उन दोनों के बीच शब्दों का ढेर था. दोनों के मुंह से कुछ देर पहले तक शब्द गिर रहे थे. कुछ थोड़े से जिनमें अपने गंतव्य तक पहुँच रहे थे, बाकी सब बीच में ढेर हो रहे थे.ढेर अब काफी बड़ा हो गया था.ढेर लगातार बड़ा होता गया था.पर कुछ देर से वो ढेर ज्यों का त्यों पडा था.कोई नया इक्का दुक्का शब्द ही इस ढेर पर जब तब गिर रहा था.और ऐसा भी नहीं था कि इस 'कुछ देर' से सारे शब्द अपने गंतव्य तक ही पहुँच रहे थे.शब्दों का आवागमन ही बंद हो गया था.
ये सब दो लोगों के बीच का मामला था.और इस वक्त,जब उनके बीच का ढेर जस का तस पड़ा था, उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हो रही थी.कह सकते हैं कि लगभग सन्नाटे जैसा ही उन दोनों के बीच इस वक्त पसरा था.
वे दोनों दोस्त थे या नहीं कह पाना मुश्किल था.क्योंकि उनकी मुलाकातें अक्सर होतीं तो थीं पर वे तुरत- फुरत में ख़त्म हो जातीं थी.वे मिलते और कुछ ही देर में विदा हो लेते.वे जब भी मिलते,एक और मुलाकात अपने रिश्ते के साथ जोड़ देते.अब इस रिश्ते के साथ ढेरों छोटी छोटी मुलाकातें थीं.ये मुलाकातें भले ही छोटी होती थीं,पर बड़ी अच्छी होती थीं. इनसे वे दोनों आपस में मिलने को उत्सुक बने रहते थे.वे जब भी मिलते,एक सिगरेट भर देर में विदा हो जाते.उनकी इस चुस्त और संक्षिप्त मुलाकातों में उनके बीच सब कुछ स्फूर्त बना रहता. वे एक दुसरे को अधिकार पूर्वक कोई भी काम कह देते थे.दोनों एक दुसरे के काम को पूरी गंभीरता से पूरा करते थे,या करने की कोशिश करते थे.वे एक दूसरे से मिलने के बहाने नहीं ढूंढते थे पर हर दूसरे दिन एक दूसरे से मिल ही जाते थे.शायद इसलिए उन्हें मिलने के लिए बहाने ढूँढने की ज़रूरत ही नहीं थीं.क्या दोस्ती में ऐसा ही होता है? अगर हां तो फिर दोनों दोस्त थे.उन्होने कभी एक दूसरे के बारे में किसी तीसरे से किसी तरह की कोई नकारात्मक बात नहीं कही थी.असल में उन दोनों का कोई साझा मित्र था ही नहीं.उनके बीच का जितना साझा सरमाया था,उनकी बीवियां भी उसके बहुत थोड़े की ही साझेदार होती थीं.पर हां उन दोनों की मुलाकातों में अक्सर या कभी कभार उनेक घर परिवार का ज़िक्र भी आ ही जाता था.और उनकी बातें भी क्या थी?वे किसी तरह के सिनेमा के शौकीन नहीं थे.किताबों से उनका रिश्ता इतना भर था कि वे दिन में एक बार सर्वोदय बुक स्टाल के आगे से निकल जाते थे.जिसका पता न तो सर्वोदय के मालिक को चलता था न ही खुद उन्हें.दोनों में से सिर्फ एक खाने का शौक़ीन था.दूसरे को तो लौकी और कद्दू की सब्जी का अंतर भी न पता था.एक अखबार का तीसरा पन्ना ध्यान से पढता तो दूसरा आखिरी.
फिर भी वे अक्सर मिलते थे. और एक सिगरेट भर देर जीवंत बातें कर विदा हो जाते.
पिछले कुछ समय से दोनों हर मुलाकात में एक दूसरे के परिवारों को मिलाने की बात भी करने लगे थे.इसमें शायद उनकी आपस में तवील मुलाकात की इच्छा भी रही होगी जो महज एक सिगरेट जितनी लम्बी न हो.इस तरह की लम्बी मुलाकात की इच्छा एक दूसरे के लिए कोई गहरी तलब का परिणाम थी या लम्बे अरसे तक थोड़ी थोड़ी देर भर मिलते रहने से एक औपचारिक शिष्टाचार के तहत परिवारों को मिलाने की बात जैसा कुछ था. पता नहीं.जो भी हो असल में इस तरह की पारिवारिक मुलाकातें कभी हुई ही नही थीं.
आज उन दोनों के बीच शब्दों का ये ढेर पड़ा था.और फिलहाल दोनों चुप थे.वे एक दुसरे को जल्दी से विदा कह देते तो ये मुलाकात भी पहले की तरह कमाल की मुलाकात हो जाती पर आज उनको ज्यादा देर तक एक दूसरे के साथ रहना था.ये जगह 'एक' का दफ्तर थी और 'दूसरा' आज उधर फील्ड में कहीं अपना काम ख़त्म कर इसी 'एक'के दफ्तर में, उसी के सामने बैठा, अपने बिज़नेस पार्टनर का इंतज़ार कर रहा था जो'तीसरा' था और वहां किसी और जगह से आने वाला था.पार्टनर को आने में देर हो रही थी.पहले तो इस देर का पूर्वानुमान एक मौके की तरह किया गया था कि संक्षिप्त मुलाकातों वाले दोस्त के साथ उसी के दफ्तर में आज लम्बी बातें ख़ूब वक्त तक होंगी. और हुआ भी ऐसा ही कुछ देर तक तो.शुरू में चाय की चुस्कियों के साथ बातों के सूत से कताई होने लगीं.कातते कातते अभी कुछ ही देर हुई थी कि कताई से बुनाई का सफ़र उबाऊ होने लगा.वक्त लम्बा लगने लगा.वे फिर भी बोलते रहे पर उनके बीच बहुत सारा निरर्थक जमा होने लगा.
फिर उनका बोलना रुक गया.वो 'तीसरा'यानी बिज़नेस पार्टनर अब तक नहीं आया था.अब वे दोनों एक दुसरे के सामने नहीं देख रहे थे.कोई कैलेंडर पर बेवजह नज़रें गड़ाए था तो कोई एक तरह लम्बे अरसे से कोने में पड़ी धूल खायी ट्राफी देख रहा था.वे एक दूसरे के सामने थे पर एक दूसरे की उपस्थिति से बेपरवाह.हद तो ये थी कि वे अब ऐसे बैठे थे जैसे एक दुसरे से अनजान हों.
बिजनेस पार्टनर अभी तक नहीं आया था.