(मेरी कुछ कच्ची पक्की रचनाएँ जो अलग अलग समय में लिखी हुई हैं आपके सामने रख रहा हूँ.)
गिरधारी लाल आदमल किराना व्यापारी
भर गर्मी के भारी चिपचिपे अहसास में
महज हाथ पंखे की ठंडी हवा के
वहम से संतुष्ट
खाने पीने की तमाम चीज़ों की
उपस्थिति से भरा भरा
बैठा है व्यापारी
चूहों की अहर्निश आवाजाही के बीच.
यहाँ आने का सिलसिला
पुराना है
और
मेरे घर का और भी पुराना
मतलब हम पीढ़ियों से
यहाँ किराना खरीदते आये हैं.
गुड को चीकट लगी तराजू से
मांगे गए भार में तौलता
सिर्फ कांटे पर नज़र रखे
व्यापारी
काम पूरा होने पर
पिता से उपार्जित
व्यावसायीक मुस्कान को गुड के साथ पेश करता है
मैं कुल किराने का बिल
अदा करने से पहले
अंतिम मोलभाव करता हूँ
व्यापारी मुस्कान की मिकदार बढ़ाकर
उलाहन देता है
रिश्तों को मोलभाव के
सौदे में बदलने का
और पुरानी बहियों पर दोस्ताना
धौल जमाता है
जैसे कहना चाहता हो
कि कुछ हिसाब वैसे भी
दो एक पीढ़ियों से बाकी है
पर मुझे समझता देख
होल सेल की रेट लगाने के
हवाले से
बात खत्म करता है
गिरधारी लाल आदमल किराना व्यापारी से
हमारे पुराने रिश्ते है
बेटियाँ
कहतें है इस घर की बेटियाँ
किसी खास नक्षत्र में जन्म लेने से
जहां भी रहती है
दुखी रहती है
शताब्दी भर पहले इस घर की बेटी ब्याही गयी जिसके साथ
वो कुछ साल में ही रहा नहीं
और उसने जो बेटा दिया
वो दिमाग से
हमेशा बच्चा बना रहा
वो जबकि
अधेड और वृद्ध होती गयी
फिर दशकों की लंबी यात्रा में
अपने दुःख को घड़े में सर पर उठाये
और लू के थपेडों में
चेचक के धावों में
जीती, चलती रही
इस घर की बेटियाँ
कहते है
जहां भी रहे
घर की चौहद्दी की
एकांतिक वर्तुल यात्राओं में ही
इतनी मरती है कि
शरीर से मरने कि
जैविक नियति भी
हो जाती है बेमानी
बस यूँ चलने और खटने में
हर बार
पाँव धरने और उठाने के बीच
रह जाता है कुछ उसका
धरती पर ही
इस तरह वो
पगथलियों से घिस कर
छोटी होती जाती हैं निरंतर
तिल तिल
और बहुत बरसों बाद
विलीन हो जाती है
चुपचाप
यहाँ की सूखी
पतली हवा में.
मरते हुए आदमी का शुक्रिया
ये जाने से पहले के कुछ पल हैं
उसकी चेतना अब सिर्फ आँखों में हैं
जिनसे देखता है
मरता हुआ आदमी
कुछ लोगों को
भरपूर कृतज्ञता के साथ
आखरी बार.
‘तुम’
जैसे वो सामने खड़े आदमी से कहता है-
‘शुक्रिया तुम्हारा’.
'रेत पर लंबी यात्राओं में
पगथलियों को दाह से बचाने का.
उन ठंडी हवा से बनी चप्पलों में
तुम्हारी ही मटकी की
गीलास काम आईं थी'
'और तुम्हारा भी,भाई.
जिस बरस सर्दी ने
अस्थियों की मज्जा तक को
झिंझोड़ दिया था
उस जाड़े की सुबहों का सूरज
तुम्हारी ही कम्बल का ताप लाता था'
'और दोस्त तुम क्यों खामोश खड़े हो?
चूना मिले ज़र्दे पर
तुम्हारी थाप
गप गोष्ठियों को जीवंत कर देती थीं
इसी थप-ध्वनि ने हर बार
किसी कातर क्षण में रुंधे गले को
आवाज़ दी थी,
तुम्हारा भी शुक्रिया'.
'तो मित्रों'
उसकी आँखें तेज़ी से मुंदती जा रहीं थीं,
'सब छोड़ जा रहा हूँ मैं
बस
इन कुछ उधारियों के सिवा'.
बेहतरीन...बेहतरीन...बेहतरीन......
ReplyDeleteअनु
सभी कवितायेँ पक्की पक्की हैं... बढ़िया. व्यस्तता के चलते बहुत दिन बाद आया आपके ब्लॉग पर, पता था शानदार कवितायेँ पढने को मिलेंगी.
ReplyDeleteअत्यन्त प्रभावी अभिव्यक्तियाँ..
ReplyDeleteचूना मिले ज़र्दे पर तुम्हारी थाप गप गोष्ठियों को जीवंत कर देती थीं इसी थप-ध्वनि ने हर बार किसी कातर क्षण में रुंधे गले को आवाज़ दी थी
ReplyDeleteआप माहौल में समां जाने के बाद भी निरपेक्ष रहते हैं। बहुत मुश्किल है यह...
बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteगिरधारी लाल, बेटियां, मरता हुआ आदमी... तय नहीं कर पा रही कौनसी सबसे बेहतर है मरते हुए आदमी का शुक्रिया के बाद कुछः कहने को नहीं बचता
ReplyDeleteअनवरत जीवन यात्रा ...कुछ तो सदियों से चला आ रहा है ....कुछ बदलने की कोशिश मे हम सब हैं ...कुछ सहेजने की प्रक्रिया भी है ....और कृतज्ञता ....वाह ...सुंदर पुष्पों की माला ...
ReplyDeleteहर कवि की अपनी एक दुनिया होती है. उसमे वो ऐसे सच पकड़ता है जो उसके अप्रदूषित मन ने पकडे है . कुछ स्वीकार्य ओर कुछ नकारे गए .अपने आप को दूषित होने से बचाना सबसे बड़ा सच है ,पवित्र कवि अब होने बंद हो गए है
ReplyDeleteआपके पास एक सतर्क दृष्टि है ओर विचार के स्तर पर एक मानवीय मूल्यता .वो वर्तमान से रूबरू होती है बिना आक्रमक हुए ....
and yes love these line
चूना मिले ज़र्दे पर
तुम्हारी थाप
गप गोष्ठियों को जीवंत कर देती थीं
इसी थप-ध्वनि ने हर बार
किसी कातर क्षण में रुंधे गले को
आवाज़ दी थी,
तुम्हारा भी शुक्रिया'.