Thursday, November 11, 2010
जागने का गीत
कानाफूसियों और दुरभिसंधियों से भरा एक और दिन
और शुरू हो कल ही सुबह
एक बेहतर जीवन की आस में
फिर से थका देने वाली दैनिक यात्रा
मैं जागना चाहता हूँ जी भर इस रात में
देख सकूँ जिससे
अपने बच्चों को सपनों की दुनियां में
डूबते उतराते,लोटते
सिहरते किसी काल्पनिक भय में
या खुश होते, खुश होने जैसी ही किसी बात से.
पढ़ सकूँ शायद जिससे
बरसों से बंद पड़ी किताब
या देख सकूँ कायदे से
माँ पिताजी का
युवावस्था का
पीला पड़ता साझा फोटो
जिसे अब पचास बरस होने को है
हालांकि इसे एकाधिक बार फ्रेम किया जा चुका है.
फ्रेम के कांच को माँ अब भी कई बार साफ़ करती है
और पिताजी डालते हैं इस पर अब भी कई बार
उड़ती सी नज़र
पर कायदे से इसे
कई सालों से देखा नहीं गया है
क्योंकि कुछ सवाल अभी भी अनुत्तरित है
मसलन इसमें पिताजी कि टाई उनकी खुद की थी या
इसे फराहम करवाया गया था
फाइन स्टूडियो के मालिक और फोटो ग्राफर खत्री जी ने
बिलुकल सही सही मौका कौनसा था जब ये
एकमात्र साझा फोटो खिंचवाया गया था
इसमें माँ के गले का हार अब कहाँ है
क्या इसे बेचना पड़ा या
घर में रखा है ये कहीं वगैरा वगैरा.
ऐसे मौलिक सवाल जब अभी भी सवाल है
तो संभावना इस बात की भी है कि सच में इसे
बहुत गौर से और गहन उत्सुकता से
कभी देखा ही नहीं गया है
कम से कम हम लोगों ने
माँ पिताजी ने अलग से
इस पर कभी बात की हो तो
अलग बात है.
जी भर जागना चाहता हूँ इस रात
ताकि थोडा वक्त चुपके से रसोई में जाकर
देख सकूँ कि
असल में क्या है वहाँ जमा किये हुए
डिब्बे डिब्बियों में
और घर के खाने में कौनसे मसाले
अमूमन इस्तेमाल हो रहें है.
या यही देख लूं जिससे कि
पत्नी दिन के आखिर में
तमाम दुश्चिंताओं को
पल्लू से झटक कर या बाँध कर
निर्भार
या कि बोझिल
किस तरह की नींद में
सो रही है आज.
Tuesday, September 7, 2010
सब वैसा ही है...तकरीबन
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2W6OLDuXRP1AyAkmZ0jANgcv6MudUCcDuKuyspzFEDvW1gBL8KSv0nPuuedKSt5XuMTXU-wIWBYkg4uiXvFU1E3JVni5ywEbBZz7KEa7hTREnhHeNmACrP8pCQkXcDHR_AZEyikyseeA/s320/2529942059_5dbfa63117_z.jpg)
उसकी चिंता का तात्कालिक कारण तो था उसका ख़ुद को आईने में देखना. काफी गौर से वो न पहचान में आने वाले 'ख़ुद' को देख रहा था. उसकी भौंहें बड़ी बेतरतीब नज़र आ रही थीं. नाक में से बाल बाहर निकले थे.कोरियन ट्रिमर कैंची बड़े वक्त से कहीं टंगी रह गयी थी और उसका हुलिया बड़ा बेतरतीब हो गया था.कुछ और लक्षण थे जिन पर वो नए परिप्रेक्ष्य में गौर कर रहा था. सुबह के पहले पाँव इतने निश्चल होते गए थे कि जैसे बिस्तर से न निकलकर कब्र की नम और सीली मिट्टी से बड़ी जद्दोजहद से निकले हों.आँखें सुबह के रंग देर से सोख पा रहीं थीं. कानों में देर तक सन्नाटे गूंजते थे और ज़माने का शोर धीरे धीरे उनमें भर पाता था. नहीं, ये उम्र बढ़ने के लक्षण नहीं थे. मतलब इन्हें एकदम उम्र बढ़ने के साथ जोड़ना काफी सरलीकृत पाठ होगा. तीस के पेटे में ये सब कहाँ होता है. और खासकर तब जब वो और तरह के बदलाव भी अपने भीतर नोटिस कर रहा था. ऑफिस में अटेंडेंट को बेवजह बुलाना और कभी कभी उसे देख कर कहना 'सावधान'! अपने सहकर्मियों को अपनी तरफ से बच्चों के घरेलू नाम देना और उन्हें देखकर हास्यास्पद अंदाज़ में, एक लय के साथ बुलाना. या फिर उनके नामों को बेवज़ह लंबा खींच कर बोलना. पत्नी को चूमते समय आज कल वो कभी कभी हंसोड़ की तरह मुस्कुरा देता था. बेशक उस समय वो नहीं देख पाती थी उसे ऐसा करते. वो अपने हिस्से की गंभीरता में पूरी गंभीर थी.
पागल वो हरगिज़ नहीं हुआ जा रहा था. घर के हिसाब में इससे काइंया वो पहले कभी नहीं हुआ करता था. दूधवाले की अनुपस्थिति घर के वैद्यनाथ पंचांग में वो मजबूती से ठोक देता था. अखबार वाला उसके हिसाब को फ़ाइनल मानता था. पिताजी की दवाओं का हिसाब वो विलक्षण दक्षता से करने लगा था. स्कूल की टैक्सी, बिजली पानी का बिल सब कुछ चाक चौबंद था.सत्रह तरह के लोन का निर्वाह वो पूरी सावधानी से कर रहा था. जानता था कि एक भी किश्त चूकने का मतलब है पार्टी फेल ! हिसाब में महारत के लिए उसने वैदिक गणित के लैसन शुरू कर दिए थे. जल्द ही हालत ये थी कि बही खाते के पीले पन्नों से वो ड्राइंग बुक की तरह खेलने लग गया था. फिर मसला क्या था? "कुछ भी नहीं." उसने तसल्लीबख्श अंदाज़ में सोचा फिर मुस्कुरा कर कैंची हाथ में ली और सधे हाथों से मूंछों को संवारने लगा. पत्नी शायद पहली बार उसके इस तरह मुस्कराने पर बोली- " इसमें इतना हँसने की क्या बात है?"
(Image courtesy- Martin Beek )
Saturday, July 31, 2010
लिस्ट
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKkubbywU1cPKk_Mrwu8_gufcltmkdTKRm9NxOolsbR54b5WnBWNNUK85A1AdQ6-6YHE9KeLeuyR65mPHj4EMe1gHMow3u8-cg7j95K4quno6g3sP8gZfVVuzchN2mJ__uWgk8piclhA0/s320/3996360547_67068ded1e.jpg)
सबसे क्षीण यहाँ आँधियों की स्मृतियाँ हैं.कितनी अब तक आयीं और गई,सबसे तेज कौनसी थी कुछ याद नहीं. और सबसे प्रगाढ़ बारिश की.बीस साल पहले हुई बारिश में कस्बे का तालाब पूरा भरा था.उसके बाद इतनी जोर की बारिश याद नहीं. हाँ पर अभी कुछ दिन पहले रात बादलों के दबाव और दाह से छूटी तो इतनी भीगी कि अगली सुबह एकदम ताज़ा फूल की तरह निकली.और उसी सुबह मुझे झिंझोडती हुई एक आवाज़ ने जगाया.ये कोई चिड़िया थी जो पिछले साल भी इन्हीं दिनों में सुनाई दी थी.मैं पूछना चाहता था अपनी माँ से, कि ये कहीं वो तो नहीं थी जिसे माऊ(दादी) ने एक कहानी में बताया था कि एक चिड़िया अपने जीवन में सिर्फ एक बार, वो भी बारिश में ही पानी पीती है.दादी ने बात बात में ही बताया था कि ऐसी ‘चिकी’ का अस्तित्व है और खुद उसने, सिर्फ एक बार, अपने बचपन में उसे देखा था.मैं खुद आज भी आश्वस्त नहीं हूँ कि ये दादी का पानी को लेकर उपजा हैलुसिनेशन था या एक सच.रेगिस्तान में इस तरह की कई बातें पानी के इर्द गिर्द कही जाती रही हैं.आज तक इनमें से कई के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता. अब दादी नहीं है.पिछले दस साल से.माँ गाँव जा चुकी है और पत्नी मेरे जितनी ही समझदार है. तो यूँ मेरे काम की लिस्ट में एक काम और बढ़ गया है.
कुछ देर बाद पास की पटरियों से शहर की सुबह के कोलाहल में कुछ अलग जोड़ती जैसलमेर की ट्रेन आ चुकी थी.जिसकी द्रुत लय में अपने रुदन की विलंबित से बेमेल संगति बिठाते कुत्ते मुझे हमेशा इस ट्रेन की याद दिलाते है, वैसे ही जैसे ये ट्रेन महल्ले के कुत्तों की. जैसलमेर में मित्र को एक ज़रूरी बात के लिए कॉल करना था और ये कई दिनों से सुबह इस ट्रेन के बहाने ही याद आता है.पर फिलहाल ध्यान सिर्फ इस रोचक तथ्य पर ही गया कि पडौस के कुत्तों का इस ट्रेन की आवाज़ की प्रतिक्रिया में उपजा विलाप ‘जिनेटिक’ है.क्योंकि इन दस सालों में कुत्तों की तीसरी पीढ़ी भी यही कर रही थी. शायद अपने किसी पूर्वज की आह से उपजा था ये गान.
दोपहर बाद शहर के एक कोने के आकाश में हवाई जहाज की इतनी नज़दीक गडगडाहट से याद आया कि एअरपोर्ट के पास ही रहता है वो दोस्त जो सालों से अपने घर आने को लेकर मेरी जान खा रहा है. मैंने बाइक रोक भी दी पर घुमा नहीं पाया क्योंकि मेरे रोज के काम अभी बहुत बाकी थे और दिन आधा निकल चुका था.मैंने कुछ यूँ मन को समझाया कि कितनी बार वो आया था मेरे घर? भले ही इन दिनों मेरी उसे बहुत बुलाने की इच्छा भी नहीं थी. शायद ऐसा ही उसके साथ भी हो रहा हो? बाइक आगे बढाते वक्त भी वो कान में चिल्लाता रहा कि हूँ तो तेरा दोस्त आखिर.
वो खैर रफ़्तार के आगे हार गया.
शाम को किसी ने कह कि अजमेर में बारिश ज़ोरदार है तो जैसे धमाका हुआ.बिलकुल पास. तंवर जी को उनकी बेटी की शादी पर बधाई देनी थी. कार्ड आये पन्द्रह दिन हो चुके थे.और औपचारिक बात ये बिलकुल नहीं थी. वे हमारे पडौसी रहे है. कुछ साल पहले मुझे तेज बुखार हुआ था और वो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था तब भाभीजी ने राइ-लूण (टोटका) करके बुरी नज़र वाले को ललकारा था.मैंने बधाई का फोन करने की सोची तभी ख्याल आया कि अभी नेटवर्क गडबड चल रहा है और बात शायद हो नहीं पाएगी.कल कर लूँगा फोन.दे दूँगा बधाई.बिलेटेड.
ओह. यूँ रोज के कामों की टू डू लिस्ट में इन सबको जोड़ नहीं पाता.और इन्हें किसी बहाने से याद आने के लिए छोड़ देता हूँ.पर बहुत याद से, सावधानी के साथ टू डू की लिस्ट अपने सेल फोन के नीचे रख देता हूँ.बाहर निकलने से पहले मोबाइल लेना ज़रूर याद रहता है.पर्स से भी ज्यादा. क्योंकि उधार देने के लिए दुनिया मरी जा रही है.उगाही काम अब काफी प्रोफेशनल हो गया है. हाई टेक.जानते हैं वे कि निकलवा लेंगे पैसा.
photo courtesy- D.C.Atty
Tuesday, June 15, 2010
नील लोक
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpbtavBtYU-oKI6V-vSgexqMgzV6_UZ1dfDCLH8oHuu3S-nOWQOFXc75iRlsR3_I1jBdgT8ghSNDqpiy5rhj3qlkHYBP0wimJYdt-BsB-KcsLRie8Ia8CeCq9nElFjI733r16EfxUkIzU/s320/Brooklyn_Museum_-_Sunset_over_the_Sea_-_George_Inness_-_overall.jpg)
जिस जगह वो रहता था उस जगह के आगे कोई बस्ती नहीं थी. गाँव के छोर से आगे जाने की अघोषित मनाही थी. कई पीढीयों से. उसे पक्का विश्वास था की दुनिया के गोल होने बातें महज बकवास थी.और दुनिया का छोर इसी बस्ती से आगे ही कहीं है जहां धरती एकदम किसी तीक्ष्ण किनारे में समाप्त होकर एक बड़े और भयावह और अंतहीन कचरापात्र में समाप्त हो जाती है. और इस गाँव के लोग अंततः इसी कचरेदान में ठेल दिए जायेंगे. तमाम से निर्वासित होकर ही उन्हें यहाँ रहने कि जगह मिली है और ये निर्वासन एक सतत प्रक्रिया है जिसमें अंतिम जगह इसी महान कूड़ा लोक में मिलनी है. ये नियति और भी कई लोगों की थी. बल्कि सभ्यता सिर्फ कुछ द्वीपों में सिमट गयी थी जिसकी भित्तियां अभेद्य थी जिनसे लोग बाहर ही जा सकते थे. भीतर आने का रास्ता नहीं था. लगातार धकेल देने का प्रोसेस सभ्यता की चमक बनाये रखने के लिए ज़रूरी था. सभ्यता की चमक, जो रात को निर्जन सड़कों पर बेशुमार बिखरी रहती थी जब पांच सितारा पार्टियां लगभग अँधेरे में कोलाहल के साथ परवान चढा करतीं थीं.
उसने समंदर को कुछेक बार ही देखा था पर उसके भीतर समुद्री यात्राओं की गाढ़ी स्मृतियाँ थीं. असल में लगातार छोर की तरफ धकेले जाने के अहसास ने समुद्र के प्रति उसके मन में गहन कृतज्ञता से भर दिया था. उसे लगता था कि तमाम निर्दयताओं की बावजूद समुद्र आदमी से खेल ही करता है और जीवन के विरुद्ध तमाम संघर्षों के लिए उत्तरदायी होने के बाद भी उसमें ज़रूरी तरलता बचाए रखता है. वैसे भी अंततः किसी भी तरह के जीवन का पहला घर समुद्र ही है. समय और दिशाओं के जूनून से मुक्त समुद्र आदमी को उसकी ज़रूरी वैयक्तिकता लौटाता था. उसके अस्तित्व के प्रति सम्मान के भाव के साथ.
कई यात्राओं की प्रगाढ़ स्मृतियों के साथ,भले ही उनमें से कोई भी उसने नहीं की थी, पर जिनके बारे में महान वृत्तान्तकारों के बताए सूक्ष्म विवरण उसके सामने जीवंत थे, वो अपनी पहले समुद्री यात्रा के लिए निकला और कई दिन के बाद अब वो बीच समंदर में एक जहाज पर था. हवाएं खारेपन से लदी थी. दूर दूर तक सिर्फ समुद्र ही था. ऐसा लगता था कि जैसे ज़मीन सिर्फ एक कल्पना थी. ठोस कुछ भी नहीं था. जितना तरल बाहर था उतना ही भीतर. सब कुछ बहता हुआ. प्रवहमान. प्रेम को लेकर भी द्वंद्व का सख्त ढांचा टूट गया था. अब सिर्फ निर्द्वन्द्व प्रेम ही रह गया था. डेक पर उसने दो प्रेमियों को देखा जो समुद्र के आह्वान पर आये थे और कुछ ही देर में खारी हवाएं उनके बीच के सारे संकोच, आग्रह, झिझक, मर्यादा वगैरह को घोल चुकी थी. अब सब कुछ उनके बीच पारदर्शी था. बिलकुल भीतर के मन तक.
तमाम सरलता का वास यहीं समुद्र में था. ये तो विकास-क्रम में कुछ जीवों की महत्वाकांक्षा थी जो उन्हें ज़मीन पर ले आयी थी.एक लिप्सा आगे बढ़ने की , किसी दूसरे की कीमत पर. यूँ समंदर भी मौत के खेल में पीछे नहीं था बल्कि पल पल यहाँ यही कुछ होता आया है पर इस जल-मैदान के कुछ सरल कायदों का सम्मान करने मात्र से आपके निजी अवकाश को पूरा सम्मान मिलता है. यहाँ सब कुछ सीमाहीन है पर यूँ अपनी अपनी सीमाएं जो निजता का सुख भोगने के लिए ज़रूरी है.
शाम के ढलने का वक्त था. समुद्री आकाश जल-पक्षियों से आच्छादित था.एक अंतहीन विस्तार में प्रेम की भाषा कौंध रही थी.जीवन के संघर्ष प्रेम की प्रदीप्ति के आगे अपने ताप को अस्थायी तौर पर छोड़ चुके थे.कल उसके लौटने का दिन था. वो फिर किसी किनारे से आ लगेगा. उसे फिर विस्थापन के विरुद्ध लड़ना होगा. आखिर धरती के युद्ध धरती पर ही लड़े जायेंगे।
photo courtesy- wikimedia
Thursday, April 29, 2010
ट्रिक
देखा भी नहीं था
तब अमर चित्र कथा में
सिंदबाद जहाजी की यात्राएं पढ़कर
मोहल्ले के खेल जीत लिया करते थे
भले ही ये यकीन अदेखे और
अविश्वसनीय भूगोलों से आता था
पर शायद जिंदा इंसान का हौसला ही
इसे सच की तरह प्रस्तुत करता था
बड़ी ही तरतीब और करीने से
असंभव हौसला गढ़ा जा सकता है
सभी ज्ञात स्थापनाओं के बिलकुल समानांतर
और विपरीत
कुछ कुछ असंभव प्रेम की तरह
जिसकी शुरुआत होते ही
शुरू हो जाता है इसे
सरल किये जाने विश्वास
खेल में ही छला जाता है असंभव का व्यूह
हुडिनी दिखाता है
कि कई फीट पानी के नीचे भी
ताला लगे बक्से के बाहर
आया जा सकता है
बाद में जिसे हम एक ट्रिक के रूप में
व्याख्यायित करते हैं
शो के ठीक एक सेकण्ड बाद
हैरतंगेज़ रूप से आसान दिखते ही
तालियाँ बजाते हैं
एक ट्रिक
बहुत छोटी और बेहद सादी होकर भी
असंभव की धज्जियां उड़ा देती है
जादूगर के हैट से निकलते ही
यही असंभव कोने में पड़े
कबूतर से ज्यादा नहीं मालूम होता
असंभव हमेशा किसी ट्रिक से
या खेल से हार जाता है
एक खूबसूरत धोखा भी जिसे कह सकते हैं।
Wednesday, March 17, 2010
रोंडेवू
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhd0ccgY0QFEsXIaJblFF1OmLc4yN5d8hsBX50Ezwev87M1KYb1fvcAsHZ1BFOuhZW-1kQrUz_TgtlHiRoZgLp1BNUhjrqgF4wyZ_vx1Ubj-wzlntKkFq7YoK9K3tKiRkRPWGM__DDgrQ/s320/3030835155_c606022205_b.jpg)
न पहुंचे हो जहां
दुस्साहसी यूरोपीय यात्रियों के कदम
या थम गया हो जहां
सदैव चलता बौद्ध भिक्षुओं का जीवट
घंटों थिर रहने वाला
योगियों का प्राण भी
जहां काँपता हो
जिस जगह अभी अभी उर्वर हुई
धरती का हरापन ही साक्षी हो
मैं वहीं मिलना चाहता हूँ
इससे पहले कि
कोई कीट पहुंचे वहां
और बाकी दुनिया में
भन्नाता पहुँच जाए कानाफूसी करने।
मिलना चाहता हूँ ऐसी ही किसी जगह
और बचाना उस चरम निजी पल को
जो सुरक्षित रखा जा सके
अभेद्य खोल में बीज की तरह
सतह से कई हाथ नीचे
शताब्दियों बाद ही
नमी और उमस से
किसी गाथा वृक्ष में
फूटने के लिए।
आने वाली संततियां जब
अपने पूर्वज के रूप में
किसी पौराणिक ऋषि से
मुझे विस्थापित कर दे
तो इसी गाथा में
बचा रह जाऊं मैं।
( image courtesy - Torley )
Sunday, March 7, 2010
नींद में, उससे बाहर
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPB8kGVEAn8uuUmoAXXq7Uuvk5EkRFD3EYqtYx-uQXog8KeP91vWwKmt6KkC3LQXQhyphenhyphencbbesVNOjX1ERveFq5n4aMwLyfC3jgJt-MDKasmzFhhPQLdLUAomYez15pyBiMGZbb2ml3zQnY/s320/Van_Gogh_-_la_M%C3%A9ridienne.jpg)
ढाबे पर बस रूकती है. ये रात की बस है जो एक छोटे शहर से लगभग महानगर को जोडती है. ढाबे की चारपाई पर बैठकर खाई गयी रोटियाँ और तीखी सब्ज़ी बेस्वादी लगती है.शायद असमय या 'कुवेला' इसका कारण हो. बहुत कम लोग उतरे हैं यहाँ. ज़्यादातर बस में और नींद में हैं. जो लोग उतरे हैं वे भी किसी ट्रांस में चलते हुए लगते हैं.सबसे सजग ढाबे का मालिक है जो अपने चरम साहूकार रूप में नज़र आता है. काम करने वाले लड़के नींद से बीमारी से और ज़िन्दगी से लड़ते हैं. नींद तब भी उनके पास मंडराती है उनके लिए कुछ सपने शायद साथ लाई है. पर बच्चे उसे परे झटकते हैं.ढाबे की सिस्टर कंसर्न एक पान की दूकान है.जिसमें एक गोविंदा पर फिल्माया गाना फुल वोल्यूम पर चल रहा है.रात के इस वक्त यहाँ सवारियों में कई तो इसलिए उतरी है कि पेशाब का मौका अब आगे नहीं मिलेगा और लगे हाथ चाय भी पी लें.
इस उमस और ढाबे की तेज़ रौशनी में बड़े बड़े टिड्डे प्रणय- उड़ान भर रहे हैं। उनकी एकमात्र इच्छा सब कुछ हैरत अंगेज़ करवा रही है.इससे बिलकुल अप्रभावित लोग चाय पी रहे हैं.
एक युवती क्यों अपने शयन को छोड़ यहाँ उतरी है? हमारे श्रीमान जी को इस कुसमय में कुछ नहीं सुहा रहा पर दिमाग में हार्मोन का वेग टिड्डों से टक्कर लेने लग गया है. युवती वापस बस में चढ़ गयी है. श्रीमान जी की प्रणय उड़ान की भी इसके साथ ही क्रेश लेंडिंग होगयी.
कुछ ही देर में बस ढाबे की आक्रामक रौशनी को छोड़ फिर से मखमली अँधेरे में घुसी जा रही थी. नींद फिर सभी सीटों पर पसर रही थी।ऐसे में धीमी धीमी आवाज़ में ' ओ गाडी वाले गाडी धीरे हांकना ' सुनना सुकून भरा था.लगता है ये ढाबे वाला स्टॉप कोई बुरा सपना था. बस में सोये यात्री कितने मासूम लग रहे थे ! विश्वास करना मुश्किल है कि सुबह ये नींद और मासूमियत की केंचुल यहीं छोड़ जायेंगे.
पर शायद कुछ इनमें भी बचे रहेंगे इसी चेहरे के साथ. कल सबसे ज्यादा ठोकरें इन्हीं के खाते में लिखी है.
( photo courtesy - wikimedia )
Saturday, February 27, 2010
फेंका हुआ
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDC6pAeHLuy9BVBqETb0kv0pkCQTy_fWyArfK8qT6mYw9gbieZLu7Vd2M_HW8voYPbA7xQriBsZHfgfnqSGG8ighN90Q79GZhujw10ku8dGgYWbXwfBwow7REb395WSSwOcWDkPde_nKU/s320/3086670925_1927c9bb6f.jpg)
कोई अपकेंद्री बल उसे तेज़ी से किसी अनजान दुनिया में फेंक रहा था। उसके अपने उससे दूर भागते प्रकाश बिन्दुओं में तब्दील हो गए थे। या वो ही उनसे दूर फेंका जा रहा था।उसकी अपनों से बनी दुनियाँ बहुत छोटी थी। पर उन्हें सहेजने का काम करने वाले स्मृति-कोष पर से उसका भरोसा उठ चला था। उस बेकार से थैले में बहुत पुराने हादसे अपने मौलिक चटख रंगों के साथ जस के तस थे और उसके अपनों की याद कभी कभार की टहल में ही सुरक्षित थी। उसे पक्का विश्वास हो गया था कि दिमाग में याद जमा करने वाला भाग दिमाग का कोई पुर्जा न होकर कोई अलग ही 'एंटिटी' थी। कभी कभी शैतानियत का खेल खेलने वाली।
किसी अपने को, जिसे वो ठीक से स्थिर देख सकता था तो वे उसके पूर्वज थे जो आसमान के किसी कोने में ठन्डे तारे के रूप में टिके थे और उसे निस्पृह भाव से एकटक देखे जा रहे थे। हर वक़्त देखे जाना असल में न देखना ही माना जाना चाहिए। कोई निर्जीव आँख ही आपको लगातार देख सकती है।
इस आती जाती दुनियाँ में भौतिक दूरियां नहीं बढ़ी थी फिर भी वो लगातार किसी और ही पठार पर दूर होता महसूस कर रहा था। एक शक्ति उसे उसके अपने स्थान के साथ भगाए जा रही थी। किसी कैप्सूल में बैठा वो सिर्फ धकेले जाने का अहसास कर रहा था। उस कैप्सूल में उसका अपना स्पेस सुरक्षित था पर उसमें वो एक ही था। चारों ओर पारदर्शी लसलसा जैल भरा था जो उसकी वहां से छूट भागने की तमाम कोशिशों का लिजलिजा किन्तु कामयाब जवाब था।
( photo courtesy- isabel )
Friday, February 12, 2010
एक करवट और
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEge2p8EoTe1dJB3tKCLUW2P-nDIjXyz5k1O_XVp87y1IOqPAP7mVk-ySw4agiouVWM04D_sBcDWU7dZ0BEHhnYNyillDsKjPlETUBC1dpt1W46TIq-EF0hXtGENCO-xnszctOHu86sNDkk/s320/372127030_9c9982d4bd_b.jpg)
उसकी बेचैनी औंधे गिरे भृंग की तरह थी जो सिर्फ एक जीवनदायी करवट चाहता था.एक अर्ध-घूर्णन. फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा.या कम से कम ऐसी उम्मीद की जा सकती थी. उल्टा पड़ा कीड़ा जैसे अनंत शून्य में अपनी आठों टांगों की बेहाल हरकतों में कोई खुरदरा आधार ढूंढता है. एक मचल मची थी भीतर. एक गहरा गड्ढा जो हर अस्तित्व को नश्वरता में धकेलता था. उसी गड्ढे में तेज़ी से गिरा जा रहा था वो. समय का सूक्ष्मांश ही था उसके पास जो उसकी बेचैनी की रील को चलाए जा रहा था.
ये सीधा सादा मृत्यु बोध नहीं था बल्कि उससे भी ज्यादा गहरा ज्यादा अँधेरा था.एक बेचैनी जिसमें बाज़ी के ख़त्म होने की घोषणा नहीं हुई थी. कंधे चित्त थे पर रैफरी उसकी बेचैनी से तय नहीं कर पा रहा था और फैसला करने में अभी तकनीकी अवकाश बीच में था. एक पलटी से वो फिर गेम में आ सकता था.
असल में उसकी तमाम यांत्रिक क्रियाएं शरीर की खुद को बनाए रखने की चेष्टाओं जैसी थीं. उसका दिमाग लेकिन संभावित बचाव की सूरत में फिर से रोजमर्रापन में झोंके जाने की अनिवार्यताओं से जंग लड़ रहा था.करवट बदलने के बाद भी फौरी तौर पर उसे एक लगभग निर्वात चाहिए. निशब्द. बाहर के इस भीषण शोर में 'सटल' स्पंदन को महसूस किये जाने लायक. संवेदी तंतुओं के सिरों को फिर से जो आवेश ग्राही बना सके.एक ऐसी अवस्था चाहिए थी उसे एक बार की कि जिसमें चेतना एक बेहद हल्की दीप्ति में ही हो.
बस पाँव के अंगूठों के पोर पर ही हो महसूस करने जैसा कुछ.
जीवन की करवट में लौटने पर दुनिया में जाने से पहले सब कुछ शून्य से प्रारंभ चाहता था वो.
पर उसका शरीर अब भी तड़प से भरा था.
( photo courtesy - dariuszka )
Wednesday, January 27, 2010
तुमने मुझे कहा ...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjvAkEGRXBEDqEGk5cpsLF8oBjC8hLlfhXw-YyMDgfDTn7bYA-TXCQKNmMgxofRMejW4pjluQWOD-vsUQlV1aoo_3DB6rVADbatrRz1wEGhzwveblM3Tg5P2vtwIYfjq_Apfi5JPADDA5k/s320/4138757871_c671335946_b.jpg)
कानों में फुसफुसा कर उसने जो कहा था वो आई डू या कबूल है जैसी अर्थ चेतना वाला नहीं था. सिर्फ प्रेम-प्रस्ताव का प्राप्ति-स्वीकार था. एक सन्देश के सही जगह पहुँचने की सूचना. कोई वादा नहीं कि इस पर आगे विचार होगा या नहीं. पर फिर भी वो इतने में ही खुश था.बेहद खुश. उसने पूछा नहीं था कि मेरा प्रस्ताव मिला या नहीं. इसलिए यूँ इस तरह सिर्फ ये मानना भी कि तुमने मुझे कुछ कहा है कुछ अतिरिक्त सूक्ष्म को ध्वनित करता था. किसी स्वीकारोक्ति से पहले कुछ संचित होता सा. छूटने से पहले दबी हुई स्प्रिंग का भराव. और यूँ कान में धीरे से कहना शब्दों के साथ अपनी सांस का एक अंश रखने के लिए तो नहीं था? सुरक्षित. बीच की दुनिया के फासले को कम करते हुए.
पहले पहल उसने भेजा था 'प्रेम'. नाउम्मीदी नहीं थी इसमें. पर किसी फौरी अंजाम की आस भी नहीं. एक सुदूर भविष्य के लिए छोड़ा गया सन्देश था जैसे. किसी ने कभी रेडियो संकेत भेजा हो प्रकाश वर्षों के फासले पर. किसी परा-सभ्यता के लिए. और वहां से जवाब आया हो हाँ मिला तुम्हारा सन्देश. प्राप्ति की इस सूचना में निहित ही था कि सम्बन्ध में प्राक-मित्रता तो है ही.मित्रता की ज़मीन जिसे कह सकते हैं.
लौटते समय वो खुद को इतना मालामाल महसूस कर रहा था कि उसने भिखारी को पांच का सिक्का उपहार में दिया. इतना हल्का कि एक कटी हुई पतंग को लूटने के लिए कई छतें लांघता रहा.इतना हरा कि एक सहोदर की तरह पेड़ से लिपट गया.और इतना संतुष्ट कि ढाबे के बाहर पड़ी खाट पर सीधे लेट कर अखबार पढने लगा.
बरसों से जम कर ठस हो चुके अवसाद में जैसे ऊष्मा की नोक सी लगी थी.उसके मस्तिष्क में प्रेम एक प्रक्रिया की तरह शुरू हो गया था.न जाने कितने रसायनों ने भीतर अपना प्रवाह तेज़ कर दिया होगा.अंदर से उसे 'intoxicated ' रखा जा रहा हो जैसे.
पता नहीं ये क्या था,प्रेम की संभाव्यता से ही वो भीतर ही भीतर बदलने लग गया.कोई उसे अपने ढंग से अनुकूलित करने लगा. आने वाले की किसी पूर्व सूचना के रहते हम भी घर में बहुत कुछ बदलने लगते हैं. उसे भी बदलाव से गुज़ारा जा रहा था. उसे खुद अपना यूँ बदलना अच्छा लग रहा था. ये सब रिफ्लेक्सेज़ की अधीन हो रहा था. उसके नियंत्रण से बाहर. हमारे आदिम पूर्वजों को भी ऐसी ही किन्ही स्थितियों से गुजरना पड़ा होगा.उनके मनोभावों और इच्छाओं के छोड़े गए संकेत यहाँ मार्गदर्शन कर रहे थे.
( इससे आगे ये अब मुझे कहीं बढ़ता दिखाई नहीं देता,इसे यहीं समाप्त कर रहा हूँ. जो बन पड़ा है आप से साझा कर रहा हूँ.)
( photo courtesy- Mitch2742 )
Monday, January 18, 2010
बस की लय को पकड़ते हुए
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0nheRbFjS2jlYCig7KvanvWgYISZ4Xj-9vEeZG4kFiRa2mekydwQStdRYhLCk4qHy857NvetBZqmG0xyDV9fUXJ59kb3r_wtSKJmUlOpRSdlHTg3vfCnyy1KkTC-4_1xKAx9EB3R5PS4/s320/D%C3%A9sert-du-Thar.jpg)
बस की खिड़की से शहर छूटता दिखाई पड़ता है और इमारतें विदा करतीं हैं अपने शिल्प की ख़ास भंगिमाओं को थोड़ा छोड़ते हुए.
डेढ़ सौ किलोमीटर का फासला और बीच में तीन स्टॉप हैं जिनमें एक पर सवारियां उतर कर चाय भी पीतीं हैं,जैसा की अक्सर लम्बी लगने वाली यात्राओं में होता है.
इसके अलावा बहुत कुछ जनशून्य है.कुछ पेड़ जो अपनी सारी ऊर्जा झोंक कर भी हरे होने के अहसास को ही जिंदा रख पाए हैं.
ऊंटों के बरग अनंत यात्रा और मरीचिकाओं के मिथ्याभास में सत और असत के बीच झूलते हैं.बस के भीतर देखने पर ही जीवन कुछ नज़दीक लगता है,यहाँ पीछे की सीटों पर लोगों से स्थान साझा करते हैं बकरी के शावक.
पहले स्टॉप पर बस रूकती है.कुछ सवारियां उतरती हैं ,एक दो चढ़ती है.
इस जगह में शहर के नज़दीक होने का दर्प है.ये दीगर बात है कि जिसके नज़दीक होने पर वो इतराती है उसे भी कायदे का शहर होने का गुमान नहीं.
बस फिर लय पकडती है. आगे एक मोड़ पर ड्राईवर होर्न बजाता है.सामने से कोई नहीं आ रहा,एक हाजरी-सी दी गयी है लोकदेवता के थान को. किसी अनिष्ट से मुलाक़ात न हो.
बारात वाली बसें तो बसें तो बाकायदा थान पर रुक कर अफीम,सिगरेट या खोपरा अर्पित करतीं हैं।
अगला स्टॉप आ गया है.बाहर एक पुराने किले के खंडहर हैं,उपेक्षित.पास ही गाँव वाले चाय की दूकान पर बातों में मशगूल हैं.उनकी बातचीत का विषय किला न होकर काळ है,जो लगातार तीसरे साल भी छाती पर बैठा है.किले के इतिहास के विषय में कोई नहीं जानता.यहाँ टूरिस्ट नहीं आते इसलिए इतिहास का गाईडी-गड्ड मड्ड संस्करण भी बन नहीं पाया है.लोक स्मृति में कूटल-सकीना की प्रेम कथा का राग ज़रूर बजता है.गडरिये को गाँव के मुखिया की लड़की से प्रेम हो गया था.ये प्रेम गडरिये की मरदाना सुन्दरता से नहीं था,उसके नड बजाने के हुनर से था जो चांदनी रात में रेत के असीम विस्तार को हूरों की दुनिया में तब्दील कर देता था.
बस फिर दौडती है.पूरे रास्ते में किसी गाँव या आदमी का दिखना एक सुखद क्रम-भंग की तरह होता है.स्टॉप से बस का प्रस्थान पीछे छूटते अनजान लोगों के प्रति भारी बिछोह को जन्म देता है.
ये वाला स्टॉप कुछ देर का है. यहाँ चाय पी जायेगी.
चाय के साथ प्याज के पकौड़ियाँ आँख मूँद कर अनुभव करने के चीज़ हैं.गाँव से बड़ी और क़स्बे से छोटी ये जगह जो भी हो प्याज की पकौड़ियों के लिए याद रखी जाने लायक है.सभी घरों में लोग नहीं रहते. कुछ खाली हैं,पुराने. उनमें भूत रहते हैं. इसी गाँव के बाशिंदे जो समय की रेखीय अवधारणा में भूत हैं और चक्रीय अवधारणा में अभी भी प्याज के पकौड़े खाने का इंतज़ार कर रहें हैं.ये ब्राह्मण तेल में खौलते इस हैरत अंगेज़ स्वाद से जबरन वंचित थे.उनके लिए खाद्य-अखाद्य सुनिश्चित था.एक स्व-निर्मित मर्यादा रेखा,अलंघ्य लक्ष्मण रेखा. फांदी न जा सकने वाली कारा-भित्ति. यजमान वृत्ति के लिए इसे तोडना या लांघना फलदायी नहीं था.पर इसके लिए अपना मोक्ष भी स्थगित रखे हुए.
बस रवाना होती है, रफ़्तार पकडती है.
विश्व-ग्राम की चौंध मारती रौशनी से दूर ये बस लगभग रात पड़ते,अँधेरे के स्थाई भाव में जीते अपने गंतव्य में दाखिल होती है.
(photo courtesy- Wikimedia)
Saturday, January 2, 2010
नाच
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGYC48BPNK-PMG6ohjFoglSK89ypStGfPThkkXonIuULGdvE-2BQjDd-oRdlFa1oALSW4h_YpdpftohNV-bMOuaAJRF1FloLDuUTnSuQnoNRdAOXnXIQ7Nb6AU2G85hL_OBy0NwLFY6FY/s320/2261249647_6915e14f6d_o.jpg)
उसका नाच कितना अलग था ! एक बिंदु में जैसे उसकी कमर समाप्त हो जाती थी और फिर देह उसी बिंदु के गुरुत्व केंद्र पर दो हिस्सों में बंटकर घूर्णन करती थी। तेज़ और तेज़ फिर तेज़ ! कटि के नीचे का भाग अलग घूमता लगता और उसके ऊपर का भाग भिन्न वर्तुल में घूमता था। ये सिर्फ गोल गोल घूमना भर नहीं था। उसका नाच जो दो वर्तुल बनाता था उसमें कम्पन की लहरें थीं। जैसे सपाट ज़िन्दगी में दर्द की लहरें हो। पर ये कम्पन इतने बारीक थे, इतने 'सटल' थे कि जिन्हें महसूस करने के लिए भी उसके नाच का पूरा दर्शन समझना पड़ता हो। एक विराट झंझा में आलपिन की नोक से पैदा किया गया हस्तक्षेप। बस इतना ही।
नाच उसके गिरने पर ही समाप्त होता था। और ये नाच के दौरान रचे गए स्वाभाविक में सबसे असहज था। सृष्टि की गति के यकायक खो जाने जैसा। लय के टूटने की पीड़ा उपजाता। सब कुछ नष्ट करने के भाव से शुरू होता था नर्तन। पर धीरे धीरे किसी आदिम लय से एकाकार होता यूँ रंग में आता कि देखने वाला उसके कभी समाप्त न होने की प्रार्थना में कातरता से बैठ जाता। इसके ख़त्म होते ही जैसे बचेगा नहीं कुछ। दुनिया जैसे उसके नाच पर ही टिक गयी हो। उसके वर्तुल में सृष्टि का पूरा वृत्त समा गया हो।
नाच के दौरान उसमें जो स्थिर था वो उसकी आँखें थीं। अपना ही नाच खुद देख रही हो जैसे, अलग हटकर।देखते देह को उसके पागलपन से निकलते हुए। दीर्घा में औरों के साथ इस नाच को वो भी उतने ही अविश्वसनीय भाव से देखतीं। हर बार। कब ये नाच उसके पेशे से अलग होकर विशुद्ध अतीन्द्रीय हो जाता था इसे कोई नहीं चिन्हित कर पाया। और यूँ ये एक ऐंद्रिकता का भंवर ही था। देह का ही गान। उसी का उत्सव।
पता नहीं ये जगह कौनसी थी। हाँ ये पता था कि ये जगह कौनसी नहीं थी। ये घर,बाज़ार, टाउन हाल, होटल,समारोह-स्थल,मंदिर या ऐसा कुछ नहीं था। ये किसी फिल्म का सेट भी नहीं था। देखने वालों को इससे मतलब नहीं था कि ये कहाँ हो रहा था। वो अपना भूगोल खुद बनाती थी। और यूँ ये कहीं भी हो सकता था।
उसे आप सिर्फ एक नर्तकी नहीं कह सकते।
photo courtesy- hortulus