उस इलाके में आटा चक्कियों की भरमार
थी.मुख्य मार्ग पर आटा उड़ाती चक्कियां.गली के नुक्कड़ पर चक्कियां.गली के अन्दर
चक्कियां.पिसाई का दाम दो रूपया प्रति किलो.सब्ज़ी का कोई इक्का दुक्का ठेला ही नज़र
आता था और वो भी उसे धकेलने वाले की तरह ही उदास, लड़खड़ाता सा चलता था.बहुत याद आने
पर ही सब्ज़ी वाला अल्युमिनियम के जग से सब्जियों पर छींटे डालता था.शायद कुम्हलाई
हरी भाजी में कहीं से रौनक लौट आये.इलाके की गलियों से वो बिना किसी को आवाज़ दिए
चक्कर काटता रहता था.
किसी प्रेत बाधा से ग्रस्त सब्ज़ी का
ठेला जैसे किसी अभिशाप के पूरा होने के इंतज़ार में था.
सोचा नहीं था कि क्या वज़ह थी उस इलाके
में असंख्य आटा चक्कियों की.शायद उधर लोग पैक्ड आटा नहीं खाते थे.शायद उनके घर में
घरेलू आटा चक्की नहीं थी.शायद वे लोग सिर्फ रोटियाँ ही खाते थे.शायद वे लोग सब्ज़ी
नहीं खाते थे.या शायद वे लोग रोटी दूध या फिर दही से खाते थे.जो भी हो मुझे इनमें
कोई भी कारण विलक्षण प्रतीत नहीं होता था.समाज शायद अन्न प्रधान था.अन्न प्राशन
संस्कार से ही वे आटा खाते आ रहे थे.आटे को लेकर उनमें अद्भुत पाचन क्षमता थी.
इलाका फ्लोर मिलों के उड़ते आटे से
धूसर बना रहता था.लोगों के सर पर गेहूं का पाउडर सवार रहता था.गलियों से आटे के
परदे से गुज़रती, गणवेश में सजी बालिकाएं
साइकिलों पर स्कूल जाती दिखाई देतीं थीं.फ्लोर मिलों पर काम करने वाले लोग गर्म
आटे के धुंए में लिपटे चक्की के आटा उगलने वाले कपडे को झाड़ते नज़र आते. वे कम
बोलते पर बोलते तो उनके मुंह से भी आटा ही उड़ता.
ऐसा नहीं है कि इन चक्कियों में सूखे
आटे से भरे डिब्बे ही रहते थे.यहाँ मसालों,खासकर सूखी लाल मिर्च भी पीसी जाती थी.
कुछ के बाहर अनगढ़ अक्षरों में लिखा रहता था कि वहां गीली दाल भी पीसी जाती थी.पर
चक्कियां जानी जाती थीं अन्न की पिसाई के लिए. भागते मोटे कैनवास के बेल्ट और मशीन
के पेट में पत्थर की पेषणी अपनी घर्राती चाल में सूखे बीजों को पल भर में पीस कर
उड़ा देतीं.चक्की की भारी आवाज़ भरोसा जगाती थी.जब इसके उदर में दाने ख़त्म हो जाते
तो ये आकुल होकर कुछ अलग ही स्वर पैदा करने लगती.चक्की वाला तुरंत कोई नया डिब्बा
इसमें खाली कर देता.इनके पास खड़े होकर अपने गेहूं के आटे का इंतज़ार कुछ कुछ मोहक
दृश्य में तब्दील हो जाता.पड़ौस से कोई औरत अपनी ओढनी को संभाल कर अपने गेहूं के
डिब्बे को चक्की वाले के पास ले आती.चक्की वाला उसे उतरवाकर सीधा बड़े से तराजू में
रख देता.और तौल के बाद अपनें कान के पीछे से पेन की रिफिल निकाल कर एक पर्ची पर
वज़न लिखकर भद्रा को पकड़ा देता.पीछे पेषणी निर्विकार भाव से गेहूं के दानों को मसल
कर फेंकती रहती.कभी कभी लगता कि जैसे ही चक्की वाला अपना ध्यान पेषणी के अन्न-पात्र
से हटा कर ग्राहक की तरफ लगाता तो चक्की और तेज़ रफ़्तार से अपना काम करने लगती.अपनी
क्षणिक उपेक्षा का दाह उसके कलेजे को जलाता और वो किसी कुढ़न में अपनी समूची ताकत
उस अन्न पर झोंक देती.
इलाके में चक्कियों के चतुर्दिक शोर
और वातावरण में हर तरफ तैरते पिसे अन्न-कणों के बावजूद वो, आज तीसरा दिन था जब हाथ
में पांच किलो बाजरा लिए पिसवाने के लिए मारा मारा फिर रहा था.उसे बचपन का एक
धुंधला दृश्य याद था जब एक मेहमान ने अपने स्वागत में बनी गेहूं की रोटी खाने से
इसलिए मना कर दिया था कि उसे बाजरे का सोगरा खाये बिना रंजता नहीं था.तब तक बाजरे
ने घर की रसोई से अपनी जगह गंवाई नहीं थी.पर संघर्ष तब भी शुरू हो चुका था.रसोई
में बाजरे की आटे से भरा टीन का डिब्बा अपने वर्गाकार स्थान के लिए भारी लड़ाई
लड़ रहा था.और ये लड़ाई रसोई से बाहर
निर्णायक साबित हो चुकी थी.अब तो खैर सिर्फ देहात ही बाजरे की अंतिम शरण स्थली रह
गए थे. कसबे और मारवाड़ के थोड़े बड़े कहे जाने वाले शहर बाजरे को विदाई दे चुके थे.
पर यूँ उसके जैसे लोग तो आज भी बहुत थे जो सर्दियों में कुछ दिन बाजरी की रोटी
खाना पसंद करते थे.ये शौकिया लोगों का वो वर्ग था जो बाजरे को एक एग्ज़ोटिक भोज्य
पदार्थ की तरह ज़्यादा इस्तेमाल करते थे,उनके लिए बाजरा सांस लेने की तरह सहज और
ज़रूरी नहीं था.
उसके दोस्त ने गाँव से उसके लिए
आठ-दसेक किलो बाजरा भेजा था.बारिश के बाद का पका हुआ.देसी.छोटे छोटे पीताभ दानों
वाला.और उसमें से थोड़ा बचा कर, बाकी का एक डिब्बे में लिए तीन दिन हुए वो चक्कियों
से आबाद इलाके में पिसवाने के लिए फेरी पर फेरी दिए जा रहा था. चक्कियों पर बाजरा
हर वक्त नहीं पीसा जाता.जब कई डिब्बे जमा हो जाते तभी चक्की में बाजरा डाला
जाता.बाजरा खाना लोगों के लिए शौक था और चक्कियां सिर्फ शौक पूरा करने के लिए लगाई
नहीं जाती.परसों अमावस थी.पिसवाने के लिए बाजरा ले जाने वाला वो अकेला ही था
क्योंकि चक्की वाले ने कहा था,”आज बाजरा कोई नहीं लाया”.उसने अंदाज़ लगाया कि लोग अमावस को शायद बाजरा नहीं पिसवाते होंगे.उसे वापस
आना पड़ा.कल फिर वो अपना डिब्बा लिए आटा उड़ाती किसी फ्लोर मिल पर गया.कोई भी खड़े
खड़े पीस कर देने को तैयार नहीं हुआ.गेहूं पर बाजरी या बाजरी पर गेहूं नहीं पीसे
जाते.शाम को आना.अभी डिब्बा रख जाओ.कुछ इस तरह की बातें की गयीं.डिब्बा रख जाना
उसे यूँ मंज़ूर नहीं था कि वो चाहता था पिसाई उसके सामने हो.क्या पता उसे बाद में जो
आटा मिले वो मोटे गोल दानों वाला फीका संकर बाजरा हो.चक्की वालों को वो हमेशा शक
की नज़र से देखता था.इस मामले में कि वे आपके अनाज से निकले आटे में से कटौती तो
करते ही है,कोई दूसरा आटा भी पकड़ा सकतें है या दूसरे आटे की मिलावट कर सकते है.उसे
सिर्फ चक्की पर भरोसा था.एक बार घूमना शुरू हो तो फिर सारी ज़िम्मेदारी वो अपने
कन्धों पर ले लेती थी.
तो आज तीसरा दिन था और वो फिर किसी
चक्की पर खडा था.
बाजरा तीसरे दिन भी अपने जैसों की प्रतीक्षा में उदास खड़ा था..
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीण जी.आपकी टिप्पणियाँ हौसला बांधती है.मैं पोस्ट पब्लिश करने के बाद आपकी उपस्थिति महसूस करने लगता हूँ.मेरे आसपास बने रहने का शुक्रिया.
ReplyDeleteज्वार, बाजरा, सवाँ, मकरा जैस तमाम अनाज आज "मोटे" कह कर उपेक्षित और गेहूँ द्वारा अपदस्थ कर दिये गए। कभी जो हमारी जीवनरेखा होती है ... कभी वही फैशन बन जाती है।
ReplyDeleteमन की बात पद्म जी.शुक्रिया.
Deleteकल्याणपुरा से होते हुये नरगासर तक जाने के रास्ते में मोड़ वाली चक्की सबसे पहले याद आई। उस पर काम करने वाला मोटा लड़का भी याद आया जो अँग्रेजी पढ़ने वाले माड़साब जेठू सिंह जी के बेटे का दोस्त था। और बहुत सारी चक्कियाँ याद आई, बख़ूबी दौड़ते हुये चक्कियों के पट्टे भी याद आए मगर जो सबसे अधिक पसंद आता है वह है आपकी भाषा। कस्बाई जीवन की आत्मा को सलीके से उकेरने का हुनर रखने वाली भाषा और किसी भी तरह के जीवन की बारीकियों को रूप आकार दे सकने वाली भाषा।
ReplyDeleteयाद का भी एक भूगोल होता है.फिर चाहे वो उस जगह हो या न हो.
Deleteबहुत खूब याद किया किशोर भाई.
जवार-बाजरा...बचपन से इनका नाम एक ही साथ सुनती आई हूँ. अभी गूगल करके कन्फर्म किया कि एक ही हैं कि अलग अलग.
ReplyDeleteकल संक्रांति है...हमारे घर से इस समय दो तरह का सत्तू आता था, एक चने का सत्तू और एक जवार का सत्तू, इन्हें मिला कर खाने में बहुत अच्छा लगता था. जवार का सत्तू थोड़ा मीठा सा होता है.जब तक माँ-पापा के साथ थे गाँव से हर साल संक्रांति पर घर से नया खुशबू वाला चूड़ा, चावल, तिलकतरी, गीला गुड़ के साथ दोनों तरह का सत्तू भी आता था.
आज आपको पढ़ते हुए कितनी चीज़ें याद आयीं...साइकिल पर ले जा कर आटा पिसवाने वाले दिन...बहुत बहुत पुराने दिन...जो शायद बाजरे की तरह ही खो गए हैं.
जाने क्या क्या लिख गयी हूँ!
ज्वार बाजरा के लिए भले ही गूगल करना पड़ा हो पर ये अपने स्वाद की विशिष्ट चेतना के साथ अभी भी याद है.यही बचा रहना बड़ी बात है.
Deleteहैप्पी तिल संक्रांति.
kitne arth de diye ....chakki aur bajre ne
ReplyDeleteशुक्रिया सोनल जी.
Deleteहमारे लिए चक्की की यादें कस्बाई यादें हैं, किन्तु यादें तो यादें हैं.. याद करके आनंद आ गया.
ReplyDeleteहमारे मोहल्ले की पहली गली के पास वाली चक्की अब रही नहीं .बचपन के उन दिनों में चक्की वाला आने जाने वाले सबको घर का पता बतलाता था ओर घर में रहने वालो के बारे में भी .साइकिल पर गेंहू पिसवाने जाना उन दिनों बहुत अखरता था खास तौर से गली के कोने के सामने वाले मकान से होकर गुजरना जहाँ तीन बहने रहा करती थी
ReplyDeleteवाकई याद का भी भूगोल होता है.उसकी अपनी गलियाँ,पगडंडिया,और नुक्कड़ होते हैं.साथ ही नुक्कड़ के मकान भी.आपके लिखे को पढ़कर ही इन बातों को जाना है,डाक्साब.
Deleteशुक्रिया.
बचपन की आम चीज़ें एक उम्र में आकर दिल से कितना गहरा रिश्ता कायम कर लेती हैं उस रिश्ते का सुख और दर्द बाजरे के कनस्तर में बंद चक्की वालों के दर- दर भटकता है संजयजी आप उस रिश्ते के सुख और दर्द को न केवल पाठकों से बांटने में सफल हुए हैं बल्कि उनके भीतर उन आम चीज़ों की भूख जगाने में भी ...जो बचपन में प्राप्त थी और अब अप्राप्य हैं ....
ReplyDeleteआभार नीरा जी.
Deleteसब कुछ है .....फिर भी बहुत कुछ खोता जा रहा है ......कुछ तो बचाने के प्रयास में अपने हिस्से का बोझ लेकर ......कुछ हताश से खड़े हैं हम ....
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