Saturday, February 27, 2010

फेंका हुआ


कोई अपकेंद्री बल उसे तेज़ी से किसी अनजान दुनिया में फेंक रहा था। उसके अपने उससे दूर भागते प्रकाश बिन्दुओं में तब्दील हो गए थे। या वो ही उनसे दूर फेंका जा रहा था।उसकी अपनों से बनी दुनियाँ बहुत छोटी थी। पर उन्हें सहेजने का काम करने वाले स्मृति-कोष पर से उसका भरोसा उठ चला था। उस बेकार से थैले में बहुत पुराने हादसे अपने मौलिक चटख रंगों के साथ जस के तस थे और उसके अपनों की याद कभी कभार की टहल में ही सुरक्षित थी। उसे पक्का विश्वास हो गया था कि दिमाग में याद जमा करने वाला भाग दिमाग का कोई पुर्जा न होकर कोई अलग ही 'एंटिटी' थी। कभी कभी शैतानियत का खेल खेलने वाली।

किसी अपने को, जिसे वो ठीक से स्थिर देख सकता था तो वे उसके पूर्वज थे जो आसमान के किसी कोने में ठन्डे तारे के रूप में टिके थे और उसे निस्पृह भाव से एकटक देखे जा रहे थे। हर वक़्त देखे जाना असल में न देखना ही माना जाना चाहिए। कोई निर्जीव आँख ही आपको लगातार देख सकती है।

इस आती जाती दुनियाँ में भौतिक दूरियां नहीं बढ़ी थी फिर भी वो लगातार किसी और ही पठार पर दूर होता महसूस कर रहा था। एक शक्ति उसे उसके अपने स्थान के साथ भगाए जा रही थी। किसी कैप्सूल में बैठा वो सिर्फ धकेले जाने का अहसास कर रहा था। उस कैप्सूल में उसका अपना स्पेस सुरक्षित था पर उसमें वो एक ही था। चारों ओर पारदर्शी लसलसा जैल भरा था जो उसकी वहां से छूट भागने की तमाम कोशिशों का लिजलिजा किन्तु कामयाब जवाब था।

( photo courtesy- isabel )

Friday, February 12, 2010

एक करवट और


उसकी बेचैनी औंधे गिरे भृंग की तरह थी जो सिर्फ एक जीवनदायी करवट चाहता था.एक अर्ध-घूर्णन. फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा.या कम से कम ऐसी उम्मीद की जा सकती थी. उल्टा पड़ा कीड़ा जैसे अनंत शून्य में अपनी आठों टांगों की बेहाल हरकतों में कोई खुरदरा आधार ढूंढता है. एक मचल मची थी भीतर. एक गहरा गड्ढा जो हर अस्तित्व को नश्वरता में धकेलता था. उसी गड्ढे में तेज़ी से गिरा जा रहा था वो. समय का सूक्ष्मांश ही था उसके पास जो उसकी बेचैनी की रील को चलाए जा रहा था.


ये सीधा सादा मृत्यु बोध नहीं था बल्कि उससे भी ज्यादा गहरा ज्यादा अँधेरा था.एक बेचैनी जिसमें बाज़ी के ख़त्म होने की घोषणा नहीं हुई थी. कंधे चित्त थे पर रैफरी उसकी बेचैनी से तय नहीं कर पा रहा था और फैसला करने में अभी तकनीकी अवकाश बीच में था. एक पलटी से वो फिर गेम में आ सकता था.


असल में उसकी तमाम यांत्रिक क्रियाएं शरीर की खुद को बनाए रखने की चेष्टाओं जैसी थीं. उसका दिमाग लेकिन संभावित बचाव की सूरत में फिर से रोजमर्रापन में झोंके जाने की अनिवार्यताओं से जंग लड़ रहा था.करवट बदलने के बाद भी फौरी तौर पर उसे एक लगभग निर्वात चाहिए. निशब्द. बाहर के इस भीषण शोर में 'सटल' स्पंदन को महसूस किये जाने लायक. संवेदी तंतुओं के सिरों को फिर से जो आवेश ग्राही बना सके.एक ऐसी अवस्था चाहिए थी उसे एक बार की कि जिसमें चेतना एक बेहद हल्की दीप्ति में ही हो.
बस पाँव के अंगूठों के पोर पर ही हो महसूस करने जैसा कुछ.


जीवन की करवट में लौटने पर दुनिया में जाने से पहले सब कुछ शून्य से प्रारंभ चाहता था वो.
पर उसका शरीर अब भी तड़प से भरा था.


( photo courtesy - dariuszka )