एक
आबादी यहाँ कई सालों से थी। पीछे की पहाडियां ही इससे ज्यादा पुरानी थी बाकी कुँआ, पेड़, मन्दिर सब धीरे धीरे बनते रहे। आदमी के पैर यहाँ सबसे पहले पड़े फ़िर कुआँ खुदा,घर बने पेड़ उगे और मन्दिर बना। भगवान् तो हमेशा उनके बीच रहा होगा पर उसकी ज़रूरत सबसे बाद में महसूस हुई होगी। यूँ मन्दिर भी अब तो खासा पुराना हो गया था। उसकी पठियाल में कई लोगों ने अपने दिवंगतों की याद में राशि दान करने का सगर्व विवरण प्रस्तरों पर अंकित करवा रखा था।
आबादी के इस घर के अन्दर अभी अभी एक दुल्हन आई है और दूल्हे के साथ उसकी पहली 'जात्रा'की तैयारियां चल रही है। जात्रा सामने के चबूतरे पर ऊर्ध्व गडी शिला पर उत्कीर्ण एक मानव प्रतिमा की हो रही है। जिसका रक्त वर के कुटुंब में दौड़ रहा है। इस पूर्वज की मृत्यु का उल्लेख शिला पर पूरे विवरण के साथ अंकित है...घटि, पल, नक्षत्र, वार, संवत सहित। कुटुंब के हर नवविवाहित को वधु के साथ उसके सम्मान में फेरी देनी होती है।
पचास सौ सवा सौ या दो सौ सालों के गुज़र जाने के बाद भी पूर्वज की मृत्यु- उसके देवलोक गमन- की स्मृतियाँ आज भी प्रगाढ़ रूप में अपनी उपस्थिति को अंकित करवाती है।
मृत्यु के कारणों में ज़्यादा संभावना तो चेचक की लगती है, पर शायद प्लेग भी हो सकता है। कुछ कम संभावना गायों के लिए डकैतों से संघर्ष में जान गंवाने की भी है। परिवार के लिए कारण की प्रकृति स्मृति को धुंधलाने में बाधा नही बनती। यह पूर्वज पौरुष का प्रतीक हो चुका हैं। उसकी मृत्यु तिथि वार नक्षत्रों की सटीकताओं के साथ रह रह कर स्मृति में प्रकट होती हैं। वह कुटुंब की महिलाओं के करुणगान में लौटती है। वह सम्मान में झुके नव दंपत्ति के लिए आशीष बन कर व्यापती है।
उस पूर्वज की स्मृति अनिष्ट की आशंकाओं में, कुछ कुछ भय के साथ भी दबे पाँव प्रवेश करती है।
दो
चबूतरे के सामने अपने घर में, अधिकांशतः बाहर ही बैठे, समय को निरपेक्ष- निरर्थक भाव से गुज़रते देखती है एक वृद्धा। अपने ही घर में निरी अकेली सी। कभी जिसके सदानीरा वात्सल्य में तीन बेटों की माँ होने का दर्प दौड़ता था, आज, कभी उस वात्सल्य का सगर्व भार उठाती, उसकी छातियाँ सूखे काष्ठ में बदल चुकी हैं।
दो बेटे परदेस में हैं जहाँ उसके लिए जगह नहीं है, तीसरा नशे और ऊटपटांग दवाईयों के बीच अपना अस्तित्व ही खो चुका है। बुढिया की ज़िन्दगी की शाम तो कब की ढल चुकी, आज सुबह की शाम अब आई है।मुहल्ले की ही एक और गली में उसका पीहर है। यूँ इस उम्र में तो पीहर लोकगीतों में भी याद नहीं आता पर वृद्धा को सिर्फ़ वही याद आता है जहाँ उसका उससे भी उम्रदराज़ सगा भाई शाम होते होते एक बार फ़िर बेचैन है। वह रसोई की टोकरी से कुछ टमाटर अपने कमीज़ में छुपाता, बहुओं के कोप से बचता, अपने कमज़ोर क़दमों को मजबूती से बढाता बहन के घर को रवाना होता है। सोचते हुए कि शायद कुछ सब्जी जैसा बना लेगी। इन क़दमों में कमजोरी तो थी,भटकाव कहीं नुमाया नहीं था।
मृत्यु की प्रगाढ़ स्मृतियों में भी जीवन का ये चरम उत्सव था।
आबादी यहाँ कई सालों से थी। पीछे की पहाडियां ही इससे ज्यादा पुरानी थी बाकी कुँआ, पेड़, मन्दिर सब धीरे धीरे बनते रहे। आदमी के पैर यहाँ सबसे पहले पड़े फ़िर कुआँ खुदा,घर बने पेड़ उगे और मन्दिर बना। भगवान् तो हमेशा उनके बीच रहा होगा पर उसकी ज़रूरत सबसे बाद में महसूस हुई होगी। यूँ मन्दिर भी अब तो खासा पुराना हो गया था। उसकी पठियाल में कई लोगों ने अपने दिवंगतों की याद में राशि दान करने का सगर्व विवरण प्रस्तरों पर अंकित करवा रखा था।
आबादी के इस घर के अन्दर अभी अभी एक दुल्हन आई है और दूल्हे के साथ उसकी पहली 'जात्रा'की तैयारियां चल रही है। जात्रा सामने के चबूतरे पर ऊर्ध्व गडी शिला पर उत्कीर्ण एक मानव प्रतिमा की हो रही है। जिसका रक्त वर के कुटुंब में दौड़ रहा है। इस पूर्वज की मृत्यु का उल्लेख शिला पर पूरे विवरण के साथ अंकित है...घटि, पल, नक्षत्र, वार, संवत सहित। कुटुंब के हर नवविवाहित को वधु के साथ उसके सम्मान में फेरी देनी होती है।
पचास सौ सवा सौ या दो सौ सालों के गुज़र जाने के बाद भी पूर्वज की मृत्यु- उसके देवलोक गमन- की स्मृतियाँ आज भी प्रगाढ़ रूप में अपनी उपस्थिति को अंकित करवाती है।
मृत्यु के कारणों में ज़्यादा संभावना तो चेचक की लगती है, पर शायद प्लेग भी हो सकता है। कुछ कम संभावना गायों के लिए डकैतों से संघर्ष में जान गंवाने की भी है। परिवार के लिए कारण की प्रकृति स्मृति को धुंधलाने में बाधा नही बनती। यह पूर्वज पौरुष का प्रतीक हो चुका हैं। उसकी मृत्यु तिथि वार नक्षत्रों की सटीकताओं के साथ रह रह कर स्मृति में प्रकट होती हैं। वह कुटुंब की महिलाओं के करुणगान में लौटती है। वह सम्मान में झुके नव दंपत्ति के लिए आशीष बन कर व्यापती है।
उस पूर्वज की स्मृति अनिष्ट की आशंकाओं में, कुछ कुछ भय के साथ भी दबे पाँव प्रवेश करती है।
दो
चबूतरे के सामने अपने घर में, अधिकांशतः बाहर ही बैठे, समय को निरपेक्ष- निरर्थक भाव से गुज़रते देखती है एक वृद्धा। अपने ही घर में निरी अकेली सी। कभी जिसके सदानीरा वात्सल्य में तीन बेटों की माँ होने का दर्प दौड़ता था, आज, कभी उस वात्सल्य का सगर्व भार उठाती, उसकी छातियाँ सूखे काष्ठ में बदल चुकी हैं।
दो बेटे परदेस में हैं जहाँ उसके लिए जगह नहीं है, तीसरा नशे और ऊटपटांग दवाईयों के बीच अपना अस्तित्व ही खो चुका है। बुढिया की ज़िन्दगी की शाम तो कब की ढल चुकी, आज सुबह की शाम अब आई है।मुहल्ले की ही एक और गली में उसका पीहर है। यूँ इस उम्र में तो पीहर लोकगीतों में भी याद नहीं आता पर वृद्धा को सिर्फ़ वही याद आता है जहाँ उसका उससे भी उम्रदराज़ सगा भाई शाम होते होते एक बार फ़िर बेचैन है। वह रसोई की टोकरी से कुछ टमाटर अपने कमीज़ में छुपाता, बहुओं के कोप से बचता, अपने कमज़ोर क़दमों को मजबूती से बढाता बहन के घर को रवाना होता है। सोचते हुए कि शायद कुछ सब्जी जैसा बना लेगी। इन क़दमों में कमजोरी तो थी,भटकाव कहीं नुमाया नहीं था।
मृत्यु की प्रगाढ़ स्मृतियों में भी जीवन का ये चरम उत्सव था।
( photo courtesy-freeparking )