Friday, December 7, 2012
शुभ्र ढलान पर लाल तारा
Friday, November 9, 2012
किशोर चौधरी का कहानी-संग्रह---'चौराहे पर सीढियां'
Tuesday, October 9, 2012
चारपाई पर बुढ़िया
Saturday, July 28, 2012
देवालय से दुर्ग
Sunday, July 8, 2012
कुछ कच्ची पक्की
Monday, May 21, 2012
हिसाब की पांडुलिपि
Sunday, May 13, 2012
लालटेन
Sunday, April 15, 2012
कुछ और कवितायेँ
Saturday, February 18, 2012
कुछ छोटी कवितायेँ
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEho5qsevAbptxD4JWUnEij4Jlx4c7uix8XdZgd7nIGkeXZ7nwhQmeI_jmLM7RiCRu4qZWTo5Q35EMH0sWsafm-JrzYqCXdUPsBeNpssisd4u2jqrrxLT5dlxO8AEWc1d8qmFXTE01UGBDc/s320/197095474_a36d816a45_z.jpg)
ओट
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डर नहीं है पर
प्रेम करते वक्त छुपो थोड़ा
यूँ समझो कि
इससे एक प्राचीन क़ायदे की
इज्ज़त बनी रहती है.
बस, इतनी भर ओट ही
काफी होगी
जितनी आकाशीय तारों के जलसे में
रहती है
दूज के चाँद की
जितनी वर्षा-भीगे वन के मुखर उल्लास में
रहती है
झींगुरों के शोर की
जितनी अघोरी के नितांत निजी आनंद में
रहती है
चिलम के धुंए की
बस प्रेम को थोड़ी ओट चाहिए
किताब पढते पढते सो जाना
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हर रात
अपने प्रिय लेखक की डायरी
को पढता हूँ
लेटे लेटे
और अक्सर
सो जाता हूँ बीच में ही कहीं
फिर मैं और वो डायरीकार
आमने सामने होते हैं
बैठे चुपचाप
ये अमूमन हमारे मिलने की जगह है
मैं अपनी नींद में निकलता हूँ बाहर
तो वो आकर छुपता है मेरी नींद में.
जैसलमेर(पीले पत्थरों का शहर)
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ईश्वर ने
लालटेन जलाकर
शहर को देखा
और फिर
लालटेन बुझाना भूल गया.
Saturday, February 4, 2012
माचिस की डिबिया
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhy5U72rSrLdYEaBgTQa0qo-rUZOZIZ9zP4NP-Q27lGa1kx67Rbs4VdSM_rxNL0w6daJwYcGp6UlbOea-RstYNycnA4kdKkB8l0yAKrcFyq5i0mLXTCt52jy9Fnllkk6NhdlO_HVp3XOLU/s320/Henri_Rousseau_010.jpg)
माचिस की हरेक तीली की नोक पर पिछले दस हज़ार सालों का इतिहास दर्ज़ है. उस नोक की एक रगड़ से उत्पन्न आग इंसान की पैदा की गयी पहली आग की स्मृति है.और ये सिर्फ उस ताप की स्मृति ही नहीं है उस ज़ायके की स्मृति भी है जो पके हुए खाने के जीभ पर आने से पहले खुशबू के रूप में पहली बार फैला होगा.माचिस की तीली अपनी डिबिया में मौन रहती है.एक रगड़ भर का फर्क है इसके मूक से वाचाल होने में.
डिबिया
माचिस की डिबिया एक तीली की तरह पुरातन धुंए में लिपटे खाना पका रहे सबसे पहले चटोरे आदमी के दर्शन भले नहीं कराती पर कुछ साल पहले ही पीछे छूटे बचपन को ज़रूर हमारे सामने प्रकट करती है. कम से कम मेरे बचपन को तो ज़रूर. शौक था उन दिनों खाली माचिस की डिब्बी के ऊपरी चौकोर भाग को इकट्ठे करने का जिस पर ब्रांड-नाम के साथ चित्र बना होता है.इसे छाप कहते थे. उस वक्त बन्दूक छाप और मुर्गा छाप माचिसें आम मिला करती थीं. इन डिबियाओं की छापें जमा करना प्रिय शगल हुआ करता था जिन्हें इकट्ठे करने के लिए खुर्दबीनी नज़र के साथ काफी आवारा भी होना पड़ता था. इन माचिसी कला नमूनों से एक खेल भी खेला जाता था जिसमें लड़के अपनी छापों को एक समतल धरातल पर इकठ्ठा कर एक पत्थर से उन्हें उनके घेरे से बाहर निकालने का प्रयास करते थे. जिस खिलाड़ी के वार से जितनी छापें बाहर वो उतने का मालिक.हां इन छापों के अंक तय थे.बन्दूक वाली का एक तो मुर्गे के पांच.ये अंक ही हार जीत का फैसला करते थे.
सर पर धूल
असल बात तो ये थी कि ये शौक हमें भटकने का मौका देता था. क्योंकि बेहतरीन नमूने बीनने के लिए अपनी और महल्ले की चौहद्दी को लांघना पड़ता था. ये काम बेशक घर वालों से छुपकर ही होता था. माचिस की छापों का शौक घरवाले निहायत रद्दी मानते थे, क्योंकि घर के बाहर माचिस का इस्तेमाल सिगरेट जलाने में होता था और घरवाले माचिस और सिगरेट की अनूठी दोस्ती से आशंकित रहते थे. इनकी आपस में संगति इतनी पक्की मानते थे कि जहां डिबिया बीनने का शौक हुआ नहीं, वहीं धुंए उड़ाने में देर नहीं लगने वाली. कुछ इस तरह की सोच थी उनकी.पर भटकने का अपना सुख है. एक नियत भूगोल को लांघने का सुख.और लगभग वर्जित क्षेत्र में विचरने जैसा भी.
घर से रेलवे स्टेशन दूर था और माचिस के नए नए नमूने वहीं मिल सकते थे, यानी उसके आसपास की दुकानों में, क्योंकि कई तरह के लोग वहाँ आते थे.ऐसी ही किसी शाम मैं माचिस की खाली डिबियाएं बीनने-ढूँढने के चक्कर में दूर निकल गया और रास्ता भूलता रहा. जितना चलता उतना ही भूलता.जब तक डर शुरू होता तब तक ये भी पता चला कि भटकते भटकते गुम जाने का एक अलग ही नशा होता है. एक अन्जान भूगोल में आना, उस ख़ास समय में अपनी नागरिकता बदल देने जैसा होता है. आपका हर जुड़ाव छिन्न भिन्न हो जाता है.एक अनाम खोज का थ्रिल महसूस होता है.
मुझे अनंत तक के लिए भटक जाने का रूपक बहुत आकर्षित करता है.इसे मैंने महसूस किया काफ़्का की एक कहानी में जिसमें हंटर ग्रैकस को ले जाती मृत्यु-नौका अपना रास्ता भटक जाती है और वो सदियों तक जीवित और मृत के बीच की स्थिति में, इस किनारे से उस किनारे, पार्थिव पानियों में यात्रा करता रहता है. मेरा मानना है भटकन में कितनी ही संभावनाएं और भी खोजी जा सकती है.भटकन में सूखे होठों की प्यास है, भटकन में इन होठों पर फिरती लालसा की जीभ है,अन्जान पानियों की यात्राएं हैं,अज्ञात कंदराओं में गुमशुदगी है, और भटकन में लापता हो जाना है खुद में... और खुद का.
(photograph of a painting by Henri Rousseau,courtesy- wikimedia commons)
Saturday, January 14, 2012
जैसे किताब के कवर पर लड़की का अधूरा चित्र
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjn_jBO5TMx4gfIHfeSjr4cwwt7mEQHlQ35WjObI7QNbqqrx2a0T9pPYGjs_uUzQT1iO-R7oBUrZh5Mykh8kONl50ad4jc-Ix5NNdxTSQg129oiddzi58w0nVF7BVzWYsExWJv74KnS3pA/s320/5556342968_210c595356_b.jpg)
इस पंक्ति के बाद से एक वादे की पवित्रता भंग होती है.
उसने कहा था कि तुम खुद से भी कभी ज़िक्र मत करना
उन पलों का
जो साझा हैं हमारे बीच
पल जो हिसाब की किसी बही में दर्ज़ नहीं
दिन रात के दरम्यां कहीं नहीं
नहीं आते जो
घड़ी के किसी भी कांटे के
रास्ते में .
इनकी बनावट संभवतः
समय की मांस मज्जा से न होकर
किसी नितांत आदिम से है
अजानी, इस लोक के किसी भी ज्ञात सन्दर्भ से.
एक दिव्य पारितोषिक की तरह मिले हैं
साझा मिल्कियत के ये पल
देशज पाठ में कहें तो
नाप के बाद दूधिये से मिले
दूध के कुछ अतिरिक्त मुफ्त छलकाव.
तय हुआ था
कि जो कुछ भी है
संयुक्त अधिकार में
जिसमें इस अधिकार का ज्ञान भी शामिल है
उसके सूक्ष्मांश को भी किसी से
बांटा नहीं जायेगा
और यहाँ मैं सिर्फ इतना कहकर भी
तोड़ रहा हूँ वो अहद जैसा कुछ
कि
बहुत हसीन हैं गोपनीयता के ये द्वीप
बनते जिन्हें देख नहीं पायी
झपकी लेते ईश्वर तक की उनींदी आँखें
जो अब तक इस दुनिया के
बेहतरीन नक़्शे में भी चिन्हित नहीं किये जा सके
और जिन्हें अकेले देख पाना
खुद मेरे लिए
किसी परम विकट भूलभुलैया में
हाइड एंड सीक खेलने जैसा है.
ऐसे ही कैटाकौम्स में फंसा मैं
रास्तों की पहचान कुछ नाकाफी सूत्रों से करने की
कोशिश करता हूँ
जैसे इस किताब के कवर पर
देखता हूँ किसी मुलात्तो लड़की का
अधूरा छपा चित्र
जिसमें
आधे ही दिखते चेहरे में
चुनौती देती है उसकी आँख
(दूसरी चित्र में दिखती नहीं)
और आग के फूल की तरह रखे
हैं तप्त होंठ
जिनके आगे मैं भूल जाता हूँ
अपने प्रिय लेखक के नाम में विन्यस्त
बड़े बड़े अक्षर.
मैं किसी बीते साथ की
अलाव सी आंच महसूस करता हूँ
ऐसे ही हर अपूर्ण के
रह गए किसी बाकी में
ढूँढता हूँ मैं
उसे
और उस साझा
सम्पदा को.
जैसे फुसफुसाहटों के ज़रिये
पीछे छूट गए वाक्यों को
इशारों में मूक रह गयी कामनाओं को
और झूठ में गठरी बने बैठे हां को.
(image courtesy- jeffb123)
Wednesday, January 11, 2012
बुखार में और उससे बाहर
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg84eJ7K8Oyq5SL480GLoRaPZlNReN9DJnTo7Yc8DGgPo1hhwO5NUPShvxphvC7I6bqWjX64dePucYz9kuhcg8MPITGOCa2BddGWR_eFhnWujeUFLxPiweFTnR3mBrcicn7CSxFkymHz58/s320/4347305428_4a59d62674_b.jpg)
नाक में घूमता है तमतमाई भीतरी झिल्ली से रिसता श्लेष्मा का गरम पानी. किसी नामालूम द्रव से भरी आँखों की झील उफनती है. मस्तिष्क गाढे लावे सा बहता है धमनियों में. चाहता हूँ कि इस धधकती देह से निष्कासित कर दिया जाकर हाइड्रोजन भरे गुब्बारे की मानिंद ऊपर छत से टिका रहूँ.
सपने एक बहुत तेज़ भागती रील हो गयी है जिनके चित्रों को किसी मसखरे ने बेतरतीब जोड़ रखा है.एक बहुत ऊंचा शिखर दिखाई देता है.नोकदार. जिसके दूसरी ओर सिर्फ जानलेवा ढलानें हैं.पृथ्वी अपनी कील पर लट्टू सी घूमती है.लगता है उसका भी घूर्णन काल गडबडा गया है, एक डर सा लगता है,कहीं कील से ये फिरकनी दूर न जा गिरे.खगोलीय नियमों की गणितीय सटीकता एक भ्रम लगने लगती है.पूरे ब्रह्माण्ड की यांत्रिक गडबड़ी की शुरुआत यहीं से हुई महसूस होती है. कितनी देर विभ्रम बना रहता है कुछ पता नहीं.कितना समय इस बीच निकल जाता है बिना चिन्हित हुए, याद नहीं.
फिर..कहीं एक जद्दोजहद चलती है शरीर के भीतर.बिगड़ी हुई हार्मनी को किसी तरह उसकी रोज़ाना की लय पर लाने की कोशिशें चलतीं हैं. शरीर खुद जैसे लय में आना चाहता है. ज्यादा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता इतना सब कुछ अनियंत्रित, नियमों से बाहर.चरम पर पहुंचे तनाव के बाद शैथिल्य की ओर ही लौटना है इस बार भी शायद...
हां लगता है..अब लौटने का रास्ता यहीं कहीं था.
अब तक देह से निरपेक्ष रही चेतना धीरे धीरे भारी होकर नीचे बैठती है. कोई दौड़ खत्म होने के बाद की हांफ, जिसमें अब तक तीक्ष्ण नोक पर टिके रहे प्राण पसरना शुरू होते हैं, भरने लगतें हैं धीरे धीरे.देह के भीतर ताप सिकुड रहा है.विश्रान्ति लाती छोटी छोटी तन्द्राएं आने लगती हैं. छाती में भारी हो चुके कफ की आवाज़ में अब गुरुता है. आँखें बाहर देखती है.पेड़ों का झूलना, लोगोंका चलना, पक्षियों का उड़ना, भागना कुत्तों का,सब धीरे होता जा रहा है,लगातार.परिदृश्य मानो किसी चिपचिपे द्रव में डूबा है जो लगातार और ज्यादा गाढा होता जा रहा है.क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया में जैसे अंततः एक बिंदु पर आकर सब कुछ किरचों में बिखर जाएगा और तैरने लग जाएगा बाहर स्फूर्त हवा में.
Friday, January 6, 2012
सुबहें
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjB-16-MX3Uqwr67Puyjm-M2-hllktOKj1WoO36r1R1eQk2UAjsscvLVtTHIc20bO-xuekTyZRLQ6UmXqcY5dwlrBqG2BiHP0Om-J0pb78GXR1bR1Wz5VALaDfBw7AZxY7g1tGLwv5N5aY/s320/5936639921_91737f3eb9_b.jpg)
पीपल के पत्तों से झर कर आती सुबह बहुत उजली लग रही थी.एक दम साफ़ झक.शफ्फाक.बिलकुल सुबह जैसी सुबह.न कोहरे में लिपटी न धूल से सनी.और अगर वक्त की बात की जाय तो समझिए सूरज क्षितिज से अब कभी भी नमूदार होकर पीला रंग फेंक सकता था.मंदिर में भगवान को जगाया जा चुका था पर उनकी आँखें अभी भी नींद से बोझिल थीं.आस्थावानों का अभी जमघट नहीं लगा था बस इक्का दुक्का ही मंदिर में आ रहे थे जिसका अंदाज़ अच्छे खासे अंतरालों में बजती घंटियों से लगता था.
ये बरसों पहले की बात है जब हममें काफी बचपन बाकी था. और दिखने मैं तो सच में ही बच्चे थे. इस सुबह के तो खैर ठाठ कुछ निराले ही थे.मैं अपने घर की छत पर एक कोने में ‘पानी वाली डायन’ किताब हाथ में लिए था.घर की छतें भी छोटा मोटा अजायबघर होती हैं.कहीं मटकी में डलियों वाला नमक है तो किसी में पिछली दीवाली पर की गयी सफेदी का बचा हुआ चूने का पानी है.पतंग और चरखी भी इसी छत पर हैं.पर सबसे बड़ी चीज़ है, छत पर रखा रहता है वो दुर्लभ एकांत जिसमें सुरक्षित है वह इंतज़ार जो सामने की किसी छत पर आने वाली प्रेयसी के लिए किया जाता है.
इन दिनों चूँकि गर्मियों के दिन थे तो पड़ौस की छतों पर कई अघोरी अभी भी सोये पड़े थे.वैसे अभी सोये जा सकने जैसा समय भी था.पर हां औरतें घरों के कामों में लग चुकी थी.
कुल मिलाकर मैं इस अनूठी और जादुई सुबह में छत पर, दुनिया की अभी अभी शुरू हुई गहमा गहमी से दस फुट ऊपर किताब पढ़ने के सच्चे आनंद को नितांत अकेला भोग रहा था.कुछ कुछ वैसा ही जब घर में आपके अलावा और कोई न हो और आपके हाथ मां का छिपाया मिठाई का डिब्बा लग जाय.हां यह किसी गोपन सुख का ही आनंद था जो बिना किसी की जानकारी में आये मेरे सामने प्रकट था. और बड़ी बात ये भी थी कि कम से कम इस वक्त तो पास में कोई ईर्ष्या करने वाला भी नहीं था.
किताब में पुखराज की चट्टानें,भीमकाय दोस्त,बौने दुश्मन,जलपरी, नदियाँ सब थे.और उस उम्र का ये विश्वास भी कि फंतासी घटने से सिर्फ थोड़ी ही दूर होती है.
ऐसे ही कुछ यादगार सुबहें अपने पूरे आकार प्रकार में, लगभग भौतिक रूप में हमारे भीतर बनी रहतीं है. अगर आपको बताऊँ तो ऐसी ही एक सुबह कुछ साल पहले की है जब ऑस्ट्रेलिया में भारत क्रिकेट सीरीज खेल रहा था.यहाँ मैच सुबह के पांच बजे के आसपास टीवी पर आते थे.भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच एक अलग रोमांच लिए होता था और उसे घटते हुए देखना,वो भी सुबह जब घर के लोग किसी और कमरे में सो रहे हो और आपके हाथ में चाय का कप और सामने लाइव मैच हो तो वो आनंद अवर्णनीय सा होता है....और सुबह एकदम से यादगार वाली.
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नए साल पर आप सबके मन में ऐसे बहुत सी सुबहें हों,और हर आने वाली सुबह ऐसी ही सुबह बनकर आये यही कामना करता हूँ.
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ब्लॉगर एक ऐसा रेडियोधर्मी पदार्थ होता है जिसकी अर्ध आयु काफी लंबी होती है.वो रचनात्मक रूप से हमेशा विकिरित होता रहता है.हां जब उसका फील्ड बदल जाए तो उसे भूतकालिक ब्लॉगर कहा जा सकता है.ऐसे ही भूतकाल के ब्लॉगर और हमारे परम मित्र, जिगरी प्रकाश पाखी के लिखे राजस्थानी भजनों का अल्बम ‘अर्पण’ मार्केट में आया है.प्रकाश को बहुत बहुत बधाई.इसमें से एक रचना ’बहता पाणी’ इस समय आपको सुनवा रहा हूँ.इसमें एक अलग ही कशिश है.और सबसे गज़ब बात है कि इसके ज़रिये प्रकाश ने बोलियों के बीच जो संत-फकीराना किस्म की आवाजाही की है, बिलकुल रमता जोगी अंदाज़ में, वो अद्भुत है. तो मज़ा लीजिए आप भी इसका.
(photo courtesy- cowgirl111)