मेरे मन में पता नहीं क्यों बड़ी उत्सुकता है। तीन सिक्के है जिनमे एक बड़ी बिटिया के गुल्लक को मिलेगा एक मुझे यानी छुटकी के गुल्लक को मिलेगा और एक किसको मिलेगा इसका फ़ैसला टॉस से होगा। यानी मामला सस्पेंस का है। और लो, तीन में से एक तो मुझे मिल गया और एक भोंदू यानी बडकी के गुल्लक को मिला। बडकी के गुल्लक को मैं भोंदू ही कहता हूँ। पट्ठा मेरे पास ही बैठता है और लगता है हर वक्त मुझे ही घूरता है। खैर, तो ये हुआ टॉस और......ओफ्फ टेल आया यानी सिक्का भोंदू के पेट में जायेगा।
चलिए निराश होने से काम नहीं चलेगा, थोड़ा परिचय कर लेते है। मैं छुटकी का गुल्लक हूँ। अभी अभी आया हूँ। शायद मैं भोंदू से ज्यादा क्यूट हूँ । मेरा निकनेम जीजो है। मुझे भी ये नाम पसंद है। मेरा पेट पैदाइशी थोड़ा बड़ा है. मुझे सिक्कों की खनक बहुत अच्छी लगती है. और जब सिक्का मेरे पेट में जाता है तो मुझे बड़ी गुदगुदी होती है.जी नहीं कोई चांदी का सिक्का नहीं, अपन तो भारतीय मुद्रा में ही खुश है. नोट की अपनी तरफ से मनाही नहीं है पर हमारा मुद्रा- प्रवेश सिक्कों के लिए ज्यादा सुविधाजनक है. क्या कहा ? सरनेम? कुछ नहीं बस जीजो। मैं समझ गया आप शायद मुझे तिजोरी के कुल का समझ रहें है, पर मैं आपको बता दूँ कि तिजोरी से मेरा दूर दूर का भी वास्ता नही है। मैं तो सिक्कों में ही खुश हो जाता हूँ और तिजोरी १०००-१००० के नोटों से भी खुश नहीं होती। उसमें गिरवी का माल रखा जाता है, किसी और की गाढी कमाई रखी जाती है। उसमें किसी और के आँसू भी होते है और मैं सिर्फ़ खुशियाँ गिन कर रखता हूँ। मेरा ठिकाना तो बच्चों के पास होता है और तिजोरी सेठ साहूकारों के पास रहती है। मेरा भाई साब उससे दूर का भी रिश्ता नहीं है। मेरे पीछे या मुझे लेकर आज तक कोई लड़ाई हुई? और तिजोरी के चक्कर में कितने राजे महाराजे बरबाद हुए हैं, कोई गिनती है?चलिए छोडिये.
आज मैं उदास हूँ.छुटकी का ब'डे आने वाला है. उसकी फरमाइश साइकिल की है और मैं जानता हूँ कि मैं उसकी ये फरमाइश पूरी नहीं कर पाऊंगा:( ठीक है उसके मम्मी पापा साइकिल ज़रूर दिलवा देंगे पर मैं पिछले छः महीनों से सिक्के फिर किस लिए जमा कर रहा हूँ? ये बडकी का गुल्लक भोंदू मुझे फिर से घूरने लग गया अभी मज़ा चखाता हूँ.
(स्विस बैंकों के लौकर्स, जगत सेठों की तिजोरियों और बड़ी बड़ी दान पेटियों में सिक्का बेआवाज़ दफ्न होता है और गुल्लक में वही खुशियाँ बनकर खनकता है.)
चलिए निराश होने से काम नहीं चलेगा, थोड़ा परिचय कर लेते है। मैं छुटकी का गुल्लक हूँ। अभी अभी आया हूँ। शायद मैं भोंदू से ज्यादा क्यूट हूँ । मेरा निकनेम जीजो है। मुझे भी ये नाम पसंद है। मेरा पेट पैदाइशी थोड़ा बड़ा है. मुझे सिक्कों की खनक बहुत अच्छी लगती है. और जब सिक्का मेरे पेट में जाता है तो मुझे बड़ी गुदगुदी होती है.जी नहीं कोई चांदी का सिक्का नहीं, अपन तो भारतीय मुद्रा में ही खुश है. नोट की अपनी तरफ से मनाही नहीं है पर हमारा मुद्रा- प्रवेश सिक्कों के लिए ज्यादा सुविधाजनक है. क्या कहा ? सरनेम? कुछ नहीं बस जीजो। मैं समझ गया आप शायद मुझे तिजोरी के कुल का समझ रहें है, पर मैं आपको बता दूँ कि तिजोरी से मेरा दूर दूर का भी वास्ता नही है। मैं तो सिक्कों में ही खुश हो जाता हूँ और तिजोरी १०००-१००० के नोटों से भी खुश नहीं होती। उसमें गिरवी का माल रखा जाता है, किसी और की गाढी कमाई रखी जाती है। उसमें किसी और के आँसू भी होते है और मैं सिर्फ़ खुशियाँ गिन कर रखता हूँ। मेरा ठिकाना तो बच्चों के पास होता है और तिजोरी सेठ साहूकारों के पास रहती है। मेरा भाई साब उससे दूर का भी रिश्ता नहीं है। मेरे पीछे या मुझे लेकर आज तक कोई लड़ाई हुई? और तिजोरी के चक्कर में कितने राजे महाराजे बरबाद हुए हैं, कोई गिनती है?चलिए छोडिये.
आज मैं उदास हूँ.छुटकी का ब'डे आने वाला है. उसकी फरमाइश साइकिल की है और मैं जानता हूँ कि मैं उसकी ये फरमाइश पूरी नहीं कर पाऊंगा:( ठीक है उसके मम्मी पापा साइकिल ज़रूर दिलवा देंगे पर मैं पिछले छः महीनों से सिक्के फिर किस लिए जमा कर रहा हूँ? ये बडकी का गुल्लक भोंदू मुझे फिर से घूरने लग गया अभी मज़ा चखाता हूँ.
(स्विस बैंकों के लौकर्स, जगत सेठों की तिजोरियों और बड़ी बड़ी दान पेटियों में सिक्का बेआवाज़ दफ्न होता है और गुल्लक में वही खुशियाँ बनकर खनकता है.)
बहुत सुन्दर, गुल्लक की खनक को आपने मुद्रा व्यवहार से जोड़ते हुए बेहतरीन बिम्ब परिभाषित किया है , मुझे पसंद आया की किस तरह स्विस बैंक में जमा रूपया, सेठ की तिजोरी में कैद रत्न और गुल्लक की हंसी में क्या फर्क है ? फिर से बधाईयाँ !
ReplyDeleteसंजय भाई ख़ूबसूरत पोस्ट है. मेरा शेयर बाजारी ज्ञान कहता है की इस महामंदी में भी आज भारतीय अर्थ व्यवस्था अगर सांस लेने में समर्थ है तो इसके आधार में कहीं ना कहीं हमारे गुल्लक संस्कार हैं, भारतीय संस्कृति में बचत का मूल मंत्र भी बचपन से ही पढाया जाता रहा है भोंदू और छोटू सदृश्य नामों वाले गुल्लकों के माध्यम से, सिर्फ इतना ही नही इनसे बिखरने वाली गंध भी अपनापन लिए होती है जैसा आप कहते हैं "स्विस बैंकों के लौकर्स, जगत सेठों की तिजोरियों और बड़ी बड़ी दान पेटियों में सिक्का बेआवाज़ दफ्न होता है और गुल्लक में वही खुशियाँ बनकर खनकता है."
ReplyDeleteहमें हमारे छोटू का टमाटर याद आ गया (उसकी गुल्लक इसी शेप में है )जो हमारे बेड. के सिरहाने अक्सर अपना ढक्कन खोलता रहता है.......सिक्को में जो ख़ुशी मिलती थी रुपयों में कही गुम हो गयी है
ReplyDeleteसहज ढंग से कही हुयी गंभीर बातें. कमाल की पोस्ट. आपका ब्लॉग मेरे लिए निरंतर महत्वपूर्ण होता जा रहा है.
ReplyDeleteआपके शब्दों में तो सरिता बहती है, दोस्त। ज्ञान दा के आत्मोन्नति में आपकी उक्ति देखी, और अभी यह खूबसूरत लघुकथा। बेमिसाल।
ReplyDeletesunder post,sach sikko ki khanak gullak mein hi achhi lagti hai.bank mein nahi.
ReplyDeleteकितना सुन्दर भाव है,पढ़ कर मजा आगया,व्यस्तता इतनी थी कि आज के टाइम टेबल में केवल अनुसारक ब्लॉग पोस्ट्स पढ़ना ही तय किया था.पर इतने सुन्दर लेखन पर बधाई देने को लोभ संवरण नहीं कर पाया.
ReplyDeleteछोटी छोटी खुशियाँ जीवन के लिए जरूरी होती है,और जो जीवन शक्ति गुदगुदियो से मिलाती है वह अपार आतंरिक ऊर्जा का प्रवाह करती है.इसका अनुभव लिखते और पढ़ते दोनों वक्त होता है.कहानी लेखक से पाठक तक सुन्दर भाव एवं अनुभव को नदी सागर सा मिलाती है....बहुत सुन्दर....!पी एस
करिश्माई किरदारों से सजी पोस्ट। इनके करिश्मे से ही भारतीय अर्थव्यवस्था हर हाल में बची हुई है।
ReplyDeleteबधाई...
आपकी पोस्ट में बचपन की सुगंध सदा घुली रहती है इस बार भी गुल्लक को बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत किया है, मुझे मेरे कई गुल्लक याद आ गए.
ReplyDeleteवाह, जीजो तो बहुत जमा जी। मैं भी लाने की सोचता हूं और उसका सरनेम तो रहेगा ही - वह होगा जीजो पांड़े!
ReplyDeleteभोंदू के नाम पर अच्छा सिक्का जमाया संजय जी!
ReplyDeleteआपकी सुंदर टिपण्णी के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई आपके बेहतरीन पोस्ट के लिए! मैं तो आपका पोस्ट पड़कर अपने बचपन के दिनों में चली गई! बहुत खूब लिखा है आपने!