Tuesday, July 26, 2011

ठेले पर कमीज़


पुराने शहर की तंग गलियाँ. इतनी तंग कि कितना भी बचें आपके कंधे इन्हें तकरीबन छूते हुए ही आगे बढतें है. पर चिंता की कोई बात नहीं, बरसों के मानवीय स्पर्श ने इनके कोनों को काफी दोस्ताना बना दिया है.हां चलते वक्त फर्श के चिकने हो चुके पत्थरों का ध्यान रखना ज़रूरी है.

इनमें से एक गली सुस्त क़दमों से आगे बढती एक छोटे से चौक में खुलती है.जहां छोटी छोटी दुकानों का अजायबघर है. कहीं से तेल में खौलते समोसों से आती भारी गंध है. कोने में एक मंदिर है जिसकी जीर्ण शीर्ण पताका ऊपर की स्फूर्त हवा में कांपती है.एक बीमार गाय, जिसके थूथन से कोई तरल बहता रहता है,इस चराचर जगत के दयनीय होने की घोषणा करती है.यह डिब्बे झाडू हमामदस्ते सिलालोढ़ी वगैरह का प्रागैतिहासिक संसार है.

यहीं एक ठेले पर बिकते है कमीज़, पतलून, फ्रॉक, बंडी जैसे रेडीमेड कपड़े.कभी किसी समय में इस्तेमाल किये हुए फिर घर घर फेरी लगाने वालों को बेचे हुए, जो गठरी में बंद पड़े पुरानी फैशन के कपड़े तौल के भाव ले जाते है और बदले में स्टील का कोई छोटा मोटा बर्तन दे जाते है. घर वाले भी खुश कि पुराने कपड़े किसी काम तो आये. देखिये ये शर्ट सिर्फ साठ रूपये का है.धुला हुआ, इस्त्री किया हुआ.कोई अच्छे ब्रांड का लगता है.पहली बार खरीदा गया होगा तो सात आठ सौ से कम का क्या होगा. अब फिर से इसे कोई पहनने के लिए ले जाएगा. सिर्फ साठ रुपये में. मौल भाव थोड़ा ठीक से किया जाय तो पचास में भी हाथ लग सकता है. पर ये कमीज़ बाकी पड़े कपड़ों के ढेर से कुछ अलग लगता है.हाथ में उठा कर देखो तो सिर्फ इसके कन्धों से रंग थोड़ा फीका पड़ा है. हो सकता है इसी वज़ह से इसे पहनना बंद किया गया हो.क्या इसे शादी कि पहली एनिवर्सरी पर पत्नी ने उपहार में दिया था? नहीं, फिर तो ये यहाँ नहीं हो सकता. पर कमीज़ दुल्हन के शादी के जोड़ों की तरह सम्हाल कर कहाँ रखे जाते है? इसे संदूक में जगह नहीं दी गयी होगी. ये जिस दिन गठरी में आया उसी दिन से नश्वर हो गया.

ये बात अलग है कि पुराने कपड़ों के ढेर में जाने में जाने से ठीक पहले इसका अपना एक व्यक्तित्व उभर आया था.
कितनी ही बार पत्नी की उँगलियों का स्पर्श इसके ऊपर वाले बटन पर दर्ज है.इस दौरान कितनी ही बार ऑफिस जाने के ज़ल्दबाज़ पलों को धता बताकर पत्नी के हाथों को थाम लिया गया होगा.जाने कितनी बार कमीज़ के खुले बटन से होकर स्त्री का चेहरा पुरुष के सीने में धंसा होगा.उसके पसीने की पौरुषेय गंध से भरी उमस को महसूसते हुए. साठ रुपये की इस कमीज़ में कितना कुछ अंतरंग और कितना कुछ गोपन बसता है! इसके कन्धों से रंग ज़रूर फीका पड़ गया है पर इसके तंतुओं की मज्जा में घुले प्रेम के चटख रंग क्या इतनी जल्दी चले गए होंगे? स्वेद में घुली वो मीठी सी घुटन जो पत्नी ने महसूस की होगी उसकी गंध क्या अब जाती रही होगी? या अनगिन बार इसकी सतह पर नामालूम वजह के उसके आंसूं क्या इतनी जल्दी डिटर्जेंट से साफ़ हो गए होंगे?यहाँ तक कि पुरुष के कमज़ोर क्षणों में भीगी आँखों को भी इसकी आस्तीन ने ही सहलाया होगा, उसकी स्मृतियाँ बाजुओं पर अंकित नहीं रही होंगी?

शाम तक सिर्फ साठ रुपयों में ये कमीज किसी और घर की खूँटी पर टंगी होगी. इसे कल पहना जाएगा.


( photo courtesy- jude hill )

Wednesday, July 20, 2011

जीवन की आंच में प्रेम के स्फुलिंग


मैं इस पर कुछ दिन पहले लिखना चाहता था जब विषय वस्तु और चित्रावलियाँ अपने सघन रूप में मौजूद थीं और मन इसी के आस पास टिका था.तब सोच भी बार बार इसी सवाल के गिर्द थी कि सब कुछ भयावह के बावजूद प्रेम यहाँ कितना सुंदर है! धीरे धीरे सरलतर होता हुआ अंततः जिसका रेशमी सूत्र सुंदर और ऋजु होकर हमारे पास रह जाता है.अब फिल्म की कई बातें तभी दिमाग में आएँगी जब इसे फिर से देखा जाएगा पर कथानक की चौहद्दी और उसका असर अभी भी सुरक्षित सा है.

जितना याद रह गया है उसके मुताबिक़ फिल्म ' नेवर लेट मी गो' दो लड़कियों और एक लड़के की कहानी है जो परस्पर प्रेम के त्रिकोण में कैद हैं.ये तीनों बचपन से ही एक रिहायशी स्कूल में पढते हैं जहां बहुत सारे दूसरे बच्चे भी रहते हैं. एक दिन एक टीचर उन्हें बताती है कि वे सब असल में दूसरे लोगों को अपने महत्वपूर्ण अंग दान करने वाले है और उनकी जिंदगी का और कोई मकसद नहीं है. उन्हें इसी लिए दुनिया में लाया गया है ताकि थोड़े बड़े होने पर उनके अंग एक एक कर बीमार लोगों में प्रत्यारोपित किये जा सकें.
वे सब एक नज़रिए से अपने शरीर को शनैःशनैः गिराते किसी भूतहा हिमालय की यात्रा पर है जहां से मृत्यु तक वे एक पूर्व निर्धारित मार्ग से पहुंचेंगे.

इस जानकारी के बाद मृत्युबोध लगातार एक कूबड़ की तरह साथ बना रहता है.दोनों लड़कियों में से एक का प्रेम उदात्त है और दूसरी का ईर्ष्या, अधिकार और जीतने के भाव वाला.इस तरह ये असल में त्रिकोण न होकर एक जटिल ताना बना है जो अपने सरलतम रूप में तभी आ पाता है जब देह अंग विहीन होती छीजने लगती है.आखिर में एक लड़की अपना अधिकार ईर्ष्या और जय सब छोड़ देती है और बाकी दो विशुद्ध प्रेम में आतें हैं और पहली बार मृत्यु के आयत से बाहर आने के लिए असफल प्रयास करतें है.

इस कल्पित दुनिया में जीने वालों के लिए भी बेहतर जीवन के साधनों की आकांक्षा नहीं पनपती. जो सहज रूप में उनमें उपजता है वो है प्रेम. हम नहीं जानते कि जिनकी देह एक विराट प्रयोग का हिस्सा भर है और आत्मा सिर्फ मृत्यु बोध से भारी उनमें प्रेम किस तरह आता है पर फिल्म बताती है या ये कल्पना करती है कि उनमें भी प्रेम सहजता से आ सकता है. जटिल समाजों से उपजी स्मृतियों के बिना भी प्रेम अपने गुम्फित ताने बाने के पूरे लाव लश्कर के साथ आ सकता है. और वो आखिर में जीवन की तीव्र लालसा पैदा करता है. वो जीवन मांगता है. 'मृत्यु के साथ और उसके बाद भी' वाला किताबी प्रेम यहाँ खारिज है. उसे जीवन चाहिए लंबा नहीं पर भरा भरा सा.