वो जहां रहता था वहां का आसमान बिजली और टेलीफोन के तारों में उलझा था। इन तारों पर शाम के समय लम्बी लम्बी कतारों में कबूतर बैठा करते थे। पानी की ऊंची टंकियों, मंदिरों की फरफराती ध्वजाओं और खम्भे या तार या जहां जगह मिली वहां अटकी पतंगों ने भी अपने अपने हिस्से के आसमान को कब्ज़ा रखा था। आकाश का नीला कैनवास इस मोहल्ले में तो जैसे किसी बच्चे की ड्रॉइंग बुक का पन्ना था। नीचे ज़मीन पर तो आलम कुछ ऐसा था कि जैसे इस ड्राइंग बुक के पन्ने को बच्चे के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ा हो । इस मोहल्ले में इंसान ज़रूर रहते थे पर सबसे बेफ़िक्र यहां कुत्ते और सांड थे। ये मोहल्ला इन दो प्राणियों का अघोषित अभयारण्य था। समय के साथ इंसानों से इनका ऐसा समझौता अमल में आया लगता था कि दोनों ने एक दूसरे को सेफ पैसेज दे रखा था। काफ़ी समय से किसी बच्चे को भी इस मोहल्ले के कुत्ते ने काटा नहीं था और न ही किसी सांड ने किसी वृद्ध को अपने सींगों से क्षति पहुंचाई थी। इस तरह इस मोहल्ले में रहने वाले लोग कुत्तों और सांडों के साथ एक करार से बंधे थे जो टिका तो हालांकि किसी बारीक संतुलन पर ही था। बेशक ये एक आम दिनचर्या की बात थी और इसमें अपवाद शामिल नहीं थे।
इसी मोहल्ले में पलाश यानी पोलू का घर था। उसका घर मोहल्ले के चौक में था जहां आसपास अलग अलग तरह की छोटी मोटी दुकानें थीं। एक पेड़ के नीचे मुक्ताकाशी हेयर कटिंग सलून , चाय की थड़ी , कुछ सब्ज़ियों के ठेले , किराना शॉप , पान कार्नर वगैरह की वजह से उसके घर के बाहर सुबह से देर रात तक लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। कई बार पोलू को इससे कोफ़्त होती थी पर उसके दादाजी के लिए ये एक अनवरत थियेटर जैसा था जिसे वे अपने कमरे की झरोखेनुमा खिड़की में बैठ कर देखा करते थे। वे इसमें मूक दर्शक की तरह हिस्सा लेते थे। चाहे मोहल्ले में झगड़ा हो जाये , सांड बिफर जाए या परदेसी आ जाय, वे इस थियेटर को लगभग अविचल सिर्फ़ देखा ही करते थे। निस्पृह। निर्लिप्त। साक्षी भाव से मात्र। वे अपनी आँखों के आगे बहुत सारी कहानियां घटित होते देखते थे। बिना किसी भी कहानी का पात्र बने। लेकिन दादाजी को ये पता नहीं था कि जिस घर की खिड़की से वे मोहल्लायन देखा करते थे वो घर इसमें शामिल हो चुका था। इस घर का ही पोलू यानि उनका पोता इसी मोहल्ले की, उनके घर के पीछे रहने वाली एक लड़की के प्रेम में आ चुका था।
पोलू के लिए ये एक तरह से ठीक ही था कि दादाजी को उसके इस एडवेंचर का पता ही नहीं चला। ये बात सही थी कि वे ख़ुद मोहल्ले की लीलाओं में शामिल नहीं होते थे पर उनकी रूचि थी। तभी तो वे दिन भर दर्शक दीर्घा में बैठे रहा करते थे।
और फ़िर मामला घर का हो, आग घर में ही लग जाय तो कौन आदमी इस पर भी सिर्फ मज़े लूटने के लिए दर्शक की तरह बैठा रहेगा। आखिर इसकी आंच कभी न कभी तो देखने वाले तक भी पहुंचनी ही थी। इसलिए दादाजी को पोलू के प्रेम के बारे पता नहीं लगा ये ठीक ही हुआ। इसमें लड़की का घर चौक में न होना भी एक बड़ी वजह थी क्योंकि चौक में जो कुछ भी होता था वो दादाजी की नज़र से बच जाए ये संभव नहीं था।
पोलू को अपने प्यार में होने का पता एक दिन अचानक चला। वो लड़की को तो बचपन से ही जानता था, उसे आये दिन देखता था। उसे कभी लगा नहीं कि उसके साथ प्यार जैसा कुछ है। उसने जब इस प्यार के उत्स को खोजने की कोशिश की तो वो एक बुख़ार में मिला। हुआ ये कि लड़की जिसका नाम नीलू था मोहल्ले में ही रहती थी और उसका इस मोहल्ले में आना जाना ज़ाहिर सी और सामान्य सी बात थी, जैसे कि पोलू का आना जाना। पोलू ने कभी मोहल्ले में उसकी उपस्थिति पर अतिरिक्त ग़ौर नहीं किया था। पिछले दिनों जब उसकी मामी हॉस्पिटल में भर्ती थीं तो जनाना वार्ड में उसने मामी के बेड के पास ही नीलू को भी लेटे पाया था। उसे बुख़ार के साथ कुछ कॉम्प्लीकेशन्स की वजह से भर्ती करना पड़ा था। उसने देखा था नीलू का चेहरा उदास सा था। चेहरे का रंग कागज़ की तरह सफ़ेद हो चुका था। ये नीलू उस नीलू से अलग थी जिसे वो जानता था। वो जिसे जानता था वो जीवन से लबरेज़ नीलू थी। ये जबकि, पस्त, पराजित दिखती थी। अगर ये अस्पताल न होता और उसे पता न होता कि वो बीमार है तो कोई भी देखने वाला कह सकता था कि लड़की किसी बड़े हादसे से बाहर आई है।
चूँकि वो उसे और उसके परिवार को जानता था इसलिए उसने आकर हालचाल पूछा और बाहर से दवाइयां वगैरह लाने और नर्स को बुला लाने जैसे कामों में मदद भी की थी। वो उस दिन काफ़ी देर तक बैठा रहा था। नीलू की तबीयत में गंभीर जैसा कुछ नहीं था पर उसे विशेषज्ञों की देखरेख की ज़रुरत थी।
कई दिनों तक उसने नीलू को मोहल्ले में नहीं देखा। इससे पहले उसने नीलू के दिखने या न दिखने पर शायद ही कभी ग़ौर किया होगा। पर जब से उसने नीलू का ज़र्द चेहरा देखा था, उसे तुरंत मोहल्ले में दिखने वाली नीलू याद हो आई। चुलबुली सी नीलू। उसके कुर्ते पर कई सारे रंग बैठे दीखते। उसके चेहरे पर मुस्कान की लम्बी रेखा खिंची रहती। और अब उतरा हुआ ज़र्द चेहरा। उसने नीलू को उस दिन हस्पताल में देखने के बाद कई दिन तक मोहल्ले में नहीं देखा तो उसके मन में आया कि वो उससे जाकर कहे कि वापस पहले वाली नीलू हो जाओ। तुमने कुछ ज़्यादा ही आराम कर लिया है तुम इतने दिन तक बीमार नहीं रह सकती।
पर ख़ैर , उसने पता किया तो बताया गया कि वो अब ठीक है। हॉस्पिटल से भी उसे कुछ दिन पहले छुट्टी दे दी गयी है।
कई दिन बाद पोलू को वो दिखी। वो अपने भाई के साथ बाइक की पिछली सीट पर बैठी कहीं जा रही थी। उसने अपनी तरफ देखते पोलू को देखा तो वो धीमे से मुस्कुराई। उस दिन अस्पताल में उसके पास भी पोलू आया था, उसका ये मुस्कुराना उसकी तरफ़ से शायद 'थैंक यू' जैसा था। पोलू को अच्छा लगा पर भाई के साथ उसे देखकर मन में ये शंका पैदा हुई उसे अभी भी घरवाले अकेले नहीं भेज रहे हैं। वो अभी भी बुख़ार की कमज़ोरी से पूरी तरह बाहर नहीं आई है। वो अभी भी पहले वाली नीलू नहीं थी। उसके चेहरे पर थकान के निशान साफ़ पढ़े जा सकते थे।
फिर कई दिनों का अंतराल रहा। पोलू ने इस बीच प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग ज्वाइन कर ली थी। साइकिल से एक दिन शाम को कोचिंग के बाद घर लौटते समय उसे फ़िर नीलू दिखी। उसके हाथ में छोटा सा पॉलिथीन बैग था जिसमें दूध की दो तीन थैलियां थीं। पोलू ने साइकिल उसके पास रोक ली। नीलू के चेहरे पर फिर से एक फ़ीकी मुस्कान उभर आई।
"तुम अब ठीक हो "
"हाँ "
"पहले वाली बनने में कितना वक़्त लगेगा "? पोलू का ये सवाल उसकी उम्र से ज़्यादा बचकाना था। इस सवाल से नीलू अचकचा गई। उसे तुरंत जवाब नहीं सूझा पर वो हंस पड़ी।
उसके बाद पोलू के कोचिंग से लौटने पर कई बार वो हाथ में दूध की थैलियां लिए मिली। वो हर बार रुकता और किसी न किसी बचकानी बात से उसे हंसाता। कई बार उसकी कोशिशों के बाद भी वो सिर्फ़ फ़ीकी सी मुस्कान किसी तरह होठों पर ला पाती। इस वाली मुस्कान में उसके चेहरे पर कोई रौशनी नहीं आती थी। बल्कि ऐसी ज़बरिया प्रतिक्रियाओं में खिंची मांसपेशियों से अगले ही पल एक थकान उसके चेहरे पर पसर जाती। पोलू समझ जाता। उसकी ये कोशिश सिर्फ उसका मन रखने के लिए थी।
अब पोलू जैसे ही कोचिंग से छूटता उसके पाँव साइकिल के पैडल पर ज़ोर से पड़ते। वो जल्दी से मोहल्ले में आना चाहता था जहां नीलू उसे दूध की थैलियों के साथ खड़ी मिलती। कई बार उसकी पूरी कोशिशों के बावजूद वो नहीं मिलती। तब उसका मन अजीब सी बेचैनी से भर जाता। ऐसे ही किसी वक़्त में उसने सोचा कि कहाँ से शुरू हुआ था ये सब ? और पीछे की तरफ ट्रेस करने पर जवाब मिला - बुख़ार से। जब वो हॉस्पिटल में नीलू से मिला था और उसे रोज़ दिखने वाली नीलू से बिलकुल अलग, उदास पाया था तभी उसके मन में उसे लेकर कुछ विशिष्ट भावों ने शायद जगह बनानी शुरू की थी।
पोलू की ज़िन्दगी में नीलू थी तो थोड़ी ही पर उसका असर उसके सारे अस्तित्व पर था।जितना सतह पर उतना ही गहरे भी। वो जैसे जल में गिरी रंग की कोई बूँद थी, धीरे धीरे एक एक अणु पर चढ़ती।
अगली बार जब वो मिली तो पोलू ने उसे कहा तुम भी अपनी साइकिल ले आओ , सड़क से मंदिर वाली पहाड़ी चढ़ते हैं। ऊपर से शहर को देखेंगे। नीलू ने कहा मैं इतनी ऊंची साइकिल नहीं ले जा पाउंगी। तब पोलू उसे साइकिल पर बिठा कर ऐन ऊपर तक ले गया था। ऊपर पहुंचकर वो हल्का हांफने लग गया था। पर नीलू को जो हुआ उसने उसे चिंता में डाल दिया। पहाड़ी पर मंदिर की कुछ सीढ़ियां चढ़ते ही नीलू की सांस जैसे किसी लोहे से छिल कर आ रही थी। वो बेहद तक़लीफ़ में थी। दोनों साइकिल से नीचे आ गए। नीचे आते आते नीलू की सांस पुनः सामान्य होने लग गयी थी। पोलू जानता था कि घर में नीलू ऊपर जाने की बात को छुपा जाएगी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि नीलू के बारे में उसके घरवालों को वो कैसे बताए। वो कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं था। उसने नीलू को घर जाकर आराम करने के सलाह दी।
नीलू का अब बाहर आना बंद सा हो गया था। पोलू समझ गया था कि नीलू बीमार थी और उसकी बीमारी किसी आम सर्दी बुख़ार वाली बीमारी नहीं थी।
मोहल्ले में दिन कुछ ही गुज़रे थे पर पोलू के लिए जैसे कई सारे मौसम सामने से गुज़र गए। उसे अब समझ में आ रहा था कि दादाजी असल में सिर्फ़ खिड़की पर ही बैठे रहते हैं, देखते कुछ नहीं है। या ये कहना ठीक होगा कि वे देखते सिर्फ़ अपने अंदर थे। उनकी दिलचस्पी बाहर नहीं अंदर के थियेटर में थी। वे अपने भीतर कई सारे शहरों को, जहां वे कभी रहे थे, देखते थे। वे उन शहरों के रास्तों पर अपने को निर्णयहीन सा खड़ा देखते थे। वे अपनी ही किताब को पढ़ते थे। वे वर्तमान में घटित होना बंद हो गए थे।
एक दिन पोलू सच में नीलू के घर चला गया। उसका घर उसके लिए कितना पास फिर भी कितना दूर जैसा था। उसकी देहरी को उसने अपने लिए अलंघ्य मान रखा था। उसके घर जाना उसके लिए सोच विचार की प्रक्रियाओं के विफल होने के बाद अंततः लिए जाने वाला फैसला था। वो अपने कमरे में बैठी थी। पोलू को देखकर उसके मन में मुलाकातों की कोई मधुर याद आई थी ऐसा लगा नहीं। वो निस्तेज सी रही। पोलू ने एक पर्ची पर उसे अपने मोबाइल नंबर और ब्लड ग्रुप की जानकारी लिखकर दी। आखिर में उसे 'गेट वेल सून' लिखकर स्माइली बना दी।
इस मुलाक़ात से पोलू एक भार से बाहर आ गया। वो अपना ध्यान अब पढाई में लगा सकता था , क्योंकि नीलू के लिए ये रास्ता अकेले तय करना था। उसकी मदद बेस्ट विशेज़ तक ही हो सकती थी। वो कितना भी स्वार्थी होकर सोच ले नीलू के वापस नीलू होने में यही मदद वो कर सकता था कि वो उसे अकेले उस रास्ते पर चलने दे। इसमें उसके घरवाले ही उसके असली मददगार हो सकते थे, वो नहीं।
ये काम पोलू के लिए मुश्किल था पर उसने कर लिया। कोचिंग से आते समय डेयरी बूथ पर उसकी नज़रें ठिठक जातीं पर वहां कोई नीलू नहीं होती। कुछ दिन ऐसा होता रहा फिर उसने डेयरी की तरफ देखना बंद कर दिया। वो मंदिर पर जाने वाली ऊंची सड़क को भी नहीं देखता। अब उसकी ज़िन्दगी की कोई सड़क नीलू के घर तक नहीं जाती थी। असल बात तो ये थी कि अब उसकी एक ही सड़क थी और वो कोचिंग तक ही जाती थी। कुछ अरसे बाद तो ये हालत थी कि उसके कमरे से भी कोई सड़क बाहर निकलनी बंद हो गयी। वो किताबों और नोट्स में धंस चुका था। उसका कमरा पन्ने, पैन, किताबों और गाइड बुक्स से आक्रांत हो चुका था। वो ठोस और शुष्क सूचनाओं का पुलिंदा बनकर रह गया था।
उसे आवर्त सारणी पूरी याद थी, पिछले दस सालों के नोबल विजेताओं के लेक्चर्स ज़बानी याद थे, सभी देशों की राजधानियां और मुद्राएं तो उसे कब की याद थीं, फीफा विश्व कप के लीग से लेकर फाइनल तक के सारे परिणाम, ओलिंपिक, क्रिकेट, यूरो कप, कोपा अमेरिका के परिणाम आंकड़े सब याद हो गए थे। वो जीके और करंट के सभी संस्करणों का एक समग्र, मोटा डाइजेस्ट बन चुका था।
उसे बचाना मुश्किल था।
ये दिन पोलू के लिए आम दिनों जैसा ही था अगर इस दिन कुछ अलग न होता। वो तो हमेशा की तरह अपने कमरे में ही था। शरीर नाम के खोल में सूचनाओं और आंकड़ों का सांद्र घोल बना हुआ। नीलू उसके घर आई थी और उसकी हालत देखकर उसे खींचकर बाहर ले आई।बाहर की रौशनी ने पोलू की त्वचा पर छाले बनाने शुरू कर दिए। वो प्रतिवाद करता रहा पर नीलू अब पहले वाली नीलू नहीं, पहले से पहले वाली नीलू थी। रंग फिर से उसके कुर्ते पर बैठे थे। चेहरा उसका सुबह का सूरज था। पोलू को उसने अपनी साइकिल के पीछे बिठाया और ... उसकी साइकिल मंदिर की ओर जाने वाली सड़क पर चढ़ने लगी।
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २३५० वीं बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ...
ReplyDeleteतेरा, तेरह, अंधविश्वास और ब्लॉग-बुलेटिन " , में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
वाह अनुपम अद्भुत अलहदा सा लेखन।
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत मनभावन और भावमयी प्रस्तुति...
ReplyDeleteसंजय जी भावनाओं का ज्वार उमड़ता है आपकी लिखाई में ,जीवंत चित्रण, लेखनी से कराने के लिए धन्यवाद !!!! आपका प्रतीक्षारत पाठक
ReplyDeleteसंजय जी ,भावनाओं का ज्वार उमड़ता है आपकी लिखाई में ,जीवंत चित्रण, लेखनी से कराने के लिए धन्यवाद !!!! आपका प्रतीक्षारत पाठक
ReplyDeleteभारत शर्मा
अति सुन्दर व्यथा कथा !
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