Monday, May 21, 2012

हिसाब की पांडुलिपि


किसी पवित्र पांडुलिपि की तरह
सहेज कर रखा गया था
हिसाब का ये पन्ना
कितनी बची है मूंग की दाल
और
कितना चाहिये इस महीने
मूंगफली का तेल
सब कुछ इसमें था  
गृहिणी की उँगलियों के कोमल बंधन में
चौकन्नी चलती कलम से बनी लिखावट   
बहुत सुंदर थी
किसी वाग्दत्ता के प्रेम पत्र की तरह
जिसके गोल गोल अंक और अक्षर
झिलमिलाते थे
पन्ने पर पड़े तेल के धब्बों के बीच.

चुटकी से उस दिन
कड़ाही में गिरी हींग
अब भी इस पन्ने पर
बची हुई थी
किसी दूरस्थ गंध के रूप में
पन्ने को न जाने  
कितनी जगह और कितने कोणों से
छुआ था उसकी उँगलियों के पोरों ने
कि मसालों का कोई दक्षिण भारतीय बाज़ार
अब भी आबाद था
इसकी चारों भुजाओं की हद में
क्या गृहिणी हिसाब के पन्ने को
रसोई के काम का हिस्सा ही मानती थी
या रसोई से निवृत होकर किया जाने वाला काम?
पता नहीं
पर
ये हिसाब,प्रस्ताव,आकलन आदि के साथ   
घर की ज़रूरतों और आकांक्षाओं का संधि पत्र था
इस पन्ने को सहेजने का यत्न 
घर को सहेजने का यत्न ही था.   


                                          

Sunday, May 13, 2012

लालटेन


लालटेन की अभिशप्त रौशनी में अँधेरा अधिक स्याह होकर सामने आता है.उसकी लौ की भभक मानो उचक उचक कर अपनी ही पैदा की गयी चमक को निगलती है. उसे उजाले की दुनिया से निष्कासित कर दिया गया है.वो रौशनी का मिथ्याभास है.उसकी आड़ में अँधेरे को वाचाल होने का अवसर मिलता है.वो आसानी से अपने छल पर लालटेनी रोशनी की बारीक चादर ओढा देता है. और तब अरसे से ज़मींदोज़ हुआ खंडहर भुतहा लगने लगता है.लालटेन की रोशनी इतनी सुदूर है कि उस तक पहुँचने के लिए ठोस अन्धकार को भेदना ज़रूरी है. और इतनी निशक्त कि घर के किसी कोने में टंगी होने पर उसे एक बेचारगी भरा व्यक्तित्व प्रदान करती है.एक स्त्री लालटेन को उठा कर अपने चेहरे के करीब लाती है तो लालटेन उसके युवा चेहरे को झुर्रियों से भर देती है..

उसके कांच के गोले के ठीक बाहर अँधेरे का ठंडा बियाबान है.

किसी भूत को देखने का दावा करने वाला पहला और अब तक का आखरी शख्स जिसने ये दावा सीधे खुद मुझसे किया हो,मेरी दादी थी.उसने इसी लालटेन की रौशनी में रात के तीसरे प्रहर में  किसी मणि बेन को देखा था जिसके बारे में अगले दिन पता चला कि वो तो इलाज के लिए शहर गई हुई थी और जिसे मेरी दादी ने लालटेन के भ्रमित करने वाले आलोक में देखा था वो उसकी बरसों पहले मर चुकी दादी थी जिसकी हूबहू शक्ल लेकर मणि बेन पैदा हुई थी.सच तो जो था वो था पर उसे भी लालटेन सीधा और सपाट नहीं रख पाई. भूत देखने का ये अनुभव इतना व्यक्तिनिष्ठ था कि अंततः किसी भी विपरीत तर्क से मुक्ति पाने के लिए मेरी दादी ने इस सिद्धांत की घोषणा ही कर डाली कि दो लोग एक ही भूत को एक ही जगह एक साथ नहीं देख सकते.पर खैर उसकी जिंदगी में लालटेन के परिमित-आभासी-उजाले में किसी परिचित चल-आकृति का हमेशा होना बना रहा.उजाले को इतना उजाड़ पाना बहुत बड़ी त्रासदी है जो बारिश की नम रात में लालटेन के एकाकीपन को कभी कभार अपनी प्रदक्षिणा से भंग करते कीट से और बढते महसूस किया सकता है.अपने इस एकांत में बिसूरती, डूसके भरती लालटेन इतनी पस्त है कि वो दिन उगने का इंतज़ार करती है जिससे कि वो अपने रौशनीनुमा कुछ को तिरोहित कर थोड़ी देर चैन की नींद सो सके.