ये दिन छुट्टी का था, शाम को सपरिवार प्रोग्राम बना कि आज अचलनाथ चला जाय। ये जोधपुर का मशहूर और अपेक्षाकृत प्राचीन शिव मन्दिर है। यहाँ सावन के महीने में और शिवरात्रि पर खूब भीड़ रहती है। ये दिन भी शायद सावन के महीने का ही था। शहर के परकोटे के अन्दर आए हुए होने से यहाँ पहुँचना और वो भी सावन के महीने में एक चुनौती रहती है। मन्दिर के बाहर उपलब्ध जगह में वाहनों कि भीड़ के अलावा पूजा का सामान बेचने वाले और कुल्फी वालों के ठेले भी थे।
मन्दिर दो तीन शताब्दी पुराना बताया जाता है पर अपने मूल में भी ये एक विनम्र आवास सहित पूजा स्थल रहा होगा क्योंकि अब इसकी प्राचीनता इसकी नीवों में ही सिमट कर रह गई है। भारत में निरंतर पूजा होने वाले मंदिरों के शिल्प के साथ कैसा खिलवाड़ होता है ये किसी से छुपा नहीं है।
तो मन्दिर के अन्दर हम चार पहुंचे। मैं, मेरी पत्नी, मेरी बेटी भार्गवी और हिरल। परिसर में एक स्थान पर हो रहे मुख्य दर्शनों के अलावा कई नए जुड़े देवताओं के विग्रह-चित्र भी लोगों की हाजरी के तलबगार थे।
भीड़ में रास्ता बनाते हम पहुंचे मन्दिर के पीछे यानि दूसरे छोर पर। यहाँ शैवों के एक संप्रदाय- नाथ सम्प्रदाय के समाधि प्राप्त साधू कि धूनी है। ये एक छोटा सा कमरा है जिसमे इनकी चारपाई बिछौना खडाऊ और कई वस्तुएं रखी है। कमरे के बाहर लिखा है - यहाँ महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। ये कमरा इस पूरे मन्दिर परिसर को अलग किस्म कि विशिष्टता प्रदान कर रहा था। शैव साधुओं के बारे में पढ़े कई किस्से, शाही स्नान न जाने क्या क्या मेरे ग्रे मेटर में हलचल मचा रहे था इतने में पत्नी ने मुझे लगभग झिंझोडा - " हिरल कहाँ है ?"
तुंरत मैं 'एक्शन' में आ गया और आसपास देखने लगा। कुछ ही आगे एक अन्य प्रवेश द्वार के पास मुझे वो दिख गई। एकटक कुछ देखते हुए,त्राटक मुद्रा में। मेरा ध्यान तुंरत उसके एकाग्र होने के लक्ष्य की और गया, वो एक हाथी था जिसे वो शायद पहली बार इतने समीप देख रही थी। काला हिलता हुआ पहाड़। मोटी सांकल से बंधा अपने 'मास्टर' के इशारों पर सूंड से लोगों - बच्चों का मनोरंजन करता, मन्दिर का ये हाथी ही मेरी छोटी बेटी के इंद्रजाल में फंसने का कारण था। आलस्य के कारण जो चमत्कार भगवान् नही कर सके, लगभग चार साल की बच्ची के लिए जादुई लोक रच कर वही काम भगवान् का हाथी कर रहा था।
"इसे घर ले चलो ", बेटी का उस माया जाल से निकाले जाने पर पहला ही आदेश यही था। एक हाथी को माँगना मेरे लिए चाँद मांगने जैसा था। और इसलिए चाँद से हाथी तक कि सारी चीज़ें मेरे जैसे कईयों के लिए असंभव थी। बड़ी मुश्किल से गजराज की डिमांड करने वाली बेटी को वहाँ से लेकर हम बाहर आए। बाहर भी उसका अपनी मांग पर आग्रह दृढ़ता से बना रहा। मुझे सच में कोई विकल्प सूझ नहीं रहा था इस डैड लाक को तोड़ने का। यहाँ तीसरे देश की मध्यस्थता या कहें कि अमेरिका बन कर आया कुल्फी का ठेला। उसको ठेले की विशेष प्रस्तुति मेवा युक्त मारवाडी कुल्फी दिलाई । अब वो प्रसन्न थी। जब वो मज़े से कुल्फी का आस्वाद ले रही थी, मैं बड़ा खुश था। मेरी कूटनीति काम कर गई थी। कहाँ तो चाँद माँगा था और कहाँ मूंग फली से ही राज़ी। मैंने पीछे मुड़कर अचलनाथ जी को धन्यवाद दिया,कि अब तुमने चमत्कार दिखा ही दिया। तुंरत प्रसन्न होने के कारण तुम्हे आशुतोष कहते है, दुनिया के सब बच्चों को भी यही गुण नवाजने का तुम्हारा शुक्रिया, दुनिया के सब माँ-बापों की और से।
इतवार के दिन गोठ लिए मशहूर जोधपुर की परम्परा को समृद्ध करते हुए आपने मूंगफली के बहाने गोठ प्रेमियों के प्रिय स्थलों में से एक की सजीव सैर करा दी, हालांकि मैं कभी इस जगह के दर्शन नहीं कर पाया, अगर हो तो मैं इसे आपकी आंखों से देखना पसंद करूँगा, हमारी विरासत की मौलिकता पर आडम्बर के कंगूरों के अधिकार पर बेहद जरूरी प्रश्न किया है आपने , मुझे अच्छा भी लगा।
ReplyDeleteये अलग बात है कि साधुओं के धूणों पर स्त्रियों के प्रवेश कि मनाही का उल्लेख लगभग हर जगह मिल जाता है अगर आपके पास साधू-संतों के बारे में उचित जानकारी न हो तो ये भी "जूते यहाँ उतारें" के बराबर ही दिखाई पड़ता है। असहमति का भाव अब हर जगह दिखाई देने लगा है जैसे एक पिता द्वारा निर्मित मकान से पुत्र की सहमती कम ही देखी जाती है ठीक वैसे ही पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक महत्व के स्थलों के वर्तमान नियामक अपनी दृष्टि को रखे हुए हैं। फीचर में कई आयाम देखे गए आपने इसे बंधनों से मुक्त रखा, अमेरिकी चरित्र को सहज हास्य से बेनकाब किया, एक पंक्ति से।
अप्राप्य जानकारी के बावजूद अचलनाथ जी के बारे में उचित ही लिखा है आपने। ये सच है कि बहुत दिनों प्रतीक्षा रही, लेकिन इसे भी अब कोई झुठला नहीं सकता कि प्रतीक्षा का फल मीठा होता है।
बच्चे वैसे ही होते है...तुरंत जिद करेंगे और तुरंत मान भी जाएंगे।
ReplyDeleteप्यारी, भोली गुड़िया को स्नेहाशीष।
ReplyDeleteभाई बच्चे तो बच्चे होते है न जाने कब उनका मन किसके लिए मचल जाए . बस बहलाना पड़ता है .
ReplyDeleteबहुत आनंददायक पोस्ट। वर्णन शैली भी बहुत खूब।
ReplyDeleteबिटिया की जिद ....भई वाह...
जोधपुर के छह सात माह प्रवास के दौरान अचलनाथ के बारे में सुना तो ज़रूर पर कभी जाना नहीं हुआ।
बहुत अच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteबचपन के दिन याद आ गए। मन करता है फिर उन्हीं दिनों में लौट जाऊं, पर काश ऐसा संभव हो पाता
किशोरजी शुक्रिया. आपकी टिप्पणी से बात को समर्थन मिला वहीं कुछ स्वतंत्र व्याख्याएं भी इसी टिप्पणी में मिली, जिन्हें मैं सिर्फ़ स्पर्श ही कर पाया था. ये उदास करने वाली बात है कि स्थापत्य कला के कुछ सुंदर नमूने उन्ही मंदिरों में मिल पाते है जहाँ पूजा नहीं होती. पोस्ट में उनका ज़िक्र करने कि कोशिश कि गई जो चीज़ें किसी वॉक या संक्षिप्त यात्रा में सहज ही ध्यान खींचती है. आपकी टिप्पणी उन्ही को और आगे ले जाती है.
ReplyDeleteसंगीताजी महेंद्र जी बहुत धन्यवाद आपका, उम्मीद है आपका साथ मिलता रहेगा.
अजित जी आपके ब्लॉग पर जाना तो मन्दिर की दैनिक प्रदक्षिणा की तरह है. मुझे उत्साह देने के लिए आभार.
गगन जी मेरा समर्थन करने का शुक्रिया.
आदर्श भाई मैं आपके विचारों और असहमति रखने की जिद का कायल हूँ.आपके ब्लॉग को तो बादमें देखा, प्रभावित तो रवीशजी के कस्बा पर आपकी टिप्पणियों और असहमतियों से पहले से ही था. सही कहा आपने,काश बच्चे बन पाते.
संजय भाई, आपने अचलनाथ की यादें ताजा कर दी, हम भी बचपन में पापा के साथ अक्सर जाया करते थे.. और सराफा बाजार से धाकड़ एण्ड बेस्ट से मारवाड़ी कुल्फी खाते थे..
ReplyDeleteहिरल को प्यार..
अपना email जरुर दें..
रंजन मोहनोत
मंदिर के बारे में आप ही से जान, जोधपुर के कई पर्यटक स्थल देखे पर यहाँ कभी जाना नहीं हुआ. अबकी बार अगर भोलेनाथ की आज्ञा हुई तो दर्शन करूंगा.
ReplyDeleteमनोज खत्री