ये बस दो रेगिस्तानी जिला मुख्यालयों को जोडती है जो दिन में शहर और रात में गाँव हो जाते है.सुबह ये शहर का सपना लिए जगते हैं और रात को सन्नाटा लिए सो जातें हैं.इनके बीच सदियों का मौन हैं, सिर्फ कहीं कहीं जीवन तो कहीं इतिहास मुखर हैं.
बस की खिड़की से शहर छूटता दिखाई पड़ता है और इमारतें विदा करतीं हैं अपने शिल्प की ख़ास भंगिमाओं को थोड़ा छोड़ते हुए.
डेढ़ सौ किलोमीटर का फासला और बीच में तीन स्टॉप हैं जिनमें एक पर सवारियां उतर कर चाय भी पीतीं हैं,जैसा की अक्सर लम्बी लगने वाली यात्राओं में होता है.
इसके अलावा बहुत कुछ जनशून्य है.कुछ पेड़ जो अपनी सारी ऊर्जा झोंक कर भी हरे होने के अहसास को ही जिंदा रख पाए हैं.
ऊंटों के बरग अनंत यात्रा और मरीचिकाओं के मिथ्याभास में सत और असत के बीच झूलते हैं.बस के भीतर देखने पर ही जीवन कुछ नज़दीक लगता है,यहाँ पीछे की सीटों पर लोगों से स्थान साझा करते हैं बकरी के शावक.
पहले स्टॉप पर बस रूकती है.कुछ सवारियां उतरती हैं ,एक दो चढ़ती है.
इस जगह में शहर के नज़दीक होने का दर्प है.ये दीगर बात है कि जिसके नज़दीक होने पर वो इतराती है उसे भी कायदे का शहर होने का गुमान नहीं.
बस फिर लय पकडती है. आगे एक मोड़ पर ड्राईवर होर्न बजाता है.सामने से कोई नहीं आ रहा,एक हाजरी-सी दी गयी है लोकदेवता के थान को. किसी अनिष्ट से मुलाक़ात न हो.
बारात वाली बसें तो बसें तो बाकायदा थान पर रुक कर अफीम,सिगरेट या खोपरा अर्पित करतीं हैं।
अगला स्टॉप आ गया है.बाहर एक पुराने किले के खंडहर हैं,उपेक्षित.पास ही गाँव वाले चाय की दूकान पर बातों में मशगूल हैं.उनकी बातचीत का विषय किला न होकर काळ है,जो लगातार तीसरे साल भी छाती पर बैठा है.किले के इतिहास के विषय में कोई नहीं जानता.यहाँ टूरिस्ट नहीं आते इसलिए इतिहास का गाईडी-गड्ड मड्ड संस्करण भी बन नहीं पाया है.लोक स्मृति में कूटल-सकीना की प्रेम कथा का राग ज़रूर बजता है.गडरिये को गाँव के मुखिया की लड़की से प्रेम हो गया था.ये प्रेम गडरिये की मरदाना सुन्दरता से नहीं था,उसके नड बजाने के हुनर से था जो चांदनी रात में रेत के असीम विस्तार को हूरों की दुनिया में तब्दील कर देता था.
बस फिर दौडती है.पूरे रास्ते में किसी गाँव या आदमी का दिखना एक सुखद क्रम-भंग की तरह होता है.स्टॉप से बस का प्रस्थान पीछे छूटते अनजान लोगों के प्रति भारी बिछोह को जन्म देता है.
ये वाला स्टॉप कुछ देर का है. यहाँ चाय पी जायेगी.
चाय के साथ प्याज के पकौड़ियाँ आँख मूँद कर अनुभव करने के चीज़ हैं.गाँव से बड़ी और क़स्बे से छोटी ये जगह जो भी हो प्याज की पकौड़ियों के लिए याद रखी जाने लायक है.सभी घरों में लोग नहीं रहते. कुछ खाली हैं,पुराने. उनमें भूत रहते हैं. इसी गाँव के बाशिंदे जो समय की रेखीय अवधारणा में भूत हैं और चक्रीय अवधारणा में अभी भी प्याज के पकौड़े खाने का इंतज़ार कर रहें हैं.ये ब्राह्मण तेल में खौलते इस हैरत अंगेज़ स्वाद से जबरन वंचित थे.उनके लिए खाद्य-अखाद्य सुनिश्चित था.एक स्व-निर्मित मर्यादा रेखा,अलंघ्य लक्ष्मण रेखा. फांदी न जा सकने वाली कारा-भित्ति. यजमान वृत्ति के लिए इसे तोडना या लांघना फलदायी नहीं था.पर इसके लिए अपना मोक्ष भी स्थगित रखे हुए.
बस रवाना होती है, रफ़्तार पकडती है.
विश्व-ग्राम की चौंध मारती रौशनी से दूर ये बस लगभग रात पड़ते,अँधेरे के स्थाई भाव में जीते अपने गंतव्य में दाखिल होती है.
(photo courtesy- Wikimedia)
बस की खिड़की से शहर छूटता दिखाई पड़ता है और इमारतें विदा करतीं हैं अपने शिल्प की ख़ास भंगिमाओं को थोड़ा छोड़ते हुए.
डेढ़ सौ किलोमीटर का फासला और बीच में तीन स्टॉप हैं जिनमें एक पर सवारियां उतर कर चाय भी पीतीं हैं,जैसा की अक्सर लम्बी लगने वाली यात्राओं में होता है.
इसके अलावा बहुत कुछ जनशून्य है.कुछ पेड़ जो अपनी सारी ऊर्जा झोंक कर भी हरे होने के अहसास को ही जिंदा रख पाए हैं.
ऊंटों के बरग अनंत यात्रा और मरीचिकाओं के मिथ्याभास में सत और असत के बीच झूलते हैं.बस के भीतर देखने पर ही जीवन कुछ नज़दीक लगता है,यहाँ पीछे की सीटों पर लोगों से स्थान साझा करते हैं बकरी के शावक.
पहले स्टॉप पर बस रूकती है.कुछ सवारियां उतरती हैं ,एक दो चढ़ती है.
इस जगह में शहर के नज़दीक होने का दर्प है.ये दीगर बात है कि जिसके नज़दीक होने पर वो इतराती है उसे भी कायदे का शहर होने का गुमान नहीं.
बस फिर लय पकडती है. आगे एक मोड़ पर ड्राईवर होर्न बजाता है.सामने से कोई नहीं आ रहा,एक हाजरी-सी दी गयी है लोकदेवता के थान को. किसी अनिष्ट से मुलाक़ात न हो.
बारात वाली बसें तो बसें तो बाकायदा थान पर रुक कर अफीम,सिगरेट या खोपरा अर्पित करतीं हैं।
अगला स्टॉप आ गया है.बाहर एक पुराने किले के खंडहर हैं,उपेक्षित.पास ही गाँव वाले चाय की दूकान पर बातों में मशगूल हैं.उनकी बातचीत का विषय किला न होकर काळ है,जो लगातार तीसरे साल भी छाती पर बैठा है.किले के इतिहास के विषय में कोई नहीं जानता.यहाँ टूरिस्ट नहीं आते इसलिए इतिहास का गाईडी-गड्ड मड्ड संस्करण भी बन नहीं पाया है.लोक स्मृति में कूटल-सकीना की प्रेम कथा का राग ज़रूर बजता है.गडरिये को गाँव के मुखिया की लड़की से प्रेम हो गया था.ये प्रेम गडरिये की मरदाना सुन्दरता से नहीं था,उसके नड बजाने के हुनर से था जो चांदनी रात में रेत के असीम विस्तार को हूरों की दुनिया में तब्दील कर देता था.
बस फिर दौडती है.पूरे रास्ते में किसी गाँव या आदमी का दिखना एक सुखद क्रम-भंग की तरह होता है.स्टॉप से बस का प्रस्थान पीछे छूटते अनजान लोगों के प्रति भारी बिछोह को जन्म देता है.
ये वाला स्टॉप कुछ देर का है. यहाँ चाय पी जायेगी.
चाय के साथ प्याज के पकौड़ियाँ आँख मूँद कर अनुभव करने के चीज़ हैं.गाँव से बड़ी और क़स्बे से छोटी ये जगह जो भी हो प्याज की पकौड़ियों के लिए याद रखी जाने लायक है.सभी घरों में लोग नहीं रहते. कुछ खाली हैं,पुराने. उनमें भूत रहते हैं. इसी गाँव के बाशिंदे जो समय की रेखीय अवधारणा में भूत हैं और चक्रीय अवधारणा में अभी भी प्याज के पकौड़े खाने का इंतज़ार कर रहें हैं.ये ब्राह्मण तेल में खौलते इस हैरत अंगेज़ स्वाद से जबरन वंचित थे.उनके लिए खाद्य-अखाद्य सुनिश्चित था.एक स्व-निर्मित मर्यादा रेखा,अलंघ्य लक्ष्मण रेखा. फांदी न जा सकने वाली कारा-भित्ति. यजमान वृत्ति के लिए इसे तोडना या लांघना फलदायी नहीं था.पर इसके लिए अपना मोक्ष भी स्थगित रखे हुए.
बस रवाना होती है, रफ़्तार पकडती है.
विश्व-ग्राम की चौंध मारती रौशनी से दूर ये बस लगभग रात पड़ते,अँधेरे के स्थाई भाव में जीते अपने गंतव्य में दाखिल होती है.
(photo courtesy- Wikimedia)
बस की लय को बहुत खूबसूरती से संजोया है....
ReplyDeleteबस फिर से चल पड़ी है...पिछले स्टॉप पे प्याज की पकौड़ियों का स्वाद अच्छा था...
ReplyDeleteजानते हो...तुम्हारे पास एक कला है किसी वक़्त को खींच कर कागज पर रखने की.....कुछ ऐसी स्थिति की जिसमे से तुम गुजरते हो .ख्यालो के साथ ....वे ख्याल पकड़ना पाठक के लिए मुश्किल नहीं होता ....
ReplyDeletewell said sanjya.....
ख़यालों को पकड़ कर कागज पर उकेरने में आप महारथी हैं.
ReplyDeleteकुछ शब्दों में कैसे रेगिस्तान को उकेरा जाये, ये सीखने के लिए आपकी पोस्ट्स पर्याप्त आधार हैं. मैंने इसे पढ़ कर फिर से पढ़ा है तो लगा कि आपने सच में बस की लय नहीं वरन लय में बस को पकड़ रखा है. कूटल की बात हो या रात और दिन से जिस तरह आपके शब्द क़स्बे को परिभाषित करते हैं वह अद्भुत है.
ReplyDeleteअब मौसम यहाँ अच्छा है आ जाओ... झांपली के जिप्सी बुला रहे हैं, लोकगीत सुनेंगे और धोरों पर सो जायेंगे. कुछ रिकार्डिंग और वीडियो भी हो जायेगा उसी जादुई बस के सफ़र के साथ. संजय भी वो दोहा हैं कि " सजन शरीर सोंखड़ी पिया नहीं मिलन रो जोग, नैणा मुजरो मानजो चुगलिगारो लोक " बस ऐसे ही इस चुगलखोर दुनिया को पता न चले इसलिए मेरी आँखों के इशारे को समझो और अभिवादन स्वीकार कर लो. फिर मैं तय समझूं कि जल्द ही बस का सफ़र होगा ?
डॉ अनुराग और किशोर ने जो कहा है उसके बाद कहने की सीमा आ जाती है.बात लय या दृश्यावली तक नहीं रूकती है..किसी का चित्रण करना एक बात है पर उसका प्रभाव पाठक या दर्शक पर पड़ना दूसरी बात है...आपकी यह खासियत आपके लेखन की वह विशेषता है जो साहित्य में दुर्लभ है ...आप कामयाब लेखक ही नहीं संवेदनाओं और अनुभूतियों को गहराई से महसूस करा देने वाले जादूगर है...अद्भुत!
ReplyDeleteहर स्टॉप पर बैठ कर चाय पी ..शहर और गाँव को छुआ और शब्दों को महसूस किया..
ReplyDeleteमुझे समझ में नहीं आ रहा, क्या लिखूँ !
ReplyDeleteविलक्षण !
मैं जानता हूँ , बार-बार यात्रा करनी पड़ेगी मुझे यहाँ बस की लय पकड़ने के लिये !
चितेरे ! संवेदना अपनी टुटपुँजिहा लगती है यहाँ आने के बाद !
आभार ।
बस की लय पकडनी हर किसी के बस में नहीं,बस का रवाना होना,रफ़्तार पकडना ,
ReplyDeleteअपने गंतव्य में दाखिल होना,सब लय में था कविता जैसे.
एक रहस्य लोक की यात्रा... जहाँ 'महान हवाएं" नहीं पहुँच पाईं हैं अभी तक.....
ReplyDeleteलाइव कमेंट्री, आँखों देखा हाल, और बस गुज़रती हुई लगी... सरपट... जब धुल हटती तो गाँव नज़र अत... विभिन्न संस्कृतियाँ नज़र आती और पूरी नींद से जगा सक्रिय लेखक भी जिसकी पैनी नज़र है सफ़र से ड्रायवर की हरकत तक... अतीत से वापस लौटने तक
ReplyDeleteव्यासजी,
ReplyDeleteरफ़्तार में तेजी पीछे छूटते हुए परिदृश्य और सरोकारों को बड़ी कुशलता से शब्दों में बंधा है आपने बन्धु ! सलीके से परोसा है इस छोटी-सी यात्रा-कथा को !! लगता है, संवेदना के तल पर गहरे गड़े हैं अहसासों के नुकीले शूल ! बधाई !!
सप्रीत--आ.
लगा कि एक साधनारत कैमरामैन अपने किसी अलौकिक कैमरे के संग चलती बस की खिड़की से पूरा दृश्य उतारता चला जा रहा है और साथ ही हमें भी दिखाता चला जा रहा है।...अलौकिक कैमरा इसलिये कि साधारण आँखों से तो इन दृश्यों को देखना संभव नहीं...
ReplyDeleteमजे की बात ये है कि ये अलौकिक कैमरा तो असल में एक जादूई कलम है। कलम या तूलिका...???
बस की लय..या बेबस सी लय!
ReplyDeleteआते ही पढ़ लिया था इस पोस्ट को..और कुछ सूझा नही था कि क्या कहूँ..प्याज की पकौड़ियों के अलावा....सो लगा कि फ़ुर्सत चाहिये होगी आपसे कुछ कहने के लिये..सो अब आया हूँ
आपके ब्लॉग का एक अलहदा रंग है..एक अलहदा अंदाज..जो इसे विशिष्ट बनाता है..अद्वितीय..ऐसा लगता है जैसे कि स्कूल से वापस आते उत्सुक बच्चे ने रास्ते चलते वक्त को ’स्टेच्यू’ बोल दिया हो....और इसी बीच हरसिंगार के पेड़ तले से एक-एक अधखिला लम्हा चुन कर सजा दिया हो कहीं तकनीक के भोजपत्र पर..आपकी रचनाओं मे समय डायनमिक नही वरन् ’स्टेटिक’ होता है..किसी झील की सतह पर ठहरा हुआ..अवाक्!..और उस ठहरे हुए लम्हे की खूबसूरती..सारे रंग और महक बिखर जाती है..पूरी फ़िजा मे..उस क्षणिक दृश्य का अपार विस्तार, समग्र वैभव, चमत्कृत करता सा..शायद यही है जिसे आइंस्टीन ने रिलेटिवटी कहा था!!..और वह ’पॉज्ड’ शॉट चाहे नृत्य से उठे अर्धवर्तुल भँवर का हो, बस के शाश्वत लयबद्ध सफ़र का एक क्षणिक स्टॉप हो, खिड़की का क्षण भर की स्वप्निल सौन्दर्य, या एक रिश्ते के मुक्तिकरण आयोजन के मध्य मे कॉफ़ी का घूँट..सब एक ’क्षण’ का अथाह-अगम्य-अनिर्वचनीय सौन्दर्य!!
..और क्या कहूँ..बस लय बनी रहे बस मे!!!
भाई संजय जी, लम्बे समय से ब्लॉग पर अनुपस्थिति के लिए माफी चाहता हूँ. आपकी पोस्ट पर किशोर जी की बात में यही जोड़ना चाहता हूँ कि लय हासिल करने में लगन या कि जुनून का भी बड़ा योगदान होता है. बहुत अच्छा लगा आपको पढ़ते हुए.
ReplyDeleteदेर से आया, देर सा पढ़ा, इस शब्द-चित्र के आनंद से देर तक वंचित रहा.
ReplyDeleteबस की लय शीर्षक से आज 24 फरवरी 2010 को दैनिक जनसत्ता के समांतर स्तंभ में पेज 6 पर प्रकाशित है आपकी यह मनभावन पोस्ट। बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteप्याज की पकोड़ी और चाय का आनंद ही अलग है. एक एक शब्द जैसे एक एक फरमे बना रहा हो किसी फिल्म का.
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर.
रिगार्ड्स
मनोज खत्री