पहली नज़र में वो सिर्फ एक खाट थी.खाली.पर जैसे जैसे नज़दीक जाना
हुआ, पता चला कोई बूढी उस पर लेटी है.उस छोटी सी खाट पर भी उसकी उपस्थिति अपने आप
दर्ज़ नहीं होती थी. उसे चिन्हित करना पड़ता था.अपनी जीर्ण ओढनी के अलावा वो सूखे हाड़
की छोटी सी पोटली भर थी.यद्यपि ये शक बराबर बना रहता था कि फटी ओढनी के अलावा वो
कुछ भी शेष नहीं है और हवा ही उसके आकार की शक्ल में कहीं टिकी रह गयी है. बस,समीपस्थ
वातावरण के बारीक बने संतुलन में नोक भर के
बिगड़ाव मात्र से सिर्फ ओढनी ही हाथ रह जानी है.घरवालों का कहना
था कि बूढी दादी कई दिनों से अन्न नहीं ले रही है. एक लंबी यात्रा रही है दादी की,और
अब चारपाई पर ‘हथेली भर दादी’ को देखकर लगता है कि जिम्मेदारियों का
भी अपना आयतन होता है जिनकी वज़ह से दादी कम से कम तब तो ज़मीन पर ज़रूरी जगह घेरे ही होगी जब गृहस्थी का गोवर्धन उसके सर पर था.अब जब
वो चारपाई पर है और वो खुद किसी की ज़िम्मेदारी भर है तो उसकी उपस्थिति को ढूँढना
भी भारी पड़ रहा है.
बरसों पहले वो जब शादी करके आई थी,खुद वो कहती है कि उसकी शादी
को ‘जुग
भव’
बीत गए, तब वो कुछ बर्तन, कपड़े और चांदी के थोड़े गहने लेकर आई थी.इस घर में पतली
नोकदार नाक और थोडा गोरा रंग भी वो ही लाई थी.साथ ही हथेली पर आने वाली खुजली और
हल्का दमा भी.
अपना नाक, रंग और सुहाती खुजली उसने कुछ हद तक अपने पोते-पोतियों,
एक बेटी और दोहिते को भी दी है.
अपने सक्रिय बुढापे के दिनों में वो दो बार खुश हुई थीं. पहली
बार तीर्थ से लौटते वक्त दिल्ली में क़ुतुब मीनार देखकर और दूसरी बार बहरे होते
कानों के लिए मशीन पाकर. उसके लंबे वैधव्य में ये खुशियां विशुद्ध और पूर्णतः
अमिश्रित थीं.ज़रूर इनका आयतन भी उसके आकार में भराव देता होगा.
अब चारपाई को खड़ा कर दिया गया है.उसकी जीर्ण ओढनी धरती पर
है.हवा जो उसके आकार में बंधी थी, बिखर गयी है...
सक्रिय बुढ़ापा !
ReplyDeleteपीपली लाईव की बुढिया याद आ गयी.
दादीजी की स्मृतियाँ सदा ही शक्ति देती रहें..
ReplyDeleteअच्छा लगा ...
ReplyDeleteहवा जो उसके आकार में बंधी थी, बिखर गयी है... चुप रहकर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है. लक्षणा महज एक शब्द नहीं है.. शब्द शक्ति भी है.
ReplyDeleteजिम्मेदारियों के साथ आयतन का कोण नया है। वैसे सभी शून्य से ही आ रहे हैं और शून्य में समां रहे हैं।
ReplyDeleteआयतन भी एक भ्रम है। पाले रहें तब तक दिखता है जब छोड़ दें तो छूट भी जाता है...
विज्ञान के कोण से देखिए - परमाणु का नाभिक बहुत छोटा होता है, उसके चारों ओर 99 प्रतिशत खाली स्थान और शेष इलेक्ट्रॉन होते हैं। इन्हीं खाली स्थान वाले परमाणुओं से अणु, यौगिक और शरीर बनता है। हकीकत में जो शरीर दिखाई दे रहा है वह 99 प्रतिशत खाली स्थान से बना हुआ है। :)
सिद्धार्थ जी,
ReplyDeleteशुक्रिया.इस पोस्ट के ज़रिये भारतीय दर्शन की परंपरा में आत्यंतिक सत्य को समझाती सी आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है.मैं तो बस 'जगह घेरने'की बात कर रहा था.जैसे दायित्व और जिम्मेदारियां दिमाग में पसरते हैं वैसे ही इनको वास्तविक स्पेस में भी जगह घेरते दिखाया जा सकता है.
शुक्रिया.
रह ही जाती है .....कुछ तो स्मृति शेष ....!!
ReplyDeleteगूढ ....
संजय भाई। परीक्षा के हाल से भाग कर कहीं जाने के लिए कोई जगह बनी है तो वह ये ब्लॉग है। संजय व्यास का ब्लॉग... मैं भी इस बार जाने कैसे दोस्तों की बातों मेन आकार किताब जैसे काम में लग गया... अब मेरा जी चाहता है आपके ब्लॉग को बहुत देर तक पढ़ूँ और फिर सो जाऊँ। आप कमाल लिखते हैं।
ReplyDeleteयह चारपाई वाली बुढ़िया हम सभी के भीरत बसी है आपके शब्दों ने उसे अचानक सजीव कर दिया!
ReplyDeleteबरसों पहले वो जब शादी करके आई थी,खुद वो कहती है कि उसकी शादी को ‘जुग भव’ बीत गए, तब वो कुछ बर्तन, कपड़े और चांदी के थोड़े गहने लेकर आई थी.इस घर में पतली नोकदार नाक और थोडा गोरा रंग भी वो ही लाई थी.साथ ही हथेली पर आने वाली खुजली और हल्का दमा भी.
ReplyDeleteअपना नाक, रंग और सुहाती खुजली उसने कुछ हद तक अपने पोते-पोतियों, एक बेटी और दोहिते को भी दी है
अच्छी कविता .
जिम्मेदारियों का भी अपना आयतन होता है।
ReplyDelete..सर्वथा अनूठे दर्शन से रूबरू कराते इस सूत्र वाक्य के साथ यह कहानी हृदय को छू गई। अर्चना जी का आभार कि उन्होने इसे सुनाया..पढ़ाया। इस कहानी का शीर्षक 'बिखरता आयतन' अधिक प्रभावशाली होता।