Friday, December 7, 2012

शुभ्र ढलान पर लाल तारा


उसे इस सीज़न का स्वेटर पहने एक हफ़्ता हो चुका था.आज सुबह जब उसकी नज़र स्वेटर की सफ़ेद पट्टियों पर पड़ी जो जगह जगह से ज़ंग खाइ लगने लगीं थीं तो याद आया कि बाज़ार से वो ईज़ी लाना पिछले तीन चार दिन से भूल रहा है. चीज़ें उसे इस तरह से ही याद आतीं थीं.सर पर गिर कर.ठीक उसी वक्त उसे याद आया कि कॉलोनी में पिछले सात दिन से लक्ष्मीनारायण दिखा नहीं है और आज तीसरा दिन है जब उसने सोचा था कि इस बारे में वो किसी कॉलोनी वाले से पूछेगा. लक्ष्मीनारायण उसके ही दफ्तर में चपरासी था और यूँ कॉलोनी का पुरोहित भी. उस तैंतीस घरों की वॉल्ड बस्ती के धार्मिक आयोजनों में कर्मकांडों को वो बड़ी दक्षता से सरलीकृत कर देता था.शक्ल से वो टीबी जैसी किसी बीमारी का मरीज़ भले ही लगता था पर असल में उसे कर्ज़े खाए जा रहे थे.एक दुसरे पर समकोण में और एक दुसरे के समानांतर कुछ अस्थियाँ उसके व्यक्तित्व की मूल ज्यामिति बनाए रख रही थीं.

उसने सोचा आज ही लक्ष्मी के बारे में किसी से पूछेगा पर तभी मोबाइल की घंटी बजी और उसे फिर इसी बहाने याद आया कि सुबह ही उसकी गर्ल फ्रेंड ने फोन पर बताया था कि आज शाम वो उसे उसके दफ्तर के बाहर मिले.ये डेट जैसा ही कुछ था, उसने सोचा.साथ ही लडकी ने ये भी कहा था कि पक्का तो वो शाम पांच बजे फोन करके ही बता पाएगी. इस फुटनोट के बाद उसका आकलन ये था कि डेट वाली बात को भूल जाना चाहिए क्योंकि उसका फ़ोन नहीं आने वाला था.ऐसा कई बार हो चुका था.ये रिश्ता लगभग ख़त्म होने वाला ही था.इसके बने रहने का कारण था कि कोई भी नीच या घटिया नही होना चाहता था.वैसे वो उसे पसंद करता था पर इस पसंद करने का वो क्या करने वाला था इस बारे में वो श्योर नहीं था.वो कई बार लड़की की गर्दन के पीछे लाल मस्से को लेकर भावुक हो जाया करता था.काले मस्से को वो अनाकर्षक मानता था पर उसकी नज़र में उसके दूधिया शरीर पर लाल मस्सा बहुत फबता था.एक शुभ्र ढलान में लाल तारे की तरह चमकता था वो दैवीय सा निशान.इससे उसे लगता था कि लड़की कोई क्लोन नहीं बल्कि विशिष्ट है,अपने में अनूठी.कुछ दुर्लभ आत्मीय क्षणों में जब वो उसकी गर्दन के पास अपना मुंह ले जाता था,लड़की समझ रही होती कि वो उसे चूम रहा है, दरअसल वो लाल मस्सा देख रहा होता था.लाल मस्से को देख कर वो खासा वर्कड अपभी हो जाता था और ये ठीक भी था. इसे लड़की उस वक्त की वाजिब प्रतिक्रिया ही समझती थी.

पर आज शाम उसके फोन कर डेट को पक्का करने की बात को याद रखने की कोई वजह रही नहीं थी.उसके इन दिनों के फ़ोन कॉल्स पर उसने हूँ हाँ की अन्यमनस्क प्रतिक्रिया ही दी थी.दोनों की तरफ से फ़ोन पर बात करना आवाज़ देने,पुकारने की ऐसी रस्म अदायगी जैसा था जिसमें ये डर भी शामिल था कि दूसरा कहीं सुन न ले.

अभी जो घंटी बजी थी उसमें सामने अनिल था.उसका खासा पुराना दोस्त.उसे याद नहीं था कि आखरी बार अनिल से बात कब हुई थी.इसे हफ्तों, महीनों या सालों में नहीं देखा जा सकता था.बस इतना था कि एक प्राचीन धूल उनके बीच में थी.एक लम्बी अजनबियत उनकी पुरानी दोस्ती पर पसरी हुई थी.जैसे किसी पहचाने रास्ते पर बरसों बाद चलने पर लगता डर.एक सहमापन.ठिठकते जाना.

फ़ोन पर अनिल की आवाज़ में भी खरखराहट थी.धूल खाए कैसेट से बजती कोई रिकार्डेड आवाज़.अनिल ने बातचीत में शाम को साथ में फिल्म देखने का प्रस्ताव दे डाला.उसके पास इसे मानने के अलावा शायद कोई विकल्प नहीं था क्योंकि उस वक्त वो ये जांचने में ज़्यादा लगा था कि फ़ोन पर कहीं उस शख्स की बरसों पुरानी फीते पर अंकित आवाज़ तो नहीं है जिसे इस दुनिया से रुखसत हुए ज़माना बीत गया है.

वो सोचने लगा कि मल्टीस्क्रीन की लिफ्ट के पास जब वो उसे देखेगा तो कैसा दिखेगा.कुरेदकर उसने अनिल का चेहरा याद किया.उसका चेहरा एक शिशु का था.या एक शर्मीली लड़की जैसा.स्त्रियोचित सुन्दरता से भरा.हलकी मूंछें उसके होठों पर ऐसे लगती जैसे किसी बच्चे ने नकली मूंछे चिपका ली हो.उसे स्वभावतः गुस्सा बहुत आता था पर स्वाभाविक नहीं लगता था उसके चेहरे पर.

शाम ही थी ये.कुछ जल्दी हो गयी थी पर शाम ही थी.अपने स्कूटी यान पर वो सिनेमा के लिए जा रहा था.चौराहे पर घर लौटने वाले व्यग्र खड़े थे.लाल बत्ती उन्हें कुछ पलों के लिए थामे खड़ी थी.हवा में धुंए के छर्रे आँखों में चुभ रहे थे.अपने व्यस्ततम समय पर ये शहर का सबसे व्यस्ततम चौराहा था.मैकडोनाल्ड वाला बर्गर के साथ यहाँ आलू टिक्की भी बेच रहा था. समोसों में ढलते रोज़ टनों मैदे को चाटने से इस शहर का पाचन बिगड़ चुका था.सेक्स क्लिनिक्स के नाम पट्ट फीके पड़ रहे थे, फर्टिलिटी क्लिनिक्स की बाढ़ थी.एक दिवंगत नेता की पुष्पमाल उछालते प्रतिमा इन सबसे से उदासीन थी.


हरी बत्ती हो गयी थी और वो फिर अपने यान पर चलायमान था.सिनेमा कुछ ही दूर था.उसने मन में सोचा कि बेसमेंट पार्किंग में जब वो स्कूटी पार्क करके लिफ्ट की तरफ बढेगा तो वो लोहे का कमरा कितना ठंडा और अपरिचय से भरा होगा.क्या अनिल के शिशुवत चेहरे की गर्मी उस शीत में राहत दे पायेगी?

Friday, November 9, 2012

किशोर चौधरी का कहानी-संग्रह---'चौराहे पर सीढियां'


किशोर चौधरी का पहला कहानी संग्रह चौराहे पर सीढियां बस आने ही वाला है.इसमें कुल चौदह कहानियां है,जिनमें से एक कहानी चौराहे पर सीढियां भी है.संग्रह के उपलब्ध होने से पहले कहानियों पर बात करने का अधिकार लेखक के पास ही होता है और ख़ास कर जबकि लगभग सारी ही कहानियां मुद्रित रूप में पहली बार सामने इसी संग्रह के ज़रिये आयेंगी, इन पर कुछ कहा भी कैसे जा सकता है? पर शायद ये कहना एकदम ठीक नहीं होगा.यहाँ स्थिति ऐन ऐसी नहीं है. सारी की सारी कहानियां किशोर जी के ब्लॉग के ज़रिये हम सब के पास बैठ चुकी हैं, बतिया चुकी हैं और कुछ तो अब तक हमारे आस पास ही हैं.इसलिए कहानियां या कहानियों के ड्राफ्ट पाठक पहले ही पढ़ चुके हैं. और मैं मित्रता के अधिकारवश भी कहना चाहूँगा कि परंपरा में मिली किस्सागोई,स्थानीय मुहावरे और परिवेश से ठेठ देसीपन को सुरक्षित रखते हुए किशोर की कहानियों का संसार विशिष्ट रूप से मौलिक है.

वे जटिल मनोभावों और उनकी ऊहापोह के शिल्पी हैं.
उनके यहाँ अमूर्त भाव भी छुए जा सकते हैं,वे कई रंगों में रंगे हैं,उन्हें कभी किसी कोने में तो कभी एकदम सामने देखा जा सकता है.लगता है जैसे वे टोकरी में पड़े फल हैं...  

इस अति संकोची और विनम्र कहानीकार के पहले संग्रह पर मेरी बधाई और ढेर सारी  शुभकामनाएं. संग्रह के आने के बारे में अब पर्याप्त संख्या में लोग जानते हैं इसलिए इसके हाथों हाथ लिए जाने पर कोई संदेह नहीं है.एक समय वो भी था जब भाई किशोर कहानियों को जिल्द रूप में लाने को लेकर खासे अनमने थे पर मुझ सहित कई लोगों की जिद कुछ ऐसी थी कि वो आखिर अपने ब्लॉग की कहानियों पर कुछ परिश्रम करने को तैयार हो गए. हिन्द युग्म, जो किशोर जी का ये कथा-संग्रह आपके सामने ला रहा है बधाई और धन्यवाद का पात्र है.शैलेश जी के अथक प्रयत्न हमारे सामने हैं,आने वाले हैं.विशेष आभार शैलेश जी.

ये मेरा परम सौभाग्य है कि किशोर जी ने कहानियों पर जो दुबारा काम किया, जो जोड़ा घटाया उसे शब्दशः मुझे मेल द्वारा बताया,जिसकी वैसे कतई ज़रुरत नहीं थी क्योंकि मैं उनके गणितीय परफेक्शन में क्या और गुणात्मक जोड़ पाता?

बस मैं इतनी ही कामना जोड़ रहा हूँ कि चौराहे पर सीढियांकथा संग्रह भरपूर पढ़ा जाय.उसकी खूब चर्चा हो और आगामी कई ऐसे संग्रहों के ज़रिये किशोर जी की कहानियां हमें पढने को मिलतीं रहें.

हिन्द-युग्म से प्रकाशित हो रही इस कथा पुस्तक की कीमत सिर्फ ९५ रुपये है.इसे यहाँ से विशेष छूट के साथ मंगवाया जा सकता है. 





Tuesday, October 9, 2012

चारपाई पर बुढ़िया


पहली नज़र में वो सिर्फ एक खाट थी.खाली.पर जैसे जैसे नज़दीक जाना हुआ, पता चला कोई बूढी उस पर लेटी है.उस छोटी सी खाट पर भी उसकी उपस्थिति अपने आप दर्ज़ नहीं होती थी. उसे चिन्हित करना पड़ता था.अपनी जीर्ण ओढनी के अलावा वो सूखे हाड़ की छोटी सी पोटली भर थी.यद्यपि ये शक बराबर बना रहता था कि फटी ओढनी के अलावा वो कुछ भी शेष नहीं है और हवा ही उसके आकार की शक्ल में कहीं टिकी रह गयी है. बस,समीपस्थ वातावरण के बारीक बने संतुलन में नोक भर के  बिगड़ाव मात्र से   सिर्फ ओढनी ही हाथ रह जानी है.घरवालों का कहना था कि बूढी दादी कई दिनों से अन्न नहीं ले रही है. एक लंबी यात्रा रही है दादी की,और अब चारपाई पर हथेली भर दादी को देखकर लगता है कि जिम्मेदारियों का भी अपना आयतन होता है जिनकी वज़ह से दादी कम से कम तब तो ज़मीन पर ज़रूरी जगह घेरे ही होगी जब गृहस्थी का गोवर्धन उसके सर पर था.अब जब वो चारपाई पर है और वो खुद किसी की ज़िम्मेदारी भर है तो उसकी उपस्थिति को ढूँढना भी भारी पड़ रहा है.

बरसों पहले वो जब शादी करके आई थी,खुद वो कहती है कि उसकी शादी को जुग भव बीत गए, तब वो कुछ बर्तन, कपड़े और चांदी के थोड़े गहने लेकर आई थी.इस घर में पतली नोकदार नाक और थोडा गोरा रंग भी वो ही लाई थी.साथ ही हथेली पर आने वाली खुजली और हल्का दमा भी.
अपना नाक, रंग और सुहाती खुजली उसने कुछ हद तक अपने पोते-पोतियों, एक बेटी और दोहिते को भी दी है.

अपने सक्रिय बुढापे के दिनों में वो दो बार खुश हुई थीं. पहली बार तीर्थ से लौटते वक्त दिल्ली में क़ुतुब मीनार देखकर और दूसरी बार बहरे होते कानों के लिए मशीन पाकर. उसके लंबे वैधव्य में ये खुशियां विशुद्ध और पूर्णतः अमिश्रित थीं.ज़रूर इनका आयतन भी उसके आकार में भराव देता होगा.

अब चारपाई को खड़ा कर दिया गया है.उसकी जीर्ण ओढनी धरती पर है.हवा जो उसके आकार में बंधी थी, बिखर गयी है...

Saturday, July 28, 2012

देवालय से दुर्ग


राणकपुर से कुम्भलगढ़.देवालय से दुर्ग की ओर.जैन मंदिर परिसर के विशाल काष्ठ-द्वार से प्रस्थान.पहाड़ों की विनम्र ऊंचाइयां और ढलानों का सौहार्द्र.अरावली यहाँ प्रार्थनाएं बुदबुदाता लगता है.एक पवित्र प्रदक्षिणा में गाड़ी बढती जाती है.हमने दुनिया से ओट ले रखी है. आगे एक जगह एक दयनीय से बोर्ड पर तीर के दो निशान उदयपुर और कुम्भलगढ़ की तरफ जाने का संकेत कर रहे हैं.मैं वाहन कुम्भलगढ़ की ओर मोड़ लेता हूँ.प्राचीन अरावली का मेरुदंड कब का बुरादा हो चुका है.इसका कंकाल भी भुरभुरा हो चुका है.अरावली अपने ही जीवाश्म के रूप में शेष बचा है.

पर उत्तुंगता फिर भी छलावा है.ये वहाँ अपने को प्रकट करती है जहां हमारी सोच तक में नहीं होती.और अपने पर पाँव धरे जाते ही ये शून्य को उदग्र भेदती वेग के साथ आरोहण करती है. एक मोड़ के तुरंत बाद अप्रत्याशित ऊँचाई ने गाड़ी पर मेरी पकड़ में कंपन पैदा कर दिए. उससे उतरते ही मोड़ के बाद एक और तीखी चढान ने ऐसे रास्तों पर मेरे पहली बार होने के भेद को उजागर कर दिया.आगे ताज़ा कोलतार का रेला सरपट उतर कर एक आह के साथ मरोड़ खा कर फिर ऊँचाई की किसी फुनगी पर चढ़कर गुम हो रहा था.इसी 'धक्'-कारी मोड़ पर किसी ने गाँव-भर मिट्टी ढूह बनाकर जमा कर रखी थी. मेरी छोटी गाड़ी को इसी में  धंस कर कोलतार के साथ एक सांस में ठेठ ऊपर चढ़ना था.सड़क के एक तरफ पहाड़ था तो दूसरी और अंधा खड्ड.रास्ते का कगार जैसे अंतिम छलांग के लिए ही  छोड़ा हुआ था.राणकपुर से दूदालिया होकर कुम्भलगढ़ का ये रास्ता शायद प्रचलित रास्ता नहीं था.जो भी हो मेरे लिए ये अनंत को जाती सूच्याकार चढाईयां थी जिन पर पहुंचकर उसके उच्चतम बिंदु पर अपने गुरुत्वकेन्द्र को भी साध कर रखना था.


किसी नक्षत्र की तरह टिमटिमाते इस शिखर बिंदु पर गाड़ी कैसे पहुँचकर कहाँ लुढकती है, सोच पाना आसान नहीं है पर लगता है कोई उसे यहाँ की,हम लोगों की दुनिया में फेंकता है और मेरे लिए कुम्भलगढ़ का किला एकदम सामने आता है.हठात.किसी एंटिटी की तरह.एक ज़माने में ये ज़रूर पत्थर गारे का संयोजन रहा होगा पर फिर धीरे धीरे किसी व्यक्तित्व में बदल गया था.
संगो खिश्त से हाड़ मांस का ढेर और फिर किसी बारिश में गिरी भीषण बिजली ने इसमें जैसे चेतना दौड़ा दी हो.इसके कंधे पर पाँव रखते हुए सर पर सवार होना एक खूबसूरत अनुभव है पर सर पर लोहे की रेलिंग के मुकुट से नीचे झांकना शरीर में ऐसी झुरझुरी दौड़ाता है जैसे किसी ने देह में बारिश के कीड़े झौंक दिए हों.

वापसी में किले से नीचे उतरती ढलान पर आगे जाकर केलवाड़ा है. यहाँ से चारभुजा के   ठीक पहले देसूरी की ओर उतर कर अपने ठिकाने जोधपुर जाने की आशु-योजना बनाई.सामने कई किलोमीटर तक का घना जंगल है.अरावली के महाखड्ड में जीवन कई तरह से पनपता है.गाड़ी कुछ ढलानों से होकर जंगल के गाढ़ेपन में घुसती है.एक लंबी थका देने वाली खोह.घात में बैठे किसी हिंस्र पशु की तरह जंगल यहाँ बहुत सधा हुआ लगता है.एकदम तैयार.लगातार आपका पीछा करता हुआ.वैसे ही जैसे काफ्का ऑन द शोर में काफ्का तमूरा को लगता है,जब वो पहली बार जंगल में घुसता है.
   


Sunday, July 8, 2012

कुछ कच्ची पक्की


(मेरी कुछ कच्ची पक्की रचनाएँ जो अलग अलग समय में लिखी हुई हैं आपके सामने रख रहा हूँ.)



गिरधारी लाल आदमल किराना व्यापारी


भर गर्मी के भारी चिपचिपे अहसास में
महज हाथ पंखे की ठंडी हवा के
वहम से संतुष्ट
खाने पीने की तमाम चीज़ों की
उपस्थिति से भरा भरा
बैठा है व्यापारी
चूहों की अहर्निश आवाजाही के बीच.

यहाँ आने का सिलसिला
पुराना है
और
मेरे घर का और भी पुराना
मतलब हम पीढ़ियों से
यहाँ किराना खरीदते आये हैं.  

गुड को चीकट लगी तराजू से  
मांगे गए भार में तौलता
सिर्फ कांटे पर नज़र रखे
व्यापारी
काम पूरा होने पर
पिता से उपार्जित
व्यावसायीक मुस्कान को गुड के साथ पेश करता है
मैं कुल किराने का बिल 
अदा करने से पहले
अंतिम मोलभाव करता हूँ
व्यापारी मुस्कान की मिकदार बढ़ाकर
उलाहन देता है
रिश्तों को मोलभाव के
सौदे में बदलने का
और पुरानी बहियों पर दोस्ताना
धौल जमाता है
जैसे कहना चाहता हो
कि कुछ हिसाब वैसे भी
दो एक पीढ़ियों से बाकी है
पर मुझे समझता देख
होल सेल की रेट लगाने के  
हवाले से
बात खत्म करता है

गिरधारी लाल आदमल किराना व्यापारी से
हमारे पुराने रिश्ते है



 बेटियाँ 


कहतें है इस घर की बेटियाँ
किसी खास नक्षत्र में जन्म लेने से
जहां भी रहती है
दुखी रहती है


शताब्दी भर पहले इस घर की बेटी ब्याही गयी जिसके साथ
वो कुछ साल में ही रहा नहीं
और उसने जो बेटा दिया
वो दिमाग से
हमेशा बच्चा बना रहा
वो जबकि  
अधेड और वृद्ध होती गयी   

फिर दशकों की लंबी यात्रा में
अपने दुःख को घड़े में सर पर उठाये
और लू के थपेडों में
चेचक के धावों में
जीती, चलती रही

इस घर की बेटियाँ
कहते है
जहां भी रहे
घर की चौहद्दी की
एकांतिक वर्तुल यात्राओं में ही
इतनी मरती है कि
शरीर से मरने कि 
जैविक नियति भी
हो जाती है बेमानी
बस यूँ चलने और खटने में
हर बार
पाँव धरने और उठाने के बीच
रह जाता है कुछ उसका
धरती पर ही
इस तरह वो  
पगथलियों से घिस कर
छोटी होती जाती हैं निरंतर
तिल तिल  
और बहुत बरसों बाद
विलीन हो जाती है
चुपचाप
यहाँ की सूखी
पतली हवा में.


मरते हुए आदमी का शुक्रिया

ये जाने से पहले के कुछ पल हैं
उसकी चेतना अब सिर्फ आँखों में हैं
जिनसे देखता है 
मरता हुआ आदमी  
कुछ लोगों को
भरपूर कृतज्ञता के साथ
आखरी बार.

तुम
जैसे वो सामने खड़े आदमी से कहता है-
शुक्रिया तुम्हारा.

'रेत पर लंबी यात्राओं में
पगथलियों को दाह से बचाने का.
उन ठंडी हवा से बनी चप्पलों में
तुम्हारी ही मटकी की
गीलास काम आईं थी'

'और तुम्हारा भी,भाई.
जिस बरस सर्दी ने
अस्थियों की मज्जा तक को
झिंझोड़ दिया था
उस जाड़े की सुबहों का सूरज
तुम्हारी ही कम्बल का ताप लाता था'

'और दोस्त तुम क्यों खामोश खड़े हो?
चूना मिले ज़र्दे पर
तुम्हारी थाप
गप गोष्ठियों को जीवंत कर देती थीं
इसी थप-ध्वनि ने हर बार
किसी कातर क्षण में रुंधे गले को
आवाज़ दी थी,
तुम्हारा भी शुक्रिया'.

'तो मित्रों'
उसकी आँखें तेज़ी से मुंदती जा रहीं थीं,  
'सब छोड़ जा रहा हूँ मैं  
बस
इन कुछ उधारियों के सिवा'.

                           (चित्र विकिमीडिया के सौजन्य से)

Monday, May 21, 2012

हिसाब की पांडुलिपि


किसी पवित्र पांडुलिपि की तरह
सहेज कर रखा गया था
हिसाब का ये पन्ना
कितनी बची है मूंग की दाल
और
कितना चाहिये इस महीने
मूंगफली का तेल
सब कुछ इसमें था  
गृहिणी की उँगलियों के कोमल बंधन में
चौकन्नी चलती कलम से बनी लिखावट   
बहुत सुंदर थी
किसी वाग्दत्ता के प्रेम पत्र की तरह
जिसके गोल गोल अंक और अक्षर
झिलमिलाते थे
पन्ने पर पड़े तेल के धब्बों के बीच.

चुटकी से उस दिन
कड़ाही में गिरी हींग
अब भी इस पन्ने पर
बची हुई थी
किसी दूरस्थ गंध के रूप में
पन्ने को न जाने  
कितनी जगह और कितने कोणों से
छुआ था उसकी उँगलियों के पोरों ने
कि मसालों का कोई दक्षिण भारतीय बाज़ार
अब भी आबाद था
इसकी चारों भुजाओं की हद में
क्या गृहिणी हिसाब के पन्ने को
रसोई के काम का हिस्सा ही मानती थी
या रसोई से निवृत होकर किया जाने वाला काम?
पता नहीं
पर
ये हिसाब,प्रस्ताव,आकलन आदि के साथ   
घर की ज़रूरतों और आकांक्षाओं का संधि पत्र था
इस पन्ने को सहेजने का यत्न 
घर को सहेजने का यत्न ही था.   


                                          

Sunday, May 13, 2012

लालटेन


लालटेन की अभिशप्त रौशनी में अँधेरा अधिक स्याह होकर सामने आता है.उसकी लौ की भभक मानो उचक उचक कर अपनी ही पैदा की गयी चमक को निगलती है. उसे उजाले की दुनिया से निष्कासित कर दिया गया है.वो रौशनी का मिथ्याभास है.उसकी आड़ में अँधेरे को वाचाल होने का अवसर मिलता है.वो आसानी से अपने छल पर लालटेनी रोशनी की बारीक चादर ओढा देता है. और तब अरसे से ज़मींदोज़ हुआ खंडहर भुतहा लगने लगता है.लालटेन की रोशनी इतनी सुदूर है कि उस तक पहुँचने के लिए ठोस अन्धकार को भेदना ज़रूरी है. और इतनी निशक्त कि घर के किसी कोने में टंगी होने पर उसे एक बेचारगी भरा व्यक्तित्व प्रदान करती है.एक स्त्री लालटेन को उठा कर अपने चेहरे के करीब लाती है तो लालटेन उसके युवा चेहरे को झुर्रियों से भर देती है..

उसके कांच के गोले के ठीक बाहर अँधेरे का ठंडा बियाबान है.

किसी भूत को देखने का दावा करने वाला पहला और अब तक का आखरी शख्स जिसने ये दावा सीधे खुद मुझसे किया हो,मेरी दादी थी.उसने इसी लालटेन की रौशनी में रात के तीसरे प्रहर में  किसी मणि बेन को देखा था जिसके बारे में अगले दिन पता चला कि वो तो इलाज के लिए शहर गई हुई थी और जिसे मेरी दादी ने लालटेन के भ्रमित करने वाले आलोक में देखा था वो उसकी बरसों पहले मर चुकी दादी थी जिसकी हूबहू शक्ल लेकर मणि बेन पैदा हुई थी.सच तो जो था वो था पर उसे भी लालटेन सीधा और सपाट नहीं रख पाई. भूत देखने का ये अनुभव इतना व्यक्तिनिष्ठ था कि अंततः किसी भी विपरीत तर्क से मुक्ति पाने के लिए मेरी दादी ने इस सिद्धांत की घोषणा ही कर डाली कि दो लोग एक ही भूत को एक ही जगह एक साथ नहीं देख सकते.पर खैर उसकी जिंदगी में लालटेन के परिमित-आभासी-उजाले में किसी परिचित चल-आकृति का हमेशा होना बना रहा.उजाले को इतना उजाड़ पाना बहुत बड़ी त्रासदी है जो बारिश की नम रात में लालटेन के एकाकीपन को कभी कभार अपनी प्रदक्षिणा से भंग करते कीट से और बढते महसूस किया सकता है.अपने इस एकांत में बिसूरती, डूसके भरती लालटेन इतनी पस्त है कि वो दिन उगने का इंतज़ार करती है जिससे कि वो अपने रौशनीनुमा कुछ को तिरोहित कर थोड़ी देर चैन की नींद सो सके.

Sunday, April 15, 2012

कुछ और कवितायेँ



मत आना

बरसों से चुप पड़ी पुरानी खांसी फिर से उभरी है
दिमाग में उठ आया है
हज़ारों दिन पहले का
कोई जंग खा चुका बवंडर


अब जब तुम फिर से आई हो
तो सुनो
तबसे अब तक   
पृथ्वी बहुत फांक चुकी है
सूरज से गिरती आकाशीय धूल
और मेरे मन की जलवायु भी
बदल चुकी है
कमोबेश.
वो पीपल जो युवा था कभी
और हवा के संग मिला लेता था
तुम्हारी आहट से ताल
अब वनैला बरगद हो चुका है
उसकी जड़-शाखाओं से उलटे लटके हैं वेताल
अपने मूर्ख प्रश्नों से जो 
खिल्ली उड़ाते अहर्निश
हमारी समझ की.

मैं तो कहता हूँ मत आओ अब तुम
मेरी देहरी पर इस तरह.


बुदबुदाहट



बुदबुदाता है बूढा
जैसे खुद से ही कह रहा हो
या फिर सीधे ईश्वर से 
किसी तिब्बती मन्त्र की शक्ल में कुछ कुछ 
कि प्रेम में विफल
लड़की को मिलता है कोई
अधेड पति
और
लड़का ले आता है
एक थकी हुई स्त्री
जो खुद
प्रेम से हार कर
पिसती रही है
अफ़सोस की पेषणी में.

प्रेम के खारे समंदर को
मथने के लिए
पर्वत-सी झेरनी चाहिए.   


                    (photo courtesy- alessandra luvisotto)

Saturday, February 18, 2012

कुछ छोटी कवितायेँ


ओट

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डर नहीं है पर

प्रेम करते वक्त छुपो थोड़ा

यूँ समझो कि

इससे एक प्राचीन क़ायदे की

इज्ज़त बनी रहती है.


बस, इतनी भर ओट ही

काफी होगी

जितनी आकाशीय तारों के जलसे में

रहती है

दूज के चाँद की

जितनी वर्षा-भीगे वन के मुखर उल्लास में

रहती है

झींगुरों के शोर की

जितनी अघोरी के नितांत निजी आनंद में

रहती है

चिलम के धुंए की


बस प्रेम को थोड़ी ओट चाहिए



किताब पढते पढते सो जाना

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हर रात

अपने प्रिय लेखक की डायरी

को पढता हूँ

लेटे लेटे

और अक्सर

सो जाता हूँ बीच में ही कहीं

फिर मैं और वो डायरीकार

आमने सामने होते हैं

बैठे चुपचाप

ये अमूमन हमारे मिलने की जगह है

मैं अपनी नींद में निकलता हूँ बाहर

तो वो आकर छुपता है मेरी नींद में.



जैसलमेर(पीले पत्थरों का शहर)

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ईश्वर ने

लालटेन जलाकर

शहर को देखा

और फिर


लालटेन बुझाना भूल गया.

Saturday, February 4, 2012

माचिस की डिबिया

तीली

माचिस की हरेक तीली की नोक पर पिछले दस हज़ार सालों का इतिहास दर्ज़ है. उस नोक की एक रगड़ से उत्पन्न आग इंसान की पैदा की गयी पहली आग की स्मृति है.और ये सिर्फ उस ताप की स्मृति ही नहीं है उस ज़ायके की स्मृति भी है जो पके हुए खाने के जीभ पर आने से पहले खुशबू के रूप में पहली बार फैला होगा.माचिस की तीली अपनी डिबिया में मौन रहती है.एक रगड़ भर का फर्क है इसके मूक से वाचाल होने में.

डिबिया

माचिस की डिबिया एक तीली की तरह पुरातन धुंए में लिपटे खाना पका रहे सबसे पहले चटोरे आदमी के दर्शन भले नहीं कराती पर कुछ साल पहले ही पीछे छूटे बचपन को ज़रूर हमारे सामने प्रकट करती है. कम से कम मेरे बचपन को तो ज़रूर. शौक था उन दिनों खाली माचिस की डिब्बी के ऊपरी चौकोर भाग को इकट्ठे करने का जिस पर ब्रांड-नाम के साथ चित्र बना होता है.इसे छाप कहते थे. उस वक्त बन्दूक छाप और मुर्गा छाप माचिसें आम मिला करती थीं. इन डिबियाओं की छापें जमा करना प्रिय शगल हुआ करता था जिन्हें इकट्ठे करने के लिए खुर्दबीनी नज़र के साथ काफी आवारा भी होना पड़ता था. इन माचिसी कला नमूनों से एक खेल भी खेला जाता था जिसमें लड़के अपनी छापों को एक समतल धरातल पर इकठ्ठा कर एक पत्थर से उन्हें उनके घेरे से बाहर निकालने का प्रयास करते थे. जिस खिलाड़ी के वार से जितनी छापें बाहर वो उतने का मालिक.हां इन छापों के अंक तय थे.बन्दूक वाली का एक तो मुर्गे के पांच.ये अंक ही हार जीत का फैसला करते थे.

सर पर धूल

असल बात तो ये थी कि ये शौक हमें भटकने का मौका देता था. क्योंकि बेहतरीन नमूने बीनने के लिए अपनी और महल्ले की चौहद्दी को लांघना पड़ता था. ये काम बेशक घर वालों से छुपकर ही होता था. माचिस की छापों का शौक घरवाले निहायत रद्दी मानते थे, क्योंकि घर के बाहर माचिस का इस्तेमाल सिगरेट जलाने में होता था और घरवाले माचिस और सिगरेट की अनूठी दोस्ती से आशंकित रहते थे. इनकी आपस में संगति इतनी पक्की मानते थे कि जहां डिबिया बीनने का शौक हुआ नहीं, वहीं धुंए उड़ाने में देर नहीं लगने वाली. कुछ इस तरह की सोच थी उनकी.पर भटकने का अपना सुख है. एक नियत भूगोल को लांघने का सुख.और लगभग वर्जित क्षेत्र में विचरने जैसा भी.

घर से रेलवे स्टेशन दूर था और माचिस के नए नए नमूने वहीं मिल सकते थे, यानी उसके आसपास की दुकानों में, क्योंकि कई तरह के लोग वहाँ आते थे.ऐसी ही किसी शाम मैं माचिस की खाली डिबियाएं बीनने-ढूँढने के चक्कर में दूर निकल गया और रास्ता भूलता रहा. जितना चलता उतना ही भूलता.जब तक डर शुरू होता तब तक ये भी पता चला कि भटकते भटकते गुम जाने का एक अलग ही नशा होता है. एक अन्जान भूगोल में आना, उस ख़ास समय में अपनी नागरिकता बदल देने जैसा होता है. आपका हर जुड़ाव छिन्न भिन्न हो जाता है.एक अनाम खोज का थ्रिल महसूस होता है.

मुझे अनंत तक के लिए भटक जाने का रूपक बहुत आकर्षित करता है.इसे मैंने महसूस किया काफ़्का की एक कहानी में जिसमें हंटर ग्रैकस को ले जाती मृत्यु-नौका अपना रास्ता भटक जाती है और वो सदियों तक जीवित और मृत के बीच की स्थिति में, इस किनारे से उस किनारे, पार्थिव पानियों में यात्रा करता रहता है. मेरा मानना है भटकन में कितनी ही संभावनाएं और भी खोजी जा सकती है.भटकन में सूखे होठों की प्यास है, भटकन में इन होठों पर फिरती लालसा की जीभ है,अन्जान पानियों की यात्राएं हैं,अज्ञात कंदराओं में गुमशुदगी है, और भटकन में लापता हो जाना है खुद में... और खुद का.



(photograph of a painting by Henri Rousseau,courtesy- wikimedia commons)



Saturday, January 14, 2012

जैसे किताब के कवर पर लड़की का अधूरा चित्र




इस पंक्ति के बाद से एक वादे की पवित्रता भंग होती है.
उसने कहा था कि तुम खुद से भी कभी ज़िक्र मत करना
उन पलों का
जो साझा हैं हमारे बीच
पल जो हिसाब की किसी बही में दर्ज़ नहीं
दिन रात के दरम्यां कहीं नहीं
नहीं आते जो
घड़ी के किसी भी कांटे के
रास्ते में .
इनकी बनावट संभवतः
समय की मांस मज्जा से न होकर
किसी नितांत आदिम से है
अजानी, इस लोक के किसी भी ज्ञात सन्दर्भ से.

एक दिव्य पारितोषिक की तरह मिले हैं
साझा मिल्कियत के ये पल
देशज पाठ में कहें तो
नाप के बाद दूधिये से मिले
दूध के कुछ अतिरिक्त मुफ्त छलकाव.

तय हुआ था
कि जो कुछ भी है
संयुक्त अधिकार में
जिसमें इस अधिकार का ज्ञान भी शामिल है
उसके सूक्ष्मांश को भी किसी से
बांटा नहीं जायेगा
और यहाँ मैं सिर्फ इतना कहकर भी
तोड़ रहा हूँ वो अहद जैसा कुछ
कि
बहुत हसीन हैं गोपनीयता के ये द्वीप
बनते जिन्हें देख नहीं पायी
झपकी लेते ईश्वर तक की उनींदी आँखें
जो अब तक इस दुनिया के
बेहतरीन नक़्शे में भी चिन्हित नहीं किये जा सके
और जिन्हें अकेले देख पाना
खुद मेरे लिए
किसी परम विकट भूलभुलैया में
हाइड एंड सीक खेलने जैसा है.
ऐसे ही कैटाकौम्स में फंसा मैं
रास्तों की पहचान कुछ नाकाफी सूत्रों से करने की
कोशिश करता हूँ
जैसे इस किताब के कवर पर
देखता हूँ किसी मुलात्तो लड़की का
अधूरा छपा चित्र
जिसमें
आधे ही दिखते चेहरे में
चुनौती देती है उसकी आँख
(दूसरी चित्र में दिखती नहीं)
और आग के फूल की तरह रखे
हैं तप्त होंठ
जिनके आगे मैं भूल जाता हूँ
अपने प्रिय लेखक के नाम में विन्यस्त
बड़े बड़े अक्षर.
मैं किसी बीते साथ की
अलाव सी आंच महसूस करता हूँ

ऐसे ही हर अपूर्ण के
रह गए किसी बाकी में
ढूँढता हूँ मैं
उसे
और उस साझा
सम्पदा को.
जैसे फुसफुसाहटों के ज़रिये
पीछे छूट गए वाक्यों को
इशारों में मूक रह गयी कामनाओं को
और झूठ में गठरी बने बैठे हां को.




(image courtesy- jeffb123)


Wednesday, January 11, 2012

बुखार में और उससे बाहर


नाक में घूमता है तमतमाई भीतरी झिल्ली से रिसता श्लेष्मा का गरम पानी. किसी नामालूम द्रव से भरी आँखों की झील उफनती है. मस्तिष्क गाढे लावे सा बहता है धमनियों में. चाहता हूँ कि इस धधकती देह से निष्कासित कर दिया जाकर हाइड्रोजन भरे गुब्बारे की मानिंद ऊपर छत से टिका रहूँ.

सपने एक बहुत तेज़ भागती रील हो गयी है जिनके चित्रों को किसी मसखरे ने बेतरतीब जोड़ रखा है.एक बहुत ऊंचा शिखर दिखाई देता है.नोकदार. जिसके दूसरी ओर सिर्फ जानलेवा ढलानें हैं.पृथ्वी अपनी कील पर लट्टू सी घूमती है.लगता है उसका भी घूर्णन काल गडबडा गया है, एक डर सा लगता है,कहीं कील से ये फिरकनी दूर न जा गिरे.खगोलीय नियमों की गणितीय सटीकता एक भ्रम लगने लगती है.पूरे ब्रह्माण्ड की यांत्रिक गडबड़ी की शुरुआत यहीं से हुई महसूस होती है. कितनी देर विभ्रम बना रहता है कुछ पता नहीं.कितना समय इस बीच निकल जाता है बिना चिन्हित हुए, याद नहीं.

फिर..कहीं एक जद्दोजहद चलती है शरीर के भीतर.बिगड़ी हुई हार्मनी को किसी तरह उसकी रोज़ाना की लय पर लाने की कोशिशें चलतीं हैं. शरीर खुद जैसे लय में आना चाहता है. ज्यादा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता इतना सब कुछ अनियंत्रित, नियमों से बाहर.चरम पर पहुंचे तनाव के बाद शैथिल्य की ओर ही लौटना है इस बार भी शायद...

हां लगता है..अब लौटने का रास्ता यहीं कहीं था.

अब तक देह से निरपेक्ष रही चेतना धीरे धीरे भारी होकर नीचे बैठती है. कोई दौड़ खत्म होने के बाद की हांफ, जिसमें अब तक तीक्ष्ण नोक पर टिके रहे प्राण पसरना शुरू होते हैं, भरने लगतें हैं धीरे धीरे.देह के भीतर ताप सिकुड रहा है.विश्रान्ति लाती छोटी छोटी तन्द्राएं आने लगती हैं. छाती में भारी हो चुके कफ की आवाज़ में अब गुरुता है. आँखें बाहर देखती है.पेड़ों का झूलना, लोगोंका चलना, पक्षियों का उड़ना, भागना कुत्तों का,सब धीरे होता जा रहा है,लगातार.परिदृश्य मानो किसी चिपचिपे द्रव में डूबा है जो लगातार और ज्यादा गाढा होता जा रहा है.क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया में जैसे अंततः एक बिंदु पर आकर सब कुछ किरचों में बिखर जाएगा और तैरने लग जाएगा बाहर स्फूर्त हवा में.

Friday, January 6, 2012

सुबहें


पीपल के पत्तों से झर कर आती सुबह बहुत उजली लग रही थी.एक दम साफ़ झक.शफ्फाक.बिलकुल सुबह जैसी सुबह.न कोहरे में लिपटी न धूल से सनी.और अगर वक्त की बात की जाय तो समझिए सूरज क्षितिज से अब कभी भी नमूदार होकर पीला रंग फेंक सकता था.मंदिर में भगवान को जगाया जा चुका था पर उनकी आँखें अभी भी नींद से बोझिल थीं.आस्थावानों का अभी जमघट नहीं लगा था बस इक्का दुक्का ही मंदिर में आ रहे थे जिसका अंदाज़ अच्छे खासे अंतरालों में बजती घंटियों से लगता था.

ये बरसों पहले की बात है जब हममें काफी बचपन बाकी था. और दिखने मैं तो सच में ही बच्चे थे. इस सुबह के तो खैर ठाठ कुछ निराले ही थे.मैं अपने घर की छत पर एक कोने में पानी वाली डायन किताब हाथ में लिए था.घर की छतें भी छोटा मोटा अजायबघर होती हैं.कहीं मटकी में डलियों वाला नमक है तो किसी में पिछली दीवाली पर की गयी सफेदी का बचा हुआ चूने का पानी है.पतंग और चरखी भी इसी छत पर हैं.पर सबसे बड़ी चीज़ है, छत पर रखा रहता है वो दुर्लभ एकांत जिसमें सुरक्षित है वह इंतज़ार जो सामने की किसी छत पर आने वाली प्रेयसी के लिए किया जाता है.

इन दिनों चूँकि गर्मियों के दिन थे तो पड़ौस की छतों पर कई अघोरी अभी भी सोये पड़े थे.वैसे अभी सोये जा सकने जैसा समय भी था.पर हां औरतें घरों के कामों में लग चुकी थी.

कुल मिलाकर मैं इस अनूठी और जादुई सुबह में छत पर, दुनिया की अभी अभी शुरू हुई गहमा गहमी से दस फुट ऊपर किताब पढ़ने के सच्चे आनंद को नितांत अकेला भोग रहा था.कुछ कुछ वैसा ही जब घर में आपके अलावा और कोई न हो और आपके हाथ मां का छिपाया मिठाई का डिब्बा लग जाय.हां यह किसी गोपन सुख का ही आनंद था जो बिना किसी की जानकारी में आये मेरे सामने प्रकट था. और बड़ी बात ये भी थी कि कम से कम इस वक्त तो पास में कोई ईर्ष्या करने वाला भी नहीं था.

किताब में पुखराज की चट्टानें,भीमकाय दोस्त,बौने दुश्मन,जलपरी, नदियाँ सब थे.और उस उम्र का ये विश्वास भी कि फंतासी घटने से सिर्फ थोड़ी ही दूर होती है.

ऐसे ही कुछ यादगार सुबहें अपने पूरे आकार प्रकार में, लगभग भौतिक रूप में हमारे भीतर बनी रहतीं है. अगर आपको बताऊँ तो ऐसी ही एक सुबह कुछ साल पहले की है जब ऑस्ट्रेलिया में भारत क्रिकेट सीरीज खेल रहा था.यहाँ मैच सुबह के पांच बजे के आसपास टीवी पर आते थे.भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच एक अलग रोमांच लिए होता था और उसे घटते हुए देखना,वो भी सुबह जब घर के लोग किसी और कमरे में सो रहे हो और आपके हाथ में चाय का कप और सामने लाइव मैच हो तो वो आनंद अवर्णनीय सा होता है....और सुबह एकदम से यादगार वाली.

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नए साल पर आप सबके मन में ऐसे बहुत सी सुबहें हों,और हर आने वाली सुबह ऐसी ही सुबह बनकर आये यही कामना करता हूँ.

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ब्लॉगर एक ऐसा रेडियोधर्मी पदार्थ होता है जिसकी अर्ध आयु काफी लंबी होती है.वो रचनात्मक रूप से हमेशा विकिरित होता रहता है.हां जब उसका फील्ड बदल जाए तो उसे भूतकालिक ब्लॉगर कहा जा सकता है.ऐसे ही भूतकाल के ब्लॉगर और हमारे परम मित्र, जिगरी प्रकाश पाखी के लिखे राजस्थानी भजनों का अल्बम अर्पण मार्केट में आया है.प्रकाश को बहुत बहुत बधाई.इसमें से एक रचना बहता पाणी इस समय आपको सुनवा रहा हूँ.इसमें एक अलग ही कशिश है.और सबसे गज़ब बात है कि इसके ज़रिये प्रकाश ने बोलियों के बीच जो संत-फकीराना किस्म की आवाजाही की है, बिलकुल रमता जोगी अंदाज़ में, वो अद्भुत है. तो मज़ा लीजिए आप भी इसका.


(photo courtesy- cowgirl111)