Friday, February 12, 2010
एक करवट और
उसकी बेचैनी औंधे गिरे भृंग की तरह थी जो सिर्फ एक जीवनदायी करवट चाहता था.एक अर्ध-घूर्णन. फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा.या कम से कम ऐसी उम्मीद की जा सकती थी. उल्टा पड़ा कीड़ा जैसे अनंत शून्य में अपनी आठों टांगों की बेहाल हरकतों में कोई खुरदरा आधार ढूंढता है. एक मचल मची थी भीतर. एक गहरा गड्ढा जो हर अस्तित्व को नश्वरता में धकेलता था. उसी गड्ढे में तेज़ी से गिरा जा रहा था वो. समय का सूक्ष्मांश ही था उसके पास जो उसकी बेचैनी की रील को चलाए जा रहा था.
ये सीधा सादा मृत्यु बोध नहीं था बल्कि उससे भी ज्यादा गहरा ज्यादा अँधेरा था.एक बेचैनी जिसमें बाज़ी के ख़त्म होने की घोषणा नहीं हुई थी. कंधे चित्त थे पर रैफरी उसकी बेचैनी से तय नहीं कर पा रहा था और फैसला करने में अभी तकनीकी अवकाश बीच में था. एक पलटी से वो फिर गेम में आ सकता था.
असल में उसकी तमाम यांत्रिक क्रियाएं शरीर की खुद को बनाए रखने की चेष्टाओं जैसी थीं. उसका दिमाग लेकिन संभावित बचाव की सूरत में फिर से रोजमर्रापन में झोंके जाने की अनिवार्यताओं से जंग लड़ रहा था.करवट बदलने के बाद भी फौरी तौर पर उसे एक लगभग निर्वात चाहिए. निशब्द. बाहर के इस भीषण शोर में 'सटल' स्पंदन को महसूस किये जाने लायक. संवेदी तंतुओं के सिरों को फिर से जो आवेश ग्राही बना सके.एक ऐसी अवस्था चाहिए थी उसे एक बार की कि जिसमें चेतना एक बेहद हल्की दीप्ति में ही हो.
बस पाँव के अंगूठों के पोर पर ही हो महसूस करने जैसा कुछ.
जीवन की करवट में लौटने पर दुनिया में जाने से पहले सब कुछ शून्य से प्रारंभ चाहता था वो.
पर उसका शरीर अब भी तड़प से भरा था.
( photo courtesy - dariuszka )
उल्टा पड़ा कीड़ा जैसे अनंत शून्य में अपनी आठों टांगों की बेहाल हरकतों में कोई खुरदरा आधार ढूंढता है. एक मचल मची थी भीतर.
ReplyDeleteबहुत सही पंक्तियाँ हैं..... यह पंक्ति मेरे ज़ेहन में बैठ गई है.... द्वन्द को यह पंक्ति बहुत अच्छे से चित्रित करती है.....
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट....
भीतर की जद्दो-जहद और पीड़ा को क्या शब्द दिए हैं ... गूंजती है यहीं -कहीं आस - पास ..
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुती।
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा ! बधाई!
''जीवन की करवट में लौटने पर दुनिया में जाने से पहले सब कुछ शून्य से प्रारंभ चाहता था वो.
ReplyDeleteपर उसका शरीर अब भी तड़प से भरा था.''
खोयाहुआ पाने के कशिश भरी तड़प की अभिव्यक्ति..विचारों में सब कुछ उथल पुथल कर देती है.
''ये सीधा सादा मृत्यु बोध नहीं था बल्कि उससे भी ज्यादा गहरा ज्यादा अँधेरा था.एक बेचैनी जिसमें बाज़ी के ख़त्म होने की घोषणा नहीं हुई थी. कंधे चित्त थे पर रैफरी उसकी बेचैनी से तय नहीं कर पा रहा था और फैसला करने में अभी तकनीकी अवकाश बीच में था. ''
इन पंक्तियों को महसूस किया जा सकता है...
''उसकी बेचैनी औंधे गिरे भृंग की तरह थी जो सिर्फ एक जीवनदायी करवट चाहता था.एक अर्ध-घूर्णन. फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा.''
एक अलग और ख़ास अंदाज....अभिव्यक्ति का..जो संजय ही लिख सकता है...एक भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति.
जब हम उस कोशिश को शब्दों के माध्यम से साकार कर पाते हैं तो एक हल्का सुकूँ निश्चय ही कहीं अपने पैर पसारने लगता है....
ReplyDeleteरचना में लोकरंजन को होना मैं एक अनिवार्य तत्व मानता हूँ.
ReplyDeleteआपने एक पंच से उसे पूरा कर दिया है. "एक पलटी से वो फिर गेम में आ सकता था."
हर एक पंक्ति में वही आकर्षण है जो संजय व्यास की सुन्दरता में हुआ करता है. शब्दों का सलीके से और प्रभावी उपयोग उन्हें चमत्कृत कर देने वाली आभा देता है.
मैं यहाँ कहना चाहता हूँ कि संजय जी जब लिखते हैं तो लिखने की प्रक्रिया, ध्यान से गुजरने की प्रक्रिया होती होगी, तभी पाठक ध्यान में गया हुआ महसूस करता है
ReplyDeleteइतना तनाव ! मैं तो नहीं सह सकता. सच मे संजय तुम कोई योगी हो.
ReplyDeleteअभी अभिभूत हूँ....पहली हाजिरी मान लो ....असल कमेन्ट दूसरी हाजिरी पर .....-अनुराग
ReplyDeleteओम जी से सहमत हूँ । प्रविष्टियों से गुजरना ध्यान की प्रक्रिया से गुजरना है ।
ReplyDeleteएकदम से आचारनिष्ट यति-सी लेखनी, पर एक विचित्र-सी सुगंध से भरी हुई । निःशंक होकर समाया जा सकता है इस लेखनी की कान्ति में ।
’नाच’ पढ़ने की सिफारिश कईयों से कर चुका हूँ । उसमें यह ’करवट’ भी जोड़नी होगी ।
पढ़ के एक ही बार में लिखते नहीं बनता..
ReplyDeleteमृत्यु बोधसे कही ज्यादा बेचैनी..
ऐसे जैसे जीवन और मरण के बाज़ी लगी हो.
जैसे कोई पतली से रस्सी पे चल रहा हो और देखने वालो के साँस अटक जाये.
इतनी बेचैनी..नजर एक पल भी रस्सी से और पैरो से हटने न पाए ..
दिमाग शून्य हो जाना चाहता है..
विषय एक दर्दनाक सपने की तरह - विवरण महाकवियों जैसा विस्तृत. बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteस्केच खीचने की पटकथा तैयार है ... और दिमाग में खाका भी खीच चूका है... किन्तु अपने बूते से बाहर बात यह है कि हम तस्वीर के साथ भाव नहीं जोड़ सकेंगे... ओम आर्य के कमेन्ट बिलकुल सटीक.... आपका लिखा एकदम निशाने पर लगता है.
ReplyDeleteशब्दवेधी, ... नाम तो सुना होगा आपने ?vv
सिर्फ एक जीवनदायी करवट............बेचैनी की रील ................फैसला करने में अभी तकनीकी अवकाश
ReplyDeleteये कुछ मोती है जो दोबारा आकर समेटे है ........
संजय गजब है यार !!
डांसर...
ReplyDeleteफोटोग्राफर...
और अब
रेसलर....!
आह, कितने और तीर हैं इस तरकश में।
ये महज ट्रायोलाजी तक ही सीमित नहीं रहेगी ना? कभी एक सोल्जर को भी देखने की तमन्ना है इस अलौकिक लेखनी से।
sanjidgi se ukera hai aapne..
ReplyDeleteआपकी पोस्ट अगर सरसरी तरीके से पढ़ी जाए तो बहुत कुछ समझना छूट जाता है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखन। जीवन के लिए छटपटाहट को इस से अधिक सुंदर रीति से व्यक्त नहीं किया जा सकता।
ReplyDeleteJiwan की करवट में लौटने पर दुनिया में जाने से पहले सब कुछ शून्य से प्रारंभ चाहता था वो.
ReplyDeleteपर उसका शरीर अब भी तड़प से भरा था.
Jindagi ki jadojahad ka sundar chitran kiya hai aapne.
Bahut badhai
उल्टा पड़ा कीड़ा जैसे अनंत शून्य में अपनी आठों टांगों की बेहाल हरकतों में कोई खुरदरा आधार ढूंढता है. एक मचल मची थी भीतर.
ReplyDeleteये सीधा सादा मृत्यु बोध नहीं था बल्कि उससे भी ज्यादा गहरा ज्यादा अँधेरा था |
मन की इस स्थिति की इससे बेहतर व्यक्त भी नहीं किया जा सकता है |
पहली बार आप का लिखा पढ़ा .
ReplyDeleteगद्ध और पद्ध दोनों में बराबर महारत हासिल है.
वेदना /संवेदनाओं की गहन अनुभूति पढने को मिली.
आभार.
बहुत कम शब्दों में आपने सब कुछ कह दिया. इंसान की छटपटाहट कब आखिरी हो जाए, पता नहीं.
ReplyDeleteकुछ सीखने को मिला.
रिगार्ड्स,
मनोज खत्री