ठीक वो क्षण, जब बिच्छू अपना डंक शिकार में घोंपने ही वाला हो, या कोई बेस जम्पर किसी ऊंची इमारत से कूदने के लिए अंतिम रूप से तैयार हो, जब प्राचीन यूनान में हजारों की भीड़ के मध्य एक ग्लेडिएटर बस अपना निर्णायक वार करने ही वाला हो, या फिर घात लगाए बैठा प्रेइंग मेंटिस शिकार पर झपटने से ठीक पहले की परम एकाग्रता में हो . चरम उत्तेजना का क्षण. जब एड्रीनलीन मिश्रित रक्त के तीव्र प्रवाह की घडी में शरीर मादक तरीके से ऐंठता है.
ऐसी ही ऐंठन की तलब लिए वो इंटरसिटी के बैठक कम्पार्टमेंट में अपने प्रिय लेखक का जासूसी उपन्यास लिए बैठा था.कल शाम ही बुक स्टाल से खरीदा था ये नया उपन्यास. रात को 'कलर्स' पर 'खतरों के खिलाडी' देखते देखते उसे लगा कि उसके शरीर में नकली उत्तेजना -भर का अहसास ही आ पाया है. तिलचट्टों और टेरेनटूला मकडियों से उसे उबकाई होने लगी और समंदर के नीले पानी में प्रतियोगियों की छलांगे किसी पूल में खराब डाइव को देखने से ज्यादा सुख नहीं दे पाई.बार बार उसका ध्यान सुंदरियों के शरीर सौष्ठव पर जा रहा था. "चैनल बदलो". उसके दिमाग ने हुक्म दिया और वो किसी न्यूज़ चैनल पर अटक गया.यहाँ एक अनसुलझे हत्याकांड पर महीनों बाद आये नए मोड़ पर उत्तेजना से भरा एंकर कुछ बता रहा था.
"हाँ, ये ठीक है". और वो घंटों एक ही खबर के रीसाइकल्ड संस्करण देखता देखता सो गया.
सुबह जल्दी वो अपने प्रिय लेखक के नए जासूसी उपन्यास के साथ इंटरसिटी में था.जयपुर तक का सफ़र पांच घंटों से ज्यादा का था और उसके हाथ में मोटे कलेवर का उपन्यास था. मुख्य पात्र इंस्पेक्टर विनोद शर्लक होम्स का अवतारी था. कोई भी मर्डर मिस्ट्री उसके चमत्कारी हाथों में आकर हमेशा के लिए मिस्ट्री नहीं रह सकती थी.पता नहीं कौन देश से आया था इंस्पेक्टर विनोद! नाम तो भारतीय लगता था. कत्ल के केस को क्रॉस वर्ड पज़ल की तरह हल कर देता था.कई बार तो बस चुटकियों में. पुलिस महकमे में ये आम धारणा थी कि किसी हत्याकांड की जांच का जिम्मा इंस्पेक्टर विनोद के पास आ जाए तो हत्यारा पनाह ढूंढता था जो उसे कहीं मिलने वाली नहीं थी.
पर खैर असली मज़ा अंत में ' कातिल कौन'? का जवाब मिलने में था.पूरे नॉवल में कहानी हिचकोले खाती रोलर कोस्टर राइड का मज़ा देती थी.संभावित कातिल किसी मरहले पर खुद मकतूल बन जाता था. और आखिर में अविश्वसनीय रूप से हत्यारा वही होता जो पूरी किताब में एक विनम्र किरदार की भूमिका में अक्सर हाशिये पर बैठा होता.
उसने इंटरसिटी के रवाना होते ही उपन्यास के कवर नज़र डाली.खून के पूल में एक युवती की लाश, जिसके सीने में खंजर धंसा था. उसकी आँखे फटी हुई थी.ऊपर शीर्षक ड्रैकुला फोंट्स में था.कोने में 'नवीनतम उपन्यास' विशेष तरीके से उभारा गया था. लेखक का नाम कवर चित्र के नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था. उसके हाथों में हलकी झनझनाहट सी होने लगी थी.एक शानदार, 'अश्योर्ड' मिस्ट्री उसके हाथों में थी.उसने पिछले कवर पर लेखक के फोटोग्राफ को चूम लिया.ये उसका प्रिय उपन्यासकार था. सिर्फ वो ही नहीं कई और भी उसके दीवाने थे या रहा चुके थे. हालांकि टीवी के ज़रिये निरंतर लाइव छवियों की बमबारी ने इस तरह के शौक-ऐब के लिए वक़्त और स्पेस काफी कम कर दिया था पर वो कुछ पुरानी पीढी का था.और ख़ास बात ये थी कि उसे उत्तेजना की डोज़ चाहिए थी.
पटरियों पर लुढ़कते लोहे के पहिये लगभग नियमित लय की खटर-पटर के साथ लक्ष्य का फासला तय कर रहे थे.खिड़की से बाहर उसने नज़र डाली, एक अजीब सी शांति में परिदृश्य ठिठुरा हुआ था.एकमात्र गाड़ी ही जीवन की लय में बज रही थी.
उपन्यास में एक युवती की हत्या हो चुकी थी.इंस्पेक्टर विनोद घटना स्थल पर आ चुका था.
"सर, मामला हत्या का लगता है". कांस्टेबल बीरबल ने युवती की खून से सनी लाश देखकर कहा.
"हूँ"!! इंस्पेक्टर विनोद का दिमाग तेजी से पेरामीटर्स लोड कर रहा रहा.उसकी पेशानी पर इस वक़्त गहरी सलवटें पड़ रही थी जो इसी तरफ इशारा कर रही थी. ऐसे पात्रों की स्टीरियो टाइप छवि के मुताबिक ही उसने सिगरेट को विशेष अंदाज़ में सुलगाया और आवश्यक निर्देश देने लग गया.
ट्रेन किसी स्टेशन पर रुक गयी थी.रोजाना के कम्यूटर्स का रेला ट्रेन में वेग के साथ दाखिल हुआ.उसकी नज़र उपन्यास से हटकर सामने बैठे एक यात्री पर रुक गयी. खुरदरे चेहरे वाला ये शख्स उसे ठीक नहीं मालूम हुआ.पता नहीं क्यों वो उपन्यास में हुई हत्या के लिए उसे जिम्मेदार मानने लग गया.मध्यम कद के उस आदमी के चौडे कंधे इस काम के लिये ही बने हो सकते हैं, उसने सोचा. नज़रें मिलते ही उस खुरदरे चेहरे वाले ने एक औपचारिक मुस्कान उसकी तरफ बढा दी और बोला-
"यहाँ चाय अच्छी मिलती है, आप लेंगे?"
"न...नहीं शुक्रिया". वो इस दोस्ताना रवैये के लिए तैयार नहीं था.झेंप गया.
अब उसकी नज़र सामने खिड़की के पास बैठी एक लड़की पर गयी.लड़की कोई पत्रिका पढ़ रही थी. उसका ध्यान फिर से उपन्यास में लग गया.मृतका के पति की हत्या हो गयी थी. उसी पर युवती की हत्या का शक सबसे ज्यादा था.जयपुर अभी थोडा दूर था. उसका प्रिय लेखक फिर रोमांच लुटा रहा था. हत्यारे का सस्पेंस अभी बना हुआ था. ट्रेन के डिब्बे में एक अधेड़ आदमी को दिल का दौरा पड़ा था.उसके रोमांच का सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ था.वो डिब्बे में मची अफरा तफरी से अनजान बना रहा।
(photo courtesy-Roo Reynolds)
ऐसी ही ऐंठन की तलब लिए वो इंटरसिटी के बैठक कम्पार्टमेंट में अपने प्रिय लेखक का जासूसी उपन्यास लिए बैठा था.कल शाम ही बुक स्टाल से खरीदा था ये नया उपन्यास. रात को 'कलर्स' पर 'खतरों के खिलाडी' देखते देखते उसे लगा कि उसके शरीर में नकली उत्तेजना -भर का अहसास ही आ पाया है. तिलचट्टों और टेरेनटूला मकडियों से उसे उबकाई होने लगी और समंदर के नीले पानी में प्रतियोगियों की छलांगे किसी पूल में खराब डाइव को देखने से ज्यादा सुख नहीं दे पाई.बार बार उसका ध्यान सुंदरियों के शरीर सौष्ठव पर जा रहा था. "चैनल बदलो". उसके दिमाग ने हुक्म दिया और वो किसी न्यूज़ चैनल पर अटक गया.यहाँ एक अनसुलझे हत्याकांड पर महीनों बाद आये नए मोड़ पर उत्तेजना से भरा एंकर कुछ बता रहा था.
"हाँ, ये ठीक है". और वो घंटों एक ही खबर के रीसाइकल्ड संस्करण देखता देखता सो गया.
सुबह जल्दी वो अपने प्रिय लेखक के नए जासूसी उपन्यास के साथ इंटरसिटी में था.जयपुर तक का सफ़र पांच घंटों से ज्यादा का था और उसके हाथ में मोटे कलेवर का उपन्यास था. मुख्य पात्र इंस्पेक्टर विनोद शर्लक होम्स का अवतारी था. कोई भी मर्डर मिस्ट्री उसके चमत्कारी हाथों में आकर हमेशा के लिए मिस्ट्री नहीं रह सकती थी.पता नहीं कौन देश से आया था इंस्पेक्टर विनोद! नाम तो भारतीय लगता था. कत्ल के केस को क्रॉस वर्ड पज़ल की तरह हल कर देता था.कई बार तो बस चुटकियों में. पुलिस महकमे में ये आम धारणा थी कि किसी हत्याकांड की जांच का जिम्मा इंस्पेक्टर विनोद के पास आ जाए तो हत्यारा पनाह ढूंढता था जो उसे कहीं मिलने वाली नहीं थी.
पर खैर असली मज़ा अंत में ' कातिल कौन'? का जवाब मिलने में था.पूरे नॉवल में कहानी हिचकोले खाती रोलर कोस्टर राइड का मज़ा देती थी.संभावित कातिल किसी मरहले पर खुद मकतूल बन जाता था. और आखिर में अविश्वसनीय रूप से हत्यारा वही होता जो पूरी किताब में एक विनम्र किरदार की भूमिका में अक्सर हाशिये पर बैठा होता.
उसने इंटरसिटी के रवाना होते ही उपन्यास के कवर नज़र डाली.खून के पूल में एक युवती की लाश, जिसके सीने में खंजर धंसा था. उसकी आँखे फटी हुई थी.ऊपर शीर्षक ड्रैकुला फोंट्स में था.कोने में 'नवीनतम उपन्यास' विशेष तरीके से उभारा गया था. लेखक का नाम कवर चित्र के नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था. उसके हाथों में हलकी झनझनाहट सी होने लगी थी.एक शानदार, 'अश्योर्ड' मिस्ट्री उसके हाथों में थी.उसने पिछले कवर पर लेखक के फोटोग्राफ को चूम लिया.ये उसका प्रिय उपन्यासकार था. सिर्फ वो ही नहीं कई और भी उसके दीवाने थे या रहा चुके थे. हालांकि टीवी के ज़रिये निरंतर लाइव छवियों की बमबारी ने इस तरह के शौक-ऐब के लिए वक़्त और स्पेस काफी कम कर दिया था पर वो कुछ पुरानी पीढी का था.और ख़ास बात ये थी कि उसे उत्तेजना की डोज़ चाहिए थी.
पटरियों पर लुढ़कते लोहे के पहिये लगभग नियमित लय की खटर-पटर के साथ लक्ष्य का फासला तय कर रहे थे.खिड़की से बाहर उसने नज़र डाली, एक अजीब सी शांति में परिदृश्य ठिठुरा हुआ था.एकमात्र गाड़ी ही जीवन की लय में बज रही थी.
उपन्यास में एक युवती की हत्या हो चुकी थी.इंस्पेक्टर विनोद घटना स्थल पर आ चुका था.
"सर, मामला हत्या का लगता है". कांस्टेबल बीरबल ने युवती की खून से सनी लाश देखकर कहा.
"हूँ"!! इंस्पेक्टर विनोद का दिमाग तेजी से पेरामीटर्स लोड कर रहा रहा.उसकी पेशानी पर इस वक़्त गहरी सलवटें पड़ रही थी जो इसी तरफ इशारा कर रही थी. ऐसे पात्रों की स्टीरियो टाइप छवि के मुताबिक ही उसने सिगरेट को विशेष अंदाज़ में सुलगाया और आवश्यक निर्देश देने लग गया.
ट्रेन किसी स्टेशन पर रुक गयी थी.रोजाना के कम्यूटर्स का रेला ट्रेन में वेग के साथ दाखिल हुआ.उसकी नज़र उपन्यास से हटकर सामने बैठे एक यात्री पर रुक गयी. खुरदरे चेहरे वाला ये शख्स उसे ठीक नहीं मालूम हुआ.पता नहीं क्यों वो उपन्यास में हुई हत्या के लिए उसे जिम्मेदार मानने लग गया.मध्यम कद के उस आदमी के चौडे कंधे इस काम के लिये ही बने हो सकते हैं, उसने सोचा. नज़रें मिलते ही उस खुरदरे चेहरे वाले ने एक औपचारिक मुस्कान उसकी तरफ बढा दी और बोला-
"यहाँ चाय अच्छी मिलती है, आप लेंगे?"
"न...नहीं शुक्रिया". वो इस दोस्ताना रवैये के लिए तैयार नहीं था.झेंप गया.
अब उसकी नज़र सामने खिड़की के पास बैठी एक लड़की पर गयी.लड़की कोई पत्रिका पढ़ रही थी. उसका ध्यान फिर से उपन्यास में लग गया.मृतका के पति की हत्या हो गयी थी. उसी पर युवती की हत्या का शक सबसे ज्यादा था.जयपुर अभी थोडा दूर था. उसका प्रिय लेखक फिर रोमांच लुटा रहा था. हत्यारे का सस्पेंस अभी बना हुआ था. ट्रेन के डिब्बे में एक अधेड़ आदमी को दिल का दौरा पड़ा था.उसके रोमांच का सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ था.वो डिब्बे में मची अफरा तफरी से अनजान बना रहा।
(photo courtesy-Roo Reynolds)
क्या कहूँ ....हमें याद आ गया जब हमने एक ट्रेन में सुरेंदर मोहन पाठक का उपन्यास लेकर सफ़र किया था .तब उम्र सत्रह की होगी ......
ReplyDeleteआज आपका जुदा अंदाज देखा ....लेकिन मन को भाया ...
वेद प्रकाश शर्मा की बानगी देखिये - ....विजय को काटो तो खून नहीं.....लगता था जैसे सारे मसानों ने एक साथ पसीना उडेल दिया हो....याद आ गया वर्दी वाला गुंडा....कभी मैं खूब पढता था ऐसे लुग्दी साहित्य..( शायद कागजों की लुग्दी से बनने के कारण ही लुग्दी साहित्य कहा जाता है)...
ReplyDeleteयाद आ गया वो गुजरा जमाना भी।
बहुत खूब।
संजय जी, कहानी पूरी हकीकत है. हममें से कई सारे लोग हकीकत को तब तक नजरंदाज करते रहते हैं, जब तक कि वो कहानी न बन जाये...
ReplyDeleteअच्छी रचना..
संजय भाई,
ReplyDeleteक्या लिखा है..वाह!मैं तो फोटो देखकर ही रोमांचित हो उठा....कहानी या पोस्ट के भाव कुछ भी रहें हो पढने में मजा आ गया...और शुरू से अंत तक अपने आप को कहानी का मुख्य पात्र महसूस करता रहा...वो दिन आ गए जब सुरेन्द्र मोहन पाठक या वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास पढ़ कर अपने को मजाकिया हीरो समझते थे.
जीवन के सबसे निचले स्तर में जीते हुए रोमांच तलाशने के उच्चतम अवसर ऐसे ही प्राप्त किये जा सकते रहे हैं. आपने तो कमाल ये किया कि इस उपन्यास कथानक को महज तीस पंक्तियों में बाँध दिया. आप जब इस तरह के उपन्यासों के हवाले और इतनी बारीक जानकारी देते हैं तो मुझे संदेह होता है इन्हें पढ़ने के अवसर कहाँ से जुगाड़े होंगे. ग्यारहवीं तक हो सकता है कभी कुछ दिन हाथ लगे हों ऐसे सदग्रंथ परन्तु उसके बाद तो रूम बनता नहीं दीख रहा है. वैसे इसे पढ़ते हुए आनंद बहुत आया. लोग कहते हैं कम लिखना चाहिए, मैं सोचता हूँ कि आप कम क्यों लिखते हो ? पोस्ट के साथ सोने में सुहागा है फोटो .... बधाई !!!
ReplyDeleteव्यासजी,
ReplyDeleteपिछले कुछ समय से आपकी चुप्पी की वजूहात टटोल रहा था, आखिरश, वह कहानी की शक्ल में सामने आ ही गई. अभी सिर्फ कहानी की पावती दे रहा हूँ, इसे पढ़कर फिर लिखूंगा.
सप्रीत...
आप कम लिखते हैं लेकिन जब भी पढता हूँ तो बेहतरीन लिखा हुआ सामने होता है
ReplyDeleteयह ट्रेन का सफ़र मर्डर मिस्ट्री सस्पेंस और खिड़की में भागते पेड़, खेत, खलियान, शहर, पगडण्डी, नहर, पुल, बिजली की तारों की तरह साथ चलते आपके रंग-बिरंगे शब्दों के संग बहूत रोचक रहा...
ReplyDeletetrain me baitthe der ho gyee par aapki post interesting lagi...aise laga jaise koee pic ka scene chal raha ho...
ReplyDeleteहाय! कर्नल विनोद-केप्टन हमीद और इब्ने सफी बी.ए. की जासूसी दुनियां के दिन!
ReplyDeleteपांच घण्टे की इण्टर सिटी में तीन उपन्यास रगेद मारते! :)
मेजर बलवंत सोनिया और उसके पहले राजन इकबाल के किस्से तो खूब पढ़े हैं । आपने उन दिनों की याद दिला दी।
ReplyDeletebahut sahi likha hai aapne....
ReplyDeletebadiya hai...majedar...
ReplyDeleteरहस्य-रोमांच आदमी को हमेशा से फेसिनेट करते रहे हैं.और यूँ किस्सों में निर्दयी डायनों से लेकर खब्ती जासूसों तक की जीवंत दुनिया रही है. मनोरंजन के बदलते माध्यमों ने आदमी की इस चाह का खूब इस्तेमाल किया है.चैनलों पर एंकरों के उत्तेजना में कांपते-चीखते स्वर एक कृत्रिम रोमांच गढ़ने की कोशिश करते हैं. एक लगातार एकरंगी होती दुनिया में बोरियत से छुटकारा पाने की चाह आदमी को अपने सन्दर्भों से कितना काट देती है, ऐसा ही कुछ लिखने की कोशिश आपका स्नेह पा सकी इसके लिए आभार.
ReplyDeleteधरातल से जुड़ी हुई पोस्ट के लिए बधाई।
ReplyDeleteमैं इसे शुद्ध साहित्य कहूँगा - एकदम नया।
ReplyDeleteसंजय और व्यास का मेल - निहायत ही सम्वेदनशील । महाकथाओं के सर्जन की अद्भुत शक्ति है आप में - उसका उपयोग क्यों नहीं करते ?
एक महागाथा सुनाना प्रारम्भ करें। वादा है एक श्रोता हमेशा हाथ जोड़े बैठा सुनता मिलेगा।
बंधुवर,
ReplyDeleteआपकी ये रचना मुझे १९६४-६५ के उन दिनों में ले गई, जब मैं कैप्टन हमीद - कर्नल विनोद और इब्ने सफी के जासूसी उपन्यासों को पढने के लिए फटकारा जाता था, लेकिन उनमे ऐयारी, रहस्य-रामांच के अनूठे किस्से होते थे और मन उसीमे डूबा रहना चाहता था... धीरे-धीरे प्रेम वाजपेयी, कुशवाहा कान्त होता हुआ मैं आचार्य चतुरसेन की गलियों में घूमने लगा था... पुराने दिन याद दिलाने का शुक्रिया !
आपकी यह कथा एक ऐसे स्वप्नलोक का विचरण कराती है, जहाँ किशोर-मन अक्सर टहलता- भटकता है... लेकिन उन लम्हों को शब्दों में बांधा कम ही गया है ! फिर आपके हर्फ़ कुछ ज्यादा ही चमकते हैं और अपने प्रवाह में पाठक को बहा ले जाते हैं ! बधाई देता हूँ, इस छोटी-सी सुन्दर रचना के लिए !! --आ.
बधाई सँजय जी. आपकी रचना से लोगों को बीते दिन याद आ गए. पर मुझे तो यह बिल्कुल ताज़गी से भरी रचना लगी. बधाई पुन: स्वीकारें.
ReplyDeleteजोधपुर से जयपुर आने वालों में सबसे ज्यादा तादाद उन लोगो की है जो इंटरसिटी में सफ़र करते हैं.
ReplyDeleteमुझे याद आया वोह दिन जब एक डिब्बे में आग लगी और कैसे ३-४ सेना के जवानों ने सबको बड़ी बहादुरी और हुनर के साथ सकुशल ट्रेन से उतरा.
ओम आर्य साहब ने ऊपर बिलकुल ठीक कहा ऊपर, आम ज़िन्दगी जब तक कहानी न बन जाये नज़र में नहीं आती.
रिगार्ड्स,
मनोज खत्री