(अपनी पहले की एक कहानी पर काफी काम बाकी था, सो करके और पुनः पोस्ट कर रहा हूँ.)
उम्र उसकी गहरे, बेहद गहरे कुएं से पानी खींचने वाली रस्सी की तरह थी. लंबी, बहुत लंबी. चेहरा उसका सुदूर अतीत में कभी बसे और उजड़े फिर कभी न बसे गाँव की तरह था. खंडहर. धराशायी. घर में उसके दो ही जने थे. वो ख़ुद और सन्नाटा. सन्नाटा, मकान की पुरानी दीवारों से टकराता- चक्कर खाता. एक बेहद सूने घर में वो वृद्ध जैसे ख़त्म हो चुकी दुनिया में बचा अकेला विजेता था. सच में बाहर की दुनिया उसके लिए अप्रासंगिक थी. अंदर की दुनिया उसकी अपनी थी. अपनी तरह की. उसने अपने ज़माने में पायी जाने वाली विकराल किस्म की बीमारियों को पछाड़ा था. प्लेग, चेचक, टीबी और न जाने कौन कौनसी. वो सच में अपनी तरह का अंतिम विजेता ही था. उम्र को भी उसने खींच कर लंबा कर लिया था.पर उसके छोड़े निशान उसके शरीर पर हर जगह नुमाया थे. शायद इनकी उसे परवाह भी नहीं थी. असल में देखा जाय तो उसका शरीर कुल मिलाकर दिनों और बरसों का ही समुच्चय था. ठोस हाड मांस जैसा उसमें कुछ भी दिखता नहीं था. वो एक समय से भरा इंसान था. वो एक उम्र था.
उम्र के अलावा जो उसके जिस्म में स्थाई रह गयी थी वो थी सर्दी. किसी सर्दी में ठण्ड उसकी हड्डियों में इस कदर घुस गयी थी कि वो हर वक्त, गर्मियों में भी, कोट पहने रहता था. कोट क्या था एक अनगढ़ सा आवरण था जिसे उसने रजाई फाड़कर बनाया था. घर में भी अक्सर वह अपने सबसे अंदर वाले कमरे में रहता था.शैय्याबद्ध. पिछले कुछ हर अरसे या बरसों से घर में भी वो और अन्दर घुसता जा रहा था. पहले वो किसी कमरे में जाता तो बाहर भी निकल आता था पर इन सालों में वो घर के अन्दर वाले कमरे में घुसता तो कई दिनों तक बाहर नहीं दिखता था.इसी कमरे में एक बड़ी विचित्र सी तस्वीर थी. गणेश जी की. तस्वीर में विशालकाय मूषक के पीछे गणेश जी का वामन सा रूप था. कह नहीं सकते कि ये चित्रकार की गलती का परिणाम था या उसकी सनक का. इसके पीछे कोई भारी फलसफा होगा इसकी संभावना कम ही थी.
एक छोटा तहखाना भी था घर में जो हमेशा बंद ही रहता था. इसमें बूढ़े के किसी निकट पूर्वज का भूत रहता था. निकट पूर्वज यानी उसके पड़दादा के भाई जिनकी शादी नहीं हो पायी थी और वे अविवाहित ही मर गए थे. ज़रूर अपनी उम्र लेकर ही मरे होंगे पर शादी नहीं हो पाई थी उनकी. उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें शादी को लेकर ज़बरदस्त उत्साह था. वे बचपन से ही शादी की हसरत पाले हुए थे. जवान होने तक तो ये हसरत सपनों की इमारतें खड़ी करती रही. पर वे जिससे शादी करना चाहते थे वो न सिर्फ किसी और की ब्याहता हो गयी बल्कि शादी करके अपने पति के साथ उस दूर देश चली गयी जहां वो कमाता था. उसके बाद उन पूज्य पूर्वज के सपनों के महलात धराशायी हो गए. उन्हें लग गया कि शादी अब इससे संभव नहीं तो फिर किसी से न सही. उन्होंने अपने भाई के बच्चों में मन लगाना शुरू किया. और आखिर अपने भाई से ये वादा लेकर इस दुनिया से गए कि उनकी अस्थियों को गंगा जी में बहाने का जिम्मा उसके वंशजों का होगा. चाहे ये काम पूरा होने में कितने ही बरस लग जाए पर होगा ज़रूर. जब मृत्यु को कई बरस गुज़र गए और इस बूढ़े के इस पूर्वज को लगा कि उसका मोक्ष कहीं लंबित न रह जाय तो उसने बूढ़े यानी अपने भाई- भतीजों के वंशज को आगाह करने की ठानी.और वो अलग अलग तरीकों से बूढ़े को तंग करने लगा. रात की दुर्लभ नींद में खलल. या खाने के सामान में बदमाशी. अचार में फफूंद लगा देना. तस्वीरों को उल्टा कर देना वगैरा वगैरा. इस तरह घर के तहखाने का दरवाज़ा इस तरह खुला. असल में उस पूर्वज की अस्थियां भी उसी तहखाने में रखी थीं, वर्षों से.खूँटी पर पोटली में टंगी. गंगाजल में गलने के इंतज़ार में. बहुत अरसे तक कुछ जोग बन नहीं पाया उन हड्डियों को हरिद्वार ले जाने का. जब मुक्तिकामी भूत तहखाने में बंद किये जाने का विरोध कुछ ज्यादा ही करने लग गया और उसकी व्यग्रता काफी बढ़ गयी और उसी अनुपात में उसके उत्पात भी तो वृद्ध ने हरिद्वार जाने का निश्चय कर ही लिया.एक और बात हुई जिसने वृद्ध के हरिद्वार जाने के निर्णय को अंतिम और पक्का बना दिया और वो बात थी निकट पूर्वज के भूत का बोलना.
एक दिन वृद्ध खाना खा रहा था. और भुनभुना रहा था. ज़ाहिर तौर पर वो अपने निकट पूर्वज पर ही क्रुद्ध था. ‘ आप हर चीज़ खराब कर रहे है. आटे में कीड़े पड़ने लग गए है. पानी बेस्वाद हो गया है. अचार में फूलण (फफूंद) पड़ गयी. घर पूरा दुर्गन्ध से भर दिया. ऐसा क्यों कर रहे है आप?’
और फिर वो हुआ जिसका कतई इल्म नहीं था वृद्ध को.
भूत तहखाने के भीतर से बोल पडा. बल्कि फट पडा.
“ तुम मुझे हरिद्वार क्यों नहीं ले जा रहे"
आवाज़ साफ़ तौर पर तहखाने के भीतर से ही आई थी. वृद्ध अवाक हो गया. रोटी का कौर हाथ में ही रह गया. मुंह बोलने के लिए खुला पर खुला का खुला ही रह गया. ये एक ऐसी स्थिति थी जिसकी उसने कल्पना नहीं की थी. भूत की हरकतों तक तो ठीक था पर उसका बोल पड़ना ! अब सब कुछ संदेह के परे था. ऐसा कभी हुआ नहीं था. तमाम प्रेतोचित हरकतें कहीं न कहीं गुंजाईश छोड़तीं थीं. कि शायद ये भूत की हरकत हो. शायद न हो और मन का वहम ही हो. या इसका कारण जरावस्था से उपजा मतिभ्रम हो.पर अभी अभी जो ‘कहा’ गया था उसने तो उसके मन के दरवाज़े खोल दिए थे. बल्कि तोड़ डाले थे. उसे तुरंत इस मोक्षकामी आत्मा के लिए कुछ करना था. उसने उठकर हाथ धोये और उसी वक़्त हरिद्वार रवाने होने का निश्चय कर लिया. बेशक वो तुरंत रवाना नहीं हो पाया पर हरिद्वार जाना एक दम तय हो गया.
तो इस तरह आखिर तहखाने का दरवाज़ा खुला. जब खुला तो अरसे से बंद पड़े वक्त की धूल गिरने लगी. तहख़ाना अलग अलग पीढ़ियों के वक़्त का बेतरतीब संग्रहालय था. वो धूल और अँधेरे से भरा था और उसमें कई तरह की चीज़ें पड़ी थीं जो उदासीन भाव से शून्य में ताक रही थीं. चीज़ें संदूकों और थैलों में ठुंसी थी और बरसों की उपेक्षा के बाद अब ऐसी ही पड़ी रहना चाहती थीं. वे इस जिद से भरी थीं कि अब उन्हें इसी तरह पड़ा रखा जाय, और कहीं सरकाया तक न जाय.
निकट पूर्वज की अस्थियाँ पोटली में बंद किसी खूँटी पर टंगी थीं. निकट पूर्वज को भले मोक्ष की पड़ी थी, उनकी अस्थियां ऐसी ही शेष रहते समय तक टंगी रहना चाहती थीं. स्थगन में या विलंबित निलंबन में जैसे संतोष महसूस हो रहा हो उन्हें!
पर उन्हें खूँटी से उतारा गया.
और अस्थियों की पोटली थामे वृद्ध अकेले ही हरिद्वार के सफर पर निकल पड़ा. टिकट अलबता उसे दो खरीदनी पड़ी,एक खुद उसकी और एक उस सहयात्री की जिसकी अस्थियां उसके पास थीं. इस संक्षिप्त यात्रा ने आगे चलकर बहुत बड़े बदलाव लाये. बूढ़ा अपने घर में मस्त था और बाहर की दुनिया से बेपरवाह था. वो अपने को बाहरी संसार से इम्यून मानता था. उसे लगता था बाहर के लोगों को उसमें क्या दिलचस्पी हो सकती है! पर ठीक ठीक ऐसा था नहीं. बाहर के लोगों की अनगिन आँखें वृद्ध के घर की दीवारें भेद कर अंदर झांकना चाहती थी. बाहर की दुनिया उसके बारे में जानने के लिए बड़ी डेस्पेरेट थी. और जैसे ही वो अस्थियाँ लेकर हरिद्वार निकला उसे लेकर लोगों की कई पूर्व धारणाएं खंडित होने लगी. लोग जो पहले उसे ही अश्वत्थामा समझने लगे थे,अब ये मानने लगे कि ये भी इसी लोक का है, नश्वर है और आम लोगों की तरह ही मोक्षकामी भी. जब उसे अपने पूर्वज के मोक्ष की चिंता है तो अपने की भी होगी ही. और लोग मानने लगे कि ये वृद्ध भी एक दिन इस दुनिया से ज़रूर जायेगा. उसके इस लोक से जाने के बाद भी उसका घर बना रहेगा. इस पुराने घर में जीवन का शोर रहा है.इस पुराने घर में कई पीढ़ियों से लोगों का निरंतर वास रहा है. इस घर में एक परिवार का आखरी सदस्य अब रह रहा है. इस घर से लोग ज़रूर विदा होते गए है, घर का सामान बाहर जाते किसी ने देखा नहीं है.
और पड़ौस के लोग उसके घर में आने के बहाने तलाशने लगे. एकदम से कुछ रिश्तेदार भी पनप गए. बाहर की दुनिया की रूचि उसमें बढ़ गयी. बरगद की जड़ें घर की दीवारों में पसरने लगी.
वृद्ध हरिद्वार में जिस काम के लिए आया था वो हो जाने पर काफ़ी हल्का महसूस करने लगा. घर से इतनी दूर आने के बाद उसकी इच्छा अब घूमने की हुई. वो हरिद्वार- ऋषिकेश घूम लिया. पर उसका मन नहीं भरा. वो दिल्ली आ गया. दिल्ली शहर को देखकर उसकी आँखे फटी रह गयी. इतना बड़ा और लोगों से भरा शहर. ऊंची मीनार, किले, मकबरे, पुरानी भारी भरकम इमारतें ! उसके भीतर ज़िन्दगी का राग बजने लगा. वो चांदनी चौक में तरह तरह के भोजन का आनंद लेने लग गया. घर में वो अब तक कितना बेस्वाद खाना खा रहा था इसका अहसास उसे यहाँ उसे हुआ. असल में खाने को लेकर अब तक उसकी कोई दिलचस्पी थी ही नहीं पर अब उसे लगा भोज्य पदार्थों की भी एक अलग ही सृष्टि है.पके हुए अन्न की खुश्बू घ्राण संवेदनों को नया जीवन ही जैसे दे रही थी.जल्द ही जितने पैसे साथ लाया था वो ख़त्म हो गए. उसने पैसों को इस तरह खर्च करने के बारे में सोचा ही कहाँ था? बुरा सा मुंह बनाते हुए, भारी मन से वो वापस लौट गया.
रिश्तेदारों को लगता था कि बूढ़े ने ज़रूर सोने चांदी की मुद्राएं संग्रहीत कर रखी हैं. और अपने संग्रह को उसने अपने पूर्वजों के संग्रह में मिला लिया होगा इससे कम से कम मुद्रा की एक बड़ी हांड़ी तो ज़रूर भर गई होगी. और कि ये दिन उससे नजदीकियां बनाए के लिए सबसे मुफीद हैं. आखिर सिक्कों की हांडी का कोई तो वारिस बनेगा.
बात सच थी. बूढ़े के पास वास्तव में एक पुरानी हांडी में मुद्राएं थीं.पर उसका ध्यान अब तक इस ओर नहीं गया था. अब लोगों की दिलचस्पी उसमें बढ़ गयी थी, तो वो भी कुछ कुछ समझने लगा. अब तक हांडी कमरे की टांड पर अकेली आत्ममुग्ध सी ही पड़ी थी. द्रव्य-गर्विता. जिस हांडी में दही होना चाहिए या जिसके चेहरे पर चूल्हे की धुंआती आग की कालिख होनी चाहिए उसमें चमकती धातु अपना बसेरा करे तो कौन नहीं इतराएगा? पर बूढ़े को इस हांडी से कोई खास लगाव नहीं रहा था. अभी भी नहीं था. पर उसके हरिशरण होने की संभाव्यता ने बूढ़े को हांडी के भविष्य के प्रति आशंकित कर दिया. उसके बाद ये हांडी किसी न किसी को तो मिलकर रहेगी.उसे इस द्रव्य- राशि को अलोप करने का कोई मंतर नहीं आता था. पर जो धन उसके अपने परिजनों को काल कवलित होने से बचा नहीं पाया उसमें इतनी ताकत कहाँ से आती कि वो कुछ लोलुपों के क्षुद्र स्वार्थ की भेंट चढने से ख़ुद को रोक पाता. वृद्ध के सामने ये स्थिति थी कि उसके बाद वो हांडी किसी योग्य/योग्य, भले/बुरे सद्यः उत्पन्न वारिस के पास जाने वाली थी. इच्छुक वारिस उसके घर के आसपास तो मंडराने लग ही गए थे. यह उस अंतिम विजेता यानी वृद्ध को कुछ स्वीकार नहीं हुआ. वो उन आवेदक वारिसान के घर में प्रवेश को कितने दिन रोक पाता? कभी न कभी इस घर में उसके बाद भी कोई तो ज़रूर आ ही जायेगा.चाहे वो कितना ही दुत्कारे, लोग उसके जाने के बाद घर में घुसेंगे ही. ख़ाली घर ख़ुद ही बुला लेगा.
उसने पहले पहल तो सोचा कि वो हांडी के धन को खर्च कर दे. पर मुद्राएं ज्यादा थीं और उसकी आवश्यकताएं और विलास सीमित. वो दान के पक्ष में हरगिज़ नहीं था.काफी विचार के बाद भी वो किसी नतीजे पर पहुँच नहीं सका. पर एक दिन ऐसे ही बैठे बैठे एक विचार ने उसे काट खाया. और उसने एक निश्चय कर लिया.
उसने अपने बचे दिनों में इस स्वर्ण-रजत मुद्रा हांडी को ब्रह्माण्ड के ऐसे आयाम की भूल भुलैया में गुमकर देने की ठानी जो फिर सबके लिए अलभ्य हो जाय.
दुनिया,ईश्वर, रोग, दारिद्रय ये सब किसकी माया थे ये तो वो नहीं जानता था पर अब तक उसे चुनौती ही पेश करते रहे और वो जीत कर भी अपने कमज़ोर होने को जानता रहा. एक ऐसा शिकार जो अपने शिकारी को लंबी दूरी तक छकाता रहा.पर था वो शिकार ही, होना अंततः उसे शिकार होना ही था. वो चुनौतियों से जीतता भले ही रहा था पर दर पेश चुनौतियों से थक भी चुका था. आज तक पलट कर उसने किसी को किसी भी प्रकार की चुनौती नहीं दी थी पर अब उसकी तरफ से यही चुनौती थी कि आ जाए कोई भी और ढूंढ कर दिखा दे हांडी.
और अब उसके दिन रात यही सोचने में लग गए कि उसे इस हांडी के साथ ऐसा कुछ करना है कि कोई भी चाहे तो इसे कभी ढूंढ न पाए. चाहे इसके लिए उसे इसे गाड़ना पड़े, फेंकना पड़े, आग में गला देना पड़े या कुछ और पर उसे अपने आप से ये वाद किया कि इस हांडी को वो इस तरह ठिकाने लगाएगा कि उसे कोई भी कभी भी ढूंढ न पाए.
रहस्य रोमांच का संचार करती सुन्दर कहानी। सच में एक अकेले रह रहे, अकेले विचार करने वाले जीवन का हश्र एक रहस्य को ही प्राप्त होता है।
ReplyDeleteशुक्रिया विकेश जी हमेशा हौसलाअफज़ाई करते रहने के लिए.
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