कहानी सुनाओ!उसकी नन्ही सी बेटी रात को सोने से पहले ये आदेश सुनाती। वो याद करने की कोशिश करता। उसे याद आता, 'प्यासा कौवा','लालची बन्दर',' रंगा सियार ' या ऐसा ही कुछ। और ये सब वो उसे कई बार सुना चुका था। उसे कई बार कुछ भी सुनाने लायक याद नही आता तो उसकी पाँच साल की बेटी कोई सुनी हुई कहानी सुनाने को कह देती।
कई बार वो याद करता या याद करने की कोशिश करता कि ख़ुद उसके बचपन में उसे कितनी तरह की कहानियाँ सुनने को मिली थीं। तब प्यासा कौवा उसे किसी ने नहीं सुनाई थी। पहली बार ये कहानी उसने अपनी अंग्रेज़ी की किताब में पढ़ी थी, और फ़िर रट कर याद भी की थी.अपनी बच्ची को सुनाने के लिए उसे अब कबरी चिडिया की कहानी याद नही आ रही थी। और उस कहानी को वो इस महानगर में ढूंढ भी नही सकता था। शायद अपने कस्बे में भी वो कहानी उसकी दादी के साथ कहीं दूर सिधार चुकी थी।
स्मृति के तंतुओं में सिर्फ़ इतना ही अटका रह गया था कि कबरी चिडी की बहन ने अपनी चोंच सोने से मढवाई थी और इसका उसे बहुत गुमान हो गया था। इसके आगे...........सब अस्पष्ट।
प्यासा कौवा की रटंत लीला ने ऐसी कई कहानियों को स्मृति के लोक से अपदस्थ कर दिया था। या शायद लंबे समय से उसने दादी को कायदे से याद ही नही किया था। कबरी चिडिया कहानी याद करने कि कोशिश में उसे दादी का बोलता चेहरा भी ज़रूर याद आता था। पर अब बड़ा मसला ये था कि बेटी को रोज़ रात कहानियाँ कहाँ से लाकर सुनाये?उसके दिमाग में बार बार ये आता कि बच्चों की इन कहानियों के सन्दर्भ,पात्र, लोक,देश, काल -ये सब क्यों नहीं बदलते। बच्चे इस ज़माने में भी तोता, राजकुमार, राजा, जादूगर, बहेलिया जैसे शब्द कहाँ से समझ जाते है? क्यों दादी की कहानियाँ हमेशा प्रासंगिक होती लगती है?क्या ये कारण है कि हर पात्र-खल पात्र को नैतिकता का एक बारीक सूत्र जोड़े रखता है। इसीलिए इन कहानियों में डाकिन भी सात घर छोड़ती है। यानी सगे सम्बन्धियों को वो भी छोड़ती है।
वो सोचता कि बड़ी मजेदार बात है-' राजा' आजकल बच्चों के निकनेम के तौर पर भी नहीं पसंद किया जाता पर कहानियों में वो आज भी राजा है। उतना ही ताकतवर।न्याय करता हुआ.हाँ, पर वो न्याय छीनता नहीं सकता. छीनेगा तो उसका सिंहासन कोई न्यायप्रिय ले लेगा.
रात को बिटिया का हुक्म राजा के हुक्म की तरह होता. कहानियों के लोक में अपनी उपस्थिति को रेखांकित करता. ये आदेश उसे न चाहते हुए भी मानना था.कहानियाँ अब उसे ज़बानी याद तो थी नहीं लिहाजा उसने सोचा कि किसी किताब से वो रोज़ रात को एक कहानी पढ़कर सुनाएगा. इन कहानिओं के पात्र भी गल्पलोक के ही थे.मंत्री के षडयंत्र,साधू की भक्ति,राजकुमार का घोड़ा,जंगल और तिलस्म,सब कुछ था इनमे. रोज़ एक कहानी. वो शुरू होता और बीच बीच में बेटी के चेहरे के भाव पढता.उसे लगता बेटी कहानी के भूगोल में पहुँच गई है. और..ख़ुद उसे भी कई बार लगता जैसे वो भी इन्ही पात्रों के बीच पहुँच गया है. इन लोककथाओं में भगवान् कम ही दिखाई पड़ते थे और कोई ख़ास भगवान् तो यदा कदा.दैवीय से ज्यादा यहाँ नैतिक व्यवस्था थी.सरलता यहाँ पेंचदार चीज़ों से हमेशा जीतती थी. छल यहाँ हमेशा छला जाता था.जादू और तिलस्म को एक बकरी भी अंततः छिन्न भिन्न कर ही लेती थी.
धीरे धीरे उसने खूब सारी कहानियाँ बेटी को सुनाने की प्रक्रिया में पढ़ डाली.देश विदेश की.चीन की,अरब की,रोमानिया की,अफ्रीका की.सिंदबाद जहाजी की यात्राएं.विक्रम वेताल.पर इस संसार को मथ लेने पर भी कबरी चिडिया उसे कहीं नहीं मिली.गूगल का खोज यान भी यहाँ नाकाम ही हुआ. इस कहानी का पता सिर्फ़ एक ही दे सकता था. उसकी दादी. और वो अब इस लोक में नहीं.
घर की खिड़की से बाहर उसने निष्प्रयोजन ही एक निगाह डाली और वो चौंक गया.पेड़ की निचली डाली से लटका वो मिटटी का बर्तन कहाँ था जहाँ चिडियाएँ पानी पीने आती थीं. ये बर्तन उन्हें जल किलोल का मौका भी देता था. उसे याद आया की मिटटी का वो बर्तन उसने सालों से देखा ही नहीं था.और इस महानगर में तो शायद कभी नहीं.
वो याद करने लगा था कि कितने महीने पहले उसने घर में मज़े से अधिकार जमाती चिडिया को देखा था.