Monday, March 21, 2016

मुलाक़ात

उन दोनों के बीच शब्दों का ढेर था. दोनों के मुंह से कुछ देर पहले तक शब्द गिर रहे थे. कुछ थोड़े से जिनमें अपने गंतव्य तक पहुँच रहे थे, बाकी सब बीच में ढेर हो रहे थे.ढेर अब काफी बड़ा हो गया था.ढेर लगातार बड़ा होता गया था.पर कुछ देर से वो ढेर ज्यों का त्यों पडा था.कोई नया इक्का दुक्का शब्द ही इस ढेर पर जब तब गिर रहा था.और ऐसा भी नहीं था कि इस 'कुछ देर' से सारे शब्द अपने गंतव्य तक ही पहुँच रहे थे.शब्दों का आवागमन ही बंद हो गया था.

ये सब दो लोगों के बीच का मामला था.और इस वक्त,जब उनके बीच का ढेर जस का तस पड़ा था, उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हो रही थी.कह सकते हैं कि लगभग सन्नाटे जैसा ही उन दोनों के बीच इस वक्त पसरा था.

वे दोनों दोस्त थे या नहीं कह पाना मुश्किल था.क्योंकि उनकी मुलाकातें अक्सर होतीं तो थीं पर वे तुरत- फुरत में ख़त्म हो जातीं थी.वे मिलते और कुछ ही देर में विदा हो लेते.वे जब भी मिलते,एक और मुलाकात अपने रिश्ते के साथ जोड़ देते.अब इस रिश्ते के साथ ढेरों छोटी छोटी मुलाकातें थीं.ये मुलाकातें भले ही छोटी होती थीं,पर बड़ी अच्छी होती थीं. इनसे वे दोनों आपस में मिलने को उत्सुक बने रहते थे.वे जब भी मिलते,एक सिगरेट भर देर में विदा हो जाते.उनकी इस चुस्त और संक्षिप्त मुलाकातों में उनके बीच सब कुछ स्फूर्त बना रहता. वे एक दुसरे को अधिकार पूर्वक कोई भी काम कह देते थे.दोनों एक दुसरे के काम को पूरी  गंभीरता से पूरा करते थे,या करने की कोशिश करते थे.वे एक दूसरे से मिलने के बहाने नहीं ढूंढते थे पर हर दूसरे दिन एक दूसरे से मिल ही जाते थे.शायद इसलिए उन्हें मिलने के लिए बहाने ढूँढने की ज़रूरत ही नहीं थीं.क्या दोस्ती में ऐसा ही होता है? अगर हां तो फिर दोनों दोस्त थे.उन्होने कभी एक दूसरे के बारे में किसी तीसरे से किसी तरह की कोई  नकारात्मक बात नहीं कही थी.असल में उन दोनों का कोई साझा मित्र था ही नहीं.उनके बीच का जितना साझा सरमाया था,उनकी बीवियां भी उसके बहुत थोड़े की ही साझेदार होती थीं.पर हां उन दोनों की मुलाकातों में अक्सर या कभी कभार उनेक घर परिवार का ज़िक्र भी आ ही जाता था.और उनकी बातें भी क्या थी?वे किसी तरह के सिनेमा के शौकीन नहीं थे.किताबों से उनका रिश्ता इतना भर था कि वे दिन में एक बार सर्वोदय बुक स्टाल के आगे से निकल जाते थे.जिसका पता न तो सर्वोदय के मालिक को चलता था न ही खुद उन्हें.दोनों में से सिर्फ एक खाने का शौक़ीन था.दूसरे को तो लौकी और कद्दू की सब्जी का अंतर भी न पता था.एक अखबार का तीसरा पन्ना ध्यान से पढता तो दूसरा आखिरी.
फिर भी वे अक्सर मिलते थे. और एक सिगरेट भर देर जीवंत बातें कर विदा हो जाते.

पिछले कुछ समय से दोनों हर मुलाकात में एक दूसरे के परिवारों को मिलाने की बात भी करने लगे थे.इसमें शायद उनकी आपस में तवील मुलाकात की इच्छा भी रही होगी जो महज एक सिगरेट जितनी लम्बी  न हो.इस तरह की लम्बी मुलाकात की इच्छा एक दूसरे के लिए कोई गहरी तलब का परिणाम थी या लम्बे अरसे तक थोड़ी थोड़ी देर भर मिलते रहने से एक औपचारिक शिष्टाचार के तहत परिवारों को मिलाने की बात जैसा कुछ था. पता नहीं.जो भी हो असल में इस तरह की पारिवारिक मुलाकातें कभी हुई ही नही थीं. 

आज उन दोनों के बीच शब्दों का ये ढेर पड़ा था.और फिलहाल दोनों चुप थे.वे एक दुसरे को जल्दी से विदा कह देते तो ये मुलाकात भी पहले की तरह कमाल की मुलाकात हो जाती पर आज उनको ज्यादा देर तक एक दूसरे के साथ रहना था.ये जगह 'एक' का दफ्तर थी और 'दूसरा' आज उधर फील्ड में कहीं अपना काम ख़त्म कर इसी 'एक'के दफ्तर में, उसी के सामने बैठा, अपने बिज़नेस पार्टनर का इंतज़ार कर रहा था जो'तीसरा' था और वहां किसी और जगह से आने वाला था.पार्टनर को आने में देर हो रही थी.पहले तो इस देर का पूर्वानुमान एक मौके की तरह किया गया था कि संक्षिप्त मुलाकातों वाले दोस्त के साथ उसी के दफ्तर में आज लम्बी बातें ख़ूब वक्त तक होंगी. और हुआ भी ऐसा ही कुछ देर तक तो.शुरू में चाय की चुस्कियों के साथ बातों के सूत से कताई होने लगीं.कातते कातते अभी कुछ ही देर हुई थी कि कताई से बुनाई का सफ़र उबाऊ होने लगा.वक्त लम्बा लगने लगा.वे फिर भी बोलते रहे पर उनके बीच बहुत सारा निरर्थक जमा होने लगा.

फिर उनका बोलना रुक गया.वो 'तीसरा'यानी बिज़नेस पार्टनर अब तक नहीं आया था.अब वे दोनों एक दुसरे के सामने नहीं देख रहे थे.कोई कैलेंडर पर बेवजह नज़रें गड़ाए था तो कोई एक तरह लम्बे अरसे से कोने में पड़ी धूल खायी ट्राफी देख रहा था.वे एक दूसरे के सामने थे पर एक दूसरे की उपस्थिति से बेपरवाह.हद तो ये थी कि वे अब ऐसे बैठे थे जैसे एक दुसरे से अनजान हों.

बिजनेस पार्टनर अभी तक नहीं आया था. 

Monday, March 14, 2016

सन्नाटा

कितनी उजाड़ और अकेली थी ये जगह!बरसों का अकेलापन जमा होते होते इतना सघन हो गया था कि यहाँ आते ही आप उसे छू कर बता सकते थे.जैसे यहाँ छूने से कुछ अकेलापन आपकी ऊँगली के पोर पर चिपक जाता हो. ये एकांत बिलकुल विशुद्ध एकांत सा था.अपनी तात्विक रचना में सिर्फ एकांत से बना.बिलकुल भावहीन,निरपेक्ष एकांत.इस जगह के इसी एकांत ने इसे एक बरबाद उजाड़ में तब्दील कर रखा था.यहाँ सब सूना था.सब कुछ ख़त्म हो गया था. बस एक नीरवता पसरी थी,जो किसी आवाज़ या विस्फोट तक से भंग नहीं होती थी.यहाँ आकर कई बार लगता था जैसे आप पूरी तरह से विस्फारित आँख में झाँक रहे हैं. एक ऐसी आँख जो झपकना भूल गयी है.और ऐसी ही भंगिमा में जो अनंत समय से बनी हुई है.

फटी हुई आँख कितना बियाबान समेटे होती है! उसमें झांको तो जगह ही जगह दिखती है.असल में तो वो खालीपन है खाली जगह नहीं.बंद होना भूल चुकी आँख में हमें जो विराट अवकाश दीखता है वो खाली स्थान नहीं स्वयं खालीपन है. जिस आँख में हर छः सेकंड बाद निमेषक-पटल जीवन भरती है.उसमें ये झपक स्थगित हो जाय तो शून्यता जमा होना शुरू हो जाती है.

कुछ ऐसी ही शून्यता इस स्थान में भी थी. ये स्थान न पूरा पूरा हरा ठंडा जंगल था न पूरा पूरा पीला तप्त रेगिस्तान.बीच का था ये भूगोल.यहाँ जीवन की आवाजाही ज़रूर होती थी पर इसमें खुद जीवन नहीं था.जीवन पनपाने के लिए अनुर्वर थी यहाँ की ज़मीन.एक जगह से दूसरी जगह जाने के बीच पड़ता था ये विस्तार.इसीलिए लोगों के लिए ये एक रास्ता था.कुछ खानाबदोश व्यापारियों के लिए यहाँ से होकर जाना मजबूरी थी.वे भी यहाँ से जितना जल्दी हो सकता था निकलने की फिराक में रहते थे.
पर एक दिक्कत थी यहाँ पर.इस विस्तार में दिशाएं टूट टूट कर गिरती थीं.कौन दिस जाना है इसका विवेक ख़त्म हो जाता था.आदमी और ऊँट दोनों यहाँ भटक जाते थे.वो इस विकराल में गोल गोल गोल ही घूमते रहते थे.लोगों को यहां के कंटीले एकांत में न भटकने और किसी तरह सुरक्षित निकल जाने की प्रार्थनाओं का ही सहारा था.

यहाँ कई देवों के थान हैं जो हर ओर दिखाई देते हैं.उनसे रास्ता चलने वाले को दिशाएं तलाशने में थोड़ी बहुत मदद ही मिलती होगी. देवों में से कईयों की प्रतिमाएं समय ने भग्न कर दीं  हैं तो कईयों को ज़मीन में धंसा दिया  हैं.भटकने वाले लोगों के लिए इन सबमें में रूचि बनाएं रखना कठिन है. इस मरू प्रांतर में चलने वाले ये ज़रूर मानते थे कि कोई एक आदमी ऐसा अवश्य है जो इस इलाके का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता है.उसे यहाँ के हर छोटे बड़े रास्ते की जानकारी है.वो यहाँ की जानलेवा भूलभुलैयाँ के छद्म को भंग कर सकता है.उसे ज़मीन पर उगे और ज़मीन में धंसे तमाम कंद मूलों तक की जानकारी है.वो बांबी देखकर सांप की जात पहचान लेता है.वो धरती की शिराओं में बहते पानी की सोते सुन लेता है.वो अकेला यहाँ दिशाओं के छल को समझता है और ज़रुरत पड़ने पर उसे छिन्न भिन्न कर सकता है.और वो ही इस धरती के दंश को खींच कर दूर फेंक सकता है, यहाँ तक कि इधर के जानलेवा वर्तुलों को सुलझाने का काम कर सकता है.है कोई एक ऐसा आदमी.और ये भरोसा ही राहगीरों को इस जाल में कदम रखने का हौसला देता था.यद्यपि ऐसे 'एक'आदमी को किसी ने देखा नहीं था.पर तृतीय पुरुष में किये जाने वाले दावे पर्याप्त संख्या में थे.

निर्गत द्वार तक ले जाने वाले रास्ते का सफ़र उस 'एक'आदमी को नसीब नहीं.पथिकों को ठीक रास्ते का पता बता सकने के बावजूद उस 'एक' के लिए यहाँ से मुक्ति नहीं है.यहाँ के अकेले एकांत में रहने को वो अभिशप्त है.वो यहाँ के अकेलेपन से लड़ नहीं सकता.जब भी वो यहाँ के किसी एक कुए में झांकता है तो गहराई में दूर दूर तक पानी की क्षीण झिलमिल भी नहीं होती.जिसमें वो अपने प्रतिबिम्ब के रूप में ही सही किसी और को तो पा सके. बहुत बेबस है वो 'एक' आदमी जिसे यहाँ से बाहर जाने का रास्ता मालूम है पर वो जानकारी उसके अपने लिए इस्तेमाल में नहीं आ सकती.

असल में वो यहाँ का स्थायी बाशिंदा है.ये बीहड़ उसका घर है.

वो 'एक' आदमी ये बीहड़ खुद है.