रूस में खुलेपन और पुनर्निर्माण के अग्रदूत मिखाइल गोर्बच्यौफ़ के गंजे सर पर एक दाग़ नुमाया होता था.ये दाग़ उनके नज़र आने से पहले ही नज़र आता था. मैंने पहली बार तो यही सोचा था कि किसी कबूतर ने बीट कर दी है. अगली बार फिर नज़र आने पर यही सोचा, टीवी में कुछ गड़बड़ है. फिर जब अख़बारों और पत्रिकाओं में उनके फोटो पर भी वो निशान नज़र आने लगा तब जाकर लगा कि कुछ चमड़ी की बीमारी से सम्बंधित बात होगी. अरसे तक मैं ये बात भूल गया था.
दुनिया तो खैर गोर्बच्योफ़ को ही भूल गयी थी.
फिर ये बात कहाँ से फिर उठ गयी ?
अभी हान कांग की किताब 'द वेजीटेरियन' पढ़ रहा था. तीन भागों में बंटी ये छोटी सी किताब एक दुःस्वप्न के कारण शाकाहारी बनी एक विवाहिता युवती 'योंग हाई' के हाथ से इस दुनिया के धीरे धीरे छूटते जाने की कहानी है. सैनिटी से निकल कर इन्सेन होने का रास्ता कितना छोटा होता है ! जैसे बस एक कमरे से निकल कर दूसरे कमरे में ही जाना हो.कभी कभी तो जैसे सिर्फ एक देहरी से बाहर कदम भर रखना हो.इस तरफ से उस तरफ का शिफ्ट.
उपन्यास के दूसरे अध्याय 'मंगोलियन मार्क' में ज़िक्र आता है कि योंग हाई का बहनोई अपनी साली के नितम्ब पर बने जन्मजात मंगोलियन मार्क के बारे में सोच कर उत्तेजना से भर जाता है. योंग हाइ की देह के ढंके हिस्से पर बना एक नीला सा निशान उस आदमी के मन में होरमोंस का प्रपात ट्रिगर कर देता है.सौंदर्य के प्रचलित और पारंपरिक व्याकरणों में इस तरह के नियम बहुत आम है कि चेहरे पर बना कोई तिल या मस्सा खूबसूरती को बढ़ा या घटा देते है.पर क्या वो सब जो उत्तेजक और मादक है उनके लिए भी कुछ इसी तरह का कसा हुआ व्याकरण है? या फिर, योंग हाइ का बहनोई अपने नियमों की किताब खुद लिख रहा था? किताब का पहला भाग योंग और उसके पति के बारे में है. उसके पति को योंग एक बेहद औसत युवती ही लगती थी.त्वचा से बीमार, उभरी हुई दिखती गालों की हड्डियां.कुल मिलाकर एक अनाकर्षक व्यक्तित्व था उसके पति की नज़र में योंग का. उसके लिए वो पत्नी थी.उसकी इच्छाओं का साथ देने वाली.वो इच्छाएं उपजाती नहीं थीं. बस पति जब प्रोविज़ंस से भरे कैरी बैग्स के साथ अपनी लालसाओं से भी लदा रात को घर आता था तो वो उसका तमाम बोझ उतार देती थी. सवाल ये है कि योंग का पति जब उसके साथ ज्वार में डूबता उतराता था तब क्या उसने उस मंगोलियन मार्क पर अपनी नज़रें नहीं टांकी थी? पति की नज़र में योंग हाइ का औसतपन उसके नितम्ब पर बने निशान के साथ ही था. यानि वो निशान अगर हट जाए
तब भी वो औसत ही थी. और रख लें तब भी वो एक आम, साधारण, 'कुछ ख़ास नहीं' टाइप युवती थी. उसके लिए उसका निशान भी अस्तित्व ही नहीं रखता था.
एक तरफ़ योंग हाइ लगातार अपनी देह को लेकर बेपरवाह हो रही थी दूसरी ओर उसका निशान किसी के लिए एक वेगवान न्यौता बनता जा रहा था.एक गुप्त निमंत्रण.एक चोर निमंत्रण. क्योंकि एक चोर निमंत्रण ही ताकतवर निमंत्रण होता है. ये बेहद निजी और बुलावे की वास्तविक इच्छा पर आधारित होता है.
ऐसा आवेगों से भरा न्यौता जो उसके जीजा के लिए एक ऐसा दंश बन गया था जिसे उतार फेंकना था, किसी भी तरह. कम से कम एक बार.
शरीर पर बने ये निशान दैहिक भाषा की जटिल अभिव्यक्तियाँ हैं.
इस तरह के निशान जितना भी कुछ कहते हैं उसका अनुवाद आदमी अपनी समझ की भाषा में अपने उपकरणों से करता है.हर अनुवाद में कुछ न कुछ छीजत ही होती है, ज़रूरी नहीं. कभी कभी मूल से व्यापक जोड़ लिया जाता है. पर ज़ाहिर है, ये काम पेचीदा बहुत है.
जब हरेक का अपना अनुवाद है तो इस तरह के निशान हर आदमी में एक जैसी प्रतिक्रिया तो नहीं ही पैदा करते होंगे, और ऐसे देह चिन्हों की भौगोलिक स्थिति भी रिस्पोंसेज़ की भिन्नता का कारक होतीं होंगी, पर जिन लोगों को भी इस तरह के 'मार्क' में कुछ ख़ास नज़र आता है,क्या वो लोग एक जैसी होती दुनिया में कुछ ख़ास को देखकर उसे एक अलग दर्ज़ा देना चाहते है? ये क्या औसत के प्रति विद्रोह है? या साधारण को असाधारण गरिमा प्रदान करना है?
हम शक्ल से भले दूसरे लोगों से अलग दिखते हों पर गणित के लिहाज़ से हम अपने सजातीय लोगों से सिर्फ रंग और अनुपात में ही कुछ अलग होते है.क्या ऐसे में इस तरह के निशान ही ख़ास पहचान का अहसास कराते हैं?
इस तरह का टेढ़ा चिंतन जोख़िम भरा है. और गोर्बच्यौफ़ और योंग हाई को साथ रखना और भी जोखिम भरा. इन दोनों में समानता सिर्फ एक दाग़ भर है,पर असमानता की खाई शायद बहुत बड़ी है.
दुनिया तो खैर गोर्बच्योफ़ को ही भूल गयी थी.
फिर ये बात कहाँ से फिर उठ गयी ?
अभी हान कांग की किताब 'द वेजीटेरियन' पढ़ रहा था. तीन भागों में बंटी ये छोटी सी किताब एक दुःस्वप्न के कारण शाकाहारी बनी एक विवाहिता युवती 'योंग हाई' के हाथ से इस दुनिया के धीरे धीरे छूटते जाने की कहानी है. सैनिटी से निकल कर इन्सेन होने का रास्ता कितना छोटा होता है ! जैसे बस एक कमरे से निकल कर दूसरे कमरे में ही जाना हो.कभी कभी तो जैसे सिर्फ एक देहरी से बाहर कदम भर रखना हो.इस तरफ से उस तरफ का शिफ्ट.
उपन्यास के दूसरे अध्याय 'मंगोलियन मार्क' में ज़िक्र आता है कि योंग हाई का बहनोई अपनी साली के नितम्ब पर बने जन्मजात मंगोलियन मार्क के बारे में सोच कर उत्तेजना से भर जाता है. योंग हाइ की देह के ढंके हिस्से पर बना एक नीला सा निशान उस आदमी के मन में होरमोंस का प्रपात ट्रिगर कर देता है.सौंदर्य के प्रचलित और पारंपरिक व्याकरणों में इस तरह के नियम बहुत आम है कि चेहरे पर बना कोई तिल या मस्सा खूबसूरती को बढ़ा या घटा देते है.पर क्या वो सब जो उत्तेजक और मादक है उनके लिए भी कुछ इसी तरह का कसा हुआ व्याकरण है? या फिर, योंग हाइ का बहनोई अपने नियमों की किताब खुद लिख रहा था? किताब का पहला भाग योंग और उसके पति के बारे में है. उसके पति को योंग एक बेहद औसत युवती ही लगती थी.त्वचा से बीमार, उभरी हुई दिखती गालों की हड्डियां.कुल मिलाकर एक अनाकर्षक व्यक्तित्व था उसके पति की नज़र में योंग का. उसके लिए वो पत्नी थी.उसकी इच्छाओं का साथ देने वाली.वो इच्छाएं उपजाती नहीं थीं. बस पति जब प्रोविज़ंस से भरे कैरी बैग्स के साथ अपनी लालसाओं से भी लदा रात को घर आता था तो वो उसका तमाम बोझ उतार देती थी. सवाल ये है कि योंग का पति जब उसके साथ ज्वार में डूबता उतराता था तब क्या उसने उस मंगोलियन मार्क पर अपनी नज़रें नहीं टांकी थी? पति की नज़र में योंग हाइ का औसतपन उसके नितम्ब पर बने निशान के साथ ही था. यानि वो निशान अगर हट जाए
तब भी वो औसत ही थी. और रख लें तब भी वो एक आम, साधारण, 'कुछ ख़ास नहीं' टाइप युवती थी. उसके लिए उसका निशान भी अस्तित्व ही नहीं रखता था.
एक तरफ़ योंग हाइ लगातार अपनी देह को लेकर बेपरवाह हो रही थी दूसरी ओर उसका निशान किसी के लिए एक वेगवान न्यौता बनता जा रहा था.एक गुप्त निमंत्रण.एक चोर निमंत्रण. क्योंकि एक चोर निमंत्रण ही ताकतवर निमंत्रण होता है. ये बेहद निजी और बुलावे की वास्तविक इच्छा पर आधारित होता है.
ऐसा आवेगों से भरा न्यौता जो उसके जीजा के लिए एक ऐसा दंश बन गया था जिसे उतार फेंकना था, किसी भी तरह. कम से कम एक बार.
शरीर पर बने ये निशान दैहिक भाषा की जटिल अभिव्यक्तियाँ हैं.
इस तरह के निशान जितना भी कुछ कहते हैं उसका अनुवाद आदमी अपनी समझ की भाषा में अपने उपकरणों से करता है.हर अनुवाद में कुछ न कुछ छीजत ही होती है, ज़रूरी नहीं. कभी कभी मूल से व्यापक जोड़ लिया जाता है. पर ज़ाहिर है, ये काम पेचीदा बहुत है.
जब हरेक का अपना अनुवाद है तो इस तरह के निशान हर आदमी में एक जैसी प्रतिक्रिया तो नहीं ही पैदा करते होंगे, और ऐसे देह चिन्हों की भौगोलिक स्थिति भी रिस्पोंसेज़ की भिन्नता का कारक होतीं होंगी, पर जिन लोगों को भी इस तरह के 'मार्क' में कुछ ख़ास नज़र आता है,क्या वो लोग एक जैसी होती दुनिया में कुछ ख़ास को देखकर उसे एक अलग दर्ज़ा देना चाहते है? ये क्या औसत के प्रति विद्रोह है? या साधारण को असाधारण गरिमा प्रदान करना है?
हम शक्ल से भले दूसरे लोगों से अलग दिखते हों पर गणित के लिहाज़ से हम अपने सजातीय लोगों से सिर्फ रंग और अनुपात में ही कुछ अलग होते है.क्या ऐसे में इस तरह के निशान ही ख़ास पहचान का अहसास कराते हैं?
इस तरह का टेढ़ा चिंतन जोख़िम भरा है. और गोर्बच्यौफ़ और योंग हाई को साथ रखना और भी जोखिम भरा. इन दोनों में समानता सिर्फ एक दाग़ भर है,पर असमानता की खाई शायद बहुत बड़ी है.
Assimilation of ideas with two kinds of marks and giving them unique status is a kind of challenge to the set norms and it is like throwing a heavy stone in the placid water. Mr Vyas the ripples the water have cast a nice impact.
ReplyDeleteBrovo
किताब कहाँ से खरीद सकते हैं?
ReplyDeleteमैंने अमेज़न से मंगवाई थी.
Deleteथैंक्स अनिल भाई.
किताब कहाँ से खरीद सकते हैं?
ReplyDeleteओह! ऐसे भी देखते हैं चीज़ों को...ह्म्म्म
ReplyDeleteशक्रिया प्रतिभा जी.आपके आने से हिंदी ब्लॉगिंग के ऊर्जा भरे दिनों की याद हो आई.
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteDesires and lust ... both triggers most of the time by very unusual things... especially in those who lives in different imaginary world of their own.
ReplyDeleteYou put it beautifully. Thanks.
Deleteअसल फ़र्क दरअसल नज़रिए का है।सबका अपना एक इच्छा लोक,अपनी ख़ब्त, अपनी क्षुधा, अपनी तृष्णा।
ReplyDeleteयह बहुत हैरतअंगेज है
जी सहमत.
Deleteबहुत सुंदर लेखन सर । शब्द अपने आप में एक यात्रा कराते नज़र आते है ।
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