Tuesday, May 12, 2009

अभिशप्त क़स्बे से आरम्भ



क़स्बे की जन्मपत्री में कोई भयानक गड़बडी थी। आजकल इसकी पुष्टि कम्प्यूटरीकृत कुंडली से सूक्ष्म विवेचन करने वाले प्रख्यात ज्योतिषी भी कर रहे थे। इन दिनों ख्याति अर्जित कर रहे क़स्बे के ही एक वास्तु शास्त्री के अनुसार क़स्बे की बसावट में ही बहुत भारी त्रुटि थी, इस कारण सारे देवता यहाँ से भाग छूटे थे और पितर अत्यधिक बेचैनी का अनुभव कर रहे थे। अब उनका आर्शीवाद यहाँ के कुटुंब ले नहीं पा रहे थे। हर मन्दिर के विग्रह उलटी दिशाओं में घूम गए थे और पंडित वैदिक कर्म भूल कर गैर सनातनी परम्पराओं में रत हो गए थे।
ऐसे ही विचित्र माहौल में क़स्बे की उस लड़की का विवाह सम्बन्ध कहीं निश्चित नहीं हो पा रहा था। सनातनी परम्पराओं की क्षीण स्मृति से युक्त एक विद्वान् ने सुझाया कि विवाह अगर शातातप गोत्र के लड़के से हो तभी कुल- कुटुंब के लिए शुभ होगा और पितर किंचित शान्ति का अनुभव कर सकेंगे।
ये एक बड़ी समस्या थी। उस टोले में ये गोत्र ख़त्म हो चुका था। इस गोत्र से पितृ-पक्ष की ओर से सम्बन्ध रखने वाली एकमात्र वृद्धा भी हरि-शरण हो चुकी थी।अब इस गोत्र का कोई भी, वहाँ या आसपास, नहीं था।
जाति-प्रजाति के मसलों को भी ध्यान में रखते हुए गूगल सर्च की गयी तो पता चला कि कच्छ के रन में बसे एक गाँव में इस गोत्र के परिवार रहतें हैं। वे अपने को चातुर्वेदज्ञाता कहतें हैं पर उनसे चारों वेदों के नाम पूछे जाएँ तो वे एक दो के ही बता पाएंगे। एक अड़चन उनके साथ सम्बन्ध करने में और थी, वे बकरी पालते थे जो इधर के लोगों के लिए अस्वीकार्य था भले ही स्वयं इनकी स्मृति में वेद और पुराण की जगह नरेंद्र चंचल के जगराते गूंजते रहते थे।
पर उपचार तो यही था अतः ऐसे विकट योग के निराकरण के लिए लड़की का भाई सम्बन्ध निश्चित करने के उद्देश्य से शातातप गोत्र धारी लोगों के गाँव रवाना हुआ। उसने साथ किसी भी अनिष्ट का सामना करने लिए भूतोपचार पुस्तिकाएं भी ले ली। एक बड़ी समस्या उस गंतव्य तक जाने के लिए उपलब्ध संसाधनों की भी थी। इक्का दुक्का बस वहाँ जाती थी जिसकी जानकारी उसको जुटानी थी। और last but not the least समस्या के रूप में था देवशोक गाँव जो उसके गंतव्य से ५ किलो मीटर पहले पड़ता था। बस इस गाँव से होकर ही जाती थी इसका उसे पता था।उसने सुन रखा था कि ये गाँव कुछ 'ठीक' नहीं था। यही वो जगह थी जहाँ देवासुर संग्राम में देवता असुरों से हार गए थे। उनके भाग छूटने के निशान आज भी उस गाँव में मौजूद बताये जाते थे। कहतें हैं गाँव के ज़्यादातर लोग आसुरी प्रभाव से ख़ुद को बचाने के लिए 'शैतान आत्माओं'की चापलूसी करते थे। एक प्रभावी असुर 'देवजयी' की प्रशस्ति में ६०० साल पहले वहीं के कवि 'असुरदास' ने देवजयी को देवताओं के पाचन की सबसे बड़ी बाधा 'काचर का बीज' बता डाला था। ६१ पंक्तियों की इस प्रशस्ति में देवजयी के बारे में कहा गया कि एक प्रेमासक्त देव के मस्तक पर उसने ऐसा प्रहार किया कि वो देव आजीवन अपनी प्रेमिका का नाम भूल बैठा।
देवशोक गाँव में चापलूसी की इस परम्परा का निर्वाह आज तक हो रहा था। शैतान की चापलूसी में कई चालीसाएं लिखी गयीं थी।
विवाह योग्य बहन के उस भाई ने अंततः उचित बस को खोज लिया जो उसे गंतव्य तक ले जाने वाली थी। सब कुछ समयानुसार होने पर शाम को चली वो बस रात के पौने बारह बजे भावी समधियों के गाँव पहुँचती जहाँ वे लोग सामने उसके इंतज़ार में खड़े मिलते।
कई जगह बस रूकती रही और यात्री उतारते रहे। चढ़ने वाला को नहीं था। फ़िर एक स्थिति ऐसी आयी जब वो उस बस में ड्राईवर और परिचालक के अलावा अकेला रह गया था। देवशोक अभी आया नहीं था पर उसकी बढती समीपता से उसके सीने में बाँई और कुछ बेहद गति से धड़कने लगा था। उसकी इच्छा हो रही थी कि बस यू- टर्न ले ले, वापस चली जाय, रास्ता भटक जाए पर यूँ सामान्य रूप से न चलती रहे।
और ऐसा ही हुआ...... उसकी इच्छा का तो नहीं पर हाँ बस एक जगह रुक गई।
"कहाँ रुक गई भाई साब?"
उसने परिचालक से इतना पूछने के लिए हलक से कुछ शब्द मुश्किल से बाहर फेंके।
"देवशोक! खराबी आ गई है बस में, इसलिए यहीं से बस वापस रवाना हो रही है, आगे नहीं जायेगी, आप यहीं उतरिये।"
परिचालक ने इतना सब बड़ी आसानी से बोल दिया।
रात के साढे ग्यारह बजे देवशोक में उतरना पड़ेगा! जिस जगह से होकर गुजरने मात्र से उसका रक्त द्रव नाइट्रोजन में रखे खून की तरह जम रहा था उसे वहाँ उतरना होगा!!!
" हे भगवान्!ये कौनसे पाप का प्रतिफल मिल रहा है मुझे?" उसने ज़ोर ज़ोर से सोचा।
और उसे अनमना पाकर परिचालक ने उसे ज़बरदस्ती बस से बाहर धकेल दिया।
नीचे उतरने पर उसे ये भूमि साक्षात असुरों की राजधानी लग रही थी। उसने उल्लू की भांति गर्दन घुमाई तो एक उम्मीद की लालटेन कहीं जलती नज़र आई। जी हाँ एक चाय की दूकान पर टंगी लालटेन उस समय भी दूकान के आबाद होने की घोषणा कर रही थी। उसके कदम वहीं खिंच गए।
"एक चाय देना!"उसने चाय वाले को आदेश दिया। उसे इस समय ये पेय डेरे में सबसे सात्विक लग रहा था।
दुकानदार चुपचाप चाय बनाने में व्यस्त हो गया। उसे लगा चाय वाला उससे बात नहीं करना चाहता। उसने ऊपर देखा, काले आसमान में चाँद बड़ा मलिन नज़र आ रहा था। हजारों अपराध होते देख चुका चाँद हर अपराध में मूक समर्थक की भूमिका में था।
उसने चाय का घूँट भरा। चाय बड़ी खट्टी स्वाद दे रही थी।
"क्या दूध ख़राब हो गया है?"
"यहाँ गाय का दूध काम नहीं आता, जरख के दूध से चाय बनती है। इससे काटने के दांत मज़बूत होते है।"
उसने बिना चाय पिए पैसे देना बेहतर समझा। उसके कदम जड़ हो रहे थे जैसे शरीर धीरे धीर लोहे में बदल रहा हो।
तभी दूर से दो हेड लाइट्स से रौशनी फेंकती एक जीप पास आकर रुकी। उसके आर्श्चय का पारावार न रहा, होने वाले समधी उसे लेने आए थे।
"आपको परेशानी हुई इसका खेद है....चलिए हमारे साथ। बस अड्डे पर खूब इंतज़ार किया बाद में पता चला बस यहीं से वापस लौट गई।"
"पंडित जी पाय लागूं"। चाय वाले ने भी अपनी जान पहचान को दोहराया।
"क्यों भाई , फटे दूध की चाय तो नही पिलाई मेहमान को? और बाद में हमेशा वाला बहाना बना दिया , हें?हा हा ॥"
इस हृष्ट पुष्ट हँसी में लड़की के भाई ने भी अपनी फीकी हँसी मिला ली।

23 comments:

  1. धरातल की सच्चाईयों के साथ रहस्य का अक्स लिए आपकी इन लघु कथाओं को पढ़ते समय बरबस मनोज नाईट श्यामलन की फिल्मों की स्क्रिप्ट्स याद आ जाती हैं. रहस्य के गुण सूत्र हर कहीं बिखरे हैं उनको पकड़ना और प्रस्तुत करना सूक्ष्म दृष्टि की मांग करता है. प्यास सिर्फ पानी से नहीं बुझती और वो जादू करने वाली पोस्ट से आगे की इस पोस्ट के लिए. आपको उत्कृष्ट रचना की बधाई

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  2. हजारों अपराध होते देख चुके चाँद की रौशनी में उम्मीद की किसी लालटेन की रौशनी में एक सात्विक पेय का पीना ....हमारा लेपटोप भी इस नाइट्रोजन को सूंघ गया संजय जी.......

    एक तस्वीर सी हमारे दिमाग के भीतर भी उभरती रही....
    गजब लेखन !!!!

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  3. वाकई एक अकथ कथा. आपको भारतीय मनुष्य की सच्ची पहचान है संजय जी और आपके गद्य में कविता का-सा आभास. संवाद शुरू होने से पहले तक मामला बिल्कुल कविता जैसा ही है, आगे वह विशुद्ध कथा की तरफ मुड़ जाता है.

    बाक़ी सब कुछ राजकुमारी जी ने लिख ही दिया है, उनसे सहमत.

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  4. pathak ko bandhe rakhne mein safal rahi aapki ye laghukata. Behad pasand aayi.
    Navnit Nirav

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  5. आस्था के प्रति लगाव की पराकाष्ठा के बाद का समय आपने सटीक रेखांकित किया है हमें ऐसा ही महसूस होता है जैसे एक ही खेला देखा कर उकता गए हों सब जन.
    "हर मन्दिर के विग्रह उलटी दिशाओं में घूम गए थे और पंडित वैदिक कर्म भूल कर गैर सनातनी परम्पराओं में रत हो गए थे।"
    आग्रहों में समय का हस्तक्षेप दर्ज करने की आदत यहाँ भी बची रही अच्छा लगा.
    "वे बकरी पालते थे जो इधर के लोगों के लिए अस्वीकार्य था भले ही स्वयं इनकी स्मृति में वेद और पुराण की जगह नरेंद्र चंचल के जगराते गूंजते रहते थे।"
    जरख का दूध उतना ही मुफीद लगा जितना कि दसवी में उल्लू के पंख ढूँढते हुए उम्मीद हुआ करती थी किसी तंत्र से पास हो जाने की.
    सहज मानवीय भय को आपने अतिसहज ढंग से अभिव्यक्त किया है, मेरी बधाई इस रहस्य भरी पोस्ट को.

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  6. वाह... बंधुवर व्यास जी, आप का भी जवाब नहीं... अच्छी कहानी है...

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  7. सच में यह देश परिन्दों का है, जिनके पंख आधे कतरे हुये हैं, संस्कारों ने। न मुक्त हैं न पूरी तरह कैद।
    कितनी शताब्दियों में एक साथ जीते हैं हमारे गांव-शहर-कस्बे!

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  8. कहानी सौ की स्‍पीड में आगे बढ़ती है और चाय की दुकान पर जैसे ठहर जाती है। इतने में समधी आते हैं और जैसे गोल हो जाता है।


    इन हिचकोलों में भी एक आनन्‍द था।


    आभार व्‍यास जी
    बहुत सुंदर।

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  9. वाह क्या रहस्य भरी पोस्ट हैं, गजब लेखन है!आपने जिस तरह से मानवीय भय को अभिव्यक्त किया है, दात देनी पड़ेगी! बहुत बहुत बधाई!

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  10. कहानी ने मंत्र मुग्ध कर दिया.पूरी पढने के बाद ऐसा लगा कि कहानी ख़त्म क्यों हो गई...बड़ा मजा आ रहा था.
    मेरी फरमाइश है कि इसका अगला भाग जरूर लिखें.
    बधाई और श्रेष्ठ लेखन की टिप्पणियों की औपचारिकता से परे जाकर कहूँगा कि ऐसी रचना पाठक के दिल पर राज करती है..और सौ वर्ष बाद भी पठनीय रहती है.
    प्रवाह,शिल्प,विषय वस्तु और रोचकता में पूरे नंबर..!
    बघाई..!
    पी एस

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  11. कुछ अलग सी, रहस्यमयी सी, अचम्भित करती यह कथा...

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  12. आस्‍था, अंधविश्‍वास और आधुनिकता की कई-कई परतों से गुजरती हुई कहानी सचमुच मंत्रमुग्‍ध करनेवाली है।

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  13. नाईट्रोजन की तरह जम कर ये कहानी पढी़.. बहुत अच्छी..

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  14. ‘वे अपने को चातुर्वेदज्ञाता कहतें हैं पर उनसे चारों वेदों के नाम पूछे जाएँ तो वे एक दो के ही बता पाएंगे।’ समस्या का मूल यही है। वस्तुतः हम संस्कारहीन हो अपना कर्तव्य ही भूल गये हैं। आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक कार्य धनोपार्जन के लिए ही किया जाए।

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  15. मजा आ गया. हम भी बह से गए. यहाँ भी कुछ चतुर्वेदी हैं जिन्हें वेद तो वेद गायत्री मन्त्र भी नहीं मालूम.

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  16. रहस्यमय आवरण में लिपटी कथा ,तत्सम शब्दावली वातावरण को सजीव करती हुई सी .एक उत्कृष्ट रचना .

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  17. भाई कहानी के बारे में मित्रों ने पहले ही काफ़ी कुछ लिख दिया है।
    मुझे इसकी भाषा और शिल्प दोनों ने चमत्कृत किय।

    रास्ता देख लिया है आता रहूंगा।

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  18. sanjay bhai

    i am speechless for your writings yaar , kya likha hai ..main to ek saans me padh liya .. bhai , aapke lekhan ko mera salaam ..

    aapko meri dil se badhai ..

    meri nayi kavita padhkar apna pyar aur aashirwad deve...to khushi hongi....

    vijay
    www.poemsofvijay.blogspot.com

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  19. संजय जी नमस्कार ,
    आकाशवाणी केंद्र पर आपसे मुलाकात हुई थी , शायद आपको याद हो !
    आपकी सभी रचनाये पढ़ी, उतम साहित्य के दर्शन हुए , मैंने अब तक कोई रचना नहीं लिखी पर ब्लॉग पर २००७ से हु . जो लिखी अन्य रचनाओ को पढ़कर delete कर दी . आशा है भविष्य में आपका आशीर्वाद और मार्गदर्शन मिलेगा ..........
    ओम प्रकाश राजपुरोहित
    oprajpurohit.blogspot.com

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  20. ओम भाई मुलाक़ात अच्छी तरह याद है और यूँ कोई कैसे किसी को भूल सकता है! टिपण्णी के लिए धन्यवाद. आशा है आपके ब्लॉग पर जल्द कोई प्रविष्टि देखूँगा. शुभकामनाएं.

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  21. रहस्य और रोमांच भरी इस सुन्दर कहानी की बधाई.

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  22. बढ़िया! मेरे मन का गद्य!

    ज़रा भी लागलपेट नहीं ... सिर्फ़ और सिर्फ़ उत्कृष्ट क़िस्सागोई!

    बनाए रहें भाई!

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