Tuesday, September 7, 2010

सब वैसा ही है...तकरीबन


इस लीचड़ कीचड़ मौसम में फंगस की गुलाबी कंटीली झाडियाँ उसके शरीर में जगह जगह उग आयीं थीं.ऊपर से भगवान ने हर इंसान की तरह उसे भी नाखून बख्शे थे.मानसून में इतना परेशान वो शायद पहली बार हुआ था.पर उसकी चिंता का कारण ये मौसम हरगिज़ नहीं था. वो जानता था कि करारी धूप से भरा एक दिन उसके शरीर में सक्रिय फंगस के स्पोर्स को भी झुलसा देगा.और खुजली असल में ख़त्म करने से ज्यादा मैनेज करने की चीज़ थी. खुजाने की अदम्य लालसा को बाँध लेना ही उससे पार पाना है.
उसकी चिंता का तात्कालिक कारण तो था उसका ख़ुद को आईने में देखना. काफी गौर से वो पहचान में आने वाले 'ख़ुद' को देख रहा था. उसकी भौंहें बड़ी बेतरतीब नज़र रही थीं. नाक में से बाल बाहर निकले थे.कोरियन ट्रिमर कैंची बड़े वक्त से कहीं टंगी रह गयी थी और उसका हुलिया बड़ा बेतरतीब हो गया था.कुछ और लक्षण थे जिन पर वो नए परिप्रेक्ष्य में गौर कर रहा था. सुबह के पहले पाँव इतने निश्चल होते गए थे कि जैसे बिस्तर से निकलकर कब्र की नम और सीली मिट्टी से बड़ी जद्दोजहद से निकले हों.आँखें सुबह के रंग देर से सोख पा रहीं थीं. कानों में देर तक सन्नाटे गूंजते थे और ज़माने का शोर धीरे धीरे उनमें भर पाता था. नहीं, ये उम्र बढ़ने के लक्षण नहीं थे. मतलब इन्हें एकदम उम्र बढ़ने के साथ जोड़ना काफी सरलीकृत पाठ होगा. तीस के पेटे में ये सब कहाँ होता है. और खासकर तब जब वो और तरह के बदलाव भी अपने भीतर नोटिस कर रहा था. ऑफिस में अटेंडेंट को बेवजह बुलाना और कभी कभी उसे देख कर कहना 'सावधान'! अपने सहकर्मियों को अपनी तरफ से बच्चों के घरेलू नाम देना और उन्हें देखकर हास्यास्पद अंदाज़ में, एक लय के साथ बुलाना. या फिर उनके नामों को बेवज़ह लंबा खींच कर बोलना. पत्नी को चूमते समय आज कल वो कभी कभी हंसोड़ की तरह मुस्कुरा देता था. बेशक उस समय वो नहीं देख पाती थी उसे ऐसा करते. वो अपने हिस्से की गंभीरता में पूरी गंभीर थी.
पागल वो हरगिज़ नहीं हुआ जा रहा था. घर के हिसाब में इससे काइंया वो पहले कभी नहीं हुआ करता था. दूधवाले की अनुपस्थिति घर के वैद्यनाथ पंचांग में वो मजबूती से ठोक देता था. अखबार वाला उसके हिसाब को फ़ाइनल मानता था. पिताजी की दवाओं का हिसाब वो विलक्षण दक्षता से करने लगा था. स्कूल की टैक्सी, बिजली पानी का बिल सब कुछ चाक चौबंद था.सत्रह तरह के लोन का निर्वाह वो पूरी सावधानी से कर रहा था. जानता था कि एक भी किश्त चूकने का मतलब है पार्टी फेल ! हिसाब में महारत के लिए उसने वैदिक गणित के लैसन शुरू कर दिए थे. जल्द ही हालत ये थी कि बही खाते के पीले पन्नों से वो ड्राइंग बुक की तरह खेलने लग गया था. फिर मसला क्या था? "कुछ भी नहीं." उसने तसल्लीबख्श अंदाज़ में सोचा फिर मुस्कुरा कर कैंची हाथ में ली और सधे हाथों से मूंछों को संवारने लगा. पत्नी शायद पहली बार उसके इस तरह मुस्कराने पर बोली- " इसमें इतना हँसने की क्या बात है?"

(Image courtesy- Martin Beek )