Sunday, July 31, 2016

निशान

रूस में खुलेपन और पुनर्निर्माण के अग्रदूत मिखाइल गोर्बच्यौफ़ के गंजे सर पर एक दाग़ नुमाया होता था.ये दाग़ उनके नज़र आने से पहले ही नज़र आता था. मैंने पहली बार तो यही सोचा था कि किसी कबूतर ने बीट कर दी है. अगली बार फिर नज़र आने पर यही सोचा, टीवी में कुछ गड़बड़ है. फिर जब अख़बारों और पत्रिकाओं में उनके फोटो पर भी वो निशान नज़र आने लगा तब जाकर लगा कि कुछ चमड़ी की बीमारी से सम्बंधित बात होगी. अरसे तक मैं ये बात भूल गया था.

दुनिया तो खैर गोर्बच्योफ़ को ही भूल गयी थी.


फिर ये बात कहाँ से फिर उठ गयी ?

अभी हान कांग की किताब 'द वेजीटेरियन' पढ़ रहा था. तीन भागों में बंटी ये छोटी सी किताब एक  दुःस्वप्न के कारण शाकाहारी बनी एक विवाहिता युवती 'योंग हाई' के हाथ से इस दुनिया के धीरे धीरे छूटते जाने की कहानी है. सैनिटी से निकल कर इन्सेन होने का रास्ता कितना छोटा होता है ! जैसे बस एक कमरे से निकल कर दूसरे कमरे में ही जाना हो.कभी कभी तो जैसे सिर्फ एक देहरी से बाहर कदम भर रखना हो.इस तरफ से उस तरफ का शिफ्ट.

उपन्यास के दूसरे अध्याय 'मंगोलियन मार्क' में ज़िक्र आता है कि योंग हाई का बहनोई अपनी साली के नितम्ब पर बने जन्मजात मंगोलियन मार्क के बारे में सोच कर उत्तेजना से भर जाता है. योंग हाइ की देह के ढंके हिस्से पर बना एक नीला सा निशान उस आदमी के मन में होरमोंस का प्रपात ट्रिगर कर देता है.सौंदर्य के प्रचलित और पारंपरिक व्याकरणों में इस तरह के नियम बहुत आम है कि चेहरे पर बना कोई तिल या मस्सा खूबसूरती को बढ़ा या घटा देते है.पर क्या वो सब जो उत्तेजक और मादक है उनके लिए भी कुछ इसी तरह का कसा हुआ व्याकरण है? या फिर, योंग हाइ का बहनोई अपने नियमों की किताब खुद लिख रहा था? किताब का पहला भाग योंग और उसके पति के बारे में है. उसके पति को योंग एक बेहद औसत युवती ही लगती थी.त्वचा से बीमार, उभरी हुई दिखती गालों की हड्डियां.कुल मिलाकर एक अनाकर्षक व्यक्तित्व था उसके पति की नज़र में योंग का. उसके लिए वो पत्नी थी.उसकी इच्छाओं का साथ देने वाली.वो इच्छाएं उपजाती नहीं थीं. बस पति जब प्रोविज़ंस से भरे कैरी बैग्स के साथ अपनी लालसाओं से भी लदा रात को घर आता था तो वो उसका तमाम बोझ उतार देती थी. सवाल ये है कि योंग का पति जब उसके साथ ज्वार में डूबता उतराता था तब क्या उसने उस मंगोलियन मार्क पर अपनी नज़रें नहीं टांकी थी? पति की नज़र में योंग हाइ का औसतपन उसके नितम्ब पर बने निशान के साथ ही था. यानि वो निशान अगर हट जाए
तब भी वो औसत ही थी. और रख लें तब भी वो एक आम, साधारण, 'कुछ ख़ास नहीं' टाइप युवती थी. उसके लिए उसका निशान भी अस्तित्व ही नहीं रखता था.

एक तरफ़ योंग हाइ लगातार अपनी देह को लेकर बेपरवाह हो रही थी दूसरी ओर उसका निशान किसी के लिए एक वेगवान न्यौता बनता जा रहा था.एक गुप्त निमंत्रण.एक चोर निमंत्रण. क्योंकि एक चोर निमंत्रण ही ताकतवर निमंत्रण होता है. ये बेहद निजी और बुलावे की वास्तविक इच्छा पर आधारित होता है.
ऐसा आवेगों से भरा न्यौता जो उसके जीजा के लिए एक ऐसा दंश बन गया था जिसे उतार फेंकना था, किसी भी तरह. कम से कम एक बार.



शरीर पर बने ये निशान दैहिक भाषा की जटिल अभिव्यक्तियाँ हैं.


इस तरह के निशान जितना भी कुछ कहते हैं उसका अनुवाद आदमी अपनी समझ की भाषा में अपने उपकरणों से करता है.हर अनुवाद में कुछ न कुछ छीजत ही होती है, ज़रूरी नहीं. कभी कभी मूल से व्यापक जोड़ लिया जाता है. पर ज़ाहिर है, ये काम पेचीदा बहुत है.

जब हरेक का अपना अनुवाद है तो इस तरह के निशान हर आदमी में एक जैसी प्रतिक्रिया तो नहीं ही पैदा करते होंगे, और ऐसे देह चिन्हों की भौगोलिक स्थिति भी रिस्पोंसेज़ की भिन्नता का कारक होतीं होंगी, पर जिन लोगों को भी इस तरह के 'मार्क' में कुछ ख़ास नज़र आता है,क्या वो लोग एक जैसी होती दुनिया में कुछ ख़ास को देखकर उसे एक अलग दर्ज़ा देना चाहते है? ये क्या औसत के प्रति विद्रोह है? या साधारण को असाधारण गरिमा प्रदान करना है?

हम शक्ल से भले दूसरे लोगों से अलग दिखते हों पर गणित के लिहाज़ से हम अपने सजातीय लोगों से सिर्फ रंग और अनुपात में ही कुछ अलग होते है.क्या ऐसे में इस तरह के निशान ही ख़ास पहचान का अहसास कराते हैं?

इस तरह का टेढ़ा चिंतन जोख़िम भरा है. और गोर्बच्यौफ़ और योंग हाई को साथ रखना और भी जोखिम भरा. इन दोनों में समानता सिर्फ एक दाग़ भर है,पर असमानता की खाई शायद बहुत बड़ी है. 

Sunday, July 24, 2016

इकतरफा यात्राएं


यात्राओं में घर लौटने का सुकून भी शामिल होता है.हमारी यात्राओं में घर भी हमारे साथ चलता है, अपनी तमाम सम्पूर्णता के साथ. किताबें चिट्ठियाँ नौकरी लोन दोस्तियाँ प्रेम सब कुछ शामिल रहता है हमारी यात्राओं में.और जो कुछ, जितना कुछ छूट जाता है उसे लौटते ही फिर से पा लेने का भरोसा बना रहता है यात्राओं में.

यात्राओं में असल में हम जितना कहीं जा रहे होते हैं उतना ही लौट भी रहे होते है.यात्रा में हम घूमने ही तो जाते है.यानी घूम कर वापस आने के लिए.

किसी यात्रा में जितनी अनिवार्यता कहीं जाने की होती है उतनी ही वापस लौटने की भी होती है.बल्कि मुझे लगता है लौट आने की कुछ ज्यादा.

यात्रा असल में वापस लौटना ही है.
फिर हम किसी ऐसी जगह जाने को जहां से हम पुनः लौटने वाले नहीं,क्या कहेंगे?

चाँद पर जाना यात्रा है.हम वहां से वापस लौटते है.
मंगल पर जाना यात्रा है.वहां से हमारा लौटना संभावित है.

पर सबसे नज़दीकी तारे पर जाने को क्या कहेंगे? जहां तक पहुँचने में प्रकाश को भी कुछ बरस कम से कम लग जाते है.

सुविधा के लिए इसे भी यात्रा कह लेते है.

पूरी पृथ्वी पर कई साल घूमने के बाद भी मार्को पोलो आखिर घर पहुँचता है.
वो जब रवाना हुआ तभी से उसके पास लौटने का नक्शा था.
इतालो काल्विनो की 'इनविजिबल सिटीज़'में किस तरह से वो कुबलई खान को सुदूर बसे किन्हीं असंभव शहरों के बारे में बताता है.पर असल में तो वो हर बार सिर्फ वेनिस के बारे में बारे में ही बता रहा होता है.वो किसी भी हालत में घर लौटने के विकल्प को खोना नहीं चाहता.

क्या हम यात्राओं में किसी शहर में अपने क़स्बे को ही तलाश रहे होते है?

मुग़ल फौजों का नेतृत्व कर रहे जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को अफ़ग़ानिस्तान में भी अपने देस की झाड़ी 'फोग' दिख गयी थी.या शायद वो उस भूगोल में फोग को ही ढूंढ रहे थे.

हमें अपनी जगह,शहर,गाँव या क़स्बे का गुरुत्व खींचता है.
अपने क़स्बे के गुरुत्व से छूटने का पलायन वेग हमें जब धकेलता है तो हम अनजान भूमि पर भागते ख़ुद को पाते है.

एक सपने में मैंने ठण्ड से जमे एक गाँव के शराबघर में ख़ुद को पाया.
वहां कोई पांचेक एस्किमोज़ भी थे.मैं समझ गया कि ये इकतरफा यात्रा है.यहाँ से लौटना तो संभव नहीं ही है, यहाँ कहीं टिकना भी सोच से परे है.इन 'यात्राओं' में कहीं स्लेज पर भागता हूँ तो पता रहता है इस बर्फ का कोई अंत नहीं.

और..गर्म हवाओं में लिपटे किसी देश में महीनों रेत पर सरकते ऊँटों के काफिले में हूँ तो पता है कि रेत धरती के अंतिम छोर तक है और चलते जाना है.

नमक बेचने वाले बंजारे का सुकून अपनी परछाई को अपने साथ भागते देखने में है. वो शायद ही कभी दुबारा नमक बेचने इस गाँव आएगा.अगर कोई आएगा तो वो दूसरा बंजारा होगा.इस धरती पर वो बरसों से घूमता फिर रहा है, उसके लिए पृथ्वी कभी गोल नहीं थी. वो पृथ्वी को एक सीधी सड़क मानता रहा है. उसके लिए जाना परिक्रमा नहीं है.

सब उस सड़क पर नहीं जाते जिस पर जिप्सी चलता है. बल्कि कोई उस सड़क पर नहीं चलता जिस पर जिप्सी चलता है.

जिस सड़क पर जिप्सी चलता है उस सड़क पर दूसरा कोई भी जिप्सी ही चलता है.