Sunday, September 28, 2014

फैरिस व्हील

अक्सर मेलों में उसने देखा था विशालकाय चक्करदार घेरे को.वो, जो ले जाता है लोगों को अपने में बिठा कर.ऊंचे,ख़ूब ऊंचे.इतना ऊंचे कि एकबारगी तो सबसे ऊपर पहुंचे लोग आसमान में कहीं गुम हो गए लगते हैं.पर फिर फिरता फिरता,गोल गोल घूमता,वही चकरा उन्हें नीचे ले आता है.नीचे आकर लोग फिर धीरे धीरे अपने झूलते कमरों में बैठे ऊपर उठते जाते हैं.उनके आरोह और अवरोह का ये क्रम चलता ही जाता है जब तक कि वो बड़ा सा चकरा थम नहीं जाता.ये लोहे का विशालकाय घेरा मेला परिसर में चहल-पहल से थोड़ा हटकर लगा होता है.वैसे उसने अम्यूजमेंट पार्कों में इस घेरे को स्थायी लगे हुए देखा था पर उसकी स्मृति का गोल चकरा मेले में लगा बड़ा व्हील था जो मेला उखड़ने के साथ ही उखड जाता था.कहीं और लगने को. मेले के मैदान से जब लोग शाम की तमाम खरीददारी से निवृत होकर घर लौटने को होते तो उनके साथ आये बच्चों की ज़िद उन्हें थके थके क़दमों के साथ उस विशाल चक्र की तरफ ले आती.शायद इसमें उनके अन्दर के बच्चे की जिद भी कहीं न कहीं शामिल होतीं.

बचपन से अबतक कस्बों और शहरों में मेले लगते उसने देखे हैं.मेलों की सजावट में फर्क बढ़ते देखा है.उसे ठीक ठीक याद नहीं कि उसने सबसे पहले मेलों में इस चक्करदार झूले को कब देखा था.उसे इतना ज़रूर याद है कि जब उसने इसे पहली बार देखा था तब तक वो खासा समझदार जैसा हो गया था. ये भी कोई मेला ही था जो विशाल मैदान  में लगा था.दशहरे पर रावण और उसके सहोदरों के पुतले यहीं जलाये जाते थे.पुतलों के पेट में आग लगने के बाद से कुछ देर चलने वाली आतिशबाजी से आसमान में रौशनी कोंधती रहती थी.और हवा में बारूद की गंध तो बहुत देर तक टंगी रहती.इस दिन के अलावा इस मैदान में कई बार खरीददारी के मेले लगते.वो कई बार इन मेलों में जाता था.अकेला भी.बल्कि अक्सर अकेला ही.ऐसा नहीं था कि मेले कि रौनक उसके इस मेलों में जाने के पीछे बड़ी वजह थी.शुरू में तो वो ज़रूर रौनक के चक्कर में ही जाता था पर बाद में इन मेलों में जाने के पीछे कोई और ही वजह थी.वही लोहे का गोल घेरा.मेले की रौनक से भी वो घेरा बड़ी आसानी से दिख जाता था.मेले वाले इसे लगवाते भी इसीलिए होंगे कि बाहर से आये परदेसी को भी दूर से घेरा देखकर पाता चल जाय कि खरीद का कोई मेला चल रहा है.ये कुछ कुछ बिजली के तारों से टंगे ताश के पत्तों सा था जो दूर से भी हवा में फड़फडाते दिखकर शेरू उस्ताद के गाय छाप दंतमंजन का विज्ञापन करते.गोल घेरा मेले के बिकते तमाम अंजनों-मंजनों का विज्ञापक था.

वो मेले में जाता और चकरे को देखकर खुश हो जाता.फिर तो मेले में जाने के पीछे वजह ही ये व्हील हो गयी थी.

एक बार मेला देखने के बाद जब वो लौटने को था,उसकी नज़र फिर उस विशाल चकरे की तरफ चली गई.मेले में घूमने के दौरान तो उसने कई बार इसे देखा ही था.इस बार उसकी इच्छा हुई कि इसे पास से देखा जाय.वो उस जगह चला गया जहां ये घेरा लगा हुआ था.इस दैत्याकार चक्र को नज़दीक से देखकर उसके अन्दर कुछ बदल गया.उसे लगा उसके अन्दर कुछ चटक गया है.उसे यकीन था कि उसने कोई आवाज़ भी सुनी थी अपने अन्दर कुछ टूटने की.वो उस विशाल घेरे को देखता रहा.उसमें लगे कई सारे छोटे छोटे केबिन,जिनमें लोग बैठे थे.वो देर तक वहां खड़ा रहा.वो घेरा जब घूमने लगा तो उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वो उसमें बैठे लोगों को आसमान की सलेटी पपड़ी तोड़ कर अन्तरिक्ष के ठन्डे अँधेरे में फेंक आएगा.पर कुछ ही देर में वो उन्हें नीचे ले आया.चकरा ऐसा ही करता रहा.वो कुछ को ऊपर से नीचे ले आता तो साथ ही साथ कुछ सवारों को अनंत ऊंचाई पर ले जाता.जब ऊपर से लोग नीचे आ जाते तो उसे राहत महसूस होती.वो प्रार्थना करता कि घेरा यहीं रुक जाय.पर वो फिर लोगों को ऊपर की ओर ले जाता.उसे इसमें संदेह भी होने लगा कि ऊपर से वापस नीचे पहुंचे लोग वही हैं जो कुछ देर पहले ही घेरे के साथ ऊपर चढ़ने लगे थे.उसका मानना तो यही था पर उसके भरोसे में ठोस जैसा कुछ नहीं था.क्या ऐसा तो नहीं हो रहा कि ऊपर जाकर ये घेरा उन लोगों को फेंक कर कोई और ही चीज़ इंसानी शक्ल में नीचे पहुंचा रहा हो?'पर इस तरह की सोच का भी कोई आधार नहीं है'-वो सोचने लगता.

उसकी बड़ी इच्छा हुई थी इस व्हील में बैठने की.पर साथ ही एक अजाना सा डर उसके अन्दर पलने लग गया था.हो न हो,उसे लगा,इस डर की वजह कहीं न कहीं उससे ज़रूर है जो उसके अन्दर कहीं बिड़क गया था.उसे लगा ये व्हील असल में उसे ललचा रहा है.ये लगाया गया ही इसलिए है कि उसे ललचा कर अपने में बिठा ले और फिर कभी वापस न ले आये.

वो चक्के में कुछ जिंदा शै देखने लग गया था.कई बार उसने कोशिश की कि मेले में घूम लेने के बाद वो उस चक्के की तरफ देखे ही ना पर बहुत दूर आ जाने के बाद जब वो पीछे मुड़ कर देखता तो वो चक्का उसे ही घूर रहा होता.वो पूरे शहर से दिखाई देता था.उसके घर की छत से भी वो दिखाई देता था.इसका परिणाम आखिर ये हुआ कि बाद में उसने, मेले के दिनों में, छत पर जाना छोड़ दिया था. फिर जब मेला आखिर मेला ही उखड गया तब जाकर वो चक्का भी उखड़ गया.


(हारुकी मुराकामी की किताब 'स्पुतनिक स्वीटहार्ट' में मियु नामकी महिला का ऐसे ही विशाल चक्र के गंडोला में रात पर फंसे रहने का ज़िक्र है.बिग व्हील उसके कैबिन के ऊपर पहुंचते ही रुक जाता है और रात भर वहीं,ऐसे ही रुका रहता है.मियु वहां से दूरबीन के ज़रिये बिलकुल सामने ही दिखते अपने फ्लैट को देखती है.फ्लैट की खुली खिड़की से जो कुछ वो देखती है,वो हतप्रभ रह जाती है.फ्लैट में वो एक वैकल्पिक यथार्थ में खुद अपने को ही ऐसे आदमी के साथ बिस्तर पर देखती है जिसे वो सख्त नापसंद करती है.वो आदमी उसे निर्वस्त्र कर उसके शरीर का भोग करता है.फ्लैट में सोई 'दूसरी वो'उसके इस कृत्य में मूक सहमति सी देती प्रतीत होती है.

फेरिस व्हील में इतने ऊपर से ही वो एक दूसरे आयाम में चलती दुनिया देख पाती है.)

Tuesday, September 2, 2014

गोलगप्पे

उसे मुंह में सुबह से ही कुछ फीका फीका सा महसूस हो रहा था.ज़बान पर एक बेस्वादी सी परत चढ़ी थी.वो जीभ को मुंह में घुमाता,गालों की अंदरूनी दीवारों पर,मसूड़ों पर, नीचे, सब जगह. पर कहीं कोई ज़ायके का अणु नहीं था.यहाँ तक कि तालू पर से भी मिठास ग़ायब थी.उसकी इच्छा हुई कि सिगरेट पी जाय.वो पीता नहीं था.बस कभी कभार ही उसने दोस्तों के साथ  छल्ले उड़ाए थे और हर बार उसे सिगरेट पसंद नहीं आई थी.देर तक सांस के साथ तमाखू की गंध लदी रहती.आज उसके मुंह के इस अजीब से फीकेपन ने ही उसे अन्यथा नापसंद सिगरेट के जैसे विकल्प की ओर सोचने को मजबूर कर दिया था.वो सिगरेट के धुंए से इस फीकेपन को जला देना चाहता था.सिगरेट के ज़रिये ही उसे अपनी स्वादहीनता से लड़ना था, बस इसी वजह से कुछ हिचक सी बाकी थी.ये झिझक कुछ देर और बनी रही और इसका परिणाम ये हुआ कि निर्णय पर पहुँचने से पहले ही उसने इस विकल्प को खारिज कर दिया.उसे लगा इससे शायद बात नहीं बनेगी.वो एक अजीब सा मिक्स बन जाएगा.फीकास में जैसा जला हुआ कोयला रगड़ दिया हो.वो बहुत उत्साहित नहीं हो पाया था और उसने ये विचार छोड़ दिया.

वो चलता जा रहा था.शहर में बिना नक्शा देखे वो कहीं से भी घर पहुँच सकता था. और घर से कहीं भी जा सकता था.शहर उसका देखाभाला था.आज,पर वो शहर में जहां चल रहा था वो उसे जानी पहचानी सड़क नहीं लग रही थी.उसे इसका कारण समझ में नहीं आया.ऐसा उसकी साथ देती याददाश्त में कभी हुआ नहीं था.पर फिलहाल उसका ध्यान इसका विश्लेषण करने पर बिलकुल नहीं था.इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि शहर में वो किस जगह या गली मोहल्ले में चल रहा है.वो कहीं से भी, कभी भी घर पहुँच सकता था.उसे फिलहाल मुंह के बिगड़े जायके से परेशानी थी.ज़बान को जैसे लकवा मार गया था.उसके सारे ऊद्दीपन ख़त्म हो गए थे.

किनारे पर थोड़ी दूर उसे गोलगप्पे का ठेला दिखाई दिया.गोलगप्पों का वो कोई फैन नहीं था.बल्कि कई बार वो इन्हें ओवररेटेड कमोडिटी कहता था.क्या था इनमें?खट्टा-नमकीन द्रव और उसे थामती एक कमज़ोर सी भित्ति.इस तीखे से पानी को स्वादिष्ट तो कैसे कहा जा सकता है?और इसके पतले खोल को भी चबा जाने के पीछे का कारण स्वाद से जुड़ा नहीं हो सकता.बल्कि इसे खाया जा सकता था इसलिए खा लिया जाता था.अगर ये रबर या प्लास्टिक का बना होता तो शायद च्युइंग गम की तरह थूक दिया जाता.
क्यों लोग फिर भी गोलगप्पों के पीछे भागते थे?वो इस तरह के सवाल इसीलिए सोच पा रहा था क्योंकि अगर उसका मुंह इस तरह फीका नहीं होता तो वो गोलगप्पे खाने के बारे में सोचता भी नहीं.गोलगप्पों को लेकर इस हालत में भी उसके मन में द्वंद्व ही था जिसकी परिणति उसके मन में इस तरह के सवालों के रूप में हो रही थी.

वो सोचता जा रहा था कि क्या वजह हो सकती है कि लोग ख़ूब तादाद में 'पानी -पतासों' के पीछे लगे रहते थे और कई बार तो ठेले वाले के आगे पहले दिए जाने को लेकर चिरौरिया तक की जातीं थीं.बहुत वाजिब और ठोस तर्क तो उसके पास नहीं था पर उसका कुल मिलाकर यही सोचना था कि गोलगप्पा मुंह में जाकर एक दम से फूट जाता था और एक तीखा सा हमलावर किस्म का स्वाद सहसा मुंह में छा जाता था.खाने वाला इसी घटना के फिर होने की स्थितिया पैदा करने के लिए एक और खाने की ओर प्रेरित होता होगा.उसके बाद फिर एकऔर.यूँ एक और एक और की स्थितियां बनती रहतीं होंगीं.ये सब स्वाद से ज़्यादा एक खेल का असर छोड़ता था.जैसे ये स्वाद के साथ एक तरह का खेला गया खेल था.

गोलगप्पों का ठेला थोडा हटकर था.ट्रैफिक से हटकर.ठेले के पास खड़े होकर ट्रैफिक को खासी दूरी से ही आवाजाही करते देखा जा सकता था.शाम का वक्त था और अँधेरा ख़ूब जमा हो गया था इसलिए वो गाड़ियों को लाल पीली धारियों में खिंचते या कभी रोशन बिन्दुओं में विखंडित होते देख रहा था.इसमें उसकी दिलचस्पी जल्द ही ख़त्म हो गयी.वो ठेले के आसपास केन्द्रित हो गया.ऊपर पीपल की झुकी हुई डालियाँ थीं.पत्तों पर कहीं से कृत्रिम प्रकाश गिर रहा था.उसने पत्तों में कुछ असामान्य देखा.ये उन पर गिर रही रौशनी की वजह से तो नहीं था.पत्तों से जैसे रंग छूट रहा था.वे जगह जगह से बेरंग हो गए थे.पत्तों पर जैसे अमूर्त सी आकृतियाँ बनी हुई थी.कुल मिलकर ये सब इतना असुंदर था कि उस तरफ देखने का मन ही नहीं करता था.आसपास कहीं भी पीपल का तना नहीं दिख रहा था.शायद पेड़ पास की पुरानी दीवार से सिर्फ टहनियों जितना ही निकला था.दौड़ते भागते हांफते शहर के पास ये जगह कितनी चुप-सी थी?ऊपर से पीपल के पत्तों से झरता सन्नाटा.पुरानी दीवार की दरारों से झांकता बियावान.ठेले वाले की मटकी प्राचीन मृदभांड की ओर इशारा कर रही थी.उसे लगा वो किसी निर्जन ढूह पर खड़ा है.दूर किसी और समय में कोई शहर अपने दिन को ख़त्म कर घर की ओर भाग रहा था.उसके पास भी कम से कम एक आदमी तो और खड़ा ही था.और ये भी कोई कम तसल्लीबख्श नहीं था.