उसका नाच कितना अलग था ! एक बिंदु में जैसे उसकी कमर समाप्त हो जाती थी और फिर देह उसी बिंदु के गुरुत्व केंद्र पर दो हिस्सों में बंटकर घूर्णन करती थी। तेज़ और तेज़ फिर तेज़ ! कटि के नीचे का भाग अलग घूमता लगता और उसके ऊपर का भाग भिन्न वर्तुल में घूमता था। ये सिर्फ गोल गोल घूमना भर नहीं था। उसका नाच जो दो वर्तुल बनाता था उसमें कम्पन की लहरें थीं। जैसे सपाट ज़िन्दगी में दर्द की लहरें हो। पर ये कम्पन इतने बारीक थे, इतने 'सटल' थे कि जिन्हें महसूस करने के लिए भी उसके नाच का पूरा दर्शन समझना पड़ता हो। एक विराट झंझा में आलपिन की नोक से पैदा किया गया हस्तक्षेप। बस इतना ही।
नाच उसके गिरने पर ही समाप्त होता था। और ये नाच के दौरान रचे गए स्वाभाविक में सबसे असहज था। सृष्टि की गति के यकायक खो जाने जैसा। लय के टूटने की पीड़ा उपजाता। सब कुछ नष्ट करने के भाव से शुरू होता था नर्तन। पर धीरे धीरे किसी आदिम लय से एकाकार होता यूँ रंग में आता कि देखने वाला उसके कभी समाप्त न होने की प्रार्थना में कातरता से बैठ जाता। इसके ख़त्म होते ही जैसे बचेगा नहीं कुछ। दुनिया जैसे उसके नाच पर ही टिक गयी हो। उसके वर्तुल में सृष्टि का पूरा वृत्त समा गया हो।
नाच के दौरान उसमें जो स्थिर था वो उसकी आँखें थीं। अपना ही नाच खुद देख रही हो जैसे, अलग हटकर।देखते देह को उसके पागलपन से निकलते हुए। दीर्घा में औरों के साथ इस नाच को वो भी उतने ही अविश्वसनीय भाव से देखतीं। हर बार। कब ये नाच उसके पेशे से अलग होकर विशुद्ध अतीन्द्रीय हो जाता था इसे कोई नहीं चिन्हित कर पाया। और यूँ ये एक ऐंद्रिकता का भंवर ही था। देह का ही गान। उसी का उत्सव।
पता नहीं ये जगह कौनसी थी। हाँ ये पता था कि ये जगह कौनसी नहीं थी। ये घर,बाज़ार, टाउन हाल, होटल,समारोह-स्थल,मंदिर या ऐसा कुछ नहीं था। ये किसी फिल्म का सेट भी नहीं था। देखने वालों को इससे मतलब नहीं था कि ये कहाँ हो रहा था। वो अपना भूगोल खुद बनाती थी। और यूँ ये कहीं भी हो सकता था।
उसे आप सिर्फ एक नर्तकी नहीं कह सकते।
photo courtesy- hortulus
नाच पर एक आलेख हमारे मन के ड्राफ्ट में भी सहेजा है और उसका ख्याल पंडित बिरजू जी महाराज के एक लाइन से आया था... बहरहाल... बहुत बेहतरीन विशेषकर देखने और दिखने की दृष्टि ... ज्यादा ना भी समझाते तो चलता... मैं उसी नज़र से पढ़ रहा था जिससे आप देख आये...
ReplyDeleteकटि के नीचे का भाग अलग घूमता लगता और उसके ऊपर का भाग भिन्न वर्तुल में घूमता था। ये सिर्फ गोल गोल घूमना भर नहीं था
... मर गया...
दूसरा और तीसरा पैरा स्तापित साहित्य लग रहा है... आनंद...
दूसरा और तीसरा पैरा स्थापित साहित्य लग रहा है... घोर आनंद... मन पुलकित कर गया..
ReplyDeleteइनको अभी कई और बार पढना होगा ...
सच कहूँ..ये .एक वक़्त का रुका हुआ सिरा है....जिसे कैमरे की क्लिक ने केच कर लिया है ...शानदार !!!.
ReplyDeleteउसका नाच जो दो वर्तुल बनाता था उसमें कम्पन की लहरें थीं। जैसे सपाट ज़िन्दगी में दर्द की लहरें हो।
ReplyDeleteएक विराट झंझा में आलपिन की नोक से पैदा किया गया हस्तक्षेप।
उसके वर्तुल में सृष्टि का पूरा वृत्त समा गया हो।
ये नाच उसके पेशे से अलग होकर विशुद्ध अतीन्द्रीय हो जाता था इसे कोई नहीं चिन्हित कर पाया।
अब ऐसे ही कॉपी पेस्ट करता गया तो पूरी रचना ही लगानी पड़ेगी... बहुत सुंदर, ये भाषा का ही तो कमाल है कि वह सूक्ष्म ओबजर्वेशन को व्यक्त कर पाती है.
इस नाच कि थिरक दिल पर आहिस्ता से नहीं कठोरता से क्यों महसूस हो रही है? ..
ReplyDeleteनाच के दौरान उसमें जो स्थिर था वो उसकी आँखें थीं। अपना ही नाच खुद देख रही हो जैसे, अलग हटकर।देखते देह को उसके पागलपन से निकलते हुए। दीर्घा में औरों के साथ इस नाच को वो भी उतने ही अविश्वसनीय भाव से देखतीं। हर बार। कब ये नाच उसके पेशे से अलग होकर विशुद्ध अतीन्द्रीय हो जाता था इसे कोई नहीं चिन्हित कर पाया। और यूँ ये एक ऐंद्रिकता का भंवर ही था। देह का ही गान। उसी का उत्सव।
स्तब्ध हूँ इस दृष्टी पे और शब्दों की तुलिका पे, जिससे आपने ये नाचती हुई पेंटिंग बनायीं है...
ReplyDeletenaach ke kampan bareek the par usse bhi bareek hai apki lekhni.नाच उसके गिरने पर ही समाप्त होता था।par apke lafazo ka zadu ya karigiri uske baad tak chal rahi hai.naach ki observation kmaal or apki lekhni ko slaam..
ReplyDelete'त'(तन) को 'अण्ड' (ब्रह्माण्ड) की चेतना से जोड़ने वाला नृत्य ताण्डव कहलाता है। मुझे नहीं पता कि नर्तकी में था कि नहीं लेकिन शब्दों में यहाँ है।
ReplyDeleteनमन ताण्डव रचना । सृजन का ताण्डव, पालन का ताण्डव और संहार का ताण्डव - जैसे शब्द ही दर्शक हों और 'मिमिक्री' में नर्तन कर रहे हों ।नर्तकी का वह गिरना ! ....
@ देह का ही गान। उसी का उत्सव।
संजय भैया, क्या आप ने मेरी छिपाई हुई कविता सुन ली है? अशोक बाजपेयी भी याद आ रहे हैं।अब वह कविता मैं जल्दी ही पोस्ट कर दूँगा।
bahut alag si post.shabdon se aisa chitra...kamal...kya shabd ya nritya?
ReplyDeleteअमूर्त चित्र सी रचना जो अनंत विस्तार को अपने में समेटे हुए है.क्या यह वह परम नृत्य है जिसमे चेतना का अनंत से लय होता है,या एक पार्थिव पीड़ा की सजग अभिव्यक्ति !संजय आपने कमाल लिखा है.हमेशा की तरह मंत्रमुग्ध कर देने वाला.
ReplyDelete''कब ये नाच उसके पेशे से अलग होकर विशुद्ध अतीन्द्रीय हो जाता था इसे कोई नहीं चिन्हित कर पाया। ''
हालंकि रचना उतनी ही गूढ़ लगी जितनी विन्सेंट वान घाघ की पेंटिंग.समझने में वक्त लगा पर इसके व्याख्या के खुलेपन से आनंदित हुआ...
बहुत अच्छी कविता. ऐसी कविता जिसे सिर्फ़ कविता नहीं कह सकते. ये शिल्प कहने का अद्भुत है अगर इसे साधा जा सके. इस कहन में कृष्ण कल्पित की एक शानदार कविता "रेख्ते के बीज" समकालीन परिदृश्य पर मौजूद है. हमारे मित्रों में इसे गिरि और व्योमेश ने बहुत ख़ूब साधा है और अब मैं आपके लिखे कुछ टुकड़े देख रहा हूँ जो बहुत आश्वस्त करने वाले हैं. मेरी शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteनहीं जानता, आपको इस प्लाट की प्रेरणा कहाँ से मिली। बस पढ़कर हैरान हूं शब्दों के इस नृत्य पर जो इस अनजान नर्तकि के प्रदर्शन को लाइव कर रहा है मेरे लैप-टाप के स्क्रीन पर।
ReplyDeleteनये साल की समस्त शुभकामनायें संजय जी! अपने शब्द-चित्रों से यूं ही चकित करते रहें हम पाठकों को आप सदैव-सदैव...
पहले तो शीर्षक देख कर राम गोपाल वर्मा के एक महत्वाकांक्षी वेंचर की याद आ गयी..मगर यह तो एक भंवर निकला..एक गहरा वर्तुल भंवर..जिसके आगोश मे जाने के बाद वापस आने का कोई रास्ता नही..और जिसमे एक ही परिधि मे दृश्य अलग-२ विमाओं मे सामने आते हैं..व्याख्या या गुणबोध से परे..
ReplyDeleteपता नही यह क्या है..हाँ यह समझ मे आता है कि यह नृत्य का व्याकरण, दर्शन, भाष्य या महज विवरण जैसा कुछ नही है..इन सबसे अलग कुछ रहस्यमय..
..या..कहीं शायद वही तो नही जिसे राम गोपाल वर्मा अपने कैमरे मे दर्ज करने से चूक गये थे?
कविता, नृत्य और पेंटिंग..... अद्भुत!
ReplyDeleteएक एक शब्द उतर रहा है.. गहराई से.. कमबख्त ऐसी पोस्ट्स देर से ही क्यों पढ़ पाता हूँ.. आज तो आपका लिंक ब्लॉग लिस्ट में डाल ही लिया.. अब कोई पोस्ट छूटेगी नहीं कम से कम..
ReplyDeletebas itna kahonga ki
ReplyDeleteallah kate zor-e-qalam aur zyada... nice post
आपको और आपके परिवार को नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है आपने!
अति सुन्दर ललित आलेख बन्धु!! बहुत दिनों बाद नान फ़िक्शन हिन्दी गद्य पढ़ कर मन विभोर हुआ. बधाइयां.
ReplyDeleteअलग-अलग समय पर कई बार पढ़ा. हर बार अच्छा भी लगा. मुझे साहित्य की इतनी समझ नहीं है कि इसे गद्य कहूं या काव्य - जो भी है बहुत अलग है और खूबसूरत भी.
ReplyDeleteएक विराट झंझा में आलपिन की नोक से पैदा किया गया हस्तक्षेप..
ReplyDelete..सुन्दर शब्द चित्र.
लगता है आप physics के rotational motion से काफी प्रभावित हैं.
ReplyDeleteफिर भी जिस scientific angle से आपने नृत्य का वर्णन किया है वोह बहुत ही बढ़िया लगा.
रिगार्ड्स
मनोज खत्री