सालों बाद इस जगह को छोड़ कर मैं फ़िर यहीं था। ये शहर आज भले ही इक्कीसवीं सदी में था पर ये बार बार अपनी प्राचीन स्मृतियों में लौटता था। लगता था जैसे ये काल के विशाल समुद्र में डूबता उतराता रहता था। जैसे प्राचीन और अर्वाचीन इसके लिए घर से बाहर निकलने के दो रास्ते ही हों।बल्कि कभी कभी तो लगता जैसे ये भूत में जड़ बैठा आज के यांत्रिक समय का स्वप्न देख रहा है।
मैं जानता हूँ ये जैसलमेर ही हो सकता है।
जैसलमेर के किले में इस वक्त मैं एकदम ऊपर तोप के पास खड़ा था। यहाँ से शहर का विहंगम दृश्य दिखता है।मेरे साथ दिल्ली से आए परिचित जिनके साथ मैं आया था, कह रहे थे-"कितना सुंदर है!"और वे कैमरे के साथ व्यस्त हो गए। मैं एक बार फ़िर इस शहर की यादों के साथ गुत्थम गुत्था था। १२-१३ साल पहले मैं यहीं था। अकेला, नौकरी के सिलसिले में। यहाँ से थोडी ही दूर एक प्राचीन बस्ती लौद्रवा है। जहाँ मूमल रहती थी। १००० साल या उससे भी पहले। महेंद्रा सिंध के अमरकोट का राज कुमार था। हम मूमल और महेन्द्रा के प्रेम को जानते है। इतने सालों बाद भी। महेंद्रा पहले से ही विवाहित था, पर प्रेम का पंछी कहाँ ये सब देखता है,किसी भी डाल पर बैठ जाता है। राजस्थानी के प्रख्यात साहित्यकार और थार की संस्कृति के मर्मज्ञ आइदान सिंह भाटी के शब्दों में कहें तो' हालांकि महेन्द्रा पहले से ही विवाहित था पर मूमल को एक झलक देखते ही उसकी सारी सांसारिकता तार तार हो गई'।
ऐसी तमाम ऐतिहासिक और गल्प कथाओं में उलझा जैसलमेर। किले की मुंडेर से मैं उन दिनों में जा रहा था जब मैं इसी शहर में रहता था। शहर और किला। शहर में किला और किले मेंशहर। इस किले में आज भी शहर की बड़ी आबादी रहती है। ये इस माने में जीवंत किला है। शहर के कुल व्यक्तित्व का बड़ा हिस्सा, किला। कभी कभी शहर के व्यक्तित्व को आक्रांत करता। इतिहास बताता है की ये किला लगभग ९०० साल पुराना है। बुढ़ाता,समय के साथ। इसकी मांसलता अब जाती जा रही है। चारों और की दीवार में फंसा समय जगह जगह से इसे तोड़ कर बाहर आना चाहता है।
मैं और जेठुसिंह किले की दीवार से सटी पुरोहित की टी स्टॉल पर रोजाना बैठे रहते। जेठुसिंह 'लोकल'थे। पढ़ाई जोधपुर में की हुई। अब अपना एन जी ओ चला रहे थे। हर शाम को वो जगह हमारा पक्का ठिकाना थी। मैं नौकरी से छूटते ही स्कूटर उठाकर अपने आवास से वहाँ आ जाता था। जेठुसिंह का घर भी ज्यादा दूर नहीं था। पुरोहित की चाय में दम था। उसका स्टोव उसकी गृहस्थी को सहारा देने का एकमात्र जरिया था । वहाँ और भी लोग बैठते थे पर हमारा वो पक्का ठिकाना था, घंटों का।
उस शाम मैं किसी परिचित के साथ उसके ही काम से ५ किलो मीटर दूर अमर सागर गया हुआ था। जेठुसिंह उसी जानी पहचानी पुरोहित की दूकान जो सिर्फ़ नाम की दूकान थी यानी उसे कहीं भी, कभी भी शिफ्ट किया जा सकता था, पर आए और आ कर आम दिनों की तरह बैठ गए।दूकान जो किले की बूढी हो चुकी दीवार के सहारे थी किले के मुख्य द्वार से थोडी ही दूर थी। चूंकि किले की और जाने वाले प्रचलित मार्ग पर ये दूकान नहीं थी इसलिए यहाँ गहमागहमी कम ही रहती थी। जैसा कि मैं कह चुका हूँ किले में फंसा समय जर्जर परकोटे को तोड़कर मुक्त होना चाहता था और इस दूकान से सटा परकोटे का हिस्सा अन्दर कि तरफ़ नए पुराने मलबे के डंप होने से वैसे भी मारा जा रहा था। पर भरोसा ९०० सालों का था।
जेठुसिंह मेरे इंतज़ार से बोर हो कर वहाँ से रवाना हुआ, शायद सामने पान की दूकान से सिगरेट लाने ,और..और वो ९०० साल पुराना भरोसा टूटा। एक ज़ोर कि आवाज़ जेठुसिंह को अपने पीछे सुनाई दी। वो बमुश्किल सुरक्षित फासले पर आ चुके थे। मैं उस रोज़ ही वहाँ नहीं था। पर पुरोहित को तो वहाँ होना ही था। और रोज़ की तरह रात ९-१० बजे तक वहाँ होना था।वो दीवार उस दिन पुरोहित सहित ६ लोगों पर गिरी। मेरे बचने को भाग्य कहें या कुछ भी पर इस पर इतराने का मन नहीं करता था।
"संजय जी, एक स्नैप मेरा इस तोप के साथ!"-मेरे परिचित की आवाज़ ने मुझे समय के कुए से १२-१३ साल की गहराई से बाहर खींचा।
किले से बाहर आने पर मैं फ़िर उसी जगह गया जहाँ पुरोहित की चाय की थडी थी। मैंने वहाँ से सर ऊंचा कर किले की ऊंचाई मापने की कोशिश की। और फ़िर सर नीचा कर लिया। इस शहर की मेरी और कई स्मृतियाँ थी। अधिकाँश शायद सुखद.
अच्छा रहा आपका यादों के किस्से सुनाना.
ReplyDeleteसोनार किले के मोहपाश से खींचे देसी और विदेशी चले आते है, आपने इस धरोहर से अपनी आत्मीयता का रिश्ता बखूबी बयाँ किया है, मैं इस पोस्ट को फ़िर से पढ़ना चाहूँगा अभी ऑफिस से लौटा हूँ आपकी प्रविष्ठी देखते ही त्वरित पढा और ऐसे ही टिप्पणी भी कर रहा हूँ, डॉ भाटी जी को आपने सुन्दरता से उधृत किया है। वैसे पहली नज़र में प्यार तो हो ही गया है आपकी पोस्ट से।
ReplyDeleteसंजय जी आज इत्मीनान से पढ़ा। यांत्रिक समय का स्वप्न ..., प्रेम का पंछी..., किले में फंसा समय जैसे अच्छे उपमान दिए। मूमल-महेन्द्रा की प्रेम कथा ने मुझ जैसे रसिक को कितना प्रसन्न किया कह नही सकता। आपकी भाषा सुगम और रोचक तो सदैव होती है इस बार एक मुस्कराहट भी झांकती दिखाई दी मुझे। अंत में इस वैश्विक धरोहर के लिए सुंदर सा कहा "मैंने वहाँ से सर ऊंचा कर किले की ऊंचाई मापने की कोशिश की। और फ़िर सर नीचा कर लिया।" बहुत बहुत सुंदर।।
ReplyDeleteबहुत समय पहले जैसलमेर ब्राण्ड सिगरेट के विज्ञापन में किले का फोटो देखा करता था, तब से जैसलमेर का तिलस्म मन में है।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया आप सबका.
ReplyDeleteजैसलमेर के किले की ऊंचाई ने चिंतन को उड़ान भरने का मौका कई बार दिया था.कुछ वैसा ही मौका यहाँ भी मिला,किले को,जैसलमेर को याद करते हुए.इस उड़ान को हौसला आपसे मिलता रहे,इसी उम्मीद में प्रयास आगे भी जारी रहेंगे.
आपने तो जैसलमेर जाने की जिज्ञाषा जगा दी, बहुत सालों पहले जैसलमेर एक शादी में गए था लेकिन शाम के पहुच कर रात को ही वापस आ गए इसलिए किला और हवेलियाँ के सिर्फ़ बाहर से ही दर्शन कर पाए थे ! और हाँ शादी के खाने में बना अनार का रायता और चने की सब्जी अभी तक याद है वो स्वाद कभी दुबारा आज तक नही मिला !
ReplyDeleteभई वाह.. संजय जी, अचछा लगा आपके ब्लाग पर आकर... अच्छा संस्मरण.. एकदम कथात्मक..
ReplyDeletecould not digest the incident of the chaiwala. destiny left you and your friend safe.
ReplyDeleteDo write more about Jaisalmer.
regards,
Manoj Khatri
Thaanks for the post
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