरी को उसने अपने लिए अलंघ्य मान रखा था। उसके घर जाना उसके लिए सोच विचार की प्रक्रियाओं के विफल होने के बाद अंततः लिए जाने वाला फैसला था। वो अपने कमरे में बैठी थी। पोलू को देखकर उसके मन में मुलाकातों की कोई मधुर याद आई थी ऐसा लगा नहीं। वो निस्तेज सी रही। पोलू ने एक पर्ची पर उसे अपने मोबाइल नंबर और ब्लड ग्रुप की जानकारी लिखकर दी। आखिर में उसे 'गेट वेल सून' लिखकर स्माइली बना दी।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस मुलाक़ात से पोलू एक भार से बाहर आ गया। वो अपना ध्यान अब पढाई में लगा सकता था , क्योंकि नीलू के लिए ये रास्ता अकेले तय करना था। उसकी मदद बेस्ट विशेज़ तक ही हो सकती थी। वो कितना भी स्वार्थी होकर सोच ले नीलू के वापस नीलू होने में यही मदद वो कर सकता था कि वो उसे अकेले उस रास्ते पर चलने दे। इसमें उसके घरवाले ही उसके असली मददगार हो सकते थे, वो नहीं।</div>
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ये काम पोलू के लिए मुश्किल था पर उसने कर लिया। कोचिंग से आते समय डेयरी बूथ पर उसकी नज़रें ठिठक जातीं पर वहां कोई नीलू नहीं होती। कुछ दिन ऐसा होता रहा फिर उसने डेयरी की तरफ देखना बंद कर दिया। वो मंदिर पर जाने वाली ऊंची सड़क को भी नहीं देखता। अब उसकी ज़िन्दगी की कोई सड़क नीलू के घर तक नहीं जाती थी। असल बात तो ये थी कि अब उसकी एक ही सड़क थी और वो कोचिंग तक ही जाती थी। कुछ अरसे बाद तो ये हालत थी कि उसके कमरे से भी कोई सड़क बाहर निकलनी बंद हो गयी। वो किताबों और नोट्स में धंस चुका था। उसका कमरा पन्ने, पैन, किताबों और गाइड बुक्स से आक्रांत हो चुका था। वो ठोस और शुष्क सूचनाओं का पुलिंदा बनकर रह गया था।</div>
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उसे आवर्त सारणी पूरी याद थी, पिछले दस सालों के नोबल विजेताओं के लेक्चर्स ज़बानी याद थे, सभी देशों की राजधानियां और मुद्राएं तो उसे कब की याद थीं, फीफा विश्व कप के लीग से लेकर फाइनल तक के सारे परिणाम, ओलिंपिक, क्रिकेट, यूरो कप, कोपा अमेरिका के परिणाम आंकड़े सब याद हो गए थे। वो जीके और करंट के सभी संस्करणों का एक समग्र, मोटा डाइजेस्ट बन चुका था। </div>
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उसे बचाना मुश्किल था।</div>
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ये दिन पोलू के लिए आम दिनों जैसा ही था अगर इस दिन कुछ अलग न होता। वो तो हमेशा की तरह अपने कमरे में ही था। शरीर नाम के खोल में सूचनाओं और आंकड़ों का सांद्र घोल बना हुआ। नीलू उसके घर आई थी और उसकी हालत देखकर उसे खींचकर बाहर ले आई।बाहर की रौशनी ने पोलू की त्वचा पर छाले बनाने शुरू कर दिए। वो प्रतिवाद करता रहा पर नीलू अब पहले वाली नीलू नहीं, पहले से पहले वाली नीलू थी। रंग फिर से उसके कुर्ते पर बैठे थे। चेहरा उसका सुबह का सूरज था। पोलू को उसने अपनी साइकिल के पीछे बिठाया और ... उसकी साइकिल मंदिर की ओर जाने वाली सड़क पर चढ़ने लगी।</div>
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sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-79817550162478894102019-02-27T16:52:00.001+05:302019-02-27T16:52:20.161+05:30हरी परछाईं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCbyYtbDoByjr51_e8zQkUIov_bGeLwdLikVNDNloPOHZcnFeMsoacg3dQUGtBOA8Hmzoa5m0252zyrnoYn2gGkunCkM3dQO8qaXNQf0Pxcn1EWRG1lXdd_zzyyUb_sDeTQB-0GZn2Gko/s1600/IMG_20181228_172009.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="670" data-original-width="1600" height="267" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCbyYtbDoByjr51_e8zQkUIov_bGeLwdLikVNDNloPOHZcnFeMsoacg3dQUGtBOA8Hmzoa5m0252zyrnoYn2gGkunCkM3dQO8qaXNQf0Pxcn1EWRG1lXdd_zzyyUb_sDeTQB-0GZn2Gko/s640/IMG_20181228_172009.jpg" width="640" /></a></div>
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लड़की पुल के नीचे रहती थी। लड़का हमेशा पुल के ऊपर से गुज़र जाता। और वे अरसे तक मिले ही नहीं। पुल एक दुबली नदी पर बना था और वो नदी हमेशा सूखी रहती थी। बारिश के दिनों को छोड़कर। बारिश के दिनों नदी में पानी बहता था। जैसे ही बारिश ख़त्म होती , नदी भी ख़त्म हो जाती। नदी एक हरी सी परछाईं छोड़कर चली जाती।</div>
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<div style="text-align: justify;">
ये नदी शहर के बीचोंबीच से होकर गुज़रती थी। और ये सिलसिला कई हज़ार बरसों से चला आ रहा था। नदी तब भी इसी जगह थी जब ये शहर नहीं था। नदी तब भी इसी जगह थी जब इस जगह कोई दूसरा और भी ज़्यादा पुराना शहर था, संभवतः जो किसी प्रलय में नष्ट हो गया था। नदी का पता तब भी यही था जब यहां कोई ताम्रकालीन नगरी थी। और तो और ये उससे भी पुरानी प्रस्तर युगीन बस्तियों के वक्त भी यहीं बहती थी। बहुत पुराने क़िस्सों में ही अब ये बात बची है कि नदी असल में एक राजकुमारी थी और अपने पिता की लाड़ली थी। उसके पिता धरती से कई प्रकाशवर्ष दूर ब्रह्माण्ड में बसी एक और धरती के राजा थे और इसी लाड़ली बेटी की ज़िद पर स्वर्ग की प्रतिकृति बनाने का आदेश अपने कारीगरों को दिया था। उन्होंने अपने राज्य के समस्त राजमिस्त्रियों को सिर्फ़ इसी काम में लगा दिया था। राजकुमारी इसी काम में लगे एक युवा कारीगर के प्रेम में पड़ गयी। राजा अपनी बेटी से बहुत नाराज़ हुआ और उसने अपने बेटी को अपने राज्य से हमेशा के लिए निष्काषित कर हमारी धरती पर नदी बना कर भेज दिया, जो उस वक़्त तक मिट्टी का एक निर्जन पिंड मात्र थी। बरसों बाद राजा अपने बेटे को सत्ता सौंप कर हमेशा के लिए अपनी बेटी के पास आ गया,नीला पहाड़ बनकर। </div>
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<div style="text-align: justify;">
इस तरह के मिथक नदी को प्राचीन सिद्ध करते हैं। न भी करें तो भी हर नदी प्राचीन होती है। उसे किसी साक्ष्य या साक्षी की आवश्यकता नहीं। इस तरह आज इस शहर के बीच से ये नदी नहीं बहती थी बल्कि शहर उसके दोनों तरफ बस गया था। कोई एक रहा होगा जो नदी के कलकल को सुनने बैठ गया था और उसने यहां बस्तियां बसा ली। यही सिलसिला बाबा आदम के ज़माने से हर जगह चला आ रहा है। इस नदी और इस शहर की बात भी इससे अलग नहीं। फ़र्क़ ये आया है, जैसा कि इस शहर के जानकार लोग बताते हैं, कि नदी बहुत मंथर हो गयी है। नदी का वेग अब नहीं रहा। और ये कि पिछले कुछ सालों में तो बारिश में भी बहुत कम समय के लिए यहां आती है। इतने कम दिनों के लिए जितने दिन कोई उम्रदराज़ महिला पीहर जाया करती है। और देह तो उस नदी की बहुत कमज़ोर हो गयी है। लोग कहते हैं कि नदी तो सिर्फ़ अब 'इत्ती सी भर' रह गई है। जब इस पर पुल बना था था उन दिनों तो बारिश में एक बड़े हिस्से को जलमग्न कर देती थी। अब पुल बने भी बरसों हो गए है , नदी की याद कम ही आती है। पास बसी बस्तियों को भी नहीं। हाँ बारिश के दिनों में ये पुल के नीचे अपने हिस्से की ज़मीन पर एक रेले की तरह बहती रहती है। </div>
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एक तेज़ बारिश में लड़के ने पुल के किनारे पर लोगों को नीचे झांकते देखा। उसने अपनी बाइक पुल पर ही साइड में खड़ी की और झांककर देखा। नीचे वेग के साथ पानी बाह रहा था। उसने लोगों से कहते सुना , दस बरस बाद फिर से नदी को इस तरह झूमते देखा है। पुल के नीचे रहने वाले लोग अपने पास बहती नदी को चमत्कृत से देख रहे थे। उन्होंने इस जगह कभी इतना जल नहीं देखा था। </div>
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उसी पुल के नीचे लड़के ने उस लड़की को देखा था। अपने घर के बाहर ,अपने से कुछ दूरी पर भागती नदी को देखते हुए। और वो लड़की नदी को गहरे अपनापे से देख रही थी। नदी कुछ वेग से एक पुराने शिलाखंड पर चोट खाकर लंगड़ाती भाग रही थी। और जहां चोट खा रही थी वही छोटे छोटे असंख्य जल बिंदु दिशाहीन से दूर तक उड़ रहे थे। लड़की उन महीन 'जल किरचों' को अपने शरीर पर चुभते अनुभव कर रही थी। </div>
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वो हर बार अपने चेहरे से उछले हुए पानी को हटा रही थी और पानी था कि उसे हर ओर से भिगोये जा रहा था। उसके वस्त्र भीग गए थे ,उसके हाथ भीग गए थे , उसके बाल भीग गए थे, उसका चेहरा भी भीग चुका था। लड़का पुल के ऊपर से उसकी जल-लीला को देख रहा था। पानी की अनगिनत बूंदों ने लड़की पर एक बेहद हल्का आवरण बना दिया था। उसे इस तरह धुंधली दिखती लड़की बहुत अच्छी लग रही थी। उसका मन हुआ कि वो पुल के नीचे जाकर क़रीब से लड़की को पानी साथ खेलता देखे। और वो नीचे चला गया और सीधा वहीं पहुंचा जहां लड़की अपने घर के बाहर खड़ी थी। लड़की काफ़ी देर तक उसकी उपस्थिति से अनजान अपने में ही पहले की तरह व्यस्त रही। अचानक ऊपर से कुछ शोर जैसा हुआ। लड़की की तन्द्रा टूटी। उसने अपने पास एक अनजान लड़के को देखा तो वो झट से अपने घर के भीतर चली गयी। लड़के को ग्लानि सी हुई। उसीने लड़की के उस अबोध और निर्दोष खेल को बंद करवा दिया था। वो काफी देर अन्यमनस्क सा वहीं खड़ा रहा। नदी चोट खाती रही। पानी की नन्ही बूँदें उछलती रही उसका चेहरा भिगोती रही। अचानक उसका ध्यान घर की खिड़की पर गया। लड़की खिड़की से पानी का खेल देख रही थी। पुल पर खड़े लोगों के लिए नदी कौतुक का विषय थी। लड़के के लिए नदी प्रेम लेकर आई थी। </div>
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शहर के कुछ बुज़ुर्ग राज़दार लोगों का मानना था कि नदी बरसों बरस अपने पिता से मिलने इस शहर से गुज़रती थी। शहर की सबसे ऊंची जगह से देखने पर वो नीला पहाड़ दीखता था जिसे राज़दार लोग नदी का पिता मानते थे। उनका अब भरोसा हो गया था कि स्टोन माफिया के ब्लास्ट में वो पिता भी किसी दिन बिखर जाएंगे, फिर वो नदी कभी लौटकर नहीं आएगी। </div>
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ख़ैर , लड़का बारिश के बाद भी, जब उस नदी की सिर्फ हरी परछाईं ही बची रह जाती थी, कई बार पुल के नीचे से झांकता था और उसे वो लड़की दिखाई देती थी। नदी के चले जाने के बाद लड़के को लड़की की शक़्ल बहुत साफ़ साफ़ दिखती थी। एक बार उसने बेध्यानी में लड़की की तरफ देखकर हाथ हिला दिया। जवाब में लड़की ने भी उसकी ओर देखते हुए हाथ हिला दिया। लड़की शायद मानने लगी थी कि पिछली बारिश में नदी ने जो वसीयत लिखी थी उसमें उसके साथ उसका भी नाम था। </div>
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फ़िर वे दोनों कई बार मिले। उनकी बार बार मिलने की इच्छा होने लगी। लड़के को लड़की का धुंधला चेहरा याद आने लगता और वो उससे कहता, मुझसे दिन के उजाले में मत मिलो जब सब कुछ साफ़ साफ़ दीखता है। मुझे किसी कोहरे से भरे दिन में मिलो। अब चूँकि उस शहर में कोहरा नहीं होता था तो वे दिन के उस प्रहर में मिलते जब सब कुछ साफ़ साफ़ नहीं दीखता। एक दिन लड़के ने लड़की से फ़रमाइश की कि वो अँधेरी रात में जुगनुओं की प्रदीप्ति में उसका चेहरा देखना चाहता है। अँधेरे के समुद्र में रौशनी के बल्ब लिए घूमते जुगनुओं का फ़ीका प्रकाश उसके चेहरे पर पड़ेगा तो वो एक पेंटिंग में बदल जाएगी । </div>
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<br /></div>
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वे दोनों उम्र में धीरे धीरे बड़े होते गए पर उनकी स्मृति में नदी का छोटे छोटे जल बिंदुओं में टूटना हमेशा बना रहा। ये उनके प्रेम का स्थायी दृश्य था। </div>
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<br /></div>
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एक दिन लड़की ने लड़के का हाथ पकड़ लिया। लड़के ने लड़की का हाथ पकड़ा। उन्होंने परिणय के बंधन में आने का निश्चय किया। बस यहीं से उनकी बाधाएं शुरू हो गयीं। दोनों के घरवाले उनके प्रेम को नष्ट करना चाहते थे। लड़की एक अँधेरी रात दबे पाँव लड़के के घर तक पहुंची, और उसने लड़के के कमरे की खिड़की को सांकेतिक अंदाज़ में दस्तक दी। लड़का उसका संकेत समझ गया। वो तुरंत बाहर आया और उसे घर के पिछवाड़े ले गया। लड़की के चेहरे पर सितारों का प्रकाश गिर रहा था। रात लेकिन इतनी अँधेरी और रौशनी इतनी क्षीण थी कि वो सिर्फ एक कांपती आकृति में ही दिख रही थी। लड़का उसके चेहरे पर दृढ़ता के साथ कातरता भी साफ़ देख पा रहा था। कातरता साथ चलने के निवेदन की। तभी लड़के के घर की सांकल बजी। लड़की भय के मारे वहां से भाग गयी। वो चाहती थी कि लड़का भी उसके पीछे भागकर आये। पर ऐसा न हो सका। लड़का वहीं जड़ खड़ा रहा। उसके पाँव ठण्ड में जैसे वहीं जम गए थे। </div>
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<br /></div>
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लड़की की उसके बाद कोई ख़बर नहीं मिली। लड़के ने कई बार पुल के नीचे झाँका पर उसे सिवा सन्नाटे के कुछ भी नज़र नहीं आया। नदी की हरी परछाईं भी ग़ायब हो चुकी थी। अब उस जगह मिट्टी में भीषण दरारें थी और शुष्क, तप्त बालू थी जो हवा में उड़ उड़ कर लोगों को काट खाती थी। नदी अब ग़ायब हो चुकी थी। पुल के नीचे बारिश में सिर्फ कीचड़ नज़र आता था। राज़दार लोगों ने चुप्पी साध ली थी। इस नदी की गोद में कितने शहर बने और मिट गए पर नदी हमेशा बनी रही थी। इस बार जाने क्या हुआ कि एक शहर ने नदी को ही लील लिया था। कुछ अरसे पहले एक भयानक विस्फोट ने नीले पहाड़ को भी चूर्ण में बिखेर दिया था। </div>
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<br /></div>
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लड़के ने लेकिन, बरसों तक पुल के नीचे झांकना बंद नहीं किया। हालांकि वहां न तो अब नदी थी, न लड़की, न शिलाखंड, और न ही वो मकान जिसकी खिड़की से लड़की ने उसे पहली बार देखा था। कोई नियम-धर्म की तरह लड़का पुल से झांकता था। वो अब अधेड़ हो चला था। घर गृहस्थी में आये बरसों हो चुके थे उसे। उसका अपना एक बेटा था जो जवान हो रहा था। एक दिन उसके बेटे ने उससे कहा कि उसे एक लड़की से प्रेम है। लड़के ने, जो अब अधेड़ था उससे कहा कि अब वो क्या करने के बारे में सोच रहा है। अधेड़ के बेटे ने कहा अगर वो लड़की किसी अँधेरी रात मेरे घर के पिछवाड़े आएगी तो मैं सांकल बजने पर भी उस लड़की के साथ भाग जाऊँगा। बरसों पहले उस नीच,कापुरुष की तरह वहीं खड़ा नहीं रहूँगा जो घर की सांकल बजने पर वहीं खड़ा रह गया था। </div>
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अधेड़ सिहर गया। उसने अपने बेटे से पूछा - 'तुम्हे ये बात किसने बताई '?</div>
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'शहर के राज़दार लोगों ने' बेटे ने जवाब दिया। </div>
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लड़के ने जो अब अधेड़ था , राहत की सांस ली। राज़दार लोग हमेशा संकेतों में बात करते थे। वे सबसे शापित लोगों में से थे। शहर के सारे राज़ जानते थे। उनके भीतर ठोस, अंधेरे राज़ थे। वे शहर के अच्छे दिनों को याद ही नहीं कर पाते थे। शहर के दुःख उनके पीछे प्रेत की तरह पड़े रहते थे। </div>
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अधेड़ के बेटे ने उससे ज़रूर अपने प्रेम की बात बताई थी और कहा था कि वो सांकल बजने पर भी रात के अँधेरे में दबे पाँव उसके घर आई लड़की के साथ भाग जाएगा पर .. वो मौका नहीं आया। वो लड़की किसी भी अँधेरी रात में उसके घर तक नहीं आई। किसी ने उसकी खिड़की पर सांकेतिक दस्तक़ न दी। बल्कि उसने कहा हम अपने अपने घर वालों को मनाते हैं। प्रेमी लड़का भी तुरंत इस प्रस्ताव पर राज़ी हो गया। ये सुविधाजनक तरीका था और इसमें नौबत आने पर प्रेम की अंत्येष्टि करने में कोई ग्लानि भी पीछा नहीं करती। प्रेमी बेटे ने अब अधेड़ हो चुके अपने पिता से डरते डरते पूछा तो पिता समझ गया कि ये भी आख़िर बेटा तो उसी का है, जो बरसों पहले वही लड़का हुआ करता था जो अपने घर की देहरी लांघ नहीं पाया था, जो घर की सांकल से डर गया था कि कहीं पिताजी ग़ुस्सा न हो जाये।</div>
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बेटे ने जब अधेड़ को अपने प्रेम को परिणय बंधन में बाँधने के बारे में बताया तो वो तुरंत राज़ी नहीं हुआ। वो देखना चाहता था कि उसका बेटा उससे अलग है या नहीं। क्या उसका संकल्प मज़बूत है या नहीं। उसने मना कर दिया। लड़का तुरंत याचना वाली मुद्रा में आ गया। वो चिरौरियाँ करने लगा। अधेड़ समझ गया, इस प्रेम का रेशा अलग है। पर तीव्रता इसकी वैसी ही थी जैसी वो स्वयं जानता था। उसने फिर भी मना ही किया और कहा कि पहले सबकी सहमति ले आओ फ़िर सोचते हैं। सबकी सहमति में बहुत वक़्त लगा। लड़की के घरवाले बहुत मुश्क़िल से माने। लड़का तपस्वियों की तरह लगा रहा। उनके क्रोध को सहता रहा। लड़की के पिता और भाई कई मौकों पर हिंसक भी हुए पर वो धैर्य के साथ उन्हें मनाता रहा। आखिर उसकी ज़िद और ढीठता रंग लाई और वे इस शर्त पर माने कि लड़के को अपने पिता को भी राज़ी करना होगा। लड़के ने अब अपने अधेड़ पिता से कहा कि अब सिर्फ़ उनका आशीर्वाद बाकी है। अधेड़ ने अपनी हामी भरी। सबको मनाने में सात साल लगे। लड़का और लड़की अपने प्रेम पर विश्वास करते रहे। अधेड़ ने सात बरस बाद जब उसका बेटा दूल्हा बनने जा रहा था , आख़िर मान लिया कि अपने तात्विक रूप में भिन्न होने के बावजूद ये खरा प्रेम है। उसका बेटा प्रेम का निर्भीक योद्धा न सही एक सच्चा और धैर्यवान भक्त था। उसे अपने बेटे पर गर्व होने लगा। </div>
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अपने बेटे को दूल्हे के रूप में देखकर अधेड़ पिता अपने को भीतर से बेहद भरा भरा सा महसूस करने लगा। बेटे के दोस्त ख़ूब नाच गाना कर रहे थे। उसने अपने बेटे की ओर देखा जो अपने दोस्तों के साथ डांस करने लग गया था। तमाम पारम्परिक वस्त्रों के साथ दूल्हे को एक गाम्भीर्य भी ओढ़ना होता है। इस वक़्त उसका बेटा अपने दोस्तों के साथ थिरक कर इस औपचारिक भारीपन को उतार कर अलग कर रहा था। पिता को इस क्षण वो बच्चा नज़र आने लगा जो अपनी बाल सुलभ मुद्राओं को फिर उसके सामने अनायास ही रख रहा था। पिता को अपने बेटे पर दुलार आने लगा। पर बरसों पुरानी एक गहरी टीस उसके भीतर कही अब भी गड़ी थी। शादी के बाद उसने अपने नवविवाहित बेटे और बहू को पुल के नीचे पूजा के लिए चलने को कहा। बेटे ने जब पूछा कि पुल के नीचे क्या कोई मंदिर या थान बगैरह है तो वो बोला - 'एक पुरानी नदी वहां बहती थी, नदी क्या साक्षात् गंगा माई ही समझो। उसी की बिछड़ी धार थी। उसका आशीर्वाद लेना ही होगा हमें बेटा।' कहते कहते अधेड़ समय में कई बरस पीछे चला गया, इतना पीछे...... जब वो पुल के किनारे खड़ा होकर नीचे झांकता था और किसी बारिश वाले दिन नीचे बहती गंगाजी के पास उसे वो लड़की दिखाई दी थी। </div>
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sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-24103307318290349762019-02-22T17:28:00.000+05:302019-02-22T17:36:37.660+05:30दोस्ती ज़िंदाबाद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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अनंग नाम था उसका। नाम का अर्थ ढूंढें तो कामदेव। कामनाओं और विषय वासनाओं में आसक्ति रखने वाला। पर वो इसका उलट था। उसकी आसक्ति विषय वासनाओं में नहीं गणित विषय में थी। सहपाठियों के बीच गणित विषय में वो उदयपुर का रामानुजन कहा जाता था। हालांकि ये थोड़ी बड़ी उपमा हो जाएगी पर चूँकि इसमें 'उदयपुर का' विशेषण जुड़ा है तो इसे लगभग न्यायसंगत कहा जा सकता है। अपने सामने इस उपमा का प्रयोग करने पर अनंग नाराज़ हो जाता था। वो लगभग डांटने वाले अंदाज़ में बोल उठता - ' तुम सूरज की तुलना दिये से कर रहे हो। बल्कि सूरज की तुलना लप झप करने वाले छुटकू बल्ब से कर रहे हो जो दिवाली वगैरा के टाइम झालर में लगता है। '</div>
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सच में वो रामानुजन को भगवान मानता था। और वो गलत कहाँ था। रामानुजन तो गणित के देवता ही थे। पर अनंग का गणित को लेकर पैशन कम नहीं था। ऐसे में उसे लोग उदयपुर का रामानुजन कहकर उसके गणित प्रेम को ही एक तरह से उजागर कर ही रहे थे , और साथ में रामानुजन को भी एक तरह से श्रद्धांजलि ही दे रहे थे। </div>
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अनंग गणित में अच्छे नंबर ले आता था। बल्कि एकाध बार तो वो पूरे में से पूरे नंबर भी ले आया था। बाकी विषयों में उसकी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी, पर ठीक ठाक नंबर आ जाते थे। उसे भी बाकि बच्चों की तरह घरवालों ने 10 वीं के बाद ही कोटा भेज दिया था ताकि वो एंट्रेंस टेस्ट के ज़रिये आईआईटी में दाखिला ले सके। वहां उसका मामला बैठा नहीं। कोटा जाने के महीने भर बाद ही फ़ोन पर उसकी कोटा में रहने को लेकर अनिच्छा बातों बातों में प्रकट होने लगी। जैसे खाना बहुत गन्दा है। फैकल्टी परेशान करती है। यहां का पानी सूट नहीं हो रहा। रोज़ पेट में दर्द रहता है। यहां का मौसम अजीब है, वगैरह वगैरह।<br />
पर घर वाले उसे मोटीवेट करते रहे। उसमें उन्हें भविष्य का आईआईटीयन जो नज़र आ रहा था। हालाँकि बाद में धीरे धीरे उस आईआईटीएन की शक़्ल धुंधला रही थी।<br />
आखिर में अनंग के साथ वही हुआ जो कोटा जाने वाले ज़्यादातर बच्चों के साथ होता है। उसका आई आई टी में नहीं हुआ। वो डमी स्कूल से कोटा में रहकर 12 वीं कर वापस घर आ गया। उसने जब यहाँ आकर विश्वविद्यालय में बीएससी मैथमैटिक्स में एडमिशन लिया तो वो बहुत ख़ुश हुआ। घर वालों को उसकी ख़ुशी समझ नहीं आई। पर बात ये थी कि गणित से उसका प्यार अनकंडीशनल था। अब वो अपने प्यार को जैसे पुनः पा गया था , उसके और प्यार के बीच अब अपेक्षाओं का भार नहीं था। करियर के लिहाज़ से कह सकते हैं कि मन ही मन वो गणित का प्राध्यापक बनना चाहता था।<br />
पर वो बाद की बात थी और इस पर उसने एकाध बार से ज़्यादा नहीं सोचा था।<br />
जहां गणित उसकी ख़ासियत थी , वहीं गणित ही उसकी कमज़ोर नस भी थी। उसे बाकी किसी में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी।<br />
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कॉलेज में गणित , लाइब्रेरी , प्रोफ़ेसर्स और एकाध दोस्त के बीच दिन गुज़रते रहे और वो दूसरे साल में भी प्रवेश कर गया। </div>
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ये क्या दिन था कि उसके दोस्त सुमित ने आज उसे ख़ूब ढूंढने की कोशिश की, पर वो कहीं नहीं मिला। उसका मोबाइल स्विच्ड ऑफ आ रहा था। अनंग के घरवाले तो और भी परेशान थे। क्या पता वो अपनी पढ़ाई को लेकर परेशान हो। पिछले कुछ अरसे से वो कुछ ज़्यादा ही चुप्पा हो गया था। वैसे बीएससी में ये उसका दूसरा साल था और ऐसा लगता था कि वो अपनी पढाई को एन्जॉय कर रहा है। फिर भी जवान लड़के के मन में क्या चल रहा है कुछ कह नहीं सकते। 'कहीं लड़का कोई उल्टा कदम न उठा ले' ये आशंका उनको सताए जा रही थी। उनके हिसाब से पिछले कुछ समय से अनंग ने 10 वीं और 12 वीं के बच्चो को गणित का ट्यूशन पढ़ना शुरू किया था, इससे उसकी जेब में कुछ पैसे ज़रूर आ गए थे पर हो सकता था इससे उसे अपनी पढाई का समय मैनेज करने में परेशानी महसूस हो रही हो। </div>
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ख़ैर वो शाम को घर आ गया। उसके चेहरे पर हताशा का कोई निशान नहीं था। बल्कि वो निश्चिन्त ही लग रहा था। एक एंगल से ख़ुश जैसा। घर वालों को इस बार फिर उसकी ख़ुशी समझ नहीं आई पर उन्होंने राहत की साँस ली। फिर भी मां से रहा न गया तो पूछ बैठी ' खुश हो ? 'ख़ुश ही नहीं बल्कि क्लाउड 9 पर हूँ' अनंग ने जवाब दिया हालांकि उसके जवाब में क्लाउड 9 जैसी कोई बात नहीं लग रही थी। पर ख़ैर घरवाले निश्चिन्त से हो गए।<br />
<br />
वो आज देर तक तन्वी के साथ था। और दोनों ने लेमन टी पी थी। तन्वी उसके कॉलेज में ही थी। उसकी हमउम्र। अब तक उसकी दोस्त। पर आज वो दोस्ती और प्यार को पृथक करने वाली रेखा लाँघ गया था। </div>
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तन्वी से उसे प्यार हो गया था। आप सोचेंगे कि प्यार तो उसे गणित से था तो ये तन्वी कहाँ से बीच में आ गयी ? बात ये थी कि गणित से उसका प्यार मां और बेटे के प्यार जैसा था। वो गणित को मां मानता था। उसे लगता, गणित हम सबकी आदि माई है। और तन्वी से उसके प्यार से गणित के प्रति उसके आदर और सम्मान के साथ प्यार में क्या कमी आएगी!</div>
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तन्वी से उसकी जान पहचान सुमित के ज़रिये हुई थी। सुमित और तन्वी दोनों एक दूसरे को चाहते थे। आलम ये था कि कॉलेज में अगर सुमित और तन्वी दोनों नहीं दिखाई दे रहे हैं तो इसका मतलब वे फ़तेहसागर के किसी तन्हा कोने पर बैठे हैं। अनंग सुमित का तो पुराना दोस्त था ही, तन्वी भी सुमित के ज़रिये उसकी दोस्त हो गयी थी। सुमित और तन्वी आपस में एक दूसरे पर जान छिड़कते थे। दोनों के प्यार की पहली पंक्ति कॉलेज फेस्टिवल में लिखी गयी थी। कॉलेज के फेस्ट में सुमित ने 'ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना.....' गाकर आग लगा दी थी। हल्की सर्दी और पूरे चाँद में इस गाने का जादुई प्रभाव हुआ। उसके बाद तन्वी ने सोलो गाया - 'अजनबी कौन हो तुम, जब से तुम्हे देखा है.. '</div>
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इस गाने ने सुमित को दीवाना बना दिया और वो अगले ही दिन तन्वी से दोस्ती का निवेदन कर बैठा। बेशक कुछ अरसा बाद ये दोस्ती झीने अपनापे और फिर प्रगाढ़ प्रेम में बदल गई।</div>
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पर जितनी जल्दी ये प्रेम शुरू हुआ था उतनी ही जल्दी समाप्त भी हो गया। सुमित दिल लेने और देने में शायद व्यापारी किस्म का आदमी था। तन्वी के बाद उसने छिपे छिपे ही केतकी को भी दिल दे दिया। कई दिनों तक वो दोनों के साथ फ़रेब का खेल खेलता रहा पर एक बार तन्वी उन दोनों के रोंदेवू पर पहुँच गयी। तन्वी कई दिनों से ऐसा कुछ सेंस कर रही थी, आखिर इश्क़ और मुश्क़ छिपाए जो नहीं नहीं छिपते। सुमित का उस दिन डबल ब्रेक अप हुआ था। तन्वी और केतकी दोनों से।</div>
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वहीं अनंग उसके सुमित और तन्वी की लाइफ में आये इस भूकंप से अनजान लाइब्रेरी में रामानुजन के प्रमेय को समझने में लगा हुआ था। उसे गणित के अमूर्त सपने आने लगे थे। जो सपने स्टूडेंट्स को डराते थे वे ही सपने अनंग को थपकियां दे। ऐसे में अचानक लाइब्रेरी में तन्वी आई और किताबों से घिरी एक तंग गली में अनंग के सामने रोने लगी। तन्वी को अनंग थोड़ा कम दुनियादार ज़रूर लगता था पर उसमें दुसरे की बुराई करना, मज़ाक उड़ाना जैसे दुर्गुण नहीं थे और वो अपने अनुभव से जानती थी कि अनंग को अपने मन की बात कहना मतलब उसे लॉकर में सुरक्षित रखना है। उससे अपने दिल की बात साझा की जा सकती है। उससे राज़ कहना पहाड़ को अपनी बात साझा करने जैसा नहीं था जो पूरी दुनिया को कई बार ईको करके कह देता है। बल्कि उससे अपनी सबसे गहरी बात कहना, जैसे समंदर को अपनी बात कहना है। कि जिस तरह उसके भीतर और अनंत विस्तार में सब कुछ घुल जाता है।<br />
तन्वी ने सारी बातें अनंग को बता दीं। अनंग कुछ नहीं बोला। तन्वी जानती थी कि अनंग इतना जल्दी जजमेंटल नहीं होता। उसकी ये बात भी उसे अच्छी लगती थी। वो एक परफेक्ट दोस्त था। उसके बाद अनंग तन्वी को कॉफ़ी पिलाने ले गया। इस बात को कई दिन हो गए। एक दिन अचानक अनंग तन्वी को फ़ोन करके बोला ' तुम्हारे साथ सज्जनगढ़ जाना चाहता हूँ। तुम सुबह साढ़े 11 बजे मुझे महाकाल मंदिर के गेट पर मिलो वहां से मेरी बाइक पर चलेंगे। आज कॉलेज बंक करते हैं। ' तन्वी को लगा कि अनंग ज़रूर कोई अपने मन की बात शेयर करना चाहता है। ऐसे में उसका साथ देना चाहिए। यद्यपि अनंग इस तरह की पहल के लिए जाना नहीं जाता था पर तन्वी को इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगा। सुमित से उसके ब्रेकअप के बाद अनंग ही उसका सच्चा दोस्त था। उसने तुरंत हाँ कह दी। मानसून पैलेस के लिए चढ़ाई वाली सड़क पर अनंग ने कुछ ही दूरी पर बाइक रोक दी। उसने अपना मोबाइल स्विच्ड ऑफ कर जेब में रख दिया, फिर तन्वी से कहा 'मुझे कुछ बुख़ार सा लग रहा है अगर थोड़ी देर बाइक तुम चलाओ।'<br />
तन्वी को इसमें भी कुछ ख़ास अजीब नहीं लगा। रास्ते में अनंग बार बार उससे चिपकने लगा तो तन्वी ने उसे आराम से बैठने को कहा ताकि उसका बैलेंस न बिगड़े। वो बोला उसे बुख़ार परेशान कर रहा था।<br />
बहुत सारी तीखी चढ़ाइयों के बाद बाइक ऊपर पहुंची। बाइक को पार्किंग स्पेस में खड़ी कर वे दोनों पैलेस के लॉन में लगी बेंच पर काफी देर बैठे रहे। तन्वी ने अनंग से पूछा तो उसने कुछ ख़ास बताया नहीं। हालाँकि ऐसा लगा कि वो कुछ कहना चाहता है। तन्वी को लगा अनंग ज़रूर किसी बात को लेकर परेशान है। उसने पूछा - ' घर में सब ठीक तो है ?' वो कुछ नहीं बोला। कुछ देर बाद दोनों उठ गए। बाइक अब लौटते रास्ते की ढलान पर उतर रही थी। नीचे आकर अनंग फ़िर एक ज़िद करने लगा। लेमन टी पी जाय। तन्वी को लग गया कि अनंग के भीतर जो बात अटकी है, जिसे वो कहना भी चाहता है और कह भी नहीं पा रहा, इस खींचातानी से शायद लेमन टी उसे छुटकारा दिला दे। उसने हामी भर दी और वे दोनों लेमन टी के लिए रुक गए।<br />
लेमन टी कुछ ज़्यादा ही खट्टी थी। अनंग ने खट्टेपन से बिगड़ते मुंह के आकार की परवाह न करते हुए, भरसक ताक़त बटोर कर उससे प्रेम निवेदन करदिया।<br />
तन्वी भौचक्की रह गयी। उसने अनंग के साथ इस तरह के अंतरंग संबंधों के बारे में कभी सोचा न था। वो उसमें एक प्यारा दोस्त और अच्छा इंसान देखती थी, पर एक प्रेमी के तौर पर वो कभी उसके ख्यालों में नहीं आया था। </div>
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उसने अनंग का प्रस्ताव अस्वीकार कर लिया। बिना कोई कारण, तर्क या सफ़ाई के। ये सिंपल और प्लेन रिजेक्शन था।<br />
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अनंग ने उसके जाने के बाद एक और नीम्बू चाय पी और अपना मोबाइल पुनः ऑन कर दिया। अब उसके लिए वापसी का ठिकाना सीधा घर ही था। और उसके बाद सुमित। तन्वी को डिच करने के बाद अनंग सुमित से नाराज़ ज़रूर हुआ था पर दोनों की दोस्ती बनी रही थी। उनकी दोस्ती एक स्वतंत्र एंटिटी थी जो अपने इतिहास में उन दोनों के बचपन तक जाती थी। और एक बात ये भी थी कि तीनो में कोई प्रेम त्रिकोण नहीं बना था। अनंग ने जब तन्वी को प्रेम का निवेदन तब सुमित उसकी लव लाइफ से निकल चुका था।<br />
<br />
अनंग काफी देर बाइक से टिक कर खड़ा रहा और ख़ामोशी से अपने ठीक पास से निकलती दुनिया को देखता रहा। उसका दिमाग़ कुछ देर बाद कई जालों से मुक्त हो चूका था। उसे गलती साफ़ महसूस हुई। किसी लड़की से दोस्ती की तार्किक परिणति प्यार में हो ये ज़रूरी नहीं। बल्कि दोनों अलग चीज़ें हैं। </div>
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वो घर से चाय पीकर सीधा सुमित की दुकान पर गया। सुमित उसका दोस्त , जो उसके लिए सुबह से परेशान था। उसकी शहर के भीतरी हिस्से में मनिहारी की दुकान थी। चूड़ियां, लिपस्टिक, बिंदी, आई लाइनर, औरतों के अन्य सामान। उसकी दुकान पर महिलाओं की रेलमपेल लगी रहती थी। दिन में उसके पिताजी और बड़े भाई दुकान सँभालते थे और कॉलेज से छूटने पर वो भी दुकान में आकर उनका हाथ बांटता था। उसके आने से उसके पिताजी और भैया थोड़े फ्री हो जाते थे। वे दुकान छोड़कर थोड़ा रिलैक्स होने इधर उधर भी चले जाते थे।<br />
अनंग के दुकान पर आते ही सुमित ने उसे दोस्ती वाली ख़ूब सारी गालियां दीं। आज के दिन का न जाने क्या असर था कि थोड़ी ही देर में सुमित उससे गले लग कर रोने लगा। उसने स्वीकार किया कि उसने तन्वी का जो प्यार खोया है उसका ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ वो ख़ुद है। "क्या मैं तन्वी का दोस्त बन सकता हूँ ? वैसे तो मैं<br />
उसकी दोस्ती का भी हक़दार नहीं। इस पर अनंग ने तुरंत प्रत्युत्तर में कहा-<br />
" दोस्ती और प्यार दो अलग अहसास है। ऐसा नहीं है कि दोस्ती से एक सीढ़ी ऊपर चढ़े तो प्यार पर पहुँच गए और प्यार से जब मर्ज़ी नीचे उतरे और दोस्ती पर पहुँच गए। हाँ, कई बार दोस्त से प्यार हो जाता है पर तब हम दोस्त और प्रेमी दोनों होते हैं " अनंग ने गणित का विद्यार्थी होकर भी अपना दर्शन सामने रखा और फिर सुमित से निर्णायक स्वर में बोला - "तुम तन्वी के दोस्त कभी नहीं थे। वो तुमसे बहुत बहुत प्यार करती थी पर तुम उसे डिज़र्व नहीं करते"<br />
<br />
ये स्वर इतना निर्णायक और अंतिम था कि कुछ देर दोनों में संवाद जैसा कुछ बचा ही नहीं। पर अंततः उनके भीतर की दोस्ती और अपनापे ने फिर से माहौल पर अपना अधिकार जमा लिया। दोनों ने खूब बातें की, गले मिलना हुआ। चाय नाश्ता हुआ और फिर विदा हुए।<br />
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<br />
अगले दिन अनंग ने तन्वी को टेक्स्ट किया -<br />
" कल के लिए माफ़ी। क्या हम अब भी दोस्त बने रह सकते है?<br />
कई देर तक तन्वी का कोई मैसेज नहीं आया। फिर लम्बी प्रतीक्षा के बाद तन्वी की तरफ से बहुत संक्षिप्त सन्देश आया -<br />
<br />
" दोस्ती ज़िंदाबाद "</div>
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sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-67491493869591726342019-02-14T17:06:00.000+05:302019-02-14T17:06:10.262+05:30नील कुरिंजी का फूल <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-S3iMsbBLFDeJ1qqA_LqX1Iaf9EhPinwvYGSiStpVhruJ-SCoJPY6vkvNkhW_7PMPLbtaJSc5qDA4YAcqxu7etN8PQgZPQsbvBfjvwCyYb6HH_EVci-fmHR-9slrPLd-cMSLLYw5hK8U/s1600/IMG_20190213_175407.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-S3iMsbBLFDeJ1qqA_LqX1Iaf9EhPinwvYGSiStpVhruJ-SCoJPY6vkvNkhW_7PMPLbtaJSc5qDA4YAcqxu7etN8PQgZPQsbvBfjvwCyYb6HH_EVci-fmHR-9slrPLd-cMSLLYw5hK8U/s400/IMG_20190213_175407.jpg" width="300" /></a><br />
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ये उन दिनों की बात है जब मौत की सूचना लोग टेलीग्राम के ज़रिये भेजते थे। जब टेलीफोन इक्का दुक्का घरों में ही थे। जब शहर कई सारे मोहल्लों का जमावड़ा हुआ करता था। जब लड़की का घर की छत पर बार बार जाना घरवालों में शक पैदा करता था। जब प्रेम करना मुश्किल था, उसे निभाना बहुत मुश्किल और प्रेम के लिए मरने से प्रेम में जीना बहुत बहुत मुश्किल था। </div>
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उन्हीं दिनों में से एक दिन उस लड़की ने लड़के से कहा ये रास्ता खतरनाक है। तुम्हारा और मेरा प्रेम असंभव है। इस पर हमारे घरवाले कभी राज़ी न होंगे। तब लड़के ने कहा मैं इस प्रेम के लिए जान तक दे सकता हूँ। लड़की ने हंस कर कहा ये तो बहुत आसान है। प्रेम के लिए जी सकते हो?</div>
<div style="text-align: justify;">
लड़के ने लड़की का हाथ अपने हाथ में लेना चाहा तो लड़की उससे दूर हो गई। लड़के ने बहुत इसरार किया। अपने प्रेम के निर्दोष होने की बात कही। तब लड़की ने कहा अगर तुम्हारा प्रेम खरा है तो मेरे लिए नील कुरिंजी का फूल ले आओ। लड़के ने इस फूल का नाम पहली बार सुना था। उसने भटक भटक कर पता किया। वो फूल उसके यहां से बहुत दूर दक्षिण में खिलता था और वो बारह साल में एक बार। लड़का, जब भी वो फूल खिला, लड़की के लिए वो फूल ले आया। इसके लिए उसने क्या कुछ नहीं किया। उसके साथ क्या कुछ नहीं हुआ। उसने बंजारों की सोहबत की। साधू फकीरों के पास गया। हाथियों की सवारी की। ठगों-लुटेरों ने उसे कई जगह लूट लिया। जंगली जानवरों ने उसकी देह को जगह जगह से नोच खाया। वो हफ़्तों भूखा रहा, तब जाकर उसे नील कुरिंजी का फूल नसीब हुआ। और हज़ारों योजन की यात्रा के बाद जब वो फूल उसने लड़की को दिया तो वो फूल एकदम ताज़ा था। बिलकुल उस लड़की की तरह जो अभी अभी नहा कर आई हो।</div>
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लड़के ने पूछा क्या मेरा प्रेम एक दम खरा नहीं है ? लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। अब उसे कोई जवाब देने की ज़रुरत भी नहीं थी। लड़के ने जवाब की प्रतीक्षा भी नहीं की। लड़की ने हंसकर कहा - 'तुम इस सवाल की तरह एकदम फालतू हो।'</div>
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उसके बाद दोनों ने क़सम खाई कि इस प्रेम को जीवन भर साथ रखना है।</div>
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इस कहानी के पचास बरस बाद दुनिया बहुत बदल चुकी है। संवाद अब 4 जी की तरंग पर सवार होकर किया जाता है। रोज़मर्रा के काम अब ऐप के ज़रिये किये जाते हैं। शहरों का हुलिया बदल चुका है। ऊंची इमारतें हैं। खरीददारी के लिए अब वो दुकानें नहीं हैं जिनमें बोरियों में गुड़ रक्खा रहता है और भिनभिनाती मक्खियां रहती है, बल्कि चमचमाते और जगमगाते मॉल्स हैं। लेकिन हवा में अब भी प्रेम है भले उसकी तासीर और तरीके में फ़र्क़ आ गया है।</div>
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संदीप और कांची इस बदली हुई दुनिया में रहने वाले नौजवान हैं। संदीप और कांची एक ही शहर में रहते हैं और सोशल मीडिया के ज़रिये एक दूसरे से जुड़े हुए भी हैं। दोनों का परिचय सामान्य सा है पर उनके कई साझे दोस्त हैं जो उनके वास्तविक दुनिया के दोस्त हैं। संदीप एक चित्रकार है सोशल मीडिया पर अपनी पेंटिंग्स के बारे में में बताने के साथ साथ कुछ न कुछ लिखता रहता है। कभी सामाजिक मुद्दों पर तो कभी कोई कहानी कविता। वो व्यक्तिगत बातें भी शेयर करता रहता है। सोशल मीडिया पर उसकी निरंतर उपस्थिति रहती है। पेंटिंग्स के दुनियां में तो बेशक उसका नाम है, वो लिखता भी अच्छा है। इसलिए उसकी फ्रेंड लिस्ट भी खूब लम्बी चौड़ी है। कई बार उसकी पोस्ट को कांची ने लाइक किया है और कुछेक बार हल्की फुल्की तारीफ की टिप्पणी भी डाली है। लेकिन इससे ज़्यादा नहीं। संदीप को कभी नहीं लगा कि कांची उसकी करीबी दोस्त है। ऐसा लगने का कोई कारण भी नहीं था। दोनों एक ही शहर के थे, उनके कॉमन फ्रेंड्स थे पर वे दोनों परस्पर सिर्फ परिचित भर थे। संदीप इतना ज़रूर जानता था कि कांची एक सिंगर है। उसकी आवाज़ में नैसर्गिक मिठास थी और वो संगीत की दुनियां में मज़बूती से आगे बढ़ रही थी। दोनों का मिलना अभी कुछ अरसा पहले ही तो हुआ था जब संदीप की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में कांची अपने दोस्तों के साथ आई थी। दीर्घा में संदीप ने सबको वेलकम किया था। कांची से मिलकर उसे अच्छा लगा था। कांची ने उसके चित्रों को बहुत मन से देखा था। वास्तविक दुनिया की इस मुलाकात के बाद दोनों सोशल मीडिया पर औपचारिक रूप से जुड़े रहे पर दोनों में कई दिनों तक अगली किसी 'वन ऑन वन' मुलाक़ात का आग्रह नहीं था। पर ये सिलसिला एक दिन टूटा। हुआ यूँ कि संदीप ने पिछले वैलेंटाइन्स डे पर एक पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर की थी जिसमें उसने लिखा था -</div>
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"आज प्रेम दिवस है। मैं आज बरसों पुराने प्रेम के अटूट बंधन को यहां उजागर कर रहा हूँ। मेरी दादी पिछले महीने स्वर्ग सिधार गयी है। उन्होंने जीवन को भरपूर जिया था। उन्होंने अपने आखरी दिनों में मुझसे एक बात कही थी। अपने प्यार के बारे में। शादी से पहले मेरे दादाजी से उन्होंने नील कुरिंजी का फूल लाने को कहा था और मेरे दादा ने इस फूल के लिए खूब कष्ट उठाकर लम्बी यात्राएं की थी। आखिर में वे इस फूल को लाने में कामयाब हुए थे। फूल हासिल करने के महीनों बाद इस शहर में आकर उन्होंने दादी को फूल दिया तो वो बिलकुल ताज़ा रहा। प्रेम की ताज़गी उसमें बनी रही। आप सबको प्रेम दिवस मुबारक "</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस पोस्ट को पढ़ने के तुरंत बाद इनबॉक्स में कांची का सन्देश चमका -</div>
<div style="text-align: justify;">
"मुझे आपसे जल्द मिलना है। दिन, जगह और समय बताएं। और क्या ये जल्द हो सकता है ?"</div>
<div style="text-align: justify;">
मैसेज पढ़कर संदीप कुछ सोचने लगा। क्या कांची पेंटिंग- प्रदर्शनी के बाद से ही मुझसे अलग से मिलना चाहती थी और वैलेंटाइन्स डे की पोस्ट ने इसमें किसी उत्प्रेरक का काम किया है? कांची से एक खास मुलाकात करने का विचार संदीप के कोमल कोनों को छू गया। उसने तुरंत मैसेज का जवाब दिया और अगले दिन दोपहर 12 बजे मॉल के फोर्थ फ्लोर के फ़ूड कोर्ट में इंतज़ार करने का वादा कर दिया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
संदीप को अपने किसी ख़ास से मिलने के लिए इस मॉल का फ़ूड कोर्ट ही सबसे ठीक लगता था। तमाम भीड़ के बावजूद मॉल में आपकी प्राइवेसी को कोई खतरा नहीं है। असल बात तो ये है कि लोग अब आपकी परवाह नहीं करते। कोई जान पहचान वाला मिल भी जाए तो उसके पास ठहर कर बात करने ले किये समय नहीं होता। और वैसे भी मॉल अपने आप में एक अलग ही दुनिया है। आप एक बार घुस जाइये तो पूरा घूमकर बाहर आने में कई घंटे लग जाते है।मां बाप खरीददारी में व्यस्त रहते है तो बच्चे आइस पाइस खेलते रहते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
फिर भी संदीप को दोपहर का वक्त ठीक लगता था जब मॉल में गिनती के लोग होते थे और फ़ूड कोर्ट में आपको अपनी पसंद का कोना आसानी से मिल जाता था। आज वो कांची से मिलने के लिए इसी मुक़र्रर जगह आ रहा था। अपने घर से यहां तक आने में उसे शहर को ऊपर से नीचे तक पूरा काटना पड़ता था। शहर को स्मार्ट बनाने के लिए उसे पूरा खोद दिया गया था। आधुनिक मशीनों से शहर के पथरीले सीने को छलनी किया जा रहा था। बाद में इन सबका का कुछ अच्छा ही बने, फिलहाल शहर में सड़कों पर जगह जगह 'असुविधा के लिए खेद है' के बोर्ड टंगे थे। इस वजह से ट्रैफिक का हाल बुरा था। उसे बेहद कोफ़्त होने लगी। उसे बार बार लग रहा था कि उसके आगे सारे के सारे गाड़ी वाले कहीं सो तो नहीं गए थे। खीझ में वो हॉर्न पर हॉर्न दिए जा रहा था। चूँकि वो घर से काफी पहले रवाना हो गया था इसलिए वो सही वक्त पर मॉल पहुँच गया और कुछ ही देर बाद फ़ूड कोर्ट में था। कांची एक कार्नर टेबल पर पहले ही वहां बैठी थी। उसके अलावा वहां उस वक्त कोई और नहीं था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसने संदीप का मुस्कुराकर स्वागत किया। बैठने के बाद कांची की इजाज़त से उसने दोनों के लिए एकबारगी कॉफ़ी आर्डर की।</div>
<div style="text-align: justify;">
"मैंने कल की आपकी पोस्ट पढ़ी थी, नील कुरिंजी...... " सिर्फ सन्दर्भ की और इशारा कर बात अधूरी रख दी।</div>
<div style="text-align: justify;">
" हाँ, कल वैलेंटाइन्स डे था तो दिन के हिसाब से मैंने अपनी एक निजी बात शेयर कर दी। मेरी दादी ने ही मुझे बताया था कि उन्होंने शादी से पहले मेरे दादा से नील कुरिंजी की फरमाइश की थी जो आज भी पूरी करना मुश्किल है तो उस ज़माने में तो एक असंभव काम था। पर प्यार तो असंभव कामों का हौसला दे देता है। "</div>
<div style="text-align: justify;">
" एक बात पूछूं" - कांची ने कहा - " क्या जिनसे आपकी दादी ने वो फरमाइश की थी वो आपके दादा ही थे ?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"आप भी क्या बात करती हैं। और कौन होगा"? संदीप ने बेहिचक जवाब दिया।</div>
<div style="text-align: justify;">
कांची कुछ देर चुप रही। फिर उसने कहा -</div>
<div style="text-align: justify;">
" असल में मेरे दादा की मृत्यु भी कुछ महीने पहले ही हुई है। वो मेरे बेस्ट बडी थे। मैं उनसे कई बातें शेयर करती थी। और मैं अक्सर उनसे पूछती थी कि दादा आपने कभी किसी से प्रेम किया, और वो हर बार मेरी बात टाल देते थे। अपनी मृत्यु का जैसे उन्हें पूर्वाभास हो गया था। अपने अंतिम प्रयाण से एक दिन पहले उन्होंने मुझे बुलाकर कहा था कि बरसों पहले उन्हें एक लड़की से प्रेम हो गया था और उस प्रेम के लिए वे सुदूर दक्षिण में नील कुरिंजी का फूल लेने चले गए थे। फूल हासिल करने और लड़की तक पहुँचाने में महीनों लग गए थे पर उन्होंने कहा वो फूल एकदम ताज़ा रहा। मेरे दादा ने स्वीकार किया कि जिस लड़की से उन्हें प्रेम हुआ था वो मेरी दादी नहीं थी। "</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अचानक संदीप के मन आलोक से भर उठा। उसे समझ आया था कि उसकी दादी ने ये कभी नहीं कहा था कि उन्होंने 'दादा' से ऐसी फरमाइश विवाह से पहले की थी। ख़ुद उनके शब्दों में " मैंने 'उनको' नील कुरिंजी का फूल लाने को कहा। " ये जो 'उनको' शब्द था ये दादा के लिए नहीं उस लड़के के लिए था जो बाद में कांची के दादा हुए।</div>
<div style="text-align: justify;">
संदीप काफी देर तक चुप रहा। अपने में ही खोया। फिर उसने कहा - " सच में दोनों अपने प्रेम को साथ लेकर जिए। उनकी शादी भले ही नहीं हो सकी पर उनके बीच का प्रेम दोनों में ज़िंदा रहा। अपने विशुद्ध अपरिवर्तित और पवित्र रूप में। "</div>
<div style="text-align: justify;">
संदीप की आँखों में पानी भर आया था। कांची की आँखें भी छलक रही थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बाद दोनों कई बार मिलते रहे। कोई आग्रह नहीं। मिलने की कोई व्यग्रता नहीं। वे दोनों एक अनजान रिश्ते से बंध गए थे। अपने पूर्वजों के प्रेम से वे इतने आप्लावित थे कि अभी उन्हें किसी नाम विशेष वाले बंधन में बंधने की जल्दी नहीं थी। वे इस अहसास से ही संतृप्त थे कि आधी सदी पहले एक लड़के और लड़की ने ऐसा प्यार किया था जिसके साथ कोई शर्त अटैच्ड नहीं थी। साथ रहने की भी नहीं। और जो अपने तात्विक रूप में इतना पवित्र था कि संदीप और कांची के मन में अब तक चन्दन की तरह महक रहा था। दोनों को लग रहा था कि उन्हें बताकर उस प्यार के अंश को हस्तांतरित किया गया है। और अब इस अमूल्य विरासत की रक्षा का दायित्व उनका है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आज 14 फरवरी है। वैलेंटाइन्स डे। संदीप और कांची एक बार फिर मॉल के उसी फ़ूड कोर्ट के कोने पर बैठे हैं। दोनों काफी देर से अपने में ही खोये हैं। वे तीसरी कॉफी ख़त्म कर चुके हैं। पर दोनों में से कोई इस मुलाक़ात को आज खत्म नहीं करना चाहता। मॉल में आज और लोग भी आस पास बैठे हैं। कई उस फ्लोर पर यूँ ही गुज़र रहे हैं। उन दोनों के बीच एक साझा एकांत है जिसमें वे बैठे है। ये एकांत बहुत घना और ठोस नहीं है बल्कि एक झीना और रेशमी आवरण की तरह उनसे लिपटा है।</div>
<div style="text-align: justify;">
कांची के मोबाइल की स्क्रीन नोटिफिकेशन साउंड के साथ चमक उठी। कांची ने देखा - नीलकुरिंजी के फूल की फोटो थी और सिर्फ इतना लिखा था - " मुबारक "</div>
<div style="text-align: justify;">
भेजने वाला उसके सामने बैठा संदीप ही था। कांची ने उसकी और देखा तो वो मुस्कुरा रहा है। उसके चेहरे पर भी मुस्कान की रेखा फ़ैल गई।</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">
<br /></div>
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<br /></div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-8663930134661341302018-09-26T23:51:00.000+05:302018-09-27T22:18:50.207+05:30इंडियन स्पाइसेज़<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<div style="text-align: justify;">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMEYg42TAVWuJFgK5oSM7y6aRJYO8EuvaD4O5zTwzjw-S1QKTx_6N_QWFLdZspZUxbOEcQMr1yB3o3gIaNzmNX89daA-PELLrFOzWhtkH6cG4rG6wWMzmnaW78t_8danBRU1NIIY06uCw/s1600/spices.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="332" data-original-width="500" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMEYg42TAVWuJFgK5oSM7y6aRJYO8EuvaD4O5zTwzjw-S1QKTx_6N_QWFLdZspZUxbOEcQMr1yB3o3gIaNzmNX89daA-PELLrFOzWhtkH6cG4rG6wWMzmnaW78t_8danBRU1NIIY06uCw/s1600/spices.jpg" /></a></div>
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(1)</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">वो ज़्यादातर चुप
रहता था. इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता था किउसकी आदत कम
बोलने की थी या उसे ज्यादा बोलना पसंद नहीं था . एक बात जो काफी भरोसे के साथ कही
जा सकती थी कि उसके भीतर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">बोलने को लेकर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कोई हिचक या संकोच
जैसी बात नहीं थी. उसके चेहरे पर एक खास तरह की दृढ़ता थी. वो शर्मीला कतई नहीं
लगता था. उसका चेहरा काफी बड़ा था. उसके चेहरे के भूगोल का बड़ा हिस्सा रूखा</span>,
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">भावहीन और सपाट था.
एक निर्जन समतल मैदान की तरह. अगर किसी तरह के भाव उसके चेहरे पर होते तो वे ज़रूर
दिखते और कहीं से आकर उभरते तो भी दिखते. चेहरे पर कोई भी हलचल नुमाया हुए बिना
नहीं रह सकती थी. वो भावहीन चुप्पा किस्म का इन्सान था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">मैंने पहली बार उसे
टिफिन सेंटर की कुर्सी पर बैठे देखा था. ये कोई कॉर्पोरेट ऑफिस नहीं था इसलिए उसकी
कुर्सी और उसके गिर्द के परिवेश में कोई नफासत नहीं थी. जहाँ रोटियाँ बन रहीं थी
उस जगह और सब्ज़ी दाल के बड़े भगौनों के पास का खांचा उसका ऑफिस स्पेस था. एक कुर्सी
रखे जाने जितनी जगह. पर ये जगह उसने अपने लिए खुद मुक़र्रर की थी. वो ही इस टिफ़िन
सेंटर का मलिक और एकमात्र मैनेजर संचालक जैसा कुछ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">था. इस तरह के किसी
नामकरण को लेकर उसकी कोई चेष्टा नहीं थी. आसपास रहने वाले विद्यार्थी और सेल्समैन
- मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव के कमरों में यहीं से टिफ़िन में खाना पहुँचाया जाता था.
कई अनियमित ग्राहक यहाँ ख़ुद आकर भी खाना पैक करवाकर ले जाते थे. ये संचालक की कुछ
वक़्त पहले जगी महत्वाकांक्षा लगती थी कि उसने अपने टिफ़िन सेंटर में अतिरिक्त स्पेस
निकाल कर टेबलें लगवा ली थीं. ताकि ग्राहक सीधे गरमागरम खाने को उसी जगह भोग लगाने
बैठ सकें. इस तरह</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">ये टिफ़िन सेंटर और रेस्टोरेंट का हाइब्रिड मॉडल
था. अपने लिए उसने इन्हीं सब वजहों से कुछ ख़ास जगह नहीं छोड़ रखी थी. उसे इसकी
दरकार भी नहीं थी. उसके मिज़ाज को भी नहीं.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">उसकी बगल में गैस के
एक बड़े से चूल्हे पर दो एक लोग रोटी बनाने का काम करते थे और पीछे एक आदमी टिफ़िन
पैक करने का काम करता था. उसके पास ही एल्युमीनियम के भगौनों में दाल और सब्जियां
रखी होती थीं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">जिन्हें वो पॉलिथीन की थैलियों में माप के अनुसार
डालने का काम करता था. रोटी दाल सब्जी के अलावा एक कम्पलीट टिफ़िन में थोडा कच्चा
प्याज़</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कटा हुआ
आधा नीम्बू और आधा पापड़ भी शामिल था. नियमित रूप से टिफ़िन मंगवाने वाले के लिए कम
पैसे में ये एक्स्ट्रा चीज़ें सेंटर मालिक की तरफ से उदार होकर दिए जाने वाले तोहफ़े
थे. यहाँ अचार का ज़िक्र रह गया</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">वो भी टिफ़िन में उपलब्ध होने वाले तोहफों में
शामिल था.</span><span lang="HI"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">रोटियाँ बेलने और
सेकने वाले लोगों और टिफ़िन पैक करने वाले स्टाफ़</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">के बीच भी यदा कदा
ही कोई संवाद होता था. ज़्यादातर ग्राहक नियमित थे. ज़्यादातर कस्टमर ऐसे थे जो इस
जगह से किसी न किसी रूप में जुड़े थे और अपरिचित नहीं रह गए थे. पर कभी कभार कोई
बिलकुल नया बन्दा यहाँ आता तो संचालक से अपेक्षा थी कि वो व्यवसाय सुलभ मुस्कान</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">से उनका
स्वागत करता. पर ये बिलकुल अलग ही किस्म की मितव्ययिता थी.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">वो ग्राहक के आर्डर को
लगभग मशीनी अंदाज़ में लेता. ग्राहक खाने के बारे में कहता जैसे कि - </span>' <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">एक खाना पैक करके
दीजिये</span>'. <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">इस पर
वो कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं देता और पीछे खड़ा आदमी उसके आर्डर पर पैकिंग शुरू कर
देता. स्टाफ के लिए ग्राहक के आर्डर पर मालिक की प्रतिक्रिया से ज्यादा उसकी पवित्र
उपस्थिति भर ही अनिवार्य होती थी. मालिक का काम पैसे लेने का ज़रूर होता.</span><span lang="HI"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">मालिक</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">स्टाफ और उपस्थित
ग्राहकों में एक हैरान कर देने वाला रिश्ता पूरे समय बना रहता था. ये सब मिलकर एक
मशीन बना रहे थे जिसके पुर्जे अलग अलग समय में हिलते थे पर उनमें तारतम्य पूरा
दिखाई पड़ता था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">मालिक फिर भी कुछ हद
तक एक मज़ेदार आदमी था. वो कम से कम एक बार मुस्कुराया था. एक ग्राहक ने ये बात इस
दावे के साथ बताई कि इसे लगभग प्रमाण के तौर पर शुमार किया जा सकता है. ग्राहक ने
पैसे दिए. उसने पैसे लिए और गिने. गिनने के बाद और उसके किसी और काम में व्यस्त
होने के बीच के बारीक अंतराल में ग्राहक ने धन्यवाद कहा. इस अनपेक्षित अभिवादन पर
वो शिष्टाचार वश आधा अधूरा मुस्कुरा दिया था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कुछ था यहाँ कि यहाँ
एक बार आया आदमी लौट कर ज़रूर आता था.</span><span lang="HI"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
(2)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">उस लड़के का सारा खेल
ठेले पर चलता था. वो चायनीज़ का ठेला था. मंचूरियन ड्राई और विथ ग्रेवी में उसे
महारत जैसी हासिल थी. लोगों की फरमाइश का वो ध्यान रखता था. जैसे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कोई
कहता बहुत स्पाइसी बनाना तो वो आग परोसता था</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कोई कहता बच्चों के हिसाब से ज्यादा तीखा
नहीं तो वो उस तरह कस्टमाइज कर तैयार करता था. उसकी उम्र ज्यादा नहीं थी. और वो
नेपाली नहीं था. उसके ठेले का नाम कोई स्थानीय देवी के नाम पर था. उसके साथ चायनीज़
जुड़ना थोड़ा अलग लगता था. पर नाम पर कौन गौर करता था. एक भीड़ उस लड़के के भरोसे जुटी
रहती थी. शाम को उसका ठेला लगते ही लोगों का उसके ठेले पर मंडराना शुरू हो जाता
था. कई वहां बैठ कर या खड़े खड़े ही ज़ायके का लुत्फ़ लेते</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कई अपने बच्चों के लिए पैक करवा कर घर ले
जाते. कई अपनी प्रेमिकाओं के साथ उनकी ख़ास माइश पर वहां आते.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">लड़के के हाथों में
ग़ज़ब की फुर्ती थी. वो एक ही काम को हज़ारों बार कर चुका था. वो रोज़ न जाने कितनी ही
बार मसालों के सटीक मिश्रण और ठीक ठीक आंच की कीमियागरी के साथ बिलकुल एक जैसा
ज़ायका परोसता था. गैस चूल्हा</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कड़ाही</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">छन छन और कई पदार्थों में झपट पड़ता उसका हाथ आखिर
में कड़ाही में छूटता था. उसके हाथ से कच्ची सामग्री के कड़ाही में छूटते ही छन्न की
आवाज़ के साथ मसालेदार धुंए का एक छोटा बादल कडाही के गिर्द तैरने लग जाता. लोग
मंत्रमुग्ध से उसे देखते थे. कई लोगों को संदेह था कि वो चीन से ट्रेनिंग लेकर आया
है. ये संदेह कई लोगों के लिए दावे में बदल जाता. उसे लेकर उसके प्रशंसक
अतिशयोक्तिपूर्ण दावे भी करने लगे. जैसे कुछ नियमित ग्राहकों का मानना था कि अकेले
में वो चीनियों की तरह चॉप स्टिक्स से खाता है. कुछ लोग यहाँ तक भरोसा करते थे कि
वो मंदारिन जानता है. तो कुछ की सनक उसे चीनी जासूस घोषित कर रही थी. खैर...
ज़्यादातर का मानना था कि चीन तो दूर की कौड़ी है पर हांगकांग ज़रूर वो गया होगा. यद्यपि
उसे देखकर कोई भी समझदार तो यही कहेगा कि वो इस शहर से बाहर शायद ही कभी गया होगा.
और ऐसा ही था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">उसका काम सिर्फ कुछ
न कुछ बनाना ही था. पैकिंग का काम एक दूसरा लड़का करता था. एक बार आर्डर जितना
बनाने के बाद वो दूसरे आर्डर पर लग जाता</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">फिर तीसरे और बाद में चौथे. इस तरह अपने आप को हर
बार दोहराता था. उसका व्यक्तित्व आर्डर लेने की प्रतिक्रिया से बनता था फिर हर
आर्डर पर अपने को दोहराता था. उसे किसी ने बोलते हुए सुना नहीं था. उसके आस पास से
कोई आवाज़ आती थी तो वो छन् की आवाज़ थी. वो मसालों की तीखी गंध वाले धुंए में लिपटा
रहता था. आस पास खड़े लोगों के नथुनों की श्लेष्मा झिल्ली को रगड़ता तीक्ष्ण धूम्र
ही उसका कुल व्यक्तित्व था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">आप उसकी तारीफ नहीं
कर सकते. </span>'<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कुछ
अच्छा बना है</span>' <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कहने से न तो वो खुश होता था</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">न ही नाराज़. कोई नई</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">बात नहीं थी ये कहना
कि तुम एक उम्दा कारीगर हो.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
3</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">उस जगह ख़ासी चहल पहल
थी. ये फ़ास्ट फ़ूड का एक जटिल संकुल सा था जो शहर के एक बेहद जाने पहचाने चौराहे से
कुछ ही दूर था. चौराहे पर एक बड़ा गोलाकार पार्क बना हुआ था जहां शाम के समय बच्चे
जिद करके अपने परिवारों को लाया करते थे. वे सब उस पार्क में एकाध घंटे बिताकर
वहां से वापसी करते. वापसी का ये रास्ता सीधे घर की ओर नहीं जाता था</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">बल्कि आग गंध और
स्वाद के इस बेतरतीब भीड़भरे लेकिन मादक जंगल से उलझता हुआ घरों की ओर लौटता था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">चायनीज़ सबकी पहली
पसंद था. मुम्बैया पंजाबी और साउथ इंडियन भी पसंद में होड़ लेते थे. चायनीज़ के नाम
पर जो कुछ भी दिया जाता था वो बीजिंग में परोसे जाने वाले वेज जंक से कितना मिलता
था</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">मिलता
भी था या नहीं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">ये सब सवाल बेमानी ही थे. इस तरह के सवाल अगर
होते भी थे या किये भी जा सकते थे तो उसकी जगह फेसबुक थी.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">खूब सारी टेबल्स और
प्लास्टिक की कुर्सियां फ़ास्ट फ़ूड की कई सारी दुकानें.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">जय भोले चायनीज़ से
मुंबई जंक्शन तक. नामों में कहीं इनोवेशन लगता तो कहीं चलताऊ रवैया सामने आता था..</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">तेज़ रौशनी चुभती सी
और यहाँ वहां उड़ते कीट.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">वे दोनों मेरे पास
वाली टेबल पर आमने सामने बैठे थे. लड़के ने खूब दाढ़ी उगा रखी थी जो उसके चेहरे पर
ठीक ठाक लग रही थी और उसके बेतकल्लुफ होने को और</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">मजबूती से सामने
लाती थी. लड़की कुछ ओवरवेट थी. माफ़ करें अगर ये कहना गुस्ताखी लगे. अगर आप मानते
हैं कि आजकल ओवरवेट के लिए प्लम लफ्ज़ इस्तेमाल होना चाहिए तो मैं अपना शब्द वापस
लेकर कहूँगा कि वो लड़की खाते पीते खानदान से ताल्लुक रखती थी. उसका चेहरा गोल और
बड़ा था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">वे दोनों कुछ देर से
आमने सामने चुप बैठे थे. वे बड़ी देर तक चुप बैठे रहे. कोई एक दूसरे की तरफ़ भी नहीं
देख रहा था. किसी के चेहरे पर रंज़ या गुस्सा नहीं. शायद वे दोनों प्रेमी थे. बहुत
थोड़ी सम्भावना उनके ठीक ठाक दोस्त होने की भी थी. पर सिर्फ दोस्त होने में जो
बेतकल्लुफी होती है वो उनके बीच नहीं थी. स्थगित संवाद के बावजूद मन ये मानता था
कि वे आपस में प्रेम में थे. वे अपने अपने काम से थक कर आये हो सकते थे. बल्कि ऐसा
ही था. लड़की के सुंदर चेहरे पर थकान साफ़ दिख रही थी. लड़के के चेहरे पर दाढ़ी ने
बेशक उसे छुपा रखा था पर वो जिस तरह से टेबल के नीचे पाँव पसार कर बैठा था उससे
साफ़ था कि वो भी थका हुआ था. वे दोनों इतने थके हुए थे कि कुछ भी बोलना उनके लिए
और थकाने वाला काम था. लड़के ने वेटर के इस बार फिर पूछने पर कुछ आर्डर दिया. थोड़ी
देर बाद वेटर आर्डर रखकर चला गया. वे दोनों खाने लगे. खाने को लेकर कोई गहरा राग
उनमें नहीं था. उनके आसपास रौनक थी. हर कोई अपनी पसंद की चीज़ें खाने में व्यस्त
था. बच्चे खासे खुश. उनके मां बाप भी एक अच्छे दिन के शानदार समापन में लगे थे.
खुशियों के बीच वे दोनों अपनी थकान के दायरे में थे. वे चुपचाप खा रहे थे. वे एकाध
बार एक दूसरे की ओर देख रहे थे. उन दोनों का एक दूसरे की ओर देखना अलग अलग समय में
हो रहा था. लड़की जब दाढ़ी वाले लड़के की ओर देखती तो वो लड़का नीचे नज़र किये खा रहा
होता. लड़का जब लड़की की ओर देखता तो लड़की </span>'<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">कहीं ओर देखती पर कहीं नहीं देखती</span>' <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">धीरे धीरे मुंह हिला
रही होती. इससे दोनों को कोई शिकायत नहीं थी. इससे किसी को कोई शिकायत नहीं थी. न
आसपास के लोगों को. वे पास बैठकर ही संतोष में थे शायद. कुछ कहने बोलने की ज़रुरत
महसूस नहीं की जा रही थी.</span><span lang="HI"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">अब मुझे ये विश्वास
हो गया था कि वे असल में गहरे प्रेम में थे. मेरे इस विश्वास के बहुत बाद लड़की ने
लड़के को एक भरपूर नज़र से देखा. और उसके बहुत बाद लड़के ने पैसे चुकाए और वे दोनों
वहां से साथ साथ निकल गए.</span></div>
</div>
<div class="MsoNormal">
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="font-family: mangal, serif;"><span style="line-height: 18.4px;"> ( इमेज साभार गूगल )</span></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal">
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
</div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-73654938752713882402018-01-03T17:02:00.002+05:302018-01-03T17:05:03.886+05:30फ़ीके रंग वाला फूल <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<br />
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
कितने आक्रामक लगते है ये चटख रंग.<br />कांच के टुकड़ों की तरह आँखों में घुसे जाते हैं. गमलों में उगे कोमल और कृशकाय पौधों पर किसने इतने गहरे रंग के फूल उगा दिए? क्या जंगल में भी ऐसे ही तीखे रंगों का सैलाब उमड़ता है? या ये प्रयोगशालाओं के रसायनों से पनपे है ?<br />झील के किनारे फूलों की प्रदर्शनी लगी है. किनारे पर माहौल में रूमान है. हल्का संगीत पानी की सुस्त लहरों से संगत करता है. लम्बे प्रोमेनाड पर लोगों की चाल में शांति है. पता नहीं चलता कि इस बारिश में छलक उठी झील का टनों गैलन पानी अप<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">नी डूब में आई धरती को कितना ज़ोर से भींचे हुए है. दिगंत में कोई पक्षी सांवली रेखा उकेरता उड़ता चला जाता है.</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
यहाँ कतारों में लगे हैं बेशुमार गमले. गमलों की मिट्टी में उगे बौने पौधे और उस पर उसके आकार और कद से कहीं ज़्यादा लगे फूल. इनका रंग हैरान करता है. चमकदार बैंगनी, लाल, रानी और गाढ़ा आसमानी.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बेरंग मिट्टी में पस्त से हरे पत्तों के बीच रक्ताभ फूल.जैसे ठंडी आग बैठी है इस गमले में.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
रंगों की इस चकाचौंध का पोषणकैसे होता है? क्या एक गमले की मिट्टी काफ़ी है इस वैभव को सींचने में ?</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोई फ़ीके रंग का फूल चाहिए मुझे, भले ही वो मेरी हथेली के आकार से बहुत छोटा हो. इस लम्बी कतार में देखता हूँ शायद कही छुपा बैठा हो. वैभव के बीच उपेक्षित सा कोई हल्के रंग का फूल.</div>
</div>
</div>
</div>
</div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-72710653783525622462017-12-21T16:30:00.002+05:302017-12-21T16:30:55.308+05:30झूला पुल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 19.32px;">क्या कोई खिलौना ट्रांजिस्टर बज सकता है?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 19.32px;">क्या किसी नक़ली घड़ी की सुइयां चल सकती है?</span></div>
<br />
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
उसके लिए इसका उत्तर 'ना' में नहीं था. 'हां' में भी नहीं था. बस शक और भरोसे के बीच निलंबित सा कुछ था. बात बहुत पुरानी हो गई थी इसलिए उसे खुद इस बात का विश्वास नहीं रह गया था पर उसने एक दर्शक की हैसियत से जो देखा था उसकी धुंधली याद भी इतनी चित्रात्मक थी कि उसे वो पूरा दृश्य अपनी जगह, पृष्ठभूमि, केंद्र, परिधि, पात्रों- गौण पात्रों के साथ याद था. बस, एक जगह वो झूला पुल डगमगा रहा था. कुछ उधड़ा सा था वो<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">पड़-चित्र. उसकी तुरपाई भी नहीं हो सकती.</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
वो एक लकड़ी का रेडियो था. उसके घर का छोटा आंगन था. एक पड़ौस का 'शौकिया मिस्त्रिनुमा लड़का था जो उस रेडियो को जिज्ञासावश उलट पुलट रहा था.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
आखिर उस लड़के ने रेडियो को खोल दिया. रेडियो में अंदरूनी तार और मशीनों की जगह बटन और धागे थे. सफ़ेद और रंग बिरंगे धागे जो कई सारे बड़े छोटे बटन से गुज़र रहे थे.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
ये बात उसे क्यों याद थी कि रेडियो खरीद कर लाए जाने के बाद एक बार बजा था. खुद उसने उसे बजते हुए सुना था. पर बटन और धागों का जटिल आयोजन फिर किसी आवाज़ को पैदा नहीं कर पाया. उसने फिर उसे कभी सुना नहीं. उस लकड़ी के पिटारे का क्या हुआ उसे नहीं मालूम.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit; line-height: 19.32px;">ऐसा ही कुछ उस घड़ी के साथ भी था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit; line-height: 19.32px;">वो घड़ी पिताजी ने ट्रेन में खरीदी थी. ट्रेन में कोई आदमी ख़ूब सारी घड़ियाँ बेच रहा था. दो-पांच घड़ियाँ वो हाथ में थामे था. दो पांच घड़ियाँ उसकी कलाई से बांह तक बंधी थी. उसके पिताजी ने एक कत्थई डायल वाली घड़ी खरीदी थी. उसके वास्ते. वो पहन कर ख़ूब इतराया था. बात ये भी पुरानी थी. वो छोटा था. उसने उस घड़ी की बाकायदा नुमाइश कर स्कूल का ग्रुप फोटो खिंचवाया था.उसकी याददाश्त के मुताबिक घड़ी चलती थी. उसकी सुइयां जैसे चिकने फर्श पर बेआवाज़ सरकती थीं. बेशक वो दीवार घड़ी की तरह शोर नहीं करती थी. दीवार घड़ी के हाथ सरकते वक़्त आवाज़ करते थे. एक लय के साथ दीवार घड़ी बोलती थी जो 'घड़ीक्यम घड़ीक्यों टिटक टिटक' की तरह सुनाई देता था.</span></div>
<br />
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
कलाई घड़ी की सुइयां समय के साथ चलती थीं ये बात आज वो कैसे कह सकता था? घड़ी का पिछला ढक्कन एक दिन खुल गया और उसने देखा उसमें कोई चकरी या गिर्री नहीं थी. बस कागज़ भरा था.निरा कागज़. वो घड़ी कैसे चल सकती थी? पर... वो जो समझता था वो सच था या नहीं? यकीन की जीन पर कसकर इसे कैसे दौडाए?</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
उसे याद आया उसके दादाजी सुनाते थे कि पास के गाँव जाते समय उन्होंने एक आदमी को देखा था. उनसे बात करते करते वो अचानक मिट्टी के ढूह में बदल गया.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
वो बहुत हंसा था दादा की बात पर. वे नहीं हँसे थे, पर उन्होंने कोई इसरार भी नहीं किया था.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
वो इस समय हैंगिंग ब्रिज पर था. दो ठोस कगारों के बीच झूलता हुआ.</div>
</div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-56907636807218158312017-12-11T14:46:00.005+05:302017-12-11T14:47:38.667+05:30मिट्टी की परात <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">तुम प्रेम में इतने डरे डरे क्यों हो ?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b id="docs-internal-guid-9f83aea8-44dc-8357-241e-2d4afa9f7cd1" style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">….. और इसके उत्तर में काफ़ी देर शून्य में ताकता रहा. फिर जैसे उसने बहुत गहरे कुँए से अपनी आवाज़ को खींचा और बोला-</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">मैं पश्चाताप का आदिपुरुष हूँ. कहीं भी कुछ ग़लत होता है मेरी आत्मा उसका प्रायश्चित करने लगती है. बरसों पहले जब मैं बहुत छोटा था. अबोध. तब पहली बार मेरी आत्मा एक निरर्थक वाक़ये के बाद ईंधन की तरह जलने लगी. मैं अपने ननिहाल में आया हुआ था. वो घर पुराना था. उस घर की मरम्मत शायद कभी नहीं हुई थी. उसके कमरे, दीवारें, दालान सब कुछ धूल मिट्टी में सने रहते. कच्चे आँगन में असंख्य दरारें थी जिनमे चींटियों की प्राचीन बस्तियां थी. दीवार के सहारे एक मिट्टी की परात खड़ी थी.बरसों से. उस परात का कोई इस्तेमाल नहीं था. बस, वो घर के भूगोल का हिस्सा भर ही थी. मैं कुछ खेलते खेलते उस परात के पास पहुंचा और अनायास ही पाँव की ठोकर से वो परात अपने बारीक संतुलन से हिल गयी. गिर गयी. और टुकड़े टुकड़े हो गयी. मैं दहशत से भर उठा. जैसे मैंने कोई हादसा अंजाम दे दिया था. मैंने जैसे घर का भूगोल ही बिगाड़ दिया था. मुझे शायद हल्की डांट पड़ी थी पर आज मैं सोचता हूँ वो नकली ही रही होगी. उस घर के लिए वो परात जैसे थी ही नहीं, उसका कोई क्या शोक मनाता. पर मैं उस मिटटी की परात को लेकर परेशान था. जब भी आने वाले दिनों में मैं उस जगह टूटे हुए टुकड़ों को देखता मैं डरने लगता, मैं अपने आप को घर का नक्शा, हुलिया बिगाड़ देने का दोषी ठहरता. आखिर घर वालों को समझ में आया और उन्होंने उन टूटे हुए टुकड़ों को वहां से बाहर फेंक दिया. परात के भौतिक अवशेषों के वहां से हटने के बाद भी मेरा मन वहां उन्हें ढूंढता रहा…</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">मैं पछतावे से भरा हूँ. मेरी आत्मा किसी अनाम पश्चाताप से धूंआती- सुलगती रहती है. आम दिनों में भी मैं इसकी आंच महसूस करता हूँ पर कुछ ग़लत का ज़िम्मेदार होने पर तो तो ये कपूर की तरह जलने लगती है. अब मुझे ये कई बार अच्छा भी लगता है. मैं उस दहन की गंध को सुवास की तरह लेता हूँ.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘एक और दिन की बात है. मेरे कोई रिश्तेदार अपने बच्चे को डांट रहे थे. वो बच्चा मेरा भी दोस्त था. उसने अपने ही घर में कोई चोरी की थी. कुछ पैसों की. डांटने के दौरान में भी वहां खड़ा था…’ बोलते बोलते उसकी आवाज़ में खुश्की आ गयी थी. वो आस पास पानी ढूँढने लगा पर कहीं ग्लास न पाकर उसने उसी आवाज़ में बोलना जारी रखा-</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">मैं भी वहां खड़ा था और डांट का असर अपने ऊपर महसूस कर रहा था. रंगे हाथों जैसे मैं ही पकड़ा गया था. मैंने उसी समय कसम खाई कि मैं कभी चोरी नहीं करूंगा यद्यपि मैंने कभी चोरी की नहीं थी. डांट में आवाज़ की सख्ती जब एक सीमा से बढ़ गयी तो मैं बोल उठा कि ये काम मैंने नहीं किया था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उसकी प्रेमिका उसे देखे जा रही थी. उसने पूछा-</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘तुम सारे गुनाह क्यों अपने ऊपर लेते हो' ?</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘मैं गुनाहगार नहीं हूँ, पर गुनाहों का दंश मुझे फिर भी बींधता है.’</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘तो क्या ऐसे में तुम मुझसे प्रेम कर पाओगे?</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘मुझे पता नहीं पर मैं तुम्हे प्रेम दूँ तो क्या तुम मुझे अपनी करुणा दोगी? मुझे करुणा की ज़रुरत है जिससे मैं अपनी दग्ध आत्मा को शीतल कर सकूं. एक ये गुनाह मुझे करने की अनुमति दो.</span></div>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-81800164230660712592017-11-10T12:17:00.002+05:302017-11-10T12:17:49.258+05:30मून फ्लोरिस्ट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">वो जब भी इस दुकान के आगे से गुज़रता, हल्का सा ठिठक जाता.. और सोचने लगता कि चाँद पर उगने वाले फूल किस तरह के होते होंगे. उनका रंग क्या धरती पर उगने वाले फूलों जैसा ही होता होगा? क्या उनमें भी वैसी ही आभा होती होंगीं जैसी यहाँ के फूलों में होती हैं? चाँद की मिट्टी की तासीर वहां के फूलों में किस तरह से आती होगी?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b id="docs-internal-guid-2544d108-a4af-7444-0f14-ec7c38e93902" style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">चाँद पर फूल चटख ही होते होंगे, इतना उसे भरोसा था. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">वो दुकान उसके दफ़्तर के रास्ते में थी. दुकान फूल बेचने वाले की थी और उसकी दुकान के साइन बोर्ड पर चाँद के अर्ध वृत्त में लिपटा कोई आकाशीय फूल था. ऐसा फूल उसने कभी देखा नहीं था. वैसे भी उसने ज्यादा फूल नहीं देखे थे. फूलों के बारे में उसकी जानकारी उतनी ही थी जितनी एनीमेशन देखने वाले बच्चे की कंप्यूटर ग्राफ़िक्स में. वो फूलों की किस्मों को पहचानता नहीं था. लोगों को जब वो फूलों के बारे में बात करते सुनता, वो मन ही मन हैरत करता. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">वो कहीं न कहीं फूलों की बात को नफ़ासत से जोड़ता था. वो एक नफ़ीस आदमी नहीं है ऐसा फैसला वो अपने ही खिलाफ़ सुना देता. यद्यपि उसे फूल अच्छे लगते थे. वो फूलों से प्यार करता. उसे बच्चे फूल से लगते. और उसने अपनी प्रेमिका का एक सुन्दर फूल ही दिया था. गुलाब का. पर इसमें कोई दिक्कत नहीं थी. उसने प्रेमिका को फूल देने से ज़्यादा ‘गुल-ज़बान’ में उससे कुछ कहा था. ये फूल से ज्यादा कोई लिपि थी. फ्लोरी- स्क्रिप्ट. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">वो फूल को बेशक कम जनता था पर उनके ज़रिये जिस भाषा में कहा जाता था उससे वो वाकिफ था. वैसे भी जब फूल खूबसूरती से ज्यादा वर्णमाला बन जाए तो उनके जाति- कुल की परवाह कौन करता है!</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">दुनिया भर में प्रचलित भाषाओं और उनकी लिपियों से इतर उसे इस तरह की भाषाओं और वर्णमालाओं का ठीक ठीक ज्ञान हो गया था. वो गंध की लिपि पहचानने लग गया था. बावजूद इसके वो अपने आपको अधूरा महसूस करने लगता. इस दुकान के सामने से गुज़रते उसे हर रोज़ नए तरह के फूल नज़र आने लगते. नवीन रंगों में लिपटी कोमलताएं.बस वो किसी पर भी अपनी तरफ से ‘नेम टैग' नहीं लगा पाता. वो झुंझला जाता. क्या उसे फूलों की आज तक कायदे से पहचान नहीं हुई है या जेनेटिक सम्मिश्रण ने नित नए फूलों का अविष्कार कर उसे चिढाने का नया फोर्मुला तैयार किया है.वो बड़ी मेहनत से इनसाइक्लोपीडिया देखता और समझने की कोशिश करता पर जैसे ही कोई ताज़ा फूल उसके सामने आता उसके सामने अपरिचय का गाढ़ा वीराना पसर जाता. बचपन में देखे फीके रंगों वाले पांच फूल ही उसकी स्मृति का स्थाई हिस्सा बने रहते. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उसे लगता ये ‘मून फ्लोरिस्ट' रात को कीमियागरी से नई नई किस्मों के फूल खिला देता है और सुबह अपनी दुकान में सजा देता है. ये रंग ही थे जो उसे परेशान करते थे. वो फीके धूसर रंगों से वाकिफ था पर चटख रंग उसके ज्ञान को चुनौती देते. वो रंगों के शेड्स से परेशान हो जाता. रंगों के शेड्स उसे गणित की टेबल्स से लगते जिन्हें याद करना मुश्किल था. कई सारे रंग उसे बीजगणित की जटिल वीथियों में ले जाते. </span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">आखिर उसने हार कर सोचा वो भाषा का आदमी है. गणित उसके बस की नहीं. पर ‘मून फ्लोरिस्ट' के सामने से गुज़रने पर कई दिनों तक वो ठिठक ज़रूर जाता था. </span></div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-24217309066269960802017-08-20T20:32:00.001+05:302017-08-20T20:32:52.787+05:30बूढ़ा और हांडी ( रीलोडेड )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<b id="docs-internal-guid-6ae7eb75-0027-c41f-983c-5aa02b2686b3" style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">(अपनी पहले की एक कहानी पर काफी काम बाकी था, सो करके और पुनः पोस्ट कर रहा हूँ.)</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उम्र उसकी गहरे, बेहद गहरे कुएं से पानी खींचने वाली रस्सी की तरह थी. लंबी, बहुत लंबी. चेहरा उसका सुदूर अतीत में कभी बसे और उजड़े फिर कभी न बसे गाँव की तरह था. खंडहर. धराशायी. घर में उसके दो ही जने थे. वो ख़ुद और सन्नाटा. सन्नाटा, मकान की पुरानी दीवारों से टकराता- चक्कर खाता. एक बेहद सूने घर में वो वृद्ध जैसे ख़त्म हो चुकी दुनिया में बचा अकेला विजेता था. सच में बाहर की दुनिया उसके लिए अप्रासंगिक थी. अंदर की दुनिया उसकी अपनी थी. अपनी तरह की. उसने अपने ज़माने में पायी जाने वाली विकराल किस्म की बीमारियों को पछाड़ा था. प्लेग, चेचक, टीबी और न जाने कौन कौनसी. वो सच में अपनी तरह का अंतिम विजेता ही था. उम्र को भी उसने खींच कर लंबा कर लिया था.पर उसके छोड़े निशान उसके शरीर पर हर जगह नुमाया थे. शायद इनकी उसे परवाह भी नहीं थी. असल में देखा जाय तो उसका शरीर कुल मिलाकर दिनों और बरसों का ही समुच्चय था. ठोस हाड मांस जैसा उसमें कुछ भी दिखता नहीं था. वो एक समय से भरा इंसान था. वो एक उम्र था.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उम्र के अलावा जो उसके जिस्म में स्थाई रह गयी थी वो थी सर्दी. किसी सर्दी में ठण्ड उसकी हड्डियों में इस कदर घुस गयी थी कि वो हर वक्त, गर्मियों में भी, कोट पहने रहता था. कोट क्या था एक अनगढ़ सा आवरण था जिसे उसने रजाई फाड़कर बनाया था. घर में भी अक्सर वह अपने सबसे अंदर वाले कमरे में रहता था.शैय्याबद्ध. पिछले कुछ हर अरसे या बरसों से घर में भी वो और अन्दर घुसता जा रहा था. पहले वो किसी कमरे में जाता तो बाहर भी निकल आता था पर इन सालों में वो घर के अन्दर वाले कमरे में घुसता तो कई दिनों तक बाहर नहीं दिखता था.इसी कमरे में एक बड़ी विचित्र सी तस्वीर थी. गणेश जी की. तस्वीर में विशालकाय मूषक के पीछे गणेश जी का वामन सा रूप था. कह नहीं सकते कि ये चित्रकार की गलती का परिणाम था या उसकी सनक का. इसके पीछे कोई भारी फलसफा होगा इसकी संभावना कम ही थी.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">एक छोटा तहखाना भी था घर में जो हमेशा बंद ही रहता था. इसमें बूढ़े के किसी निकट पूर्वज का भूत रहता था. निकट पूर्वज यानी उसके पड़दादा के भाई जिनकी शादी नहीं हो पायी थी और वे अविवाहित ही मर गए थे. ज़रूर अपनी उम्र लेकर ही मरे होंगे पर शादी नहीं हो पाई थी उनकी. उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें शादी को लेकर ज़बरदस्त उत्साह था. वे बचपन से ही शादी की हसरत पाले हुए थे. जवान होने तक तो ये हसरत सपनों की इमारतें खड़ी करती रही. पर वे जिससे शादी करना चाहते थे वो न सिर्फ किसी और की ब्याहता हो गयी बल्कि शादी करके अपने पति के साथ उस दूर देश चली गयी जहां वो कमाता था. उसके बाद उन पूज्य पूर्वज के सपनों के महलात धराशायी हो गए. उन्हें लग गया कि शादी अब इससे संभव नहीं तो फिर किसी से न सही. उन्होंने अपने भाई के बच्चों में मन लगाना शुरू किया. और आखिर अपने भाई से ये वादा लेकर इस दुनिया से गए कि उनकी अस्थियों को गंगा जी में बहाने का जिम्मा उसके वंशजों का होगा. चाहे ये काम पूरा होने में कितने ही बरस लग जाए पर होगा ज़रूर. जब मृत्यु को कई बरस गुज़र गए और इस बूढ़े के इस पूर्वज को लगा कि उसका मोक्ष कहीं लंबित न रह जाय तो उसने बूढ़े यानी अपने भाई- भतीजों के वंशज को आगाह करने की ठानी.और वो अलग अलग तरीकों से बूढ़े को तंग करने लगा. रात की दुर्लभ नींद में खलल. या खाने के सामान में बदमाशी. अचार में फफूंद लगा देना. तस्वीरों को उल्टा कर देना वगैरा वगैरा. इस तरह घर के तहखाने का दरवाज़ा इस तरह खुला. असल में उस पूर्वज की अस्थियां भी उसी तहखाने में रखी थीं, वर्षों से.खूँटी पर पोटली में टंगी. गंगाजल में गलने के इंतज़ार में. बहुत अरसे तक कुछ जोग बन नहीं पाया उन हड्डियों को हरिद्वार ले जाने का. जब मुक्तिकामी भूत तहखाने में बंद किये जाने का विरोध कुछ ज्यादा ही करने लग गया और उसकी व्यग्रता काफी बढ़ गयी और उसी अनुपात में उसके उत्पात भी तो वृद्ध ने हरिद्वार जाने का निश्चय कर ही लिया.एक और बात हुई जिसने वृद्ध के हरिद्वार जाने के निर्णय को अंतिम और पक्का बना दिया और वो बात थी निकट पूर्वज के भूत का बोलना. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">एक दिन वृद्ध खाना खा रहा था. और भुनभुना रहा था. ज़ाहिर तौर पर वो अपने निकट पूर्वज पर ही क्रुद्ध था. ‘ आप हर चीज़ खराब कर रहे है. आटे में कीड़े पड़ने लग गए है. पानी बेस्वाद हो गया है. अचार में फूलण (फफूंद) पड़ गयी. घर पूरा दुर्गन्ध से भर दिया. ऐसा क्यों कर रहे है आप?’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">और फिर वो हुआ जिसका कतई इल्म नहीं था वृद्ध को.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">भूत तहखाने के भीतर से बोल पडा. बल्कि फट पडा.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">“ तुम मुझे हरिद्वार क्यों नहीं ले जा रहे"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">आवाज़ साफ़ तौर पर तहखाने के भीतर से ही आई थी. वृद्ध अवाक हो गया. रोटी का कौर हाथ में ही रह गया. मुंह बोलने के लिए खुला पर खुला का खुला ही रह गया. ये एक ऐसी स्थिति थी जिसकी उसने कल्पना नहीं की थी. भूत की हरकतों तक तो ठीक था पर उसका बोल पड़ना ! अब सब कुछ संदेह के परे था. ऐसा कभी हुआ नहीं था. तमाम प्रेतोचित हरकतें कहीं न कहीं गुंजाईश छोड़तीं थीं. कि शायद ये भूत की हरकत हो. शायद न हो और मन का वहम ही हो. या इसका कारण जरावस्था से उपजा मतिभ्रम हो.पर अभी अभी जो ‘कहा’ गया था उसने तो उसके मन के दरवाज़े खोल दिए थे. बल्कि तोड़ डाले थे. उसे तुरंत इस मोक्षकामी आत्मा के लिए कुछ करना था. उसने उठकर हाथ धोये और उसी वक़्त हरिद्वार रवाने होने का निश्चय कर लिया. बेशक वो तुरंत रवाना नहीं हो पाया पर हरिद्वार जाना एक दम तय हो गया. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">तो इस तरह आखिर तहखाने का दरवाज़ा खुला. जब खुला तो अरसे से बंद पड़े वक्त की धूल गिरने लगी. तहख़ाना अलग अलग पीढ़ियों के वक़्त का बेतरतीब संग्रहालय था. वो धूल और अँधेरे से भरा था और उसमें कई तरह की चीज़ें पड़ी थीं जो उदासीन भाव से शून्य में ताक रही थीं. चीज़ें संदूकों और थैलों में ठुंसी थी और बरसों की उपेक्षा के बाद अब ऐसी ही पड़ी रहना चाहती थीं. वे इस जिद से भरी थीं कि अब उन्हें इसी तरह पड़ा रखा जाय, और कहीं सरकाया तक न जाय.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">निकट पूर्वज की अस्थियाँ पोटली में बंद किसी खूँटी पर टंगी थीं. निकट पूर्वज को भले मोक्ष की पड़ी थी, उनकी अस्थियां ऐसी ही शेष रहते समय तक टंगी रहना चाहती थीं. स्थगन में या विलंबित निलंबन में जैसे संतोष महसूस हो रहा हो उन्हें!</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">पर उन्हें खूँटी से उतारा गया.</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">और अस्थियों की पोटली थामे वृद्ध अकेले ही हरिद्वार के सफर पर निकल पड़ा. टिकट अलबता उसे दो खरीदनी पड़ी,एक खुद उसकी और एक उस सहयात्री की जिसकी अस्थियां उसके पास थीं. इस संक्षिप्त यात्रा ने आगे चलकर बहुत बड़े बदलाव लाये. बूढ़ा अपने घर में मस्त था और बाहर की दुनिया से बेपरवाह था. वो अपने को बाहरी संसार से इम्यून मानता था. उसे लगता था बाहर के लोगों को उसमें क्या दिलचस्पी हो सकती है! पर ठीक ठीक ऐसा था नहीं. बाहर के लोगों की अनगिन आँखें वृद्ध के घर की दीवारें भेद कर अंदर झांकना चाहती थी. बाहर की दुनिया उसके बारे में जानने के लिए बड़ी डेस्पेरेट थी. और जैसे ही वो अस्थियाँ लेकर हरिद्वार निकला उसे लेकर लोगों की कई पूर्व धारणाएं खंडित होने लगी. लोग जो पहले उसे ही अश्वत्थामा समझने लगे थे,अब ये मानने लगे कि ये भी इसी लोक का है, नश्वर है और आम लोगों की तरह ही मोक्षकामी भी. जब उसे अपने पूर्वज के मोक्ष की चिंता है तो अपने की भी होगी ही. और लोग मानने लगे कि ये वृद्ध भी एक दिन इस दुनिया से ज़रूर जायेगा. उसके इस लोक से जाने के बाद भी उसका घर बना रहेगा. इस पुराने घर में जीवन का शोर रहा है.इस पुराने घर में कई पीढ़ियों से लोगों का निरंतर वास रहा है. इस घर में एक परिवार का आखरी सदस्य अब रह रहा है. इस घर से लोग ज़रूर विदा होते गए है, घर का सामान बाहर जाते किसी ने देखा नहीं है.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">और पड़ौस के लोग उसके घर में आने के बहाने तलाशने लगे. एकदम से कुछ रिश्तेदार भी पनप गए. बाहर की दुनिया की रूचि उसमें बढ़ गयी. बरगद की जड़ें घर की दीवारों में पसरने लगी.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">वृद्ध हरिद्वार में जिस काम के लिए आया था वो हो जाने पर काफ़ी हल्का महसूस करने लगा. घर से इतनी दूर आने के बाद उसकी इच्छा अब घूमने की हुई. वो हरिद्वार- ऋषिकेश घूम लिया. पर उसका मन नहीं भरा. वो दिल्ली आ गया. दिल्ली शहर को देखकर उसकी आँखे फटी रह गयी. इतना बड़ा और लोगों से भरा शहर. ऊंची मीनार, किले, मकबरे, पुरानी भारी भरकम इमारतें ! उसके भीतर ज़िन्दगी का राग बजने लगा. वो चांदनी चौक में तरह तरह के भोजन का आनंद लेने लग गया. घर में वो अब तक कितना बेस्वाद खाना खा रहा था इसका अहसास उसे यहाँ उसे हुआ. असल में खाने को लेकर अब तक उसकी कोई दिलचस्पी थी ही नहीं पर अब उसे लगा भोज्य पदार्थों की भी एक अलग ही सृष्टि है.पके हुए अन्न की खुश्बू घ्राण संवेदनों को नया जीवन ही जैसे दे रही थी.जल्द ही जितने पैसे साथ लाया था वो ख़त्म हो गए. उसने पैसों को इस तरह खर्च करने के बारे में सोचा ही कहाँ था? बुरा सा मुंह बनाते हुए, भारी मन से वो वापस लौट गया. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">रिश्तेदारों को लगता था कि बूढ़े ने ज़रूर सोने चांदी की मुद्राएं संग्रहीत कर रखी हैं. और अपने संग्रह को उसने अपने पूर्वजों के संग्रह में मिला लिया होगा इससे कम से कम मुद्रा की एक बड़ी हांड़ी तो ज़रूर भर गई होगी. और कि ये दिन उससे नजदीकियां बनाए के लिए सबसे मुफीद हैं. आखिर सिक्कों की हांडी का कोई तो वारिस बनेगा.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बात सच थी. बूढ़े के पास वास्तव में एक पुरानी हांडी में मुद्राएं थीं.पर उसका ध्यान अब तक इस ओर नहीं गया था. अब लोगों की दिलचस्पी उसमें बढ़ गयी थी, तो वो भी कुछ कुछ समझने लगा. अब तक हांडी कमरे की टांड पर अकेली आत्ममुग्ध सी ही पड़ी थी. द्रव्य-गर्विता. जिस हांडी में दही होना चाहिए या जिसके चेहरे पर चूल्हे की धुंआती आग की कालिख होनी चाहिए उसमें चमकती धातु अपना बसेरा करे तो कौन नहीं इतराएगा? पर बूढ़े को इस हांडी से कोई खास लगाव नहीं रहा था. अभी भी नहीं था. पर उसके हरिशरण होने की संभाव्यता ने बूढ़े को हांडी के भविष्य के प्रति आशंकित कर दिया. उसके बाद ये हांडी किसी न किसी को तो मिलकर रहेगी.उसे इस द्रव्य- राशि को अलोप करने का कोई मंतर नहीं आता था. पर जो धन उसके अपने परिजनों को काल कवलित होने से बचा नहीं पाया उसमें इतनी ताकत कहाँ से आती कि वो कुछ लोलुपों के क्षुद्र स्वार्थ की भेंट चढने से ख़ुद को रोक पाता. वृद्ध के सामने ये स्थिति थी कि उसके बाद वो हांडी किसी योग्य/योग्य, भले/बुरे सद्यः उत्पन्न वारिस के पास जाने वाली थी. इच्छुक वारिस उसके घर के आसपास तो मंडराने लग ही गए थे. यह उस अंतिम विजेता यानी वृद्ध को कुछ स्वीकार नहीं हुआ. वो उन आवेदक वारिसान के घर में प्रवेश को कितने दिन रोक पाता? कभी न कभी इस घर में उसके बाद भी कोई तो ज़रूर आ ही जायेगा.चाहे वो कितना ही दुत्कारे, लोग उसके जाने के बाद घर में घुसेंगे ही. ख़ाली घर ख़ुद ही बुला लेगा.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उसने पहले पहल तो सोचा कि वो हांडी के धन को खर्च कर दे. पर मुद्राएं ज्यादा थीं और उसकी आवश्यकताएं और विलास सीमित. वो दान के पक्ष में हरगिज़ नहीं था.काफी विचार के बाद भी वो किसी नतीजे पर पहुँच नहीं सका. पर एक दिन ऐसे ही बैठे बैठे एक विचार ने उसे काट खाया. और उसने एक निश्चय कर लिया.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उसने अपने बचे दिनों में इस स्वर्ण-रजत मुद्रा हांडी को ब्रह्माण्ड के ऐसे आयाम की भूल भुलैया में गुमकर देने की ठानी जो फिर सबके लिए अलभ्य हो जाय.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">दुनिया,ईश्वर, रोग, दारिद्रय ये सब किसकी माया थे ये तो वो नहीं जानता था पर अब तक उसे चुनौती ही पेश करते रहे और वो जीत कर भी अपने कमज़ोर होने को जानता रहा. एक ऐसा शिकार जो अपने शिकारी को लंबी दूरी तक छकाता रहा.पर था वो शिकार ही, होना अंततः उसे शिकार होना ही था. वो चुनौतियों से जीतता भले ही रहा था पर दर पेश चुनौतियों से थक भी चुका था. आज तक पलट कर उसने किसी को किसी भी प्रकार की चुनौती नहीं दी थी पर अब उसकी तरफ से यही चुनौती थी कि आ जाए कोई भी और ढूंढ कर दिखा दे हांडी.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">और अब उसके दिन रात यही सोचने में लग गए कि उसे इस हांडी के साथ ऐसा कुछ करना है कि कोई भी चाहे तो इसे कभी ढूंढ न पाए. चाहे इसके लिए उसे इसे गाड़ना पड़े, फेंकना पड़े, आग में गला देना पड़े या कुछ और पर उसे अपने आप से ये वाद किया कि इस हांडी को वो इस तरह ठिकाने लगाएगा कि उसे कोई भी कभी भी ढूंढ न पाए.</span></div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-6930978481248159582017-08-16T17:39:00.003+05:302017-08-16T17:39:49.427+05:30एक पासपोर्ट साइज़<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">स्मृति के कोई दर्ज़न भर स्थिर-चित्रों से बना था उसका शहर. उसका शहर पतली सड़कों और बक्सेनुमा मकानों का संकुल न होकर कुछ चित्रों की लड़ी था. इस लड़ी को दोनों सिरों से कहीं बांध दो तो रंग बिरंगी झालर की तरह दिखने लगता था ये शहर. शहर की जो तस्वीरें उसकी मिल्कियत थीं उनमें एक तो थी चौराहे के आइसक्रीम पार्लर की. और एक कच्चे, पीले रास्ते की जो कही ले जाने के बजाय भटकाता ज्यादा था. (वैसे यही इसका सुख भी था). एक कोने की थी जो दो ऊंची दीवारों के मिलने से बना था. दोनों दीवारों में से एक में बीचो बीच पीपल उगा था और शाखें दीवाल फोड़ कर बाहर आ रही थीं. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b id="docs-internal-guid-638eb02b-eaf3-c59b-e1d2-f67c3bd29c2b" style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">एक तस्वीर स्कूटर मैकेनिक की दुकान वाली थी. एक हैलोजन लाइट फेंकते खम्भे की. और एक पोस्ट बॉक्स की भी. ऐसी ही कुछेक और तस्वीरों से बना था उसका शहर. पर हां एक तस्वीर जिसका अभी ज़िक्र नहीं हुआ और जो बाकी की रंगीन छवियों से जुदा थी और जिसके बिना उसका ये शहर स्मृतियों का नगर नहीं बन सकता था वो एक ब्लैक एंड वाइट पासपोर्ट साइज़ फोटो थी. बाकी ग्यारह के ग्यारह चित्रों के रंग फ़ीके पड़ते जा रहे थे पर इस श्वेत श्याम छवि को वो हर दिन नवीन और युवतर होते हुए ही देखता था. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">असल में ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो शहर की तस्वीर नहीं थी. ये तो एक लड़की का पासपोर्ट साइज़ फोटो था. ये एक फोटो ज़रूर था पर इस पर नज़र पड़ते ही एक पूरा एल्बम उसके सामने खुल जाता था. एल्बम के हर चित्र में वो लड़की ज़रूर होती. बल्कि वो लड़की ही होती.अलग अलग मूड, मुद्राओं में. कई बार तो उस अल्बम के एक ही फोटो में लड़की अलग अलग वक्त में अलग मुद्राओं में नज़र आती थी. अक्सर जैसे उसके सामने फेसेज़ बनाती हुई. उसे सामने देखकर तो और भी मुंह बिगाड़ती सी लगती थी.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">शहर की स्मृतियों की पन्नियाँ. रंग बिरंगी.चित्रित. उड़ती हुई, लहराती हुईं. हवा में अपना संतुलन खोती ये पन्नियाँ कितनी भली लग रही थीं. पर इस समय उसके सामने जो शहर था वो अलग था.उस शहर से जुदा जो उसी की कुछ पुरानी यादें धुंधला नक्शा उतारे थीं. वो सोचने लगा, आया तो वो उसी शहर में था! फिर क्या हुआ कि उसकी याद के स्टिल्स से बना शहर कोई और शहर मालूम होता था.इस जिंदा से लगते शहर से जुदा.स्पर्श से भी जिसे पहचाना न जा सके.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">स्पर्श पहचान करने की आखरी हद होता है. </span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">कैसे कोई वृद्धा बरसों बाद परदेस से आये पाँव छूते पोते की तस्दीक उसे जगह जगह से छूकर करती है.यहाँ इस नए शहर में जितना मर्जी अपना पुराना खोजने की वो कोशिश करता, उसे कोई और ही शहर हाथ लगता. उसे शक होने लगा कि कहीं वो किसी अनजान शहर में तो गलती से नहीं आ गया. उसने सर उठाकर देखा, शहर का दुर्ग मजबूती से खड़ा था. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">वो और ज्यादा परेशान हो गया. क्या दुर्ग शहर का हिस्सा था या शहर इसके पडौस में बसा हुआ था? दुर्ग उसका पहचाना था पर शहर से फिर भी जान पहचान निकल नहीं रही थी. क्या शहर खानाबदोशों का डेरा भर होता है? कि कुछ बरस किसी किले के बगल में डेरा डालो और फिर कहीं और के लिए निकल लो.पीछे कोई नया काफिला अपने खच्चरों- टट्टुओं के साथ तैयार खड़ा है इसी जगह कुछ बरस डेरा डालने को. वो भी एक यायावर की तरह इस जगह आया था. आने के कई दिनों तक वो संकोच में रहा. शहर उसके लिए सिमटा रहा तो बाँहें उसने भी नहीं फैलाई. वो चाय की दुकानों में नरमाहट ढूंढता रहा. फिर एक दिन उसकी दोस्ती एक जूते चप्पलों के दुकानदार से हुई. वो गया था अपने लिए एक जोड़ी नए जूते खरीदने और साथ में एक दोस्त मुफ्त में ले आया. दुकानदार उसकी उम्र का ही था. कह रहा था बड़े भाईसाब और वो साथ में चलाते हैं ये दूकान.पैसा भाई साब का है और बैठता वो है.जेंट्स और लेडीज दोनों के लिए जूते सैंडल रखता है.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">दोस्ती लगातार बढती गई. हीरालाल था दुकानदार का नाम. दिखने में सुन्दर. वो शाम को वहीं बैठने लगा.हीरालाल की दूकान उसकी बैठक हो गयी. एकाध घंटा गप्प मार कर, चाय पीकर ही उठता वो. हीरालाल को भी उसकी संगत अच्छी लगती थी.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">एक दिन..शाम का वक्त था. दुकान पर वो बैठा था. हीरालाल कहीं गया हुआ था.ये कोई नई बात नहीं थी.हीरालाल उसके आने पर कई बार सिगरेट पीने पान के केबिन पर चला जाता था. दूकान में सिगरेट न पीने का उसूल था. उसी समय एक लम्बी सी लड़की दुकान में आई.वो एक आम ग्राहक थी. उसे अपने लिए सैंडल चाहिए थे. उसने उस लड़की को रुकने के लिए कहा. हीरालाल आने ही वाला था. लड़कियां परदेसियों को पहचान जाती है. कुछ मिनट की देरी के बाद उस लड़की ने उससे पूछा था कि कितना वक्त हो गया इस शहर में आये हुए, उसने दिन गिनकर बता दिए. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">जैसा कस्बाई प्यार में होता है, परदेसी से दिल लगाने का मामला खतरनाक पर अनिवार्य सा होता है. छोटे शहरों की मुट्ठी में बंधे लोग अक्सर के दूसरे के पास आने को अभिशप्त होते है. वो दोनों अक्सर एक दूसरे को दिख ही जाते थे. वहां कई दिनों या महीनों की आँख मिचौली संभव ही नहीं थी. कोई दूर का ही प्रेमी हो सकता है एक क़स्बे की प्रेम कथा में. वर्ना हीरालाल ही क्या बुरा था? हीरालाल में एक एक प्रेमी की सारी खूबियाँ तो थी पर क़स्बे का प्रेम दूरियों और अपरिचय के तंतुओं से बनता है. उस परदेसी के रिश्ते-नातों की डोरियों का गुच्छा सुदूर में कहीं था जिसे वो लड़की नहीं जानती थी. उस परदेसी का घर, उसके परिजन उस लड़की के लिए अस्तित्व में नहीं थे. वो उस ‘बार गाम’ के लड़के को ही उसके ‘सम्पूर्ण’ के रूप में जानती थी.</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">लड़की की तरफ से एक महीन, सूक्ष्म और क्षणिक मुस्कान ने पहले से ही मौजूद हेडी मिक्स में तूफ़ान ला दिया. वो एक तीव्र बहाव में बह गया जिसके खिलाफ जाने की उसने कोई कोशिश नहीं की. असल में उसे समझ में आने से पहले ही ये सब घटित हो गया.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उस लड़की के साथ इस नए जन्मे रिश्ते में भले ही वासना या हवस ढूंढी जाय पर ये था प्रेम ही. ठीक ठीक किताबों वाला या अपने परिशुद्धतम रूप जैसा प्राचीन समय से लिपिबद्ध है वैसा नहीं पर प्यार वाला ही प्यार. इस ज़माने वाला भी नहीं. छोटे शहर- कस्बों वाला, अगर सटीक रूप से कहा जाय.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">लड़की हीरालाल की दुकान पर एकाध बार ही आई फिर नहीं आई. हीरालाल को वो अपने प्यार की जानकारी देना नहीं चाहती थी क्योंकि वो भले उसके महबूब का दोस्त था, पर था वो असल में उसका अपना शहर जिस तक वो अपने प्यार की फुसफुसाहटों को पहुँचने नहें देना चाहती थी.शहर चाहे उसका पिता भाई या दोस्त ही क्यों न हों प्यार के मामले में क्रूर बनते देर नहीं लगती.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उसे एक कहानी की याद हो आई जिसमें झामन ने अपनी ही बेटी का क़त्ल कर दिया था. वो बेटी जिसने एक परदेसी को दिल दे दिया था.बाद में झामन ने भी एक पेड़ से लटक कर फंसी लगा ली थी. एक बिलकुल तनहा खड़े उसी पेड़ से झामन के रोने की आवाजें क़स्बा कई बरस सुनता रहा था.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">लड़की के दूकान पर न आने से उसने भी अपने दोस्त हीरालाल को छोड़ दिया. उस छोटे से, कम आबादी के शहर में वो और लड़की कोने तलाशने लगे. शुरू में शहर में एकांत के अनेक द्वीप थे जहां वे समय से परे चले जाते थे, पर धीरे धीरे वे सब एक अनजान भय के कोहरे में डूबते गए. अब उन्हें शहर में कोने मुश्किल से नसीब होने लगे थे. उसे उन दिनों शहर अचानक आबादी से भरा, भीड़ से ठसा शहर लगने लग गया.वो बमुश्किल लड़की को मुख्य सड़क पर आते जाते ही देख पाता था. उसकी ख्वाहिशों में लड़की को देखना भर रह गया था. वो सड़क पर एक दिन सबके सामने लड़की को चूमना चाहता था. पर लड़की का दिखना भी उसके लिए उत्सव जैसा हो गया. वो छोटा शहर उसके लिए महानगर सा हो गया. और उसमें जैसे वो लड़की गुम हुए जा रही थी. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">और एक दिन वो लड़की उस शहर से गायब हो गई. एक आदमकद अहसास बना रह गया.फिर उसके अस्तित्व से भी उस लड़की की उपस्थिति फिसलने लग गई. दुनिया के मेले में लड़की का हाथ उससे छूट ही गया था, उसकी आत्मा से भी वो लड़की जाती रही. पर उसका भार वो महसूस करता रहा. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">शहर छोड़ने से पहले उसके पास उस लड़की का ब्लैक एंड वाइट फोटो था. पासपोर्ट साइज़ का. वो फोटो ही अब उसके लिए वो लड़की था. वो गुम भी गया तो भी उसका प्रिंट उसके मस्तिष्क में बना रह जाने वाला था.लड़की जैसे तिलतिल उससे आजाद हो रही थी. पहले वो कहीं चली गई, फिर उसकी मौजूदगी, फिर उसका अहसास और अब अरसे बाद लड़की की उपस्थिति का भार जब उसके मन से जाता रहा. पर इससे उसे काफी अच्छा लगने लगा. वो इस प्रक्रिया में खुद भी जैसे के पाश से छूटता गया था. उसने शहर को शुक्रिया कहा. </span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">फिर से इस शहर में किसी सड़क के कोलतार पर चलते उसके जूतों के सोल चिपक रहे थे. गर्मी ने कोलतार को गर्म लिसलिसे द्रव में बदल दिया था. पर उसकी याद में उतरा शहर ठंडा था.आसमान से नर्म बर्फ गिर रही थी.</span></div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-82842224438301388072016-10-22T09:41:00.001+05:302016-10-22T09:41:21.231+05:30भग्न स्तूप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">ये सिल्क रूट पर आया कोई बौद्ध स्तूप था.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">सिल्क रूट अगर कोई सड़क थी तो वो इतिहास में चलती थी.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">ये बौद्ध स्तूप भी तारीख़ में ज़रूर तन कर, सीधा खड़ा था, आज ध्वस्त, भग्न और बिखरा था. आस पास की ज़मीन से ऊपर उठा पत्थरों का ढेर. ढूह जैसा कुछ. कुछ दूरी पर मठ में भिक्षु रहा करते थे. कभी. आज यहाँ तीन- चार फीट की चौकोर दीवारें गिरती पड़ती दिखाई दे रही थीं. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b id="docs-internal-guid-9e80710c-ea94-a0a7-02df-07a379af36c9" style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">आसपास एक सुनसान था. ज़मीन पथरीली और खुली थी.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">तिनका मात्र भी दिखाई देना मुश्किल था.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">पत्थर के टुकड़े, असंख्य आकारों में. और धूल पसरी थी. धूल महीन थी. उसके कण इतने बारीक थे कि हल्के थे. किसी हवा में इस धूल के कण उड़ते तो उड़ते रहते. हवा के रुकने पर भी वे कई देर मंडराते रहते.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">पत्थर भी बड़े कच्चे थे. उन पर पाँव रखते ही वे धूल में बदल जाते और फिर किसी हवा में अपने बारीक कणों के साथ चक्कर खाते रहते.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">लगता था पत्थरों में कण आपस में किसी दूर की रिश्तेदारी से ही बंधे थे. और उनमें बिखरने की प्रतीक्षा भरी थे.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">भूदृश्य का रंग मटमैला था. दृष्टि की आखरी हद तक सिर्फ धूसर रंग ही दिखाई पडता था. कोई आवाज़ नहीं. बस सुनसान. धूसर सुनसान.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">सुनसान का रंग जैसे धूसर होता है.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">कोई पानी नहीं, कोई घास नहीं. हरा रंग सिर्फ शिराओं में. कोई क्यों आये, पर कोई यहाँ आये तो उसकी स्पंदित होती शिराओं में. या इन पत्थरों के बीच कहीं कहीं किसी खनिज-शिराओं में. </span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">हरे रंग का कोई महंगा खनिज था.और कहीं होता तो कई चरणों से होकर, लदान और ढुलाई के चक्रों से निकल कर किसी की ऊँगली में पहनी जाने वाली मुद्रिका में धंस चुका होता अब तक.</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बौद्ध स्तूप और मठ के ये अवशेष इस उबड़ खाबड़ में मिश्रित भाव जगा रहे थे.</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">अट्ठारह सौ बरस पहले यहाँ की तेज़ हवा में अपना उत्तरीय सम्हाले भिक्षुओं का चित्र कल्पना में टिमटिमाता है.</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">वे कुछ नहीं बोलते. चुपचाप रहते हैं. ये चीनांशुक मार्ग कारवाओं से लदा रहता है. खुरों से यहाँ की पथरीली ज़मीन में खरोंचे डालते घोड़े और पैदल चलते यात्रियों में द्रुत और विलंबित की विचित्र संगति है.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">स्तूप में बुद्ध के किसी शिष्य के अवशेष है. मठ में कुछ दर्ज़न भिक्षु हर वक्त रहते है. सिल्क रूट यहाँ से कुछ ही दूर चलता है. वहां की अपेक्षाकृत चहल पहल से यहाँ का जीवन अछूता ही है. जैसे पास से गुज़रती व्यापारियों की प्रसिद्ध सड़क से इसका कोई लेना देना ही नहीं हो. भिक्षु भी उसी रास्ते चलकर आये हैं,पर सड़क छोड़कर यहाँ आने के बाद सड़क उनके मार्ग की बात नहीं रही.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: Arial; font-size: 14.666666666666666px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">आज ये जगह सुनसान थी.पर कभी यहाँ रह रहे भिक्षुओं के प्राचीन रक्त का ताप अभी भी महसूस हो रहा था.उनकी धमनियों में बहता रुधिर अपने दाब का अहसास अभी भी करा रहा था. जिस महान बौद्ध दार्शनिक के अस्थि-पुष्प यहाँ रखे थे वो अभी भी जीवित था यहाँ जैसे. </span></div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-60495467971388533002016-08-30T06:32:00.000+05:302016-09-08T06:14:17.563+05:30भय के कोने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
भय से निजी कुछ नहीं. कुछ पल हर आदमी के जीवन में लौट लौट कर आते हैं जिनमें वो निष्कवच होता है, नितांत अकेला होता है. और सबसे ज़्यादा निर्बल भी. वो इन पलों में बुरी तरह डरा हुआ होता है.ऐसे पल जीवन के लिए भारी और मृत्यु के लिए उर्वर होते हैं.ये क्षण हमारे नितांत निजी डर के होते हैं. प्रेम से भी अधिक निजी. ये इतने निजी होते हैं कि इन्हें हम सबसे अकेले भोगते हैं. इनमें हम सबसे अकेले होते हैं. रावण को शायद उसके इन्हीं क्षणों में मारा गया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शर्तिया भय कोई वनैला जानवर होता है. वो हमारे इन्हीं पलों में चुपचाप हमारे पास और हमारे भीतर आता है. वो करीब आकर हमें वेध कर हमारे भीतर व्याप जाता है.जिस तरह से ये हमारे अन्दर घुसता है, बिलकुल किसी बाण की तरह हमारी मज्जा को भेद कर, उससे लगता है ये प्राणी किसी नुकीले थूथन वाला है और भयानक तीखे दांत से वो हमारे अस्तित्व के तंतुओं को कुतर जाता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसे ही भय के कुछ पते-ठिकाने भी होते हैं. इन्हीं पर उसके बैठे होने की गुंजाइश सबसे ज्यादा होती है. वो इन ठिकानों पर दुबक कर नहीं बैठा होता बल्कि घात लगा कर बैठा होता है. एक निर्जन रास्ते को काटता सांप अपने पीछे एक लकीर छोड़ जाता है. एक आदमी सांप को जाते देख ठिठकता है. एक सांप आदमी को जाते देख ठिठकता है. दोनों के लिए वो रास्ता डर का ठिकाना है. अगली बार उसी रास्ते पर जाता आदमी कुछ और ठिठक कर चलता है.अगली बार किसी और समय में जाता सांप उसी रास्ते को काटते वक्त अपने फन के पूरे प्रसार के साथ अंग्रेजी का 'एस' बनाकर चला जाता है. उसका डर उसके फन का फैलाव है. वो डर में और चौड़ा हो जाता है. आदमी डर में खुद को सिकोड़ कर चलता है. पर भय को लेकर दोनों की आतंरिक प्रतिक्रिया एक जैसी ही है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो आदमी उस तहखाने के नाम से डरता था. तहखाना घर में था. घरवाले कहते थे इस तहखाने में बरसों से एक मगरमच्छ रहता है. घर के एक सबसे बड़े आदमी को छोड़कर सब उस तहखाने के नाम से डरते थे. कोई उसमें जाने की बात भी नहीं सोचता था. बस उस सबसे बुज़ुर्ग आदमी को ही पता था कि शायद उसमें ऐसा कुछ नहीं है. शायद घर के कुछ राज़ उस तहखाने में दफ़न थे. वो तहखाना रहस्य की किसी कन्दरा जैसा था. उसमें जाना निषिद्ध था. बरसों बीतने के बाद धीरे धीरे उस घर के लोगों को एक एक कर पता चलने लगा कि तहखाने में मांसभक्षी उभयचर के होने की बात ठीक नहीं है. पर आखिर जब सब लोगों को पता चला कि उस तहखाने में ऐसा कुछ नहीं है तब भी वे उसमें जाने से डरते थे. वे जानते थे कि तहखाने में मगरमच्छ नहीं है पर कुछ ज़रूर है जो अप्रिय है और उसे उसकी वाजिब भयावहता प्रदान करने के लिए मगरमच्छ का नाम भर दिया गया है. हो सकता है अन्दर जो कुछ हो वो और भी विकराल हो. और इस तरह उस घर के लोगों के लिए डर का दायरा बढ़ने लगा. भय का वृत्त बढ़ने लगा, जो पहले तहखाने तक था वो फिर उस कमरे तक बढ़ गया जिसमें तहख़ाना था. कुछ अरसे बाद वो फिर बढ़कर घर के चौक, फिर मटकी रखने की जगह और फिर सीढ़ियों तक फ़ैल गया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस तरह भय को रहने के लिए किसी कोटर, बांबी या तहखाने की ज़रुरत नहीं होती, वो अपने रहने की शुरुआत इन जगहों से कर सकता है पर वो आसानी से घर-महल्ले तक आ सकता है. उसके जबड़े शक्तिशाली और दांत धारदार होते हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो समय की कई परतों को चीरता आया हैं.</div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-40749262783762115122016-07-31T13:37:00.000+05:302016-07-31T23:15:17.880+05:30निशान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रूस में खुलेपन और पुनर्निर्माण के अग्रदूत मिखाइल गोर्बच्यौफ़ के गंजे सर पर एक दाग़ नुमाया होता था.ये दाग़ उनके नज़र आने से पहले ही नज़र आता था. मैंने पहली बार तो यही सोचा था कि किसी कबूतर ने बीट कर दी है. अगली बार फिर नज़र आने पर यही सोचा, टीवी में कुछ गड़बड़ है. फिर जब अख़बारों और पत्रिकाओं में उनके फोटो पर भी वो निशान नज़र आने लगा तब जाकर लगा कि कुछ चमड़ी की बीमारी से सम्बंधित बात होगी. अरसे तक मैं ये बात भूल गया था.<br />
<br />
दुनिया तो खैर गोर्बच्योफ़ को ही भूल गयी थी.<br />
<br />
<br />
फिर ये बात कहाँ से फिर उठ गयी ?<br />
<br />
अभी हान कांग की किताब 'द वेजीटेरियन' पढ़ रहा था. तीन भागों में बंटी ये छोटी सी किताब एक दुःस्वप्न के कारण शाकाहारी बनी एक विवाहिता युवती 'योंग हाई' के हाथ से इस दुनिया के धीरे धीरे छूटते जाने की कहानी है. सैनिटी से निकल कर इन्सेन होने का रास्ता कितना छोटा होता है ! जैसे बस एक कमरे से निकल कर दूसरे कमरे में ही जाना हो.कभी कभी तो जैसे सिर्फ एक देहरी से बाहर कदम भर रखना हो.इस तरफ से उस तरफ का शिफ्ट.<br />
<br />
उपन्यास के दूसरे अध्याय 'मंगोलियन मार्क' में ज़िक्र आता है कि योंग हाई का बहनोई अपनी साली के नितम्ब पर बने जन्मजात मंगोलियन मार्क के बारे में सोच कर उत्तेजना से भर जाता है. योंग हाइ की देह के ढंके हिस्से पर बना एक नीला सा निशान उस आदमी के मन में होरमोंस का प्रपात ट्रिगर कर देता है.सौंदर्य के प्रचलित और पारंपरिक व्याकरणों में इस तरह के नियम बहुत आम है कि चेहरे पर बना कोई तिल या मस्सा खूबसूरती को बढ़ा या घटा देते है.पर क्या वो सब जो उत्तेजक और मादक है उनके लिए भी कुछ इसी तरह का कसा हुआ व्याकरण है? या फिर, योंग हाइ का बहनोई अपने नियमों की किताब खुद लिख रहा था? किताब का पहला भाग योंग और उसके पति के बारे में है. उसके पति को योंग एक बेहद औसत युवती ही लगती थी.त्वचा से बीमार, उभरी हुई दिखती गालों की हड्डियां.कुल मिलाकर एक अनाकर्षक व्यक्तित्व था उसके पति की नज़र में योंग का. उसके लिए वो पत्नी थी.उसकी इच्छाओं का साथ देने वाली.वो इच्छाएं उपजाती नहीं थीं. बस पति जब प्रोविज़ंस से भरे कैरी बैग्स के साथ अपनी लालसाओं से भी लदा रात को घर आता था तो वो उसका तमाम बोझ उतार देती थी. सवाल ये है कि योंग का पति जब उसके साथ ज्वार में डूबता उतराता था तब क्या उसने उस मंगोलियन मार्क पर अपनी नज़रें नहीं टांकी थी? पति की नज़र में योंग हाइ का औसतपन उसके नितम्ब पर बने निशान के साथ ही था. यानि वो निशान अगर हट जाए <br />
तब भी वो औसत ही थी. और रख लें तब भी वो एक आम, साधारण, 'कुछ ख़ास नहीं' टाइप युवती थी. उसके लिए उसका निशान भी अस्तित्व ही नहीं रखता था.<br />
<br />
एक तरफ़ योंग हाइ लगातार अपनी देह को लेकर बेपरवाह हो रही थी दूसरी ओर उसका निशान किसी के लिए एक वेगवान न्यौता बनता जा रहा था.एक गुप्त निमंत्रण.एक चोर निमंत्रण. क्योंकि एक चोर निमंत्रण ही ताकतवर निमंत्रण होता है. ये बेहद निजी और बुलावे की वास्तविक इच्छा पर आधारित होता है.<br />
ऐसा आवेगों से भरा न्यौता जो उसके जीजा के लिए एक ऐसा दंश बन गया था जिसे उतार फेंकना था, किसी भी तरह. कम से कम एक बार.<br />
<br />
<br />
<br />
शरीर पर बने ये निशान दैहिक भाषा की जटिल अभिव्यक्तियाँ हैं.<br />
<br />
<br />
इस तरह के निशान जितना भी कुछ कहते हैं उसका अनुवाद आदमी अपनी समझ की भाषा में अपने उपकरणों से करता है.हर अनुवाद में कुछ न कुछ छीजत ही होती है, ज़रूरी नहीं. कभी कभी मूल से व्यापक जोड़ लिया जाता है. पर ज़ाहिर है, ये काम पेचीदा बहुत है.<br />
<br />
जब हरेक का अपना अनुवाद है तो इस तरह के निशान हर आदमी में एक जैसी प्रतिक्रिया तो नहीं ही पैदा करते होंगे, और ऐसे देह चिन्हों की भौगोलिक स्थिति भी रिस्पोंसेज़ की भिन्नता का कारक होतीं होंगी, पर जिन लोगों को भी इस तरह के 'मार्क' में कुछ ख़ास नज़र आता है,क्या वो लोग एक जैसी होती दुनिया में कुछ ख़ास को देखकर उसे एक अलग दर्ज़ा देना चाहते है? ये क्या औसत के प्रति विद्रोह है? या साधारण को असाधारण गरिमा प्रदान करना है?<br />
<br />
हम शक्ल से भले दूसरे लोगों से अलग दिखते हों पर गणित के लिहाज़ से हम अपने सजातीय लोगों से सिर्फ रंग और अनुपात में ही कुछ अलग होते है.क्या ऐसे में इस तरह के निशान ही ख़ास पहचान का अहसास कराते हैं?<br />
<br />
इस तरह का टेढ़ा चिंतन जोख़िम भरा है. और गोर्बच्यौफ़ और योंग हाई को साथ रखना और भी जोखिम भरा. इन दोनों में समानता सिर्फ एक दाग़ भर है,पर असमानता की खाई शायद बहुत बड़ी है. </div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-63633043922799241592016-07-24T17:39:00.001+05:302016-07-24T18:31:03.542+05:30इकतरफा यात्राएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
यात्राओं में घर लौटने का सुकून भी शामिल होता है.हमारी यात्राओं में घर भी हमारे साथ चलता है, अपनी तमाम सम्पूर्णता के साथ. किताबें चिट्ठियाँ नौकरी लोन दोस्तियाँ प्रेम सब कुछ शामिल रहता है हमारी यात्राओं में.और जो कुछ, जितना कुछ छूट जाता है उसे लौटते ही फिर से पा लेने का भरोसा बना रहता है यात्राओं में.<br />
<br />
यात्राओं में असल में हम जितना कहीं जा रहे होते हैं उतना ही लौट भी रहे होते है.यात्रा में हम घूमने ही तो जाते है.यानी घूम कर वापस आने के लिए.<br />
<br />
किसी यात्रा में जितनी अनिवार्यता कहीं जाने की होती है उतनी ही वापस लौटने की भी होती है.बल्कि मुझे लगता है लौट आने की कुछ ज्यादा.<br />
<br />
यात्रा असल में वापस लौटना ही है.<br />
फिर हम किसी ऐसी जगह जाने को जहां से हम पुनः लौटने वाले नहीं,क्या कहेंगे?<br />
<br />
चाँद पर जाना यात्रा है.हम वहां से वापस लौटते है.<br />
मंगल पर जाना यात्रा है.वहां से हमारा लौटना संभावित है.<br />
<br />
पर सबसे नज़दीकी तारे पर जाने को क्या कहेंगे? जहां तक पहुँचने में प्रकाश को भी कुछ बरस कम से कम लग जाते है.<br />
<br />
सुविधा के लिए इसे भी यात्रा कह लेते है.<br />
<br />
पूरी पृथ्वी पर कई साल घूमने के बाद भी मार्को पोलो आखिर घर पहुँचता है.<br />
वो जब रवाना हुआ तभी से उसके पास लौटने का नक्शा था.<br />
इतालो काल्विनो की 'इनविजिबल सिटीज़'में किस तरह से वो कुबलई खान को सुदूर बसे किन्हीं असंभव शहरों के बारे में बताता है.पर असल में तो वो हर बार सिर्फ वेनिस के बारे में बारे में ही बता रहा होता है.वो किसी भी हालत में घर लौटने के विकल्प को खोना नहीं चाहता.<br />
<br />
क्या हम यात्राओं में किसी शहर में अपने क़स्बे को ही तलाश रहे होते है?<br />
<br />
मुग़ल फौजों का नेतृत्व कर रहे जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को अफ़ग़ानिस्तान में भी अपने देस की झाड़ी 'फोग' दिख गयी थी.या शायद वो उस भूगोल में फोग को ही ढूंढ रहे थे.<br />
<br />
हमें अपनी जगह,शहर,गाँव या क़स्बे का गुरुत्व खींचता है.<br />
अपने क़स्बे के गुरुत्व से छूटने का पलायन वेग हमें जब धकेलता है तो हम अनजान भूमि पर भागते ख़ुद को पाते है.<br />
<br />
एक सपने में मैंने ठण्ड से जमे एक गाँव के शराबघर में ख़ुद को पाया.<br />
वहां कोई पांचेक एस्किमोज़ भी थे.मैं समझ गया कि ये इकतरफा यात्रा है.यहाँ से लौटना तो संभव नहीं ही है, यहाँ कहीं टिकना भी सोच से परे है.इन 'यात्राओं' में कहीं स्लेज पर भागता हूँ तो पता रहता है इस बर्फ का कोई अंत नहीं.<br />
<br />
और..गर्म हवाओं में लिपटे किसी देश में महीनों रेत पर सरकते ऊँटों के काफिले में हूँ तो पता है कि रेत धरती के अंतिम छोर तक है और चलते जाना है.<br />
<br />
नमक बेचने वाले बंजारे का सुकून अपनी परछाई को अपने साथ भागते देखने में है. वो शायद ही कभी दुबारा नमक बेचने इस गाँव आएगा.अगर कोई आएगा तो वो दूसरा बंजारा होगा.इस धरती पर वो बरसों से घूमता फिर रहा है, उसके लिए पृथ्वी कभी गोल नहीं थी. वो पृथ्वी को एक सीधी सड़क मानता रहा है. उसके लिए जाना परिक्रमा नहीं है.<br />
<br />
सब उस सड़क पर नहीं जाते जिस पर जिप्सी चलता है. बल्कि कोई उस सड़क पर नहीं चलता जिस पर जिप्सी चलता है.<br />
<br />
जिस सड़क पर जिप्सी चलता है उस सड़क पर दूसरा कोई भी जिप्सी ही चलता है.</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-37793420444488566182016-03-21T23:01:00.001+05:302016-03-21T23:01:22.876+05:30मुलाक़ात<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
उन दोनों के बीच शब्दों का ढेर था. दोनों के मुंह से कुछ देर पहले तक शब्द गिर रहे थे. कुछ थोड़े से जिनमें अपने गंतव्य तक पहुँच रहे थे, बाकी सब बीच में ढेर हो रहे थे.ढेर अब काफी बड़ा हो गया था.ढेर लगातार बड़ा होता गया था.पर कुछ देर से वो ढेर ज्यों का त्यों पडा था.कोई नया इक्का दुक्का शब्द ही इस ढेर पर जब तब गिर रहा था.और ऐसा भी नहीं था कि इस 'कुछ देर' से सारे शब्द अपने गंतव्य तक ही पहुँच रहे थे.शब्दों का आवागमन ही बंद हो गया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये सब दो लोगों के बीच का मामला था.और इस वक्त,जब उनके बीच का ढेर जस का तस पड़ा था, उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हो रही थी.कह सकते हैं कि लगभग सन्नाटे जैसा ही उन दोनों के बीच इस वक्त पसरा था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वे दोनों दोस्त थे या नहीं कह पाना मुश्किल था.क्योंकि उनकी मुलाकातें अक्सर होतीं तो थीं पर वे तुरत- फुरत में ख़त्म हो जातीं थी.वे मिलते और कुछ ही देर में विदा हो लेते.वे जब भी मिलते,एक और मुलाकात अपने रिश्ते के साथ जोड़ देते.अब इस रिश्ते के साथ ढेरों छोटी छोटी मुलाकातें थीं.ये मुलाकातें भले ही छोटी होती थीं,पर बड़ी अच्छी होती थीं. इनसे वे दोनों आपस में मिलने को उत्सुक बने रहते थे.वे जब भी मिलते,एक सिगरेट भर देर में विदा हो जाते.उनकी इस चुस्त और संक्षिप्त मुलाकातों में उनके बीच सब कुछ स्फूर्त बना रहता. वे एक दुसरे को अधिकार पूर्वक कोई भी काम कह देते थे.दोनों एक दुसरे के काम को पूरी गंभीरता से पूरा करते थे,या करने की कोशिश करते थे.वे एक दूसरे से मिलने के बहाने नहीं ढूंढते थे पर हर दूसरे दिन एक दूसरे से मिल ही जाते थे.शायद इसलिए उन्हें मिलने के लिए बहाने ढूँढने की ज़रूरत ही नहीं थीं.क्या दोस्ती में ऐसा ही होता है? अगर हां तो फिर दोनों दोस्त थे.उन्होने कभी एक दूसरे के बारे में किसी तीसरे से किसी तरह की कोई नकारात्मक बात नहीं कही थी.असल में उन दोनों का कोई साझा मित्र था ही नहीं.उनके बीच का जितना साझा सरमाया था,उनकी बीवियां भी उसके बहुत थोड़े की ही साझेदार होती थीं.पर हां उन दोनों की मुलाकातों में अक्सर या कभी कभार उनेक घर परिवार का ज़िक्र भी आ ही जाता था.और उनकी बातें भी क्या थी?वे किसी तरह के सिनेमा के शौकीन नहीं थे.किताबों से उनका रिश्ता इतना भर था कि वे दिन में एक बार सर्वोदय बुक स्टाल के आगे से निकल जाते थे.जिसका पता न तो सर्वोदय के मालिक को चलता था न ही खुद उन्हें.दोनों में से सिर्फ एक खाने का शौक़ीन था.दूसरे को तो लौकी और कद्दू की सब्जी का अंतर भी न पता था.एक अखबार का तीसरा पन्ना ध्यान से पढता तो दूसरा आखिरी.</div>
<div style="text-align: justify;">
फिर भी वे अक्सर मिलते थे. और एक सिगरेट भर देर जीवंत बातें कर विदा हो जाते.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पिछले कुछ समय से दोनों हर मुलाकात में एक दूसरे के परिवारों को मिलाने की बात भी करने लगे थे.इसमें शायद उनकी आपस में तवील मुलाकात की इच्छा भी रही होगी जो महज एक सिगरेट जितनी लम्बी न हो.इस तरह की लम्बी मुलाकात की इच्छा एक दूसरे के लिए कोई गहरी तलब का परिणाम थी या लम्बे अरसे तक थोड़ी थोड़ी देर भर मिलते रहने से एक औपचारिक शिष्टाचार के तहत परिवारों को मिलाने की बात जैसा कुछ था. पता नहीं.जो भी हो असल में इस तरह की पारिवारिक मुलाकातें कभी हुई ही नही थीं. </div>
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<br /></div>
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आज उन दोनों के बीच शब्दों का ये ढेर पड़ा था.और फिलहाल दोनों चुप थे.वे एक दुसरे को जल्दी से विदा कह देते तो ये मुलाकात भी पहले की तरह कमाल की मुलाकात हो जाती पर आज उनको ज्यादा देर तक एक दूसरे के साथ रहना था.ये जगह 'एक' का दफ्तर थी और 'दूसरा' आज उधर फील्ड में कहीं अपना काम ख़त्म कर इसी 'एक'के दफ्तर में, उसी के सामने बैठा, अपने बिज़नेस पार्टनर का इंतज़ार कर रहा था जो'तीसरा' था और वहां किसी और जगह से आने वाला था.पार्टनर को आने में देर हो रही थी.पहले तो इस देर का पूर्वानुमान एक मौके की तरह किया गया था कि संक्षिप्त मुलाकातों वाले दोस्त के साथ उसी के दफ्तर में आज लम्बी बातें ख़ूब वक्त तक होंगी. और हुआ भी ऐसा ही कुछ देर तक तो.शुरू में चाय की चुस्कियों के साथ बातों के सूत से कताई होने लगीं.कातते कातते अभी कुछ ही देर हुई थी कि कताई से बुनाई का सफ़र उबाऊ होने लगा.वक्त लम्बा लगने लगा.वे फिर भी बोलते रहे पर उनके बीच बहुत सारा निरर्थक जमा होने लगा.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फिर उनका बोलना रुक गया.वो 'तीसरा'यानी बिज़नेस पार्टनर अब तक नहीं आया था.अब वे दोनों एक दुसरे के सामने नहीं देख रहे थे.कोई कैलेंडर पर बेवजह नज़रें गड़ाए था तो कोई एक तरह लम्बे अरसे से कोने में पड़ी धूल खायी ट्राफी देख रहा था.वे एक दूसरे के सामने थे पर एक दूसरे की उपस्थिति से बेपरवाह.हद तो ये थी कि वे अब ऐसे बैठे थे जैसे एक दुसरे से अनजान हों.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बिजनेस पार्टनर अभी तक नहीं आया था. </div>
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sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-79746096788423283912016-03-14T21:19:00.000+05:302016-03-14T21:19:51.542+05:30सन्नाटा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कितनी उजाड़ और अकेली थी ये जगह!बरसों का अकेलापन जमा होते होते इतना सघन हो गया था कि यहाँ आते ही आप उसे छू कर बता सकते थे.जैसे यहाँ छूने से कुछ अकेलापन आपकी ऊँगली के पोर पर चिपक जाता हो. ये एकांत बिलकुल विशुद्ध एकांत सा था.अपनी तात्विक रचना में सिर्फ एकांत से बना.बिलकुल भावहीन,निरपेक्ष एकांत.इस जगह के इसी एकांत ने इसे एक बरबाद उजाड़ में तब्दील कर रखा था.यहाँ सब सूना था.सब कुछ ख़त्म हो गया था. बस एक नीरवता पसरी थी,जो किसी आवाज़ या विस्फोट तक से भंग नहीं होती थी.यहाँ आकर कई बार लगता था जैसे आप पूरी तरह से विस्फारित आँख में झाँक रहे हैं. एक ऐसी आँख जो झपकना भूल गयी है.और ऐसी ही भंगिमा में जो अनंत समय से बनी हुई है.<br />
<br />
फटी हुई आँख कितना बियाबान समेटे होती है! उसमें झांको तो जगह ही जगह दिखती है.असल में तो वो खालीपन है खाली जगह नहीं.बंद होना भूल चुकी आँख में हमें जो विराट अवकाश दीखता है वो खाली स्थान नहीं स्वयं खालीपन है. जिस आँख में हर छः सेकंड बाद निमेषक-पटल जीवन भरती है.उसमें ये झपक स्थगित हो जाय तो शून्यता जमा होना शुरू हो जाती है.<br />
<br />
कुछ ऐसी ही शून्यता इस स्थान में भी थी. ये स्थान न पूरा पूरा हरा ठंडा जंगल था न पूरा पूरा पीला तप्त रेगिस्तान.बीच का था ये भूगोल.यहाँ जीवन की आवाजाही ज़रूर होती थी पर इसमें खुद जीवन नहीं था.जीवन पनपाने के लिए अनुर्वर थी यहाँ की ज़मीन.एक जगह से दूसरी जगह जाने के बीच पड़ता था ये विस्तार.इसीलिए लोगों के लिए ये एक रास्ता था.कुछ खानाबदोश व्यापारियों के लिए यहाँ से होकर जाना मजबूरी थी.वे भी यहाँ से जितना जल्दी हो सकता था निकलने की फिराक में रहते थे.<br />
पर एक दिक्कत थी यहाँ पर.इस विस्तार में दिशाएं टूट टूट कर गिरती थीं.कौन दिस जाना है इसका विवेक ख़त्म हो जाता था.आदमी और ऊँट दोनों यहाँ भटक जाते थे.वो इस विकराल में गोल गोल गोल ही घूमते रहते थे.लोगों को यहां के कंटीले एकांत में न भटकने और किसी तरह सुरक्षित निकल जाने की प्रार्थनाओं का ही सहारा था.<br />
<br />
यहाँ कई देवों के थान हैं जो हर ओर दिखाई देते हैं.उनसे रास्ता चलने वाले को दिशाएं तलाशने में थोड़ी बहुत मदद ही मिलती होगी. देवों में से कईयों की प्रतिमाएं समय ने भग्न कर दीं हैं तो कईयों को ज़मीन में धंसा दिया हैं.भटकने वाले लोगों के लिए इन सबमें में रूचि बनाएं रखना कठिन है. इस मरू प्रांतर में चलने वाले ये ज़रूर मानते थे कि कोई एक आदमी ऐसा अवश्य है जो इस इलाके का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता है.उसे यहाँ के हर छोटे बड़े रास्ते की जानकारी है.वो यहाँ की जानलेवा भूलभुलैयाँ के छद्म को भंग कर सकता है.उसे ज़मीन पर उगे और ज़मीन में धंसे तमाम कंद मूलों तक की जानकारी है.वो बांबी देखकर सांप की जात पहचान लेता है.वो धरती की शिराओं में बहते पानी की सोते सुन लेता है.वो अकेला यहाँ दिशाओं के छल को समझता है और ज़रुरत पड़ने पर उसे छिन्न भिन्न कर सकता है.और वो ही इस धरती के दंश को खींच कर दूर फेंक सकता है, यहाँ तक कि इधर के जानलेवा वर्तुलों को सुलझाने का काम कर सकता है.है कोई एक ऐसा आदमी.और ये भरोसा ही राहगीरों को इस जाल में कदम रखने का हौसला देता था.यद्यपि ऐसे 'एक'आदमी को किसी ने देखा नहीं था.पर तृतीय पुरुष में किये जाने वाले दावे पर्याप्त संख्या में थे.<br />
<br />
निर्गत द्वार तक ले जाने वाले रास्ते का सफ़र उस 'एक'आदमी को नसीब नहीं.पथिकों को ठीक रास्ते का पता बता सकने के बावजूद उस 'एक' के लिए यहाँ से मुक्ति नहीं है.यहाँ के अकेले एकांत में रहने को वो अभिशप्त है.वो यहाँ के अकेलेपन से लड़ नहीं सकता.जब भी वो यहाँ के किसी एक कुए में झांकता है तो गहराई में दूर दूर तक पानी की क्षीण झिलमिल भी नहीं होती.जिसमें वो अपने प्रतिबिम्ब के रूप में ही सही किसी और को तो पा सके. बहुत बेबस है वो 'एक' आदमी जिसे यहाँ से बाहर जाने का रास्ता मालूम है पर वो जानकारी उसके अपने लिए इस्तेमाल में नहीं आ सकती.<br />
<br />
असल में वो यहाँ का स्थायी बाशिंदा है.ये बीहड़ उसका घर है.<br />
<br />
वो 'एक' आदमी ये बीहड़ खुद है.<br />
<br /></div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-27915173832109006352015-12-01T05:22:00.001+05:302015-12-01T22:16:04.077+05:30बाज़ार और बैंचें <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक लम्बी सड़क थी जिसके दोनों ओर श्रृंखला में दुकाने ही दुकाने थीं । सड़क के इस तरफ और सामने दुकानों के बीच फासला बहुत कम था। सड़क एक पतली सी पट्टी थी। एक ग्राहक को सड़क लांघ कर सामने जाने की ज़रुरत नहीं थी। वो लगभग फुसफुसा कर भी सड़क के उस ओर की दूकान वाले को अपनी कोई बात कह सकता था या किसी चीज़ के बारे में पूछ सकता था। सड़क एक निरंतरता में पुराने बाज़ारों से होकर चलती थी।यानी दोनों ओर की पच्चीस-पचास दुकानें एक ही तरह की चीज़ों से पटी पड़ी होतीं फिर उससे आगे नए ही तरह के सामानों से भरी दुकानें आ जातीं। पान सुपारी तमाखू रस्सियाँ मूँज चूर्ण वगैरह की चीज़ों का मार्किट ख़त्म होता तो कपड़ों का शुरू हो जाता । कपड़ों का बाजार पीतल कांसे और स्टील के बर्तनों की दुकानों से मिलकर विदा लेता था।धात्विक बर्तनों से टनकता ये बाज़ार आगे उस बाज़ार के आने पर ख़त्म हो जाता जहां चूड़ियाँ मालाएं नकली आभूषण रेडीमेड कपड़े वगैरा मिलते थे। दुकानों का सिलसिला एकबारगी एक पुराने मंदिर के चौक में ख़त्म हो जाता था। मंदिर का चौक छोटा ही था पर अब तक चले आ रहे संकरे रास्ते के लिहाज़ से बड़ा और खुला खुला सा लगता था। यहां अधेड़ और बूढ़े लोग ज़्यादा जमा होते थे।वे इस चौक के आसपास ही कहीं खड़े या बैठे रहते थे।दुकानें और बाज़ार सुबह दस ग्यारह बजे के आसपास गर्म होते और रात आठ नौ बजे के करीब ठन्डे पड़ने लग जाते। पुराने बाज़ार देर रात तक नहीं चला करते।इस लिए यहां के बाज़ार भी दिन के बाज़ार ही थे पर ये मंदिर-चौक सुबह जल्दी चेतन हो जाता और रात में बाज़ार बंद हो जाने के बाद भी हलकी चहल पहल बनाए रखता। दिन में बेशक इसकी गतिविधियाँ पाने उच्चतम बिंदु पर रहतीं।<br />
<br />
चौक में कबूतरों के लिए अनाज के दाने भी एक ओर फेंके जाते थे। सुबह की धूप में कबूतरों के झुण्ड समूह-भोज में व्यस्त हो जाते थे। आसपास बैठे वृद्धजन पार्श्व में बजती कबूतरों की गुटरगू से बेपरवाह आपस में बातें करते रहते थे।यहां कुछ ठेले वाले भी थे जो कुल्फियां और नर्गिस कोफ्ते एक साथ बेचते थे।इन ठेलों के आसपास भिखारी भी खड़े रहते जो दिन भर में कुछ न कुछ पा ही जाते थे। वक्त के साथ इन भिखारियों के चेहरों से दयनीयता जाती रही थी। समुदाय और व्यक्ति दोनों रूपों में भिखारी अपरिचित ही बने रहते है। एक ही मोहल्ले में आने वाले भिखारी सालों बाद भी वहां रहने वालों से दोस्ती का रिश्ता नहीं जोड़ पाते। पर यहां के भिखारियों ने अगर अपने चेहरे से बेचारगी का अस्त्र खोया था तो 'अनौपचारिक होकर मांगने' का बख्तर भी पहन लिया था। वे इस चौक में मांगने को हक़ की तरह इस्तेमाल कर किसी को भी चिढ़ा देने की हद तक परेशान कर देते थे। और लोग बिना परेशान हुए उन्हें कुछ न कुछ दे देते थे। ये इस स्थान पर आने पर किसी अनुष्ठान की तरह किया हुआ काम ही था जैसे।<br />
कई बार भिखारी भीख प्राप्त कर लेने पर इस तरह ठहाका मारते थे जैसे देने वाला कोई बेवकूफ हो। कोई नया आदमी भिखारियों के इस तरह ठहाका लगाने पर झेंप जाता। पर जिनके लिए यहां आना रोज़ का काम था वे इस पर ध्यान नहीं देते थे।पतली सड़क और ऊंची दुकानों के बीच मंदिर-चौक की तरह कई और चौड़े स्थान बीच बीच में आते रहते थे। सड़क दोनों और दुकानों की लम्बी श्रृंखला के बीच की संकीर्ण विभाजक रेखा थी। ये लाइनसर दुकाने मध्यकालीन बाज़ारों के हिस्से थीं। बाज़ार अगर कहीं थक जाते तो वे एक छोटे चौक में सुस्ताने लगते। इन छोटे स्पेस में हवा अपेक्षाकृत पतली और स्फूर्त होतीं।लोग अपनी हड़बड़ी छोड़ आराम की मुद्रा में रहते। और यहां से निकलते ही फिर दुमंजिला तिमंजिला दुकानों की लड़ियों में लोग दम भर सांस के लिए जगह ढूंढने लग जाते। लम्बे संकरे मार्ग के बीच बीच में हवा से नहाए खुले चौक दुकानों के साथ चलते चले जाने वाले लंंबे रास्ते के भी सुस्ताने के ठिकाने थे जो याद दिलाते थे कि मंज़िल से ज़्यादा रास्तों के बीच पड़ी बैंचें चाहत जगाती हैं।</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-17698443039356726072015-10-14T23:01:00.001+05:302015-10-14T23:01:38.647+05:30कोलतार की शै <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
इस शहर की एक सड़क ऐसी थी जो उसके दैनंदिन विश्व के भूगोल से बाहर लगती थी.ये किसी अजाने क़स्बे की सड़क लगती थी,यद्यपि ये थी उसी शहर में जिसमें वो रहता था.वो शहर की आतंरिक संरचना का भाग नहीं लगती थी.वो शहर के अंगों-उपांगों में से कोई एक नहीं लगती थी.ऐसा सिर्फ उस सड़क के मिज़ाज के कारण नहीं था.न जाने क्यों उसका रंग भी शहर की बाकी सड़कों जैसा नहीं था.वो काली न होकर हरी- मटमैली सी दिखती थी. और करीब आने पर वो किसी और तरह के हलके रंग में दिख जाती थी.वो कोई पुरातात्विक रचना नहीं थी यद्यपि वो कई प्राचीन इमारात के करीब से सकुचाती सी चलती थी.सड़क की ऊपरी ओपदार परत इतनी आश्वस्त करती थी कि जैसे आसपास के पुरातात्विक मलबे को वो अकेली थिर रखे हुए थी.यूँ वो दिखने में ठोस थी पर उस पर चलते वक्त लगता था जैसे वो रेत पर चल रहा हो.क़दम रखते ही जूते के ठीक नीचे का हिस्सा किसी मखमली चूर्ण में बदल जाता था और आगे बढ़ते ही सारे अणु जैसे सटकर फिर से ठोस रूपाकार में आ जाते थे.</div>
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<br /></div>
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उसका उस सड़क पर जाना कम होता ही था. पर उस पर चलना हमेशा जैसे उस के साथ चलना होता था. शहर की बाकी सड़कें खुद मुर्दा लगतीं सिर्फ़ उनके गिर्द का परिदृश्य ही ज़िन्दा कहा जा सकने वाला था.इस एक सड़क के साथ ऐसा नहीं था. वो कभी भी एक निर्जीव काली चपटी पट्टी नहीं लगी.वो बल्कि करतब करने वाली कोई शै लगती थी. वो नगर की प्राचीन प्रोलों के भीतर से गुज़र कर कई घरों और आटा चक्कियों से सट कर चलती थी.वो ब्लाउज मैचिंग की दुकानों को करीब से झांकती चलती थी.उसके ठीक ऊपर लटके बिजली के सामानांतर तार अपने ऊपर के आसमान को इस तरह प्रस्तुत करते थे जैसे वो कोई सलेटी आइना हो और उसमें सड़क का प्रतिबिम्ब देखा जाता तो वो तारों पर झूलती नज़र आती.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सड़क सबसे चुलबुली पतंग और मांझे की दुकान के पास होती थी.सड़क को समकोण पर जिस जगह एक गली काटती थी ये दुकान ठीक वहीं थी.यहाँ सड़क बच्चों के शोर और साइकल की घंटियों से गूंजती रहती.ऐसा नहीं है कि सड़क इसी जगह शोर करती थी बल्कि वो हर कहीं एक बोलती सड़क थी.सड़क पर वैसे भी ट्रैफिक ठसाठस और निस्बतन सुस्त ही रहता था.यहाँ खड़ी,रेंगती और चलती गाड़ियों का अपना शोर था.इस पर ट्रैफिक चलने और रेंगने की गति में ही सीमित रहता था पर जहां जहां इसके साथ गलियां मिलने आतीं थीं, वहां तो वो रुंधा हुआ ही मिलता.फिर किसी की पहल पर वो रफ़्तार पकड़ने लगता.अगर कोई पहल न करे तो किसी को कोई जल्दी नहीं थी.शहर की मुख्य कही जाने वाली सड़कों पर जो जल्दबाज़ी मची रहती थी वो यहाँ नहीं दिखती थी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सड़क पर सब कुछ बहुत करीब से और चुपचाप घटता था.लोग आपस में रगड़ खाकर गुजरते तो भी नज़रंदाज़ कर चले जाते थे.इस पर चलते समय वो आदमी बार बार चिकोटी काट कर अपने को 'रियल' साबित करता था.</div>
</div>
sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-58232651601741929652015-08-17T22:32:00.001+05:302015-08-17T22:32:13.865+05:30फिल्म-सिन सिटी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
चित्रकथाओं के आरेखों ने जो काला धुंआता अँधेरा रचा था,स्क्रीन की चमक में वो और भी वाचाल हो गया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक काले,कीच से सने,बारिश की लकीरों में भीगकर ढीठ हुए, टार के चिपचिपे गड्ढों से भरे एक शैतान शहर में खून का रंग भी सफ़ेद है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक पैदाइशी हत्यारा, जिसके चौंध मारते चश्मे के पीछे किसी स्कूली बच्चे का चेहरा है.वो मासूमियत के पीछे छुपी क्रूरता नहीं है, वो क्रूरता की हदें लांघ चुकी मासूमियत है.अपने वध होने के अंतराल में भी उसके मुंह से कोई चीत्कार नहीं.बस एक भयावह मुस्कान.अंत तक. वो शिष्ट हत्यारा लोगों के धड़ तक के हिस्से का भक्षण कर उनके सर दीवाल पर टांग देता है.इतने से ही जुगुप्सा होने लगती है. पर वो पढ़ाकू मनुष्यभक्षी तो इससे भी आगे जाकर 'उन सबकी आत्माओं को भी कुतर कर खा जाता है'.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस पाप नगरी में जीवन नहीं जीवन का उच्छेद रोज़मर्रा का सच है.जीवन एक शापित शब्द है और मृत्यु शुभ्र.शुभ्र इसलिए कि मृत्यु यहाँ नहीं दिखाई देती,वो किसी और भूगोल में कब्र के नीचे सो रहे लोगों के शांत चेहरों पर ही हो सकती है.इस लिजलिजे कीचड़ में जीवन का स्वाभाविक समापन नहीं होता,वो मज्जा तक पीटी-कुचली गयी किसी एक देह से दूसरी देह तक भागता है,भय से भरा.और फिर तीसरी,चौथी, करते करते आखिरी देह तक. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यहाँ हाथ हत्यारे है,आँखें शिकार ढूंढती है,पाँव भागते है,और शरीर भोग का आयतन है.ये कोई शहर है इसका अंदाज़ा इसी से ही लग पाता है कि उसकी कुछ संस्थाओं के नाम इधर उधर पहचान में आते हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
सुन्दरता छलावा है,जीवन को यहाँ भी ठौर नहीं.प्रेम नहीं एक बेचैनी है. चाहना नहीं भोग है.इस भोग और आत्मा कुतरने में कोई फर्क नहीं.दोनों भूख का विरूपण है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक पीला शैतान इस भोग और भोज का कातिल संयोग है.एक खतरनाक मिश्रण.उसे चीखते बच्चे चाहिए.उसका पीला शरीर परपीड़ा के नीच आनंद और भोग की अधम लिप्सा से बना शैतान है.</div>
<div style="text-align: justify;">
जहां एक पढ़ाकू हत्यारा अपने वध की पीड़ा में मुस्कुराकर और भयानक हो उठता है वहीं इस पीले शैतान के दिए घावों में भी एक लड़की का अपनी चीखें रोकना एक साहस लगता है.यहाँ एक चुप्पी हत्यारी है तो एक चुप्पी मानवीय. हां बस इस शहर में यहीं एक-दो जगहों पर ये अहसास होता है कि ये सब हमारी ही दुनिया का शहर है.ये हमारे कोई बहुत निकट के शहर की दास्तान है.सफ़ेद रक्त में लिखी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"एक बच्ची जीती है,</div>
<div style="text-align: justify;">
एक बूढ़ा मरता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
सौदा बुरा नहीं है". </div>
<div style="text-align: justify;">
ये कहता हुआ जब कोई मृत्यु के शांत,निस्पंद जल में उतरता है,अपने ही हाथों,तो वाकई हम भय से और सिहर उठते है.ये कोई चित्रकथा में रेखाओं का जाल तोड़कर परदे पर चलती सुदूर,सौरमंडल से परे की कहानी नहीं,हमारे निकट की,और शायद हमारे भीतर की भी,कहानी है.ये मृत्यु तो हमारी कामनाओं की मृत्यु है.ये जीवन की भयाक्रांत दौड़ नहीं जो 'सिन सिटी'में शवों से भाग छूटती है,ये जीवन की पूर्णता की हैप्पी एंडिंग है. जिंदगी के युवतर हाथों में जाने की आकांक्षाओं का सिरफिरा प्रलाप हमारे स्मृति के तंतुओं में अब तक कहीं उलझा हुआ है.ये अब तक हमारी सामूहिक इच्छाओं का हिस्सा रहा है.ये हमारी समझ के इंसान की अंतिम इच्छा का पितृ-रूप है.</div>
</div>
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<div style="text-align: justify;">
उसकी स्मृतियों में जिस कीट की फड़फड़ाहट सबसे ज़्यादा थी वो जुगनू था।उसकी स्मृतियों में जिस दिये का उजाला सबसे ज़्यादा था वो जुगनू था।उसकी स्मृतियों में देर शाम गाँव के जिस तालाब का पानी झिलमिलाता था उसमें क्षीण कौंध जुगनू की थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
उसकी याद में उमस भरी हर रात में ऊपर बादलों से रिसती सितारों की हलकी रौशनी थी तो उसी रात ज़मीन पर जुगनुओं की हल्की दिप दिप भी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और फिर भी उसने जुगनुओं को कभी देखा नहीं था। सच में उसने जुगनुओं को कभी नहीं देखा था। बावजूद इसके, अगर स्मृतियाँ भौतिक तुलाओं से तौली जा सकती, तो उसकी स्मृतिओं के कुल भार का कई तोला जुगनुओं के हिस्से था और और यदि स्मृतियाँ बड़े तराजुओं से तुलती, तो कई सेर भार जुगनुओं का था उसके भीतर। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और अगर स्मृतियों से कोई गाँव बसाया जा सकता, उसमें जुगनू उस गाँव के बड़े से तालाब के जल में वैसी ही हल्की चमक से कौंधते।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बड़ा मुश्किल होता है सोचना कि हमारे स्मृति लोक में ऐसी भी कोई चीज़ हो जिसे हमने अभी तक देखा न हो और उससे भी मुश्किल होता है ये सोचना कि उसका वज़न और आकार भी इस कदर बड़ा हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो इस कीट के बारे में अक्सर सोचता रहता था। मतलब जब भी मौका हाथ लगता।और इस नाम के दिमाग़ में आते ही एक जलता बुझता सा चित्र भी उसके दिमाग में बनने बिगड़ने लगता। जुगनू की छवि उसके दिमाग में स्थिर कभी नहीं हो पायी। वो हमेशा बनती बिगड़ती रहती थी। कभी उस छवि में बेहद नन्हा सा कीट होता जो एक चमक को लिए मंडरा रहा होता, कभी सिर्फ रौशनी का नन्हा सा घेरा ही उस छवि में दीखता। इस घेरे की रौशनी दीवाली पर छूटती रंगीन दियासलाई की धुएँदार ऑलिव ग्रीन रौशनी की तरह होती। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
जुगनुओं के बारे में पढ़ने से या गल्प कथाओं में रखी किसी बोतल में इन्हें चमकते देखने से ये रिश्ता नहीं बना था। अगर ऐसा होता तो उसकी स्मृति में हमिंग बर्ड,पांडा या कोई कीटभक्षी पौधा भी इसी तरह की जगह अख्तियार किये होता। किन्ही अदेखी सुन्दरताओं के बारे में सोचने भर से स्मृति के पात्र में उनका आयतन नहीं बनने लग जाता। सिर्फ सोच कर उन्हें स्मृति के अंश नहीं बनाया जा सकता।चीज़ें हमारी स्मृति की दलदली भूमि में धँसकर मैंग्रोव की तरह बाहर फूटती हैं तब कहीं जाकर एक जैविक रिश्ता बनता है।</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसकी स्मृति में जुगनू रौशनी की मूल इकाई की तरह से थे शायद। उसके लिए रौशनी का मतलब जुगनू से था। वो रौशनी को जुगनुओं से ही मापने लगा था। एक दिए की रौशनी यानी एक हज़ार जुगनू। एक बल्ब की रौशनी दस हज़ार जुगनू। दीवाली की रात पूरे ब्रह्माण्ड के जुगनू धरती पर उतर आया करते थे।</div>
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उसकी स्मृति में जुगनू थे। वो स्मृति को जुगनुओं के सहारे देखता था। यद्यपि उसने जुगनू कभी देखे नहीं थे। </div>
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sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-77253252061892862322015-04-24T21:25:00.000+05:302015-04-24T21:25:59.360+05:30तीन रोज़ इश्क़- इस प्रिज़्म से कुछ देखते-दिखते हुए <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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इस किताब को अनगिनत रंगों से लिखा गया है। पर इसका कोई भी रंग हमारे किसी कलर कलेक्शन में नहीं है। हैं इसमें भी हमारे देखे हुए रंगों से मिलते जुलते रंग ,पर वे सिर्फ मिलते जुलते ही हैं। इनकी छटा और चमक स्वप्न के रंगों की है।ये रंग ड्राइंग शीट पर सपाट आकारों में भरे रंग नहीं हैं बल्कि अपने प्रवाह और गतिशीलता से एक सचल संसार की निर्मिति करते है।फिर अपने ही बनाए लोक के बाहर भी अपने गाढ़ेपन के साथ बहते भी रहते हैं. </div>
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ये रंग हमारे गिर्द बहते हैं और हमें आवरित कर लेते हैं।सारे के सारे रंग जिस एक प्राइमरी रंग से निकले हैं वो है प्रेम। एक ही रंग प्रेम में रंगी, 'प्रेम-रंजित' होकर भी किताब एकवर्णी नहीं है, बल्कि यहां पूरा का पूरा विब्ग्योर है। बल्कि उससे भी पहले और परे को भी समाहित करती है ये किताब। </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7mXUI5JyvRhpGp7SXNQTbWtk-epDpvAtvrk1V_QzT77CtCe5wgzGUG0CRCPk0y7emCnJEIMU7oQ2Olu_aSHfRDvXqcJWt0p150lUX7HPj6_7Ea3c1Nb96O5H2XCWMWGR7CADzVC__2go/s1600/teen+roz+ishq.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: justify;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7mXUI5JyvRhpGp7SXNQTbWtk-epDpvAtvrk1V_QzT77CtCe5wgzGUG0CRCPk0y7emCnJEIMU7oQ2Olu_aSHfRDvXqcJWt0p150lUX7HPj6_7Ea3c1Nb96O5H2XCWMWGR7CADzVC__2go/s1600/teen+roz+ishq.jpg" height="320" width="208" /></a></div>
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हर कहानी हमारे सामने एक दुनिया खड़ी करती है और हम उस दुनिया को चमत्कृत से देखते रहते हैं।और देखते देखते हम अपना कोण थोड़ा बदलें तो उस दुनिया के नए ही चित्राम हमारे सामने उजागर होते हैं।</div>
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अपनी रचनात्मकता में ये फंतासीलोक लगता है पर इन्हें छूकर या थोड़ा पलटकर देखें तो इसमें हमारी ही दुनियां नज़र आती हैं।प्रकारांतर से ये हमारी दुनिया पर लेखक का रंगावरण है। यूँ कह सकते हैं कि शायद हमारी अपनी दुनिया अपने स्वप्न में अपने आप को कुछ इस तरह का देखती होगी। इसमें भाषा अपने पूर्ण सौंदर्य के साथ दिखती है.</div>
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पूनम के चाँद में आलोकित कोई नदी जैसे किसी जगह बल खाकर अपने में बहती चांदनी को देखती हो। हर कहानी में कुछ कुछ ऐसे ही चाक्षुष बिम्ब लड़ियों में टंगे लगते हैं। और जब हम मानने लगते हैं कि सब कुछ चांदनी में नहाया, रूप-मुग्ध है तो आगे अचानक आई धूप में जैसे हमारी ही दग्ध दुनिया में आगे की कथा लौट आती है।चांदनी और धूप दोनों का दाह बराबर पर तासीर में एक दम भिन्न होने के कारण हम स्वप्न और जाग में डूबते उतराते रहते हैं।</div>
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इस किताब में इस तरह की दर्शनीयता का जादू इतना लम्बा है कि हम ये मानते रहते हैं कि कहानियां भले ही छोटी छोटी और अलग अलग हैं पर वे एक मधु-ताल में बहते नीले पात हैं जो मद्धम मद्धम एक ही दिशा में बह रहे हैं।</div>
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सब कहानियों पर,खैर ये बात लागू नहीं होती। क्योंकि संग्रह में कई कहानियों हैं जो अलग अलग समय में लिखी गयीं हैं और इन पर अलग अलग चर्चा और तवज्जो की दरकार है। जो सही में इनके साथ न्याय भी होगा।</div>
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आकुल,तड़प से भरा,क्रुद्ध,हिंस्र,डबडबाया,मानवीय,दिव्य,वनैला सब तरह का प्रेम इसके पन्नों पर बिखरा है। कहीं नदी की धार में बहते चाहना के नीले दुपट्टों में असल कहानी के शुरू होने का इंतज़ार है,तो कहीं प्रेम में आत्मपीड़न के तीव्र आवेग को उलीच दिया गया है। कहीं वनगन्ध की स्मृतियों को पुकार है,तो किन्हीं पन्नों पर दवात से लुढ़का पड़ा नीला नास्टैल्जिया है। हम चाँद को यहां कई कई बार सिर्फ छूने लायक फासले पर पाते है। </div>
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कितनी छोटी फिर भी कितने बड़ी हैं कहानियां।तहों को में लिपटी कहानियां। तहों को खोलने के लिए कई कई बार कहानियों को पढ़ना होगा। इन कहानियों की भाषा में भी वैविध्य है। इनमें कुछेक में अंगिका का लालित्य भी है। </div>
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आखरी कहानी इस संग्रह की आखरी कहानी ही हो सकती थी। लेखक कहानियों की मोहिनी रचते रचते इस कहानी के इंद्रजाल में खुद भी आ जाती हैं। एक पात्र की तरह जैसे। खुद लेखक का ही रचा।</div>
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एक खूबसूरत, वास्तविक सी लगती दुनिया में लेखक की कलम के पात्र जुड़ जाते हैं और ये सब कुछ इतना सीमलैस है कि रचनाकार के लिए असंभव सा हो जाता है कि वो चयन कर एक परिधि खींच सके। इसमें यही स्वाभाविक है कि जो कुछ रचित है वो भी वास्तविक है क्योंकि उंसकी भी मन पर वैसी ही छाप पड़ती है जो अनुभूत की होती है।</div>
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प्रूफ की अशुद्धियाँ अखरतीं नहीं पर इनसे बचा जा सकता था। </div>
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कहानी संग्रह- तीन रोज़ इश्क़ </div>
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लेखक - पूजा उपाध्याय </div>
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प्रकाशक- पेंगुइन इंडिया </div>
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मंगवाने के लिए लिंक्स पर जाएँ-</div>
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sanjay vyashttp://www.blogger.com/profile/12907579198332052765noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9022177286561386168.post-8879569038408670502014-10-17T21:19:00.001+05:302014-10-17T21:19:07.205+05:30हाथ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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उसके हाथ बेमेल थे.वे उसके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाते थे.जहां वो सुंदर सुकुमार सा था, उसके हाथ भद्दे थे.वो अक्सर हँसता नहीं था पर अगर उसे किसी बात पर हंसी आ जाए और उस वक़्त उसे कोई देख ले तो तो यही कहेगा कि कोई बच्चा हंस रहा है.</div>
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यद्यपि वो उम्र के लिहाज़ से बच्चा नहीं था.</div>
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उम्र उसकी ढलने लग गयी थी.वह अपने पूरे आकार में कोमल प्रतीत होता था.बस उसकी हथेलियां खुरदरी थी.एक बार किसी ने उससे हाथ मिलाने के बाद कहा था कि क्या वो काफी वर्जिश वगैरह करता है.उसने इसका अनुवाद इस तरह मन ही मन में किया कि उसके हाथ मज़दूर के हाथों की तरह सख्त हैं.उसे अपने सख्त हाथों से परेशानी नहीं थी बस उसे इसी बात से तकलीफ थी कि उसके हाथ बेमेल थे. वे बाकी शरीर के साथ असंगत थे.वो कई बार एक हाथ की उँगलियों को दूसरी हथाली के पीछे फेरा करता था.ये स्पर्श उसे सबसे ख़राब प्रतीत होता था.उसे लगता, वो काठ पर पर अपना हाथ फिरा रहा है और ये उसका हाथ नहीं हो सकता.एकदम बेजान हाथ.ऐसा ही दूसरे हाथ के साथ करने पर अहसास होता.</div>
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किसी ने इसे चर्म विज्ञानी के नज़रिए से देखा और कहा चमड़ी की कोई अलर्जी है ,किसी ने समुद्र विज्ञानी के नज़रिए से देखकर कहा, ये श्रमजीवी का हाथ है.और कोई इसे कौटुम्बिक लक्षण मानता जो पीढ़ियों से चलकर उस तक आया है, और आगे भी जारी रह सकता है.एक ओझा ने कहा कि इसके मूल में कोई प्राचीन शाप है.उसका दावा था, कि वो बता सकता है कि उसके किसी पूर्वज को क्या करने पर ऐसा शाप दिया गया था और जिसे आने वाली कई संततियों तक चलना था.उसे एक बार लगा कि उसे ओझा को पूछना चाहिए कि उसके पुरखे ने ऐसा क्या कर दिया था जिसका भुगतान उसे अब इतने साल बाद,न जाने कितने साल बाद,करना पड़ रहा है.और क्या मूल शाप अपनी तीव्रता में शक्तिहीन होता गया है या वैसा का वैसा ही है.अगर शाप ने अपनी शक्ति खोयी है तो अपने मौलिक रूप में वो कितना कष्टकारी रहा होगा?वो इसमें दिलचस्पी लेता तो शायद शाप के बारे में और खुलासा हो सकता था पर बिना पूछे ही उस सिद्ध ने इतना और जोड़ दिया था कि ये शाप किसी स्त्री का दिया है. इस बात को जान लेने के बाद उसकी इस बारे में और जानने की रूचि ख़त्म हो गयी.वो किसी भी रूप में अपने दादा का उपहास नहीं होने देना चाहता था.उसकी इच्छा जब इस दिशा के उपाय में थी ही नहीं तो इसमें आगे किसी दिलचस्पी का प्रश्न भी नहीं उठता था. असल में उसे अपने हाथों या कहें हथेलियों से कोई शिकायत नहीं थी. उसकी दिक्कत थी इनकी असंगति से. उसे लगता, उसके हाथ उसके नहीं हैं. उसके मस्तिष्क से भेजे जाने वाले संदेशों की अनुपालना करने में भी हाथ तत्पर थे,उसके सभी काम वही करते थे,उन्हीं हथेलियों में से किसी एक पर तिल देखकर उसकी प्रेमिका ने कहा था कि ये अच्छे भाग्य का प्रतीक है,इन सब के बावजूद वो अपने हाथों से खुश नहीं था. अपने हीहाथों को लेकर उसकी नाराज़गी जायज़ नहीं थी,उसकी प्रेमिका ने कभी हाथों को लेकर ऐसी टिप्पणी नहीं की थी,यद्यपि उसने ये भी कभी नहीं कहा था कि उसे उसके हाथ कुछ ही खास प्रिय हैं.उसे याद आया कि वो अपनी प्रेमिका का हाथ अपने हाथ में लेना प्रायः स्थगित करता रहा है.वो अपने हाथ उसके कन्धों पर ज़्यादा रखता है.या फिर कटिप्रदेश के गिर्द.पर ये भी तय है कि आप किसी से प्रेम करें और वो आपका हाथ अपने हाथ में न लें,ये हमेशा चलते रहना संभव नहीं है.</div>
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वो कुछ कुछ डरने लगा.कहीं प्रेमिका उसके हाथ की वजह से उसे छोड़ न दे.अभी इसकी सम्भावना नहीं थी,बल्कि वो ऐसा सोच भी नहीं सकता था पर आगे प्रेम की सड़क में कितने बल हैं कहा नहीं जा सकता.उसने नारियल का तेल अपनी हथेलियों पर लगाना शुरू कर दिया.फिर भी उसे लगा हाथों का रूखापन गया नहीं है.हथेलियों की त्वचा पगथलियों की चमड़ी की तरह सख्त ही बनी रही.वो झुंझला कर सोचता भगवान ने मेरी हथेलियां बनाते वक्त गाय के खुर की सामग्री तो काम में नहीं ली.वो ज्यादा मात्र में नारियल के तेल का इस्तेमाल करने लगा.कई एक बार वो जैतून का तेल भी ले आया पर उसे लगा हर लिहाज़ से नारियल का तेल ठीक है.उसकी हथेलियां अतिशय स्नेहन के कारण धूल मिटटी को चिपकाती जातीं और फिर वे गन्दी काली सी नज़र आने लगीं.पर वो हाथ धोकर फिर तेल लगाना नहीं भूलता.उसकी प्रेमिका ने भी इस बात को नोट कर लिया.काफी अरसे तक उसने इशारों इशारों में ऐसा ही कुछ इससे सम्बंधित कह दिया पर कोई औपचारिक शिकायत नहीं की.पर जब उसके सलवार और कुरते पर चीकट लगने लगी तो उसने शिकायत नहीं की,बल्कि वो जोर जोर से रोने लगी.शिकायत की स्थिति को लांघ कर सीधे ही ये आगे की अवस्था में पहुंचना था.उसके इस रुदन में उसे छोड़कर जाने का फैसला भी साफ़ सुनाई दे रहा था.</div>
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अब तक उसके घर में नीले प्लास्टिक का ढेर लग चुका था.जहां देखो वहा नारियल के तेल की शीशियाँ.संकरे मुंह वाली,चौड़े मुंह वाली.छोटी मंझली और बड़ी.सब तरह की.पर उसके हाथ अभी भी मुलायम होने की मांग कर रहे थे. </div>
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