भय से निजी कुछ नहीं. कुछ पल हर आदमी के जीवन में लौट लौट कर आते हैं जिनमें वो निष्कवच होता है, नितांत अकेला होता है. और सबसे ज़्यादा निर्बल भी. वो इन पलों में बुरी तरह डरा हुआ होता है.ऐसे पल जीवन के लिए भारी और मृत्यु के लिए उर्वर होते हैं.ये क्षण हमारे नितांत निजी डर के होते हैं. प्रेम से भी अधिक निजी. ये इतने निजी होते हैं कि इन्हें हम सबसे अकेले भोगते हैं. इनमें हम सबसे अकेले होते हैं. रावण को शायद उसके इन्हीं क्षणों में मारा गया था.
शर्तिया भय कोई वनैला जानवर होता है. वो हमारे इन्हीं पलों में चुपचाप हमारे पास और हमारे भीतर आता है. वो करीब आकर हमें वेध कर हमारे भीतर व्याप जाता है.जिस तरह से ये हमारे अन्दर घुसता है, बिलकुल किसी बाण की तरह हमारी मज्जा को भेद कर, उससे लगता है ये प्राणी किसी नुकीले थूथन वाला है और भयानक तीखे दांत से वो हमारे अस्तित्व के तंतुओं को कुतर जाता है.
ऐसे ही भय के कुछ पते-ठिकाने भी होते हैं. इन्हीं पर उसके बैठे होने की गुंजाइश सबसे ज्यादा होती है. वो इन ठिकानों पर दुबक कर नहीं बैठा होता बल्कि घात लगा कर बैठा होता है. एक निर्जन रास्ते को काटता सांप अपने पीछे एक लकीर छोड़ जाता है. एक आदमी सांप को जाते देख ठिठकता है. एक सांप आदमी को जाते देख ठिठकता है. दोनों के लिए वो रास्ता डर का ठिकाना है. अगली बार उसी रास्ते पर जाता आदमी कुछ और ठिठक कर चलता है.अगली बार किसी और समय में जाता सांप उसी रास्ते को काटते वक्त अपने फन के पूरे प्रसार के साथ अंग्रेजी का 'एस' बनाकर चला जाता है. उसका डर उसके फन का फैलाव है. वो डर में और चौड़ा हो जाता है. आदमी डर में खुद को सिकोड़ कर चलता है. पर भय को लेकर दोनों की आतंरिक प्रतिक्रिया एक जैसी ही है.
वो आदमी उस तहखाने के नाम से डरता था. तहखाना घर में था. घरवाले कहते थे इस तहखाने में बरसों से एक मगरमच्छ रहता है. घर के एक सबसे बड़े आदमी को छोड़कर सब उस तहखाने के नाम से डरते थे. कोई उसमें जाने की बात भी नहीं सोचता था. बस उस सबसे बुज़ुर्ग आदमी को ही पता था कि शायद उसमें ऐसा कुछ नहीं है. शायद घर के कुछ राज़ उस तहखाने में दफ़न थे. वो तहखाना रहस्य की किसी कन्दरा जैसा था. उसमें जाना निषिद्ध था. बरसों बीतने के बाद धीरे धीरे उस घर के लोगों को एक एक कर पता चलने लगा कि तहखाने में मांसभक्षी उभयचर के होने की बात ठीक नहीं है. पर आखिर जब सब लोगों को पता चला कि उस तहखाने में ऐसा कुछ नहीं है तब भी वे उसमें जाने से डरते थे. वे जानते थे कि तहखाने में मगरमच्छ नहीं है पर कुछ ज़रूर है जो अप्रिय है और उसे उसकी वाजिब भयावहता प्रदान करने के लिए मगरमच्छ का नाम भर दिया गया है. हो सकता है अन्दर जो कुछ हो वो और भी विकराल हो. और इस तरह उस घर के लोगों के लिए डर का दायरा बढ़ने लगा. भय का वृत्त बढ़ने लगा, जो पहले तहखाने तक था वो फिर उस कमरे तक बढ़ गया जिसमें तहख़ाना था. कुछ अरसे बाद वो फिर बढ़कर घर के चौक, फिर मटकी रखने की जगह और फिर सीढ़ियों तक फ़ैल गया.
इस तरह भय को रहने के लिए किसी कोटर, बांबी या तहखाने की ज़रुरत नहीं होती, वो अपने रहने की शुरुआत इन जगहों से कर सकता है पर वो आसानी से घर-महल्ले तक आ सकता है. उसके जबड़े शक्तिशाली और दांत धारदार होते हैं.
वो समय की कई परतों को चीरता आया हैं.
डर की एक बहुत बड़ी इंडस्ट्री है और यह कुटीर उद्योग से लेकर, भारी उद्योग के स्तर तक फ़ैली है... बॉलीवुड की कई सफलतम फ़िल्में इसी डर की कमाई खा रही हैं. और हमारे देश की सत्तर साल की राजनीति भी इससे कहाँ अछूती है.
ReplyDeleteहमेशा की तरह एक बेहतरीन अन्दाज़ में लिखी गई पोस्ट!
गब्बर ने सही कहा था " जो डर गया समझो मर गया " |
ReplyDelete-ख्यालरखे.com
bulletinofblog.blogspot.in/2016/09/5.html
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