Wednesday, January 27, 2010

तुमने मुझे कहा ...


कानों में फुसफुसा कर उसने जो कहा था वो आई डू या कबूल है जैसी अर्थ चेतना वाला नहीं था. सिर्फ प्रेम-प्रस्ताव का प्राप्ति-स्वीकार था. एक सन्देश के सही जगह पहुँचने की सूचना. कोई वादा नहीं कि इस पर आगे विचार होगा या नहीं. पर फिर भी वो इतने में ही खुश था.बेहद खुश. उसने पूछा नहीं था कि मेरा प्रस्ताव मिला या नहीं. इसलिए यूँ इस तरह सिर्फ ये मानना भी कि तुमने मुझे कुछ कहा है कुछ अतिरिक्त सूक्ष्म को ध्वनित करता था. किसी स्वीकारोक्ति से पहले कुछ संचित होता सा. छूटने से पहले दबी हुई स्प्रिंग का भराव. और यूँ कान में धीरे से कहना शब्दों के साथ अपनी सांस का एक अंश रखने के लिए तो नहीं था? सुरक्षित. बीच की दुनिया के फासले को कम करते हुए.

पहले पहल उसने भेजा था 'प्रेम'. नाउम्मीदी नहीं थी इसमें. पर किसी फौरी अंजाम की आस भी नहीं. एक सुदूर भविष्य के लिए छोड़ा गया सन्देश था जैसे. किसी ने कभी रेडियो संकेत भेजा हो प्रकाश वर्षों के फासले पर. किसी परा-सभ्यता के लिए. और वहां से जवाब आया हो हाँ मिला तुम्हारा सन्देश. प्राप्ति की इस सूचना में निहित ही था कि सम्बन्ध में प्राक-मित्रता तो है ही.मित्रता की ज़मीन जिसे कह सकते हैं.

लौटते समय वो खुद को इतना मालामाल महसूस कर रहा था कि उसने भिखारी को पांच का सिक्का उपहार में दिया. इतना हल्का कि एक कटी हुई पतंग को लूटने के लिए कई छतें लांघता रहा.इतना हरा कि एक सहोदर की तरह पेड़ से लिपट गया.और इतना संतुष्ट कि ढाबे के बाहर पड़ी खाट पर सीधे लेट कर अखबार पढने लगा.
बरसों से जम कर ठस हो चुके अवसाद में जैसे ऊष्मा की नोक सी लगी थी.उसके मस्तिष्क में प्रेम एक प्रक्रिया की तरह शुरू हो गया था.न जाने कितने रसायनों ने भीतर अपना प्रवाह तेज़ कर दिया होगा.अंदर से उसे 'intoxicated ' रखा जा रहा हो जैसे.

पता नहीं ये क्या था,प्रेम की संभाव्यता से ही वो भीतर ही भीतर बदलने लग गया.कोई उसे अपने ढंग से अनुकूलित करने लगा. आने वाले की किसी पूर्व सूचना के रहते हम भी घर में बहुत कुछ बदलने लगते हैं. उसे भी बदलाव से गुज़ारा जा रहा था. उसे खुद अपना यूँ बदलना अच्छा लग रहा था. ये सब रिफ्लेक्सेज़ की अधीन हो रहा था. उसके नियंत्रण से बाहर. हमारे आदिम पूर्वजों को भी ऐसी ही किन्ही स्थितियों से गुजरना पड़ा होगा.उनके मनोभावों और इच्छाओं के छोड़े गए संकेत यहाँ मार्गदर्शन कर रहे थे.

( इससे आगे ये अब मुझे कहीं बढ़ता दिखाई नहीं देता,इसे यहीं समाप्त कर रहा हूँ. जो बन पड़ा है आप से साझा कर रहा हूँ.)


( photo courtesy- Mitch2742 )

24 comments:

  1. मनोभावों को पढ़ना अच्छा लगा.....

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  2. एक सन्देश के सही जगह पहुँचने की सूचना.

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  3. जितना भी है सुन्दर भी है और पूर्ण भी!

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  4. ये मनोप्रवाह आगे बढे और आगे ---- शुभकामना

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  5. मन में कहीं गहरे तक उथल पुथल मच गयी इसे पढ़कर.

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  6. संजय भाई मेरे लिए तो ये भी एक काव्यकथा ही है. आपका नियंत्रण शानदार है.
    "इतना हरा कि किसी पेड़ से सहोदर की तरह लिपट गया."

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  7. हम भी हरियरा गये थे मित्र एक लड़की की कॉपी में I love you पढ़ कर।
    पर इससे पहले कि भिखारी को सिक्का देते या पतंग लूटते, यह सत्य स्वत: उद्घाटित हो गया कि इस सम्बोधन के पात्र हम नहीं थे! :(

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  8. मुझे तो हर बार यही लगता है की तकनीक के इस ताम्रपत्र पर आप प्रयास नहीं कर रहे बल्कि एक पाण्डुलिपि सहेज रहे हैं... जो दुर्लभ दिनों में काम आयेंगे... नेहरु पुस्तकालय की तरह

    छूटने से पहले दबी हुई स्प्रिंग का भराव. ..

    ... इस उदहारण का आपने क्या बखूबी प्रयोग किया है... खालिस ओरिजनल...

    किसी ने कभी रेडियो संकेत भेजा हो प्रकाश वर्षों के फासले पर
    एक कटी हुई पतंग को लूटने के लिए कई छतें लांघता रहा.
    इतना हरा कि एक सहोदर की तरह पेड़ से लिपट गया
    बरसों से जम कर ठस हो चुके अवसाद में जैसे ऊष्मा की नोक सी लगी थी

    आखिर में यह ...

    आने वाले की किसी पूर्व सूचना के रहते हम भी घर में बहुत कुछ बदलने लगते हैं.

    ऐसा संतुलित और नियंत्रित लेखन...अद्भुत... जैसे मचान पर खड़े होकर दोनों तरफ को बताना की तुम इतने गहरे हो और तुम इतने छिछले

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  9. ऊपर ताम्रपत्र को भोजपत्र पढ़ा जाये...

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  10. संजय,
    आपसे आज फोन पे जो बात हुई, तो मुझे उम्मीद थी कि आपने कोई अपूर्ण रचना शायद पोस्ट कर दी होगी जिसे आप आगे नहीं बढ़ा पा रहे थे,पर पढ़ा तो चौंक गया...यह ऐसी रचना है जिसे मैं अपूर्ण नहीं कह सकता..आपने अभिव्यक्ति के स्तर को नीचे होने देने के बजाय लेखनी को विराम देने का निर्णय लिया जो एक दम ठीक है..कुछ चीजे ऐसी होती है जिन्हें कभी 'फिनिश'नहीं होने देना ज्यादा सुन्दर लगता है..वैसे भी यह आपकी लेखनी कि खासियत है कि आप पाठक की कल्पनाशीलता को रचना के रहस्यपूर्ण या चौंका देने वाले अंत से जागृत कर देते है...सृजन को सृजन रहने देना आवश्यक है...सृजन पहले होता है विवेचनाएं आने वाले समय के समीक्षक करते है..परम्परा से हट कर लिखने से ही साहित्य की नई धाराएं स्थापित होती ..सृजन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व मौलिकता और नवाचार है...जो आपके लेखन की खासियत है..मैं आपके लेखन को अंशाभिव्यक्ति नाम देना चाहूंगा जिसमे घटना दृश्य या भाव विशेष का संक्षिप्त चित्रण इस तरह से किया जाता है कि पाठक उसे अनुभूति के स्तर पर महसूस करता हुआ स्वयं को रचना का पात्र समझने लगता है..ऐसी रचना में पूर्ण लचकता होने से वह अधिकाँश पाठकों को अपने जीवन के किसी अनुभव के अत्यंत निकट लगती है और इसी कारण पसंद आती है...छंद मुक्त कविताओं से पाठक इस तरह का अनुभव करता है..पर अमूर्त स्तर पर छंदमुक्त कवितायेँ दुरूह होने लगती है..और पाठक तक लेखक भावों को संप्रेषित नहीं कर पाता है...उसको समझने के लिए किसी टीका का सहारा लेना पड़ता है..आप अपनी रचना में इस कमी को दूर कर रहे है...यह एक दुर्लभ नवाचार है...अद्भुत है...मैं चाहता हूँ आप इस तरह के प्रयोग और करे, साहित्य की नयी विधा निकल पड़ेगी.कोशिश यह करें की अंशाभिव्यक्ति का एक शब्द भी अनावश्यक रूप से रचना में जोड़ा हुआ न लगे.और रचना किसी एक भाव दृश्य या घटना को अभिव्यक्त करती हों.
    इस रचना में प्रेम को स्वीकार हुआ नहीं है पर प्रेम सन्देश प्राप्त होने का ''अकनोलेजमेंट''से उत्पन्न भावों को बड़ी खूबसूरती से उकेरा है एक दम एब्सट्रेक्ट पेंटिग की तरह.यही इसकी सुन्दरता है.

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  11. संजय भाई, आपकी रचना पढ़ कर मैंने ये सोंचा कि क्या पता सृष्टि सिर्फ प्रेम की संभावना से हीं चल रही हो और प्रेम कब का खत्म हो चुका हो..

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  12. mubarak ho pahle naach aur ab prem...vasant is in full swing.

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  13. प्रेम..... ये एक ऐसा शब्द है जिसे ढाई अक्षर पर सीमित और ढाई करोड़ शब्दो मे विस्तारित किया जा सकता है। जो आदिम पूर्वजों से आज तक उतना ही नवीन है...! चिर नवीन...!

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  14. दो बार पढ़कर गुजर गया संजय जी .........प्रकाश जी की टिपण्णी के बाद कहने को कुछ शेष नहीं रहता ....पर आपके भीतर एक लेखक है जो कई बार सिर्फ थोडा कहकर कई प्रशन छोड़ देता है ....कई कडिया ....जिन्हें पाठक अपने तरीके से जोड़ना शुरूकर देता है

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  15. प्रभावी भाषा-शैली..बार-बार पढ़ने कि इच्छा होती है.
    कम शब्दों में बहुत कुछ लिख दिया आपने.
    .. किसी ने कभी रेडियो संकेत भेजा हो प्रकाश वर्षों के फासले पर. किसी परा-सभ्यता के लिए. ...अद्भुत वर्णन!

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  16. एक बूंद नदी और सागर कैसे बनती है यह जादू देखकर हेरान हूँ ...

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  17. ये तीसरी दफ़ा आया हूँ- कल से। खुद अपना बहुत कुछ याद आया। एक ऐसा ही प्रणय-निवेदन वर्षों पहले वाला...लेकिन शायद चाह कर भी इसे इतते खूबसूरत शब्दों का जामा नहीं पहना पाता!

    लौटते समय की "नायक" की वो तमाम फिलिंग्स जो बयान होती है भिखारी को सिक्का उछालने से या पतंग लूटने के लिये हल्का हो जाने के उपक्रम से या फिर ढ़ाबे की खाट पर लेट कर अखबार पढ़ने से...अहा! कितना अद्‍भुत...वो "उसने कहा था" का दृश्य याद हो आया।

    ...और ये तो संपूर्ण सत्य है संजय जी। अधूरा कहाँ छोड़ा आपने? न! यही तो है, बस यही तो है प्रेम की पूर्णता...इसके आगे कुछ भी जोड़ना महज कहानी को लंबा करना होता..एकता कपूर के अंतहीन सिरियलों की तरह। ये परफेक्ट है जैसा कि किशोर साब ने कहा है ऊपर।

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  18. इतना कुछ कहे जाने के बाद कुछ भी अनकहा नही रह जाता है..इस पोस्ट के बारे मे व आपकी मंत्रमुग्ध (अक्षरशः) सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति के बारे मे..
    ...एक विशिष्ट संबंध के आरंभ की उद्‌घोषणा के साथ आने वाले मानसिक/व्यावहारिक/रासायनिक परिवर्तनों को जितनी सूक्ष्मता मगर सहजता से रेखांकित किया है..यह सिर्फ़ आपकी प्रतिभा के बस की बात है..अद्भुत!!!

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  19. प्रेम को गहराई से नाप लिया है आपने.. तबियत तो डार्क ग्रीन कर डाली आपने.. फिर चाहे पांच का सिक्का हो या ढाबे का अखबार.. ऐसी ही पोस्ट होती है जो आपको ऊपर से नीचे तक गुदगुदाती है और एक आध ऐसी जगहों पर भी जिसका नाम आप नहीं लेते या फिर सेंसर कर दिया जाता है..

    जो भी हो आप एक तलब पैदा कर रहे है आपको पढ़ते रहने की.. क्या ये नशा अधिनियम के अंतर्गत तो आता है.. वरना मैं पकड़ा गया तो गया समझिये..

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  20. किसी स्थिर चित्र का त्रिआयामी वर्णन ह्रदय को एवं , "छूटने से पहले दबी हुई स्प्रिंग का भराव" जैसे बिम्ब बौद्धिक अपेक्षाओं की रिक्तता को भरते भी हैं और उद्देव्लित भी करते हैं. रचना सार्थक है...

    अतः "....इससे आगे ये अब मुझे कहीं बढ़ता दिखाई नहीं देता,इसे यहीं समाप्त कर रहा हूँ. जो बन पड़ा है आप से साझा कर रहा हूँ."अनावश्यक है .

    एक तरफ़ा प्रेम और क्या पता आग दोनों तरफ ही लगी हो....
    ...और इस मनोदशा से उत्पन्न हुई व्यंजना उत्कृष्ट है.

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  21. अल्टीमेट, इससे अच्छा हो ही नहीं सकता था. आनंद आया.

    रिगार्ड्स
    मनोज खत्री

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