एक लम्बी सड़क थी जिसके दोनों ओर श्रृंखला में दुकाने ही दुकाने थीं । सड़क के इस तरफ और सामने दुकानों के बीच फासला बहुत कम था। सड़क एक पतली सी पट्टी थी। एक ग्राहक को सड़क लांघ कर सामने जाने की ज़रुरत नहीं थी। वो लगभग फुसफुसा कर भी सड़क के उस ओर की दूकान वाले को अपनी कोई बात कह सकता था या किसी चीज़ के बारे में पूछ सकता था। सड़क एक निरंतरता में पुराने बाज़ारों से होकर चलती थी।यानी दोनों ओर की पच्चीस-पचास दुकानें एक ही तरह की चीज़ों से पटी पड़ी होतीं फिर उससे आगे नए ही तरह के सामानों से भरी दुकानें आ जातीं। पान सुपारी तमाखू रस्सियाँ मूँज चूर्ण वगैरह की चीज़ों का मार्किट ख़त्म होता तो कपड़ों का शुरू हो जाता । कपड़ों का बाजार पीतल कांसे और स्टील के बर्तनों की दुकानों से मिलकर विदा लेता था।धात्विक बर्तनों से टनकता ये बाज़ार आगे उस बाज़ार के आने पर ख़त्म हो जाता जहां चूड़ियाँ मालाएं नकली आभूषण रेडीमेड कपड़े वगैरा मिलते थे। दुकानों का सिलसिला एकबारगी एक पुराने मंदिर के चौक में ख़त्म हो जाता था। मंदिर का चौक छोटा ही था पर अब तक चले आ रहे संकरे रास्ते के लिहाज़ से बड़ा और खुला खुला सा लगता था। यहां अधेड़ और बूढ़े लोग ज़्यादा जमा होते थे।वे इस चौक के आसपास ही कहीं खड़े या बैठे रहते थे।दुकानें और बाज़ार सुबह दस ग्यारह बजे के आसपास गर्म होते और रात आठ नौ बजे के करीब ठन्डे पड़ने लग जाते। पुराने बाज़ार देर रात तक नहीं चला करते।इस लिए यहां के बाज़ार भी दिन के बाज़ार ही थे पर ये मंदिर-चौक सुबह जल्दी चेतन हो जाता और रात में बाज़ार बंद हो जाने के बाद भी हलकी चहल पहल बनाए रखता। दिन में बेशक इसकी गतिविधियाँ पाने उच्चतम बिंदु पर रहतीं।
चौक में कबूतरों के लिए अनाज के दाने भी एक ओर फेंके जाते थे। सुबह की धूप में कबूतरों के झुण्ड समूह-भोज में व्यस्त हो जाते थे। आसपास बैठे वृद्धजन पार्श्व में बजती कबूतरों की गुटरगू से बेपरवाह आपस में बातें करते रहते थे।यहां कुछ ठेले वाले भी थे जो कुल्फियां और नर्गिस कोफ्ते एक साथ बेचते थे।इन ठेलों के आसपास भिखारी भी खड़े रहते जो दिन भर में कुछ न कुछ पा ही जाते थे। वक्त के साथ इन भिखारियों के चेहरों से दयनीयता जाती रही थी। समुदाय और व्यक्ति दोनों रूपों में भिखारी अपरिचित ही बने रहते है। एक ही मोहल्ले में आने वाले भिखारी सालों बाद भी वहां रहने वालों से दोस्ती का रिश्ता नहीं जोड़ पाते। पर यहां के भिखारियों ने अगर अपने चेहरे से बेचारगी का अस्त्र खोया था तो 'अनौपचारिक होकर मांगने' का बख्तर भी पहन लिया था। वे इस चौक में मांगने को हक़ की तरह इस्तेमाल कर किसी को भी चिढ़ा देने की हद तक परेशान कर देते थे। और लोग बिना परेशान हुए उन्हें कुछ न कुछ दे देते थे। ये इस स्थान पर आने पर किसी अनुष्ठान की तरह किया हुआ काम ही था जैसे।
कई बार भिखारी भीख प्राप्त कर लेने पर इस तरह ठहाका मारते थे जैसे देने वाला कोई बेवकूफ हो। कोई नया आदमी भिखारियों के इस तरह ठहाका लगाने पर झेंप जाता। पर जिनके लिए यहां आना रोज़ का काम था वे इस पर ध्यान नहीं देते थे।पतली सड़क और ऊंची दुकानों के बीच मंदिर-चौक की तरह कई और चौड़े स्थान बीच बीच में आते रहते थे। सड़क दोनों और दुकानों की लम्बी श्रृंखला के बीच की संकीर्ण विभाजक रेखा थी। ये लाइनसर दुकाने मध्यकालीन बाज़ारों के हिस्से थीं। बाज़ार अगर कहीं थक जाते तो वे एक छोटे चौक में सुस्ताने लगते। इन छोटे स्पेस में हवा अपेक्षाकृत पतली और स्फूर्त होतीं।लोग अपनी हड़बड़ी छोड़ आराम की मुद्रा में रहते। और यहां से निकलते ही फिर दुमंजिला तिमंजिला दुकानों की लड़ियों में लोग दम भर सांस के लिए जगह ढूंढने लग जाते। लम्बे संकरे मार्ग के बीच बीच में हवा से नहाए खुले चौक दुकानों के साथ चलते चले जाने वाले लंंबे रास्ते के भी सुस्ताने के ठिकाने थे जो याद दिलाते थे कि मंज़िल से ज़्यादा रास्तों के बीच पड़ी बैंचें चाहत जगाती हैं।
चौक में कबूतरों के लिए अनाज के दाने भी एक ओर फेंके जाते थे। सुबह की धूप में कबूतरों के झुण्ड समूह-भोज में व्यस्त हो जाते थे। आसपास बैठे वृद्धजन पार्श्व में बजती कबूतरों की गुटरगू से बेपरवाह आपस में बातें करते रहते थे।यहां कुछ ठेले वाले भी थे जो कुल्फियां और नर्गिस कोफ्ते एक साथ बेचते थे।इन ठेलों के आसपास भिखारी भी खड़े रहते जो दिन भर में कुछ न कुछ पा ही जाते थे। वक्त के साथ इन भिखारियों के चेहरों से दयनीयता जाती रही थी। समुदाय और व्यक्ति दोनों रूपों में भिखारी अपरिचित ही बने रहते है। एक ही मोहल्ले में आने वाले भिखारी सालों बाद भी वहां रहने वालों से दोस्ती का रिश्ता नहीं जोड़ पाते। पर यहां के भिखारियों ने अगर अपने चेहरे से बेचारगी का अस्त्र खोया था तो 'अनौपचारिक होकर मांगने' का बख्तर भी पहन लिया था। वे इस चौक में मांगने को हक़ की तरह इस्तेमाल कर किसी को भी चिढ़ा देने की हद तक परेशान कर देते थे। और लोग बिना परेशान हुए उन्हें कुछ न कुछ दे देते थे। ये इस स्थान पर आने पर किसी अनुष्ठान की तरह किया हुआ काम ही था जैसे।
कई बार भिखारी भीख प्राप्त कर लेने पर इस तरह ठहाका मारते थे जैसे देने वाला कोई बेवकूफ हो। कोई नया आदमी भिखारियों के इस तरह ठहाका लगाने पर झेंप जाता। पर जिनके लिए यहां आना रोज़ का काम था वे इस पर ध्यान नहीं देते थे।पतली सड़क और ऊंची दुकानों के बीच मंदिर-चौक की तरह कई और चौड़े स्थान बीच बीच में आते रहते थे। सड़क दोनों और दुकानों की लम्बी श्रृंखला के बीच की संकीर्ण विभाजक रेखा थी। ये लाइनसर दुकाने मध्यकालीन बाज़ारों के हिस्से थीं। बाज़ार अगर कहीं थक जाते तो वे एक छोटे चौक में सुस्ताने लगते। इन छोटे स्पेस में हवा अपेक्षाकृत पतली और स्फूर्त होतीं।लोग अपनी हड़बड़ी छोड़ आराम की मुद्रा में रहते। और यहां से निकलते ही फिर दुमंजिला तिमंजिला दुकानों की लड़ियों में लोग दम भर सांस के लिए जगह ढूंढने लग जाते। लम्बे संकरे मार्ग के बीच बीच में हवा से नहाए खुले चौक दुकानों के साथ चलते चले जाने वाले लंंबे रास्ते के भी सुस्ताने के ठिकाने थे जो याद दिलाते थे कि मंज़िल से ज़्यादा रास्तों के बीच पड़ी बैंचें चाहत जगाती हैं।