Sunday, August 23, 2009

घर गृहस्थी में धंसता एक पुराना प्रेम पत्र


" श्री गोपीवल्लभ विजयते"


बम्बोई
(तिथि अस्पष्ट)


प्यारी सुगना,
मधुर याद.
श्री कृष्ण कृपा से मैं यहाँ ठीक हूँ और तुम भी घर पर प्रभु कृपा से सानंद होंगी.मेरा मन तो बहुत कर रहा है कि पत्र के स्थान पर स्वयं उपस्थित हो जाऊं पर एक सेठ का मुनीम होना कितना ज़िम्मेदारी का काम है ये मैं पिछले देस-प्रवास में तुम्हे बता चुका हूँ. काम गाँव भर का और पगार धेला. वहीं सेठ के पास काम धेले का नहीं और माया अपार. वैसे अन्दर की बात ये है कि इस सेठ की नाव डूब रही है. मैं ये बात सेठजी को बता भी चुका हूँ पर लगता है मामला अब उनके बस का नहीं. देनदारियाँ भारी पड़ रही है.
ये मैं क्या बातें ले बैठा,पर बताना भी ज़रूरी है आखिर मुझे भी नई नौकरी तलाश करनी पड़ सकती है.कभी कभी सोचता हूँ सब छोड़ छाड़ के देस आ जाऊं.

यहाँ तो मैं लाल जिल्द वाली बही के पीले पन्नों में भी तुम्हारी छवि ही देखता हूँ,भगवान् झूठ न बुलवाए. पर दो ननदों, देवर शिवानन्द, सास,ससुर के साथ नैनू बेटे के भरे पूरे घर में रहते तुम्हे क्यों भला मेरी याद आएगी?
नैनू पहाडे सीख रहा होगा. पिताजी उसे डेढे और ढाईये भी अच्छे से याद करवा रहे होंगे. एक कामयाब मुनीम के लिए ये बहुत ज़रूरी है. मैंने भी बचपन में ये सब सीखा था.

इस बार यहाँ मेह इतना बरसा कि कांकरिया सेठ की पेढी डूबने के नौबत आ गयी थी पर वहां देस में छींटे-छिड्पर भी कहाँ!आदमी तो जैसे तैसे गुज़ारा कर ले पर गउओं का क्या होगा? भगवान् भलीस करेंगे.
पिताजी के मस्से ने उन्हें खूब परेशान कर रखा है. यहाँ एक आयुर्वेदिक दवा जानकारी में आई है, समय रहते भेज दूंगा. मां का स्वभाव थोडा तेज़ है पर तुम जानती हो वो शिवानन्द की चिंता में आधी हुई जाती है.मैं स्वयं शिवानन्द को लेकर बहुत आशंकित हूँ. भगवान् भलीस करेंगे, अगर वो पिताजी से विवाह-संस्कार विधि ही सीख लेता तो कोई संस्कारी परिवार अपनी कन्या देने आगे आ सकता था. आगे मर्ज़ी साँवलिए की.
बहनों की ज़्यादा चिंता फिकर नहीं है. गाय दुहना सीख गयी हैं,पापड बनाना भी सीख जायेंगी. तुम स्वयं इस विद्या में पारंगत होकर आई हो सो तुम्हारा ज्ञान उन्हें यहाँ उपलब्ध हो सकेगा.
और यहाँ सब ठीक है वहां मोहल्ले में भी सब बढ़िया ही चल रहा होगा.प्रभुलाल की औरतों के बीच पंचायती की आदत गयी नहीं होगी.क्या आदमी है! दिन रात औरतों के बीच. अब बुद्धि कहाँ से आएगी, बारह ही नहीं आई तो बत्तीस क्या आएगी.राह चलते औरतें भी दूसरी के बारे में उसी से पूछती है. महिलाओं का मुखबिर. और... वो दामोदर, वो आज भी लोगों के घरों में तांका झांकी करता होगा. सुबह हुई नहीं और घर की छत से लोगों के आँगन में झाँकने लग जाएगा. कुछ कहो तो झगडे पर उतारू. अब उससे कौन झगडा और निवेडा करे.खैर इन लोगों के बारे में बात न ही की जाय तो अच्छा. मंदिर में अपने घर की ओर से मनोरथ करवाया होगा इन दिनों. पुजारी वैसे तो कंजूस है प्रसाद देने में पर उसका तो क्या किया जा सकता है?उसको खाने दो.

और घर में काम ठीक ही चल रहा होगा अभी यहाँ भी पगार तीन महीनों की बाकी है.गोरकी गाय दूध ठीक दे रही होगी.मां की तरह उसका भी स्वभाव तेज़ है पर है तो गऊमाता ही.
चलो बहुत बातें हो गयी अब चिट्ठी यहीं समाप्त करता हूँ.और हाँ वो चित्रित किताब तुम्हारी शादी के वेश वाले बक्से में ही है न? किसी के हाथ न लग जाय. यहाँ बम्बोई में चारों तरफ पानी है देखता हूँ तुम्हे दिखा पाता हूँ कि नहीं.
सबको यथाजोग.

तुम्हारा
दीपचंद


( photo courtesy-Landahlauts )

Monday, August 10, 2009

पार्क


पार्क जितना हरा हो सकता था, था। जितना सुंदर हो सकता था, था। एक रंगीन फव्वारा बिल्कुल बीचोबीच। तरह तरह के फूल, मुस्कुराते।झूले,स्लाइड्स,बेंचें, बच्चे,बूढे,युवा,और माली।सब कुछ भरा भरा सा। पार्क शहर की गहमा गहमी के केन्द्र में टापू की तरह था।बाहर निकलते ही इसे सब तरफ़ से सड़कें घेर लेती थीं जिन पर बेहिसाब टैफिक दौड़ता था।पार्क के बाहर सब कुछ बहुत जल्दी में था। कोई नामालूम रेस सबको भगाए जा रही थी। और सब उसे पूरा करने की जल्दी में थे।

पार्क के अन्दर, ठीक विपरीत, बिल्कुल स्लो मोशन में सब कुछ चलता था। अगर कोई बाहर से पार्क में घुसे और झूला झूलते बच्चों को देखे तो उसे झूला अपनी स्वाभाविक लय से भी धीरे...काफ़ी धीरे उतरता दिखेगा।

पार्क के अंदर की दुनिया ईश्वर की डिजाइनर सृष्टि थी। फूलों की छटा एक विन्यास को बनाती थी। घास का कालीन जादुई लोक की राजकुमारी के बागीचे से लाया गया लगता था। कोमल, स्पर्श-संकोची।

सुबह एक बार जागने पर पार्क बुजुर्गों के स्वागत में तैयार रहता था। नौकरी से रिटायर्ड ये बुजुर्ग बेचैनी से रात काट कर कुछ ज़्यादा ही जल्दी सुबह होने की घोषणा कर देते। पार्क में आकर योगाचार्यों द्वारा बताये योग पर परस्पर चर्चा से आरोग्य के बहुत ऊंचे लगे फल को लपकने की कोशिश करते।

दैनिक अखबारों के परिशिष्ट पन्नों पर चिपकी स्वास्थ्य विषयक उलजलूल शोध रिपोर्टों को वेद वाक्यों की तरह सच मानते ये बुजुर्ग ज़िन्दगी की तनी रस्सी पर, प्रकट में बेपरवाह दीखते, भरसक सावधानी से चलते। इस वक्त बच्चों के झूले खाली पड़े रहते, अलबत्ता बेंचें आबाद होतीं। इन बेंचों पर कुछ देर , सच में बुजुर्ग ज़िन्दगी को हसरत भरी निगाहों से देखते और धूप के तीखा होने तक वहीं बैठे रहते। घर वापसी का सफर भारी कदमों से ही तय होता इनका।

दोपहर में पास के दफ्तरों से लंच में भागकर युवा सहकर्मी पार्क के गुमनाम कोनो को गरिमा प्रदान करते। दुनिया से ओट करते जवान लड़के और लडकियां बाहर के ताप से बचते बचाते यहाँ कुछ महफूज की तलाश में रहते। सामने तिरछी तरफ़ बेंच पर बैठा युगल पिछले कई दिनों से यहीं था। उधर पीछे बाएँ तरफ़ बैठा लड़का पुराने रिश्ते को ख़त्म कर नए रिश्ते की डोर मज़बूत कर रहा था। और वो उधर बैठी लड़की २ महीनों से अपनी हमेशा वाली जगह बैठी थी पर नए साथी के साथ। पार्क रिश्तों के किसी कायदे से बेखबर इन सबकी मेज़बानी में जुटा था।

कल तक प्रियांजना और अशोक साथ दिखते थे,आज यहाँ प्रियांजना और बॉबी दिख रहे हैं।अशोक ने यहाँ आना बंद कर दिया है। क्या वजह हो सकती है दोनों में ब्रेक अप की? सबसे ज़ाहिर तो ये कि अशोक की भाषा मारवाडी लहजे से लदी हुई थी और प्रियांजना अंग्रेज़ी के महानगरीय संस्करण के साथ सहज थी। तो क्या भाषा भी एक वजह हो सकती है? शायद हाँ और शायद नही। बॉबी को गाडियां बदलने का शौक था और वो ऐसा आराम से कर सकता था। उसके पिता शहर के एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक थे। लोग कहते थे हर नई गाड़ी के साथ उसकी दोस्तों की पसंद भी बदल जाती थी, प्रियांजना भी इस बात को जानती थी पर एक साथ जितना निभता रहे क्या बुरा है यही सोच थी उसकी।
रितेश और आनंदिता लंबे अरसे से यहाँ आ रहे थे, पार्क के अन्दर उनकी उम्मीदों के पार्क की तलाश में। फिलहाल पार्क ही उनके इस रिश्ते का घर बना हुआ था। यूँ दोपहर में पार्क अपने चटख रंगों के साथ सूर्य की रौशनी में चमचमाता था। तितलियाँ कुछ और चंचल हो जातीं,गिलहरियाँ पेड़ के कोटरों में लुका छिपी खेलती, परिंदों की आवाज़ गूँज मारती रहती।
शाम के समय बच्चों की फौज पार्क पर धावा बोलती और सभी झूलों पर कब्ज़ा कर लेती। स्लाइड पर बच्चों की फिसलन पार्क को गुदगुदाती मेरी-गो राउंड के साथ पार्क घूम जाता और सी-सा पर ऊपर से नीचे आने पर पार्क को एक मीठी सी झुरझुरी महसूस होती। पार्क शायद सबसे चुलबुला शाम को ही होता। उसके अन्दर का बच्चा निकल कर उन बच्चों में शामिल हो जाता। अपने मम्मी-पापा को छकाते बच्चे पार्क की लम्बाई को नापते रहते और माँ-बाप हार कर बेंच का सहारा ले लेते
रंगीन फव्वारे और रौशनी रात में पार्क के मिजाज को बदल देते। लोगों के चेहरों पर पीली और दूधिया रौशनी का परावर्तन ऐन्द्रजालिक प्रभाव उत्पन्न करता था। सब कुछ मायावी लगने लगता। लगता जैसे कोई भी सहजता से उड़कर आ सकता था और एक स्पार्कल के साथ गायब भी हो सकता था।
यहाँ लोगों के हाथ में बंधी घडियां थोडी धीरे हो जाती थीं
(painting photo courtesy- catchesthelight)
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