इन दिनों दो फ़िल्में देखी। सीक्वल।पहली थी ट्वाईलाईट जिसकी डीवीडी मुझे एक सहकर्मी मित्र ने दी जिनका बेटा हाल ही में विदेश से लौटा था। और दूसरी थी न्यू मून जिसे मैंने शहर के सिनेमा हॉल में देखी। मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्में नहीं देखता और हौलीवुड की तो और भी कम पर जब ट्वाईलाईट को देखने का मौका नसीब हो ही गया औरउसके कुछ ही दिन बाद दीवारों पर इसकी सीक्वल 'न्यू मून' के पोस्टर देखे तो मन बना लिया कि इसके लिए हॉल में जाया जाये। कहानी के मूल में प्रेम कथा है पर प्रेमी वैम्पायर है यानी एक पिशाच। इसे कम खौफनाक और गले उतरने लायक बनाने के लिए उसे इंसानी खून से परहेज़ करने वाला बताया गया है और लगभग त्रिकोण बनाता एक वेरवुल्फ भी है जो भेड़िये में कायांतरित हो जाता है। खैर मैं इनकी कहानी बताने के लिए नहीं लिख रहा हूँ पर शायद इतना ज़रूरी था। यहाँ एक लड़की जो नश्वर इंसान है उसे एक पिशाच से प्रेम हो जाता है। इन दोनों फिल्मों का आधार इन्हीं नामों वाली किताबें है जिनकी कथा को लगभग वैसा का वैसा ही इस्तेमाल किया गया है।
इस तरह के पात्रों को लेकर फिल्मे खूब बनी है और बन रही है, पर इन दो फिल्मों के ज़रिये मैं अपने ग्रे मैटर की ताज़ा हलचल को आपके साथ बांटना चाहता हूँ। मामला इन फिल्मों का नहीं प्रेम का है जिसके बारे में इतना पढ़ लिया पर अपनी याद में इसका अक्स शुभ ही बना रहा। पहली बार शायद मनहूसियत के प्रतीकों को इसके साथ जुड़ता देखा है। वैसे तो वैम्पायर को वासना और शाश्वत तृष्णा के 'अशुभंकर' के रूप में लिया गया है पर यहाँ मामला निश्छल प्रेम का है। जिसे हम निर्मल और शुभ मानते आये हैं। इसमें प्रेम सिर्फ प्रेम है किसी चौहद्दी से बंधा नहीं। अपनी सीमाएं खुद बांधता या अपनी सीमाएं खुद लांघता। उन्हें अपने तरीके से विस्तार देता।
पिशाच का लड़की से प्रेम इतना वास्तविक है कि आपका उसके हक़ में बने रहने का मन करता है। वो बेहद सुंदर है जिसने यौवन को अपनी कोशाओं में बाँध लिया है। ११७ साल की उम्र में भी और न जाने कितनी शताब्दियाँ और तलक। वो मृत्यु से परे है या कहें कि अमर होने को अभिशप्त है। और पराकाष्ठा देखें, लड़की जिद करती है कि वो भी उसे वैम्पायर बना दे ताकि उसका प्रेम हमेशा उपलब्ध रह सके। तमाम क्रिस्तानी नैतिकताएं उसे बाँध नहीं पाती। वो नागर से आरण्यक हो जाना चाहती है। जीवन और मृत्यु दोनों उसे नहीं लुभाते और वो हमेशा असमाप्त प्यास का वरण करती है।
यहीं पर हम फिल्मों और उसमें प्रयुक्त मिथकों को छोड़ते हैं। प्रेम की एनौटमी पर एक रौशनी या अँधेरा फेंकती है ये फिल्म। प्रेम के जिस्म का बड़ा हिस्सा वासना का है। ये वनैला है। ये शुभ-अशुभ से उदासीन है, इनके आड़े नहीं आता। असल में ये इसके क्षेत्र में नहीं आते। ये आदिम है। मौल या खोह कहीं भी पनप सकता है।
रात के अंधकार को गाढ़ा करती चमकती आँखों वाले किसी पशु की तरह इसका स्वतंत्र अस्तित्व है। अपने मौलिक रूप में इसमें मानवीय जैसा कुछ नहीं। बल्कि अपने चरम रूप में समान पाशविक सुख की कौंध इसमें निहित रहती है।
ये कतई ज़रूरी नहीं कि ये विश्लेषण इन दो फिल्मों को देखने का ही नतीज़ा हो पर इनको देखकर कुछ क्षैतिज चिंतन का अवकाश मिला और परवर्ती मंथन से ऊपर तैर आये झाग में इनकी कहानी गंध रूप में शायद विद्यमान हैं।
भूत बचपन के किस्सों का मुख्य पात्र रहा है पर उसमें मानवीय समाज से बाहर जाने की ताकत नहीं थी और अक्सर वो विदूषक की भूमिका में ही अवशिष्ट रह जाता था। जबकि फिल्मों के ये पात्र महासागरों की प्यास और पृथ्वी निगलने की भूख लिए आते हैं। इन्हें देखकर मनहूसियत तारी होने लगती है। पर प्रेम की ऊतक-संरचना को ये एक अजीब सी बैंगनी चमक प्रदान करते है।
(चित्र विकिपीडिया से साभार)
इस तरह के पात्रों को लेकर फिल्मे खूब बनी है और बन रही है, पर इन दो फिल्मों के ज़रिये मैं अपने ग्रे मैटर की ताज़ा हलचल को आपके साथ बांटना चाहता हूँ। मामला इन फिल्मों का नहीं प्रेम का है जिसके बारे में इतना पढ़ लिया पर अपनी याद में इसका अक्स शुभ ही बना रहा। पहली बार शायद मनहूसियत के प्रतीकों को इसके साथ जुड़ता देखा है। वैसे तो वैम्पायर को वासना और शाश्वत तृष्णा के 'अशुभंकर' के रूप में लिया गया है पर यहाँ मामला निश्छल प्रेम का है। जिसे हम निर्मल और शुभ मानते आये हैं। इसमें प्रेम सिर्फ प्रेम है किसी चौहद्दी से बंधा नहीं। अपनी सीमाएं खुद बांधता या अपनी सीमाएं खुद लांघता। उन्हें अपने तरीके से विस्तार देता।
पिशाच का लड़की से प्रेम इतना वास्तविक है कि आपका उसके हक़ में बने रहने का मन करता है। वो बेहद सुंदर है जिसने यौवन को अपनी कोशाओं में बाँध लिया है। ११७ साल की उम्र में भी और न जाने कितनी शताब्दियाँ और तलक। वो मृत्यु से परे है या कहें कि अमर होने को अभिशप्त है। और पराकाष्ठा देखें, लड़की जिद करती है कि वो भी उसे वैम्पायर बना दे ताकि उसका प्रेम हमेशा उपलब्ध रह सके। तमाम क्रिस्तानी नैतिकताएं उसे बाँध नहीं पाती। वो नागर से आरण्यक हो जाना चाहती है। जीवन और मृत्यु दोनों उसे नहीं लुभाते और वो हमेशा असमाप्त प्यास का वरण करती है।
यहीं पर हम फिल्मों और उसमें प्रयुक्त मिथकों को छोड़ते हैं। प्रेम की एनौटमी पर एक रौशनी या अँधेरा फेंकती है ये फिल्म। प्रेम के जिस्म का बड़ा हिस्सा वासना का है। ये वनैला है। ये शुभ-अशुभ से उदासीन है, इनके आड़े नहीं आता। असल में ये इसके क्षेत्र में नहीं आते। ये आदिम है। मौल या खोह कहीं भी पनप सकता है।
रात के अंधकार को गाढ़ा करती चमकती आँखों वाले किसी पशु की तरह इसका स्वतंत्र अस्तित्व है। अपने मौलिक रूप में इसमें मानवीय जैसा कुछ नहीं। बल्कि अपने चरम रूप में समान पाशविक सुख की कौंध इसमें निहित रहती है।
ये कतई ज़रूरी नहीं कि ये विश्लेषण इन दो फिल्मों को देखने का ही नतीज़ा हो पर इनको देखकर कुछ क्षैतिज चिंतन का अवकाश मिला और परवर्ती मंथन से ऊपर तैर आये झाग में इनकी कहानी गंध रूप में शायद विद्यमान हैं।
भूत बचपन के किस्सों का मुख्य पात्र रहा है पर उसमें मानवीय समाज से बाहर जाने की ताकत नहीं थी और अक्सर वो विदूषक की भूमिका में ही अवशिष्ट रह जाता था। जबकि फिल्मों के ये पात्र महासागरों की प्यास और पृथ्वी निगलने की भूख लिए आते हैं। इन्हें देखकर मनहूसियत तारी होने लगती है। पर प्रेम की ऊतक-संरचना को ये एक अजीब सी बैंगनी चमक प्रदान करते है।
(चित्र विकिपीडिया से साभार)