मत आना
बरसों से चुप पड़ी पुरानी खांसी फिर से उभरी है
दिमाग में उठ आया है
हज़ारों दिन पहले का
कोई जंग खा चुका बवंडर
अब जब तुम फिर से आई हो
तो सुनो
तबसे अब तक
पृथ्वी बहुत फांक चुकी है
सूरज से गिरती आकाशीय धूल
और मेरे मन की जलवायु भी
बदल चुकी है
कमोबेश.
वो पीपल जो युवा था कभी
और हवा के संग मिला लेता था
तुम्हारी आहट से ताल
अब वनैला बरगद हो चुका है
उसकी जड़-शाखाओं से उलटे लटके हैं वेताल
अपने मूर्ख प्रश्नों से जो
खिल्ली उड़ाते अहर्निश
हमारी समझ की.
मैं तो कहता हूँ मत आओ अब तुम
मेरी देहरी पर इस तरह.
बुदबुदाहट
बुदबुदाता है बूढा
जैसे खुद से ही कह रहा हो
या फिर सीधे ईश्वर से
किसी तिब्बती मन्त्र की शक्ल में कुछ कुछ
कि प्रेम में विफल
लड़की को मिलता है कोई
अधेड पति
और
लड़का ले आता है
एक थकी हुई स्त्री
जो खुद
प्रेम से हार कर
पिसती रही है
अफ़सोस की पेषणी में.
प्रेम के खारे समंदर को
मथने के लिए
पर्वत-सी झेरनी चाहिए.
(photo courtesy- alessandra luvisotto)
मैं तो कहता हूँ मत आओ अब तुम
ReplyDeleteमेरी देहरी पर इस तरह.
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अच्छा हुआ जो लड़की जिद्दी है अपनी तरह...वरना इस तरह कहने पर शायद वाकई उस देहरी पर कभी न जाती.
'मत आओ' तब तक अधूरा है जब तक वो देहरी पर वापस आ नहीं जाती...इस कहने की सार्थकता उसे उसके अनगिन, बेवजह कामों से खींच कर देहरी पर लाने में ही है.
कितनी खूबसूरत कविता है...और जीवन की तरह आगे बढती है...टाइमलाइन पर...लीनियर...कोई हिचकोला नहीं...नैसर्गिक खूबसूरती...जंगल में खिले दुर्लभ फूलों की तरह.
और इन सबसे खूबसूरत ये बिम्ब 'जंग खा चुका बवंडर'...इसे लिखने के लिए शायद पीली रेत का बवंडर देखना जरूरी होता होगा...या कि जैसलमेर जैसे पीले पत्थरों के शहर में कभी रहना.
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काश कि मेरे पास कुछ बहुत खूबसूरत शब्द होते...ताकि मैं सलीके से लिख पाती कि कविताएं कितनी अच्छी लगी मुझे.
दूसरी कविता मुझे बेहद पसंद आयी....उस अद्रश्य सच को सामने रखती है जो हर समय साथ चलता है पर जिसे कोई नहीं कहता .सुख के पोखर में अकेली मछली सा .....
ReplyDeletedusri kavita achchi likhi gayi hai.
ReplyDeleteअभी तक तो पिछली पोस्ट का ही खुमार बरकरार है। इस बार कवि अलग मूड में है और जो सचाई की तरह आता ही है। दोनों ही कविताएं पसंद आईं मुझे तो।
ReplyDeleteमैं तो कहता हूँ मत आओ अब तुम
ReplyDeleteमेरी देहरी पर इस तरह.
बहुत सुंदर रचना ....किन्तु सूरज का उदय होना ....वायु का बहना .... नदिया का वेग ...और मन का आवेग ... ....कौन रोक पाया है ....?
पर्वत सा बड़ा हृदय कहाँ से लायेंगे।
ReplyDeleteऔर मेरे मन की जलवायु भी
ReplyDeleteबदल चुकी है..
kya wakayee jalvayu badal jati hai...achchi kavitaen.
वाह! आनंद आ गया.....
ReplyDeleteदूसरी कविता प्रेम की पीर और गहराई को मथने में सफल रही है. पहली कविता का मर्म भी बहुत गहरा है. पुरा स्म्रतियां अक्सर विचलित कर जाती है ऐसे में अच्छा है कि वो ना आए. शब्दों का चयन बेहद सुन्दर है. ऐसी सशक्त कविताएँ आजकल बेहद कम पढ़ने को मिलती हैं, दोनों ही कविताओं को पढ़कर काफी दिनों बाद कविता का सुख हासिल हुआ !!
ReplyDeleteसाधुवाद संजय जी !
बढ़िया कवितायेँ संजय भाई!
ReplyDeleteदोनो कवितायें शब्दों के इस कैनवस पर आगे-पीछे इस रहस्यमयी प्रेम नामक रंग के जुदा शेड्स का एक जादुई कंट्रास्ट रचती हैं..
ReplyDelete..पहली कविता किसी बूढ़े समंदर की नमकीन थकी हुई लहरों की कराह की तरह है..जिसमे हजारों बरस से अनगिन नदियों संग बह कर आये जिंदगी के तजुर्बों का इतना नमक इकट्ठा हो गया हो..जिसे कि वक्त के बादल भी उड़ा कर अपने संग नही ले गये!..अंतहीन इंतजार की आदत के संग इस समंदर की रगों मे इतना खारापन इकट्ठा हो गया है जिसके लिये समंदर को सोखे जाने के सिवा बाहर आने का कोई और रास्ता नही है!..रास्ते भी तो प्रतीक्षा करते होंगे उन कदमों की वापसी की आहट का..जो कभी उनसे गुजर कर उस पार गये थे..और इस वापसी के रास्ते मे इंतजार के साथ साथ तंजदिली के कितने खार, विस्मृतियों की कितनी खरपतवार, मूक सवालों की कितनी राख जमा हो गयी होगी...मगर ’एक्सपायरी डेट’ पार कर गये इंतजार के नैराश्य और फ़लतः जनित तल्खी के बीच ही कविता की अंतिम पंक्ति मे ’इस तरह’ की घुसपैठ एक प्रछन्न आशा मे टिमटिमाते किसी गूढ़ इशारे की ओर भी इशारा करता है..जिसका विस्तार कविता के अगले ’सीक्वेल’ मे किया जायेगा...ऐसा हमारा भरोसा है...
..दूसरी कविता कविता का नैराश्य किसी तल्खी या आवेग की पैदाइश नही है..बल्कि वास्तविकता की सूखी रूढ़ जमीन के फ़टे हाथों की बदशक्ल लकीरो का तर्जुमा है..एक ऐसा क्रूर मगर अवश्यंभावी यथार्थ जो नियति के क्रूर हाथो पराजित नस्ल का भवितव्य है..जो अपनी बाकी उम्र नियति की गुलामी मे काटने को अभिशप्त है..जंगल की बरसात मे भीगी लकड़ी जब आग की चपेट मे आती है तो जलने की सबसे लंबी और क्रूर सजा उसी को मिलती है..अनवरत सुलगते धुँआते हुए झुलसते रहने की...मगर यहाँ कविता के अंत का आशावाद अधिक स्पष्ट और विश्वसनीय है..यही झेरनी है जो प्रेम के खारे समंदर को मीठे दरिया मे बदलने का जादू रखती है..
कुछ और और कविताओं की झेरनी की हमें भी जरूरत है.. :-)
बहुत सहजता से दूध और पानी को अलग किया है और कवितायें छोड़ जाती हैं महक एक्सपायरी डेट के बाद की प्यार की महक...
ReplyDeleteसुन्दर कविताएं . ...लेकिन मैं तो कहूँगा / चाहूँगा कि वो आती रहे . और वह अद्भुत, अनूठा , लगभग अप्राप्य क्षण बार बार जीवंत होता रहे .
ReplyDeleteदोनों ही कविताएँ बहुत सुन्दर है, दूसरी अधिक पसंद आने की अपनी वजहें हैं.
ReplyDeleteवाह.....................
ReplyDeleteलाजवाब.................
दिल खुश हो गया ,,,,,
उत्तम लेखन हेतु बधाई....
अनु
"बस प्रेम को थोड़ी ओट चाहिए"...अभी पढ़ कर लौटा हूँ। अब यह कविताएँ सम्मुख हैं।
ReplyDeleteकविताओं पर कुछ कहना क्यों नहीं आता मुझे!..सोच रहा हूँ।
दोनो कविताएं अच्छी लगीं।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत कवितायेँ और गहरी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत गहरी कविताएं...
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