गाँव के लोग उस वृद्धा को भय मिश्रित जिज्ञासा से देखते थे। सन इकहत्तर में वो सिंध से इस तरफ़ आयी थी। अकेली थी। गाँव में भी अकेली रहती थी। मुख्य बस्ती से दूर झौंपे में उसका बाकी जीवन कट रहा था। उसके परिवार के बारे में किसी को ज्यादा जानकारी नहीं थी, बस इतना जानते थे लोग कि बटवारे वक्त दंगों ने उसके कुनबे को पौंछ दिया था। वो फ़िर भी सालों उधर ही रही, सन सैंतालीस में बच गई तो बाद में कोई क्या बिगाड़ता और वैसे उसका बचा क्या था। इकहत्तर की लड़ाई के वक्त कई लोगों के साथ वो इस तरफ़ आ गई।
गाँव में लोग उसके बारे में कई तरह की बातें ज़रूर करते थे। इस उम्र में भी वो बिना चश्में के रामायण पाठ करती थी। रेत के धोरों को वो सरपट पार करती थी। गुस्से में वो किसी को कुछ कह दे तो वो बात सच हो जाया करती थी। पर वो किसी के बारे में अच्छी बात नही करती थी। उसके सामने आने पर अच्छी भली बकरियां बीमार हो जाती थी। गायों की उर्वरता ख़त्म हो जाती थी।बाजरी बढ़ना बंद हो जाती थी। नव विवाहिताएं बाँझ रह जाती थी।
गाँव की सीमा पर खड़ी खेजडी पर वास करती अतृप्त आत्माओं का वो आह्वान करती थी। और न जाने क्या क्या ऐसी ही बातें उसके साथ जुड़ी थी।
उसकी आँखें किसी और ही देशांतर को तकती हुई लगती थी। झुर्रियों से भरा उसका चेहरा समय के अंतरालों को एक साथ लांघता था। उसकी हिस्सेदारी गाँव के किसी आयोजन में नहीं होती थी।और शायद उसने भी इन सब चीज़ों की कभी परवाह नही की थी। माँ बाप के टोकने के बावजूद बच्चे उसके झौंपे में झाँक लेते थे। उन्हें अंदर किसी अजायब घर के होने का अहसास होता था। और यही बातें छन कर गाँव की चौपाल तक पहुंचती तो यही निष्कर्ष उभरता कि डोकरी टोने करती है। किसी अज्ञात तंत्र क्रिया में वो निरंतर लगी रहती है। वैसे तो आज तक गाँव में उसका किसी से कोई बड़ा झगडा नहीं हुआ था पर फ़िर भी गाँव वालों के मन में संशय था कि बुढिया गाँव के ही किसी खानदान को ख़त्म करने के लिए तंत्र मन्त्र कर रही होगी।
हेमी इसी गाँव की महिलाओं का एक अधिक सक्रिय चेहरा थी. घर में पैसे की तंगी एक बड़ा सवाल था. पति काम धाम नहीं करता था. पूरे दिन गाँव की चौपाल पर बड़े और ताकतवर लोगों का हुक्का भरता रहता था.उन लोगों की चापलूसी के बाद घर आने पर उसका शौर्य हेमी पर जागता था. इन सबके बीच हेमी को गाँव ढाणी घूम घूम कर कुछ बांटने के बदले थोड़े रोकडे का काम मिला.वो भी कुल मिलाकर गाँव की महिलाओं का प्रतिनिधि चेहरा थी. उसका भी टूने टोटके की बातों में विशवास तो था पर कहीं मन नहीं मान रहा था कि कोई किसी का यूँ ही बुरा क्यों करेगा। और वैसे गाँव में उसकी इज्ज़त भी उडी हुई ही थी, कारण सिर्फ़ इतना था कि वो घर से बाहर ढाणी ढाणी घूमती रहती थी। और गाँव में संचारी माहिलाओं को तुंरत विभूषित कर दिया जाता था।
आज बुढिया के तंत्र का केंद्र कौन था ये जानने के लिए हेमी उसके झौंपे के बाहर खड़ी थी। बाहरी दुनिया में जो चीज़ें हास्य पैदा कर सकती थी वही हेमी के लिए डर उपजा रही थी। भीतर वृद्धा सच में नीम्बू और मिर्च के साथ लाल पीले रंगों से दहशत के दुर्ग खड़े कर रही थी।
"कौन है"? सदियों को चीरती आवाज़ ने हेमी को हिम में बदल दिया। मुश्किलों से अपने को संभाल वो इतना ही पूछ पायी-" ये सब किसके लिए? गाँव में कौन तुम्हारा दुश्मन है"?
" गाँव में नहीं,उधर सिंध में जहां मेरा घर था, हमारा पडौसी। उसीने दंगाइयों को हमारे बारे में बताकर सब कुछ ख़त्म करवा दिया था.उस एक दिन पता नहीं क्या हुआ, लोग एक दूसरे को पहचानना भूल गए। मैं उसी के लिए ये सब कर रही हूँ।"
"पर अब तक तो वो खुद अपनी मौत मर चुका होगा?"
"मैं भगवान् के भरोसे कुछ नहीं छोड़ना चाहती, और मेरा मकसद उसे ख़त्म करना नहीं,उस हैवानियत को ख़त्म करना है,मैं जानती हूँ वो अभी अपनी मौत नहीं मरी।"
हेमी देख रही थी कि वृद्धा की आंखों की पुतलियाँ तेज़ी से पलटती जा रही थीं, मानो विगत में दशकों का अंतराल पाट रही हो।
गाँव में लोग उसके बारे में कई तरह की बातें ज़रूर करते थे। इस उम्र में भी वो बिना चश्में के रामायण पाठ करती थी। रेत के धोरों को वो सरपट पार करती थी। गुस्से में वो किसी को कुछ कह दे तो वो बात सच हो जाया करती थी। पर वो किसी के बारे में अच्छी बात नही करती थी। उसके सामने आने पर अच्छी भली बकरियां बीमार हो जाती थी। गायों की उर्वरता ख़त्म हो जाती थी।बाजरी बढ़ना बंद हो जाती थी। नव विवाहिताएं बाँझ रह जाती थी।
गाँव की सीमा पर खड़ी खेजडी पर वास करती अतृप्त आत्माओं का वो आह्वान करती थी। और न जाने क्या क्या ऐसी ही बातें उसके साथ जुड़ी थी।
उसकी आँखें किसी और ही देशांतर को तकती हुई लगती थी। झुर्रियों से भरा उसका चेहरा समय के अंतरालों को एक साथ लांघता था। उसकी हिस्सेदारी गाँव के किसी आयोजन में नहीं होती थी।और शायद उसने भी इन सब चीज़ों की कभी परवाह नही की थी। माँ बाप के टोकने के बावजूद बच्चे उसके झौंपे में झाँक लेते थे। उन्हें अंदर किसी अजायब घर के होने का अहसास होता था। और यही बातें छन कर गाँव की चौपाल तक पहुंचती तो यही निष्कर्ष उभरता कि डोकरी टोने करती है। किसी अज्ञात तंत्र क्रिया में वो निरंतर लगी रहती है। वैसे तो आज तक गाँव में उसका किसी से कोई बड़ा झगडा नहीं हुआ था पर फ़िर भी गाँव वालों के मन में संशय था कि बुढिया गाँव के ही किसी खानदान को ख़त्म करने के लिए तंत्र मन्त्र कर रही होगी।
हेमी इसी गाँव की महिलाओं का एक अधिक सक्रिय चेहरा थी. घर में पैसे की तंगी एक बड़ा सवाल था. पति काम धाम नहीं करता था. पूरे दिन गाँव की चौपाल पर बड़े और ताकतवर लोगों का हुक्का भरता रहता था.उन लोगों की चापलूसी के बाद घर आने पर उसका शौर्य हेमी पर जागता था. इन सबके बीच हेमी को गाँव ढाणी घूम घूम कर कुछ बांटने के बदले थोड़े रोकडे का काम मिला.वो भी कुल मिलाकर गाँव की महिलाओं का प्रतिनिधि चेहरा थी. उसका भी टूने टोटके की बातों में विशवास तो था पर कहीं मन नहीं मान रहा था कि कोई किसी का यूँ ही बुरा क्यों करेगा। और वैसे गाँव में उसकी इज्ज़त भी उडी हुई ही थी, कारण सिर्फ़ इतना था कि वो घर से बाहर ढाणी ढाणी घूमती रहती थी। और गाँव में संचारी माहिलाओं को तुंरत विभूषित कर दिया जाता था।
आज बुढिया के तंत्र का केंद्र कौन था ये जानने के लिए हेमी उसके झौंपे के बाहर खड़ी थी। बाहरी दुनिया में जो चीज़ें हास्य पैदा कर सकती थी वही हेमी के लिए डर उपजा रही थी। भीतर वृद्धा सच में नीम्बू और मिर्च के साथ लाल पीले रंगों से दहशत के दुर्ग खड़े कर रही थी।
"कौन है"? सदियों को चीरती आवाज़ ने हेमी को हिम में बदल दिया। मुश्किलों से अपने को संभाल वो इतना ही पूछ पायी-" ये सब किसके लिए? गाँव में कौन तुम्हारा दुश्मन है"?
" गाँव में नहीं,उधर सिंध में जहां मेरा घर था, हमारा पडौसी। उसीने दंगाइयों को हमारे बारे में बताकर सब कुछ ख़त्म करवा दिया था.उस एक दिन पता नहीं क्या हुआ, लोग एक दूसरे को पहचानना भूल गए। मैं उसी के लिए ये सब कर रही हूँ।"
"पर अब तक तो वो खुद अपनी मौत मर चुका होगा?"
"मैं भगवान् के भरोसे कुछ नहीं छोड़ना चाहती, और मेरा मकसद उसे ख़त्म करना नहीं,उस हैवानियत को ख़त्म करना है,मैं जानती हूँ वो अभी अपनी मौत नहीं मरी।"
हेमी देख रही थी कि वृद्धा की आंखों की पुतलियाँ तेज़ी से पलटती जा रही थीं, मानो विगत में दशकों का अंतराल पाट रही हो।
मंटो की एक कहानी याद आ गयी पढ़कर....
ReplyDeleteशुक्रिया डाक्साब. इस अकिंचन के कुछ तरतीब-बेतरतीब शब्दों से आपको मंटो की याद हो आयी. मन इस लोभ में है कि इसे कॉम्प्लीमेंट के रूप में लूं पर शायद ये आपका हौसलाअफजाई का तरीका है.
ReplyDeleteकहानी का चरित्र बचपन की याद का एक धुंधला बिम्ब है जिसे बंटवारे के पढ़े हुए, उधार लिए दर्द से एक शक्ल देने की कोशिश की है. मंटो तो खैर इस त्रासदी का स्वयं एक भोगा हुआ यथार्थ था. पर सिंध के किस्से पंजाब की तरह शायद उतने खतरनाक नहीं थे.
मानसिक आवेगों के थपेडों ने उस काल खंड के इंसानों को ऐसी ही शक्लों में ढाल दिया था, वे भुतहा और अति आदिम क्रिया कलापों के अधीन समझे जाते, आपकी इस कथा ने उस भयावह दौर से दो चार हो कर आई आँखों का वो दृश्य उकेरा है कि अभी तक जिन्दा हैवानियत की खबर पा कर मन संवेदन शून्य हुआ जाता है. संजय भाई अभी भी निम्बू और मिर्च बचाए रखने होंगे, सभ्यता के पैबन्दों के भीतर से रिस रही गंध कुछ माकूल नहीं लग रही मुझे.
ReplyDeleteकिशोर भाई,
ReplyDelete:(
बहुत अच्छा लिखा है इन्ही घटनाओं और साक्ष्यों से ही इतिहास रचा या लिखा जाता है, सिर्फ चमकती तलवारों और ज़हर बुझे भालों का ही नाम नही है इतिहास व्यक्ति के मन को चोटिल कर गए अपने-परायों के दिए ज़ख्मों का भी नाम है, आपकी कथा की पात्र सच में एक सदी ना भी जी चुकी हो पर उसके मन के घाव तो अवश्य ही सदी भर में लगने जितने दिखाई पड़ते हैं, बधाई !
ReplyDeleteSANJU SAA, ITS NICE TO READ YOU.
ReplyDeleteKHAMMA GANI.
aapki rachanaao ke paatr bahut hi real our sahajata se aapne kirdaar me fit hote hai jo ek etihas ke paatr lagate hai...............
ReplyDeleteसंजय जी ,'रेत का तकिया' पर आपकी टिप्पणी सारगर्भित लगी.. आपने सही कहा ...इन्ही भावो ने कहानी पूरी करने की हिम्मत दी थी....जब तक आपकी टिप्पणी का उत्तर देता आपकी शानदार पोस्ट पढने को मिली..सच कहूं तो आपकी टिप्पणी ने मुझे बहुत बल दिया..अपनी रचना लिखते समय उसको इतनी बार पढ़ लेता हूँ कि उसकी दुर्बलताएं विकराल नजर आने लगती है...मैं अपनी लेखनी को दिशा एवं स्वरूप में आपसे मार्ग दर्शन तलाशते देखता हूँ...ब्लॉग बनाने और उस पर कुछ लिखने के लिए अगर आप और किशोरजी इतना जोर न देते तो शायद मैं सृजनात्मकता भूल कर सरकारी फाइलों में भोला राम का जीव बने रहते...आपने हमेशा मेरा हौसला बढाया है...आपने बहुत कुछ कह दिया....शुक्रिया..!
ReplyDelete'वो जादू करने वाली' रचना आपकी कई श्रेष्ठ रचनाओं से बेहतर लगी..कहानी एक दम कसी हुई थी..शिल्प इतना सुन्दर कि हर अंश पूर्णता लिए हुए है.आपके लेखन की विशेषता कहानी का चकित करने वाला अंत इसमें भी दिखाई देता है..कहानी सजीवता लिए हुए है और शुरू से अंत तक सुबह की ताज़ी हवा का अहसास देती है बधाई.....!
डोकरी के मंन्सुबों तले स्त्री की इमोशनल इंटेलिजेंस का जो परिचय आपने दिया है सभी को चित्त कर देगा...
ReplyDeleteमाँ कि बातों में अक्सर सुनी गई नई जनी का चेहरा आँख के सामने आ गया। अपने दुरभाग्य से लड़ती ऐसी औरतें समाज के लिये डायन का रूप ले लेती हैं और वो भी स्वयं भी शायद इतनी बागी हो चुकी होती हैं कि इसी छवि को आगे ले जाने में ही उनके अंदर विधना से प्रतिशोध की आग तुष्ट होती है।
ReplyDeleteअंतःस्थल के कोनो को झिझोड़ती कहानी...!
एक जीवंत पात्र की छोटी सी किन्तु प्रभावी कहानी , पसंद आई, बहुत दिनों के बाद आपका ब्लॉग देखा है. नगरीय जीवन में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत महिला की कहानी एक बस के इंतजार में भी अलग तरह की लेकिन अच्छी कथा थी. बधाई !
ReplyDeleteएक जीवंत पात्र की छोटी सी किन्तु प्रभावी कहानी , पसंद आई, बहुत दिनों के बाद आपका ब्लॉग देखा है. नगरीय जीवन में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत महिला की कहानी एक बस के इंतजार में भी अलग तरह की लेकिन अच्छी कथा थी. बधाई !
ReplyDeleteसंघर्षरत इमानदार महिला ही नहीं पुरुष भी मधुर नहीं हो सकते, फिर तरह-तरह की कहानियां पड़े-लिखे ही तो गढ़ते हैं, भयाक्रांत भी तो वही तरह -तरह की चर्चाएं कर करते हैं. मदद को कोई आगे आता नहीं............
ReplyDeleteयही त्रासदी है.......समाज की................
सुन्दर प्रस्तुति पर बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
संजय जी,ब्लॉग लेखन में नया हूँ इसलिए थोडी दिक्कत होती है.आपने सही कहा "मिला सपनो का राजकुमार"के तीनो भाग एक साथ करने से कहानी की प्रभावशीलता और सुन्दरता दोनों ठीक ठाक हो गए है. आपके अमूल्य सुझाव के लिए धन्यवाद!कहानी का अति सांक्षीप्तिकरण उसकी सुन्दरता समाप्त कर देता है और थोडी भी लम्बाई बढ़ने पर ब्लॉग पर पोस्ट करने में दिक्कतें आती है.ब्लॉग पर लिखना कागज़ पर लिखने से ज्यादा मुश्किल होता है.शायद इसलिए आपकी हिम्मत बढाती पंक्तियाँ निराश नहीं होने देती है.
ReplyDeleteआपसे अनुरोध है कि एकबार पुनः अब पढ़कर कुछ सुझाव दे जिन्हें मैं अगली पोस्ट में इस्तेमाल करना चाहूंगा.
संजय जी, यह कहानी भी अच्छी रही। आभार।
ReplyDeleteis it a true story?? or a fiction??
ReplyDeleteseason, its all imagination except for the fact that there was an old lady about whom i used to heard in my childhood days. that old lady, in some ways, resembled to the main character of the story.kindly read my comment in response to dr. anuraag's comment.
ReplyDeleteएक जीवंत पात्र की छोटी सी किन्तु प्रभावी कहानी , पसंद आई
ReplyDeleteबहुत ही प्रभावशाली लघु कथा है .वृधा का चरित्र चित्रण बड़े ही बेहतर ढंग से आपने किया है. बहुत अच्छी लगी या कहानी .
ReplyDeleteनवनीत नीरव
बहुत बहुत शुक्रिया आपकी टिपण्णी के लिए !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है आपने और साथ में चित्र भी बढ़िया दिया है हर एक रचना के साथ !
इतनी सी कथा भी प्रभावी बिंब पैदा करती है।
ReplyDeletenice story,
ReplyDeletethe replies on comments posted by you give the readers a new enthusiasm to read your pen and comment.
Regards,
Manoj Khatri
"यक्ष युधिष्ठिर संवाद महाभारत के वन पर्व का एक बहुत ही रोचक प्रसंग है। यक्ष प्रश्न इतना जटिल था की आज भी किसी जटिल प्रश्न को लोग उसे यक्ष प्रश्न संज्ञा दे देते हैं
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