Sunday, August 20, 2017

बूढ़ा और हांडी ( रीलोडेड )


(अपनी पहले की एक कहानी पर काफी काम बाकी था, सो करके और पुनः पोस्ट कर रहा हूँ.)



उम्र उसकी गहरे, बेहद गहरे कुएं से पानी खींचने वाली रस्सी की तरह थी. लंबी, बहुत लंबी. चेहरा उसका सुदूर अतीत में कभी बसे और उजड़े फिर कभी न बसे गाँव की तरह था. खंडहर. धराशायी. घर में उसके दो ही जने थे. वो ख़ुद और सन्नाटा. सन्नाटा, मकान की पुरानी दीवारों से टकराता- चक्कर खाता. एक बेहद सूने घर में वो वृद्ध जैसे ख़त्म हो चुकी दुनिया में बचा अकेला विजेता था. सच में बाहर की दुनिया उसके लिए अप्रासंगिक थी. अंदर की दुनिया उसकी अपनी थी. अपनी तरह की. उसने अपने ज़माने में पायी जाने वाली विकराल किस्म की बीमारियों को पछाड़ा था. प्लेग, चेचक, टीबी और न जाने कौन कौनसी. वो सच में अपनी तरह का अंतिम विजेता ही था. उम्र को भी उसने खींच कर लंबा कर लिया था.पर उसके छोड़े निशान उसके शरीर पर हर जगह नुमाया थे. शायद इनकी उसे परवाह भी नहीं थी. असल में देखा जाय तो उसका शरीर कुल मिलाकर दिनों और बरसों का ही समुच्चय था. ठोस हाड मांस जैसा उसमें कुछ भी दिखता नहीं था. वो एक  समय से भरा इंसान था.  वो एक उम्र था.
उम्र के अलावा जो उसके जिस्म में स्थाई रह गयी थी वो थी सर्दी. किसी सर्दी में ठण्ड उसकी हड्डियों में इस कदर घुस गयी थी कि वो हर वक्त, गर्मियों में भी, कोट पहने रहता था. कोट क्या था एक अनगढ़ सा आवरण था जिसे उसने रजाई फाड़कर बनाया था. घर में भी अक्सर वह अपने सबसे अंदर वाले कमरे में रहता था.शैय्याबद्ध. पिछले कुछ हर अरसे या बरसों से घर में भी वो और अन्दर घुसता जा रहा था. पहले वो किसी कमरे में जाता तो बाहर भी निकल आता था पर इन सालों में वो घर के अन्दर वाले कमरे में घुसता तो कई दिनों तक बाहर नहीं दिखता था.इसी कमरे में एक बड़ी विचित्र सी तस्वीर थी. गणेश जी की. तस्वीर में विशालकाय मूषक के पीछे गणेश जी का वामन सा रूप था. कह नहीं सकते कि ये चित्रकार की गलती का परिणाम था या उसकी सनक का. इसके पीछे कोई भारी फलसफा होगा इसकी संभावना कम ही थी.
एक छोटा तहखाना भी था घर में जो हमेशा बंद ही रहता था. इसमें बूढ़े के किसी निकट पूर्वज का भूत रहता था. निकट पूर्वज यानी उसके पड़दादा के भाई जिनकी शादी नहीं हो पायी थी और वे अविवाहित ही मर गए थे. ज़रूर अपनी उम्र लेकर ही मरे होंगे पर शादी नहीं हो पाई थी उनकी. उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें शादी को लेकर ज़बरदस्त उत्साह था. वे बचपन से ही शादी की हसरत पाले हुए थे. जवान होने तक तो ये हसरत सपनों की इमारतें खड़ी करती रही. पर वे जिससे शादी करना चाहते थे वो न सिर्फ किसी और की ब्याहता हो गयी बल्कि शादी करके अपने पति के साथ उस दूर देश चली गयी जहां वो कमाता था. उसके बाद उन पूज्य पूर्वज के सपनों के महलात धराशायी हो गए. उन्हें लग गया कि शादी अब इससे संभव नहीं तो फिर किसी से न सही. उन्होंने अपने भाई के बच्चों में मन लगाना शुरू किया. और आखिर अपने भाई से ये वादा लेकर इस दुनिया से गए कि उनकी अस्थियों को गंगा जी में बहाने का जिम्मा उसके वंशजों का होगा. चाहे ये काम पूरा होने में कितने ही बरस लग जाए पर होगा ज़रूर. जब मृत्यु को कई बरस गुज़र गए और इस बूढ़े के इस पूर्वज को लगा कि उसका मोक्ष कहीं लंबित न रह जाय तो उसने बूढ़े यानी अपने भाई- भतीजों के वंशज को आगाह करने की ठानी.और वो अलग अलग तरीकों से बूढ़े को तंग करने लगा. रात की दुर्लभ नींद में खलल. या खाने के सामान में बदमाशी. अचार में फफूंद लगा देना. तस्वीरों को उल्टा कर देना वगैरा वगैरा. इस तरह घर के तहखाने का दरवाज़ा इस तरह खुला. असल में उस पूर्वज की अस्थियां भी उसी तहखाने में रखी थीं, वर्षों से.खूँटी पर पोटली में टंगी. गंगाजल में गलने के इंतज़ार में. बहुत अरसे तक कुछ जोग बन नहीं पाया उन हड्डियों को हरिद्वार ले जाने का. जब मुक्तिकामी भूत तहखाने में बंद किये जाने का विरोध कुछ ज्यादा ही करने लग गया और उसकी व्यग्रता काफी बढ़ गयी और उसी अनुपात में उसके उत्पात भी तो वृद्ध ने हरिद्वार जाने का निश्चय कर ही लिया.एक और बात हुई जिसने वृद्ध के हरिद्वार जाने के निर्णय को अंतिम और पक्का बना दिया और वो बात थी निकट पूर्वज के भूत का बोलना.

एक दिन वृद्ध खाना खा रहा था. और भुनभुना रहा था. ज़ाहिर तौर पर वो अपने निकट पूर्वज पर ही क्रुद्ध था. ‘ आप हर चीज़ खराब कर रहे है. आटे में कीड़े पड़ने लग गए है. पानी बेस्वाद हो गया है. अचार में फूलण (फफूंद) पड़ गयी. घर पूरा दुर्गन्ध से भर दिया. ऐसा क्यों कर रहे है आप?’

और फिर वो हुआ जिसका कतई इल्म नहीं था वृद्ध को.
भूत तहखाने के भीतर से बोल पडा. बल्कि फट पडा.
“ तुम मुझे हरिद्वार क्यों नहीं ले जा रहे"

आवाज़ साफ़ तौर पर तहखाने के भीतर से ही आई थी. वृद्ध अवाक हो गया. रोटी का कौर हाथ में ही रह गया. मुंह बोलने के लिए खुला पर खुला का खुला ही रह गया. ये एक ऐसी स्थिति थी जिसकी उसने कल्पना नहीं की थी. भूत की हरकतों तक तो ठीक था पर उसका बोल पड़ना ! अब सब कुछ संदेह के परे था. ऐसा कभी हुआ नहीं था. तमाम प्रेतोचित हरकतें कहीं न कहीं गुंजाईश छोड़तीं थीं. कि शायद ये भूत की हरकत हो. शायद न हो और मन का वहम ही हो. या इसका कारण जरावस्था से उपजा मतिभ्रम हो.पर अभी अभी जो ‘कहा’ गया था उसने तो उसके मन के दरवाज़े खोल दिए थे. बल्कि तोड़ डाले थे. उसे तुरंत इस मोक्षकामी आत्मा के लिए कुछ करना था. उसने उठकर हाथ धोये और उसी वक़्त हरिद्वार रवाने होने का निश्चय कर लिया. बेशक वो तुरंत रवाना नहीं हो पाया पर हरिद्वार जाना एक दम तय हो गया.  

तो इस तरह आखिर तहखाने का दरवाज़ा खुला. जब खुला तो अरसे से बंद पड़े वक्त की धूल गिरने लगी. तहख़ाना अलग अलग पीढ़ियों के वक़्त का बेतरतीब संग्रहालय था. वो धूल और अँधेरे से भरा था और उसमें कई तरह की चीज़ें पड़ी थीं जो उदासीन भाव से शून्य में ताक रही थीं. चीज़ें संदूकों और थैलों में ठुंसी थी और बरसों की उपेक्षा के बाद अब ऐसी ही पड़ी रहना चाहती थीं. वे इस जिद से भरी थीं कि अब उन्हें इसी तरह पड़ा रखा जाय, और कहीं सरकाया तक न जाय.

निकट पूर्वज की अस्थियाँ पोटली में बंद किसी खूँटी पर टंगी थीं. निकट पूर्वज को भले मोक्ष की पड़ी थी, उनकी अस्थियां ऐसी ही शेष रहते समय तक टंगी रहना चाहती थीं. स्थगन में या विलंबित निलंबन में जैसे संतोष महसूस हो रहा हो उन्हें!

पर उन्हें खूँटी से उतारा गया.




और अस्थियों की पोटली थामे वृद्ध अकेले ही हरिद्वार के सफर पर निकल पड़ा. टिकट अलबता उसे दो खरीदनी पड़ी,एक खुद उसकी और एक उस सहयात्री की जिसकी अस्थियां उसके पास थीं. इस संक्षिप्त यात्रा ने आगे चलकर बहुत बड़े बदलाव लाये. बूढ़ा अपने घर में मस्त था और बाहर की दुनिया से बेपरवाह था. वो अपने को बाहरी संसार से इम्यून मानता था. उसे लगता था बाहर के लोगों को उसमें क्या दिलचस्पी हो सकती है! पर ठीक ठीक ऐसा था नहीं. बाहर के लोगों की अनगिन आँखें वृद्ध के घर की दीवारें भेद कर अंदर झांकना चाहती थी. बाहर की दुनिया उसके बारे में जानने के लिए बड़ी डेस्पेरेट थी. और जैसे ही वो अस्थियाँ लेकर हरिद्वार निकला उसे लेकर लोगों की कई पूर्व धारणाएं खंडित होने लगी. लोग जो पहले उसे ही अश्वत्थामा समझने लगे थे,अब ये मानने लगे कि ये भी इसी लोक का है, नश्वर है और आम लोगों की तरह ही मोक्षकामी भी. जब उसे अपने पूर्वज के मोक्ष की चिंता है तो अपने की भी होगी ही. और लोग मानने लगे कि ये वृद्ध भी एक दिन इस दुनिया से ज़रूर जायेगा. उसके इस लोक से जाने के बाद भी उसका घर बना रहेगा. इस पुराने घर में जीवन का शोर रहा है.इस  पुराने घर में कई पीढ़ियों से लोगों का निरंतर वास रहा है. इस घर में एक परिवार का आखरी सदस्य अब रह रहा है. इस घर से लोग ज़रूर विदा होते गए है, घर का सामान बाहर जाते किसी ने देखा नहीं है.

और पड़ौस के लोग उसके घर में आने के बहाने तलाशने लगे. एकदम से कुछ रिश्तेदार भी पनप गए. बाहर की दुनिया की रूचि उसमें बढ़ गयी. बरगद की जड़ें घर की दीवारों में पसरने लगी.

वृद्ध हरिद्वार में जिस काम के लिए आया था वो हो जाने पर काफ़ी हल्का महसूस करने लगा. घर से इतनी दूर आने के बाद उसकी इच्छा अब घूमने की हुई. वो हरिद्वार- ऋषिकेश घूम लिया. पर उसका मन नहीं भरा. वो दिल्ली आ गया. दिल्ली शहर को देखकर उसकी आँखे फटी रह गयी. इतना बड़ा और लोगों से भरा शहर. ऊंची मीनार, किले, मकबरे, पुरानी भारी भरकम इमारतें ! उसके भीतर ज़िन्दगी का राग बजने लगा. वो चांदनी चौक में तरह तरह के भोजन का आनंद लेने लग गया. घर में वो अब तक कितना बेस्वाद खाना खा रहा था इसका अहसास उसे यहाँ उसे हुआ. असल में खाने को लेकर अब तक उसकी कोई दिलचस्पी थी ही नहीं पर अब उसे लगा भोज्य पदार्थों की भी एक अलग ही सृष्टि है.पके हुए अन्न की खुश्बू घ्राण संवेदनों को नया जीवन ही जैसे दे रही थी.जल्द ही जितने पैसे साथ लाया था वो ख़त्म हो गए. उसने पैसों को इस तरह खर्च करने के बारे में सोचा ही कहाँ था? बुरा सा मुंह बनाते हुए, भारी मन से वो वापस लौट गया.

रिश्तेदारों को लगता था कि बूढ़े ने ज़रूर सोने चांदी की मुद्राएं संग्रहीत कर रखी हैं. और अपने संग्रह को उसने अपने पूर्वजों के संग्रह में मिला लिया होगा इससे कम से कम मुद्रा की एक बड़ी हांड़ी तो ज़रूर भर गई होगी. और कि ये दिन उससे नजदीकियां बनाए के लिए सबसे मुफीद हैं. आखिर सिक्कों की हांडी का कोई तो वारिस बनेगा.
बात सच थी. बूढ़े के पास वास्तव में एक पुरानी हांडी में मुद्राएं थीं.पर उसका ध्यान अब तक इस ओर नहीं गया था. अब लोगों की दिलचस्पी उसमें बढ़ गयी थी, तो वो भी कुछ कुछ समझने लगा. अब तक हांडी कमरे की टांड पर अकेली आत्ममुग्ध सी ही पड़ी थी.  द्रव्य-गर्विता. जिस हांडी में दही होना चाहिए या जिसके चेहरे पर चूल्हे की धुंआती आग की कालिख होनी चाहिए उसमें चमकती धातु अपना बसेरा करे तो कौन नहीं इतराएगा?  पर बूढ़े को इस हांडी से कोई खास लगाव नहीं रहा था. अभी भी नहीं था. पर उसके हरिशरण होने की संभाव्यता ने बूढ़े को हांडी के भविष्य के प्रति आशंकित कर दिया. उसके बाद ये हांडी किसी न किसी को तो मिलकर रहेगी.उसे इस द्रव्य- राशि को अलोप करने का कोई मंतर नहीं आता था. पर जो धन उसके अपने परिजनों को काल कवलित होने से बचा नहीं पाया उसमें इतनी ताकत कहाँ से आती कि वो कुछ लोलुपों के क्षुद्र स्वार्थ की भेंट चढने से ख़ुद को रोक पाता. वृद्ध के सामने ये स्थिति थी कि उसके बाद वो हांडी किसी योग्य/योग्य, भले/बुरे सद्यः उत्पन्न वारिस के पास जाने वाली थी. इच्छुक वारिस उसके घर के आसपास तो मंडराने लग ही गए थे. यह उस अंतिम विजेता यानी वृद्ध को कुछ स्वीकार नहीं हुआ. वो उन आवेदक वारिसान के घर में प्रवेश को कितने दिन रोक पाता? कभी न कभी इस घर में उसके बाद भी कोई तो ज़रूर आ ही जायेगा.चाहे वो कितना ही दुत्कारे, लोग उसके जाने के बाद घर में घुसेंगे ही. ख़ाली घर ख़ुद ही बुला लेगा.

उसने पहले पहल तो सोचा कि वो हांडी के धन को खर्च कर दे. पर मुद्राएं ज्यादा थीं और उसकी आवश्यकताएं और विलास सीमित. वो दान के पक्ष में हरगिज़ नहीं था.काफी विचार के बाद भी वो किसी नतीजे पर पहुँच नहीं सका.  पर एक दिन ऐसे ही बैठे बैठे एक विचार ने उसे काट खाया. और उसने एक निश्चय कर लिया.
उसने अपने बचे दिनों में इस स्वर्ण-रजत मुद्रा हांडी को ब्रह्माण्ड के ऐसे आयाम की भूल भुलैया में गुमकर देने की ठानी जो फिर सबके लिए अलभ्य हो जाय.
दुनिया,ईश्वर, रोग, दारिद्रय ये सब किसकी माया थे ये तो वो नहीं जानता था पर अब तक उसे चुनौती ही पेश करते रहे और वो जीत कर भी अपने कमज़ोर होने को जानता रहा. एक ऐसा शिकार जो अपने शिकारी को लंबी दूरी तक छकाता रहा.पर था वो शिकार ही, होना अंततः उसे शिकार होना ही था. वो चुनौतियों से जीतता भले ही रहा था पर दर पेश चुनौतियों से थक भी चुका था. आज तक पलट कर उसने किसी को किसी भी प्रकार की चुनौती नहीं दी थी पर अब उसकी तरफ से यही चुनौती थी कि आ जाए कोई भी और ढूंढ कर दिखा दे हांडी.

और अब उसके दिन रात यही सोचने में लग गए कि उसे इस हांडी के साथ ऐसा कुछ करना है कि कोई भी चाहे तो इसे कभी ढूंढ न पाए. चाहे इसके लिए उसे इसे गाड़ना पड़े, फेंकना पड़े, आग में गला देना पड़े या कुछ और पर उसे अपने आप से ये वाद किया कि इस हांडी को वो इस तरह ठिकाने लगाएगा कि उसे कोई भी कभी भी ढूंढ न पाए.

Wednesday, August 16, 2017

एक पासपोर्ट साइज़

स्मृति के कोई दर्ज़न भर स्थिर-चित्रों से बना था उसका शहर. उसका शहर पतली सड़कों और बक्सेनुमा मकानों का संकुल न होकर कुछ चित्रों की लड़ी था. इस लड़ी को दोनों सिरों से कहीं बांध दो तो रंग बिरंगी झालर की तरह दिखने लगता था ये शहर. शहर की जो तस्वीरें उसकी मिल्कियत थीं उनमें एक तो थी चौराहे के आइसक्रीम पार्लर की. और एक कच्चे, पीले रास्ते की जो कही ले जाने के बजाय भटकाता ज्यादा था. (वैसे यही इसका सुख भी था). एक कोने की थी जो दो ऊंची दीवारों के मिलने से बना था. दोनों दीवारों में से एक में बीचो बीच पीपल उगा था और शाखें दीवाल फोड़ कर बाहर आ रही थीं.

एक तस्वीर स्कूटर मैकेनिक की दुकान वाली थी. एक हैलोजन लाइट फेंकते खम्भे की.  और एक पोस्ट बॉक्स की भी. ऐसी ही कुछेक और तस्वीरों से बना था उसका शहर. पर हां एक तस्वीर जिसका अभी ज़िक्र नहीं हुआ और जो बाकी की रंगीन छवियों से जुदा थी और जिसके बिना उसका ये शहर स्मृतियों का नगर नहीं बन सकता था वो एक ब्लैक एंड वाइट पासपोर्ट साइज़ फोटो थी.  बाकी ग्यारह के ग्यारह चित्रों के रंग फ़ीके पड़ते जा रहे थे  पर इस श्वेत श्याम छवि को वो हर दिन नवीन और युवतर होते हुए ही देखता था.

असल में ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो शहर की तस्वीर नहीं थी. ये तो एक लड़की का पासपोर्ट साइज़ फोटो था. ये एक फोटो ज़रूर था पर इस पर नज़र पड़ते  ही एक पूरा एल्बम उसके सामने खुल जाता था. एल्बम के हर चित्र में वो लड़की ज़रूर होती. बल्कि वो लड़की ही होती.अलग अलग मूड, मुद्राओं में. कई बार तो उस अल्बम के एक ही फोटो में लड़की अलग अलग वक्त में अलग मुद्राओं में नज़र आती थी. अक्सर जैसे उसके सामने फेसेज़ बनाती हुई. उसे सामने देखकर तो और भी मुंह बिगाड़ती सी लगती थी.

शहर की स्मृतियों की पन्नियाँ. रंग बिरंगी.चित्रित. उड़ती हुई, लहराती हुईं. हवा में अपना संतुलन खोती ये पन्नियाँ कितनी भली लग रही थीं. पर इस समय उसके सामने जो शहर था वो अलग था.उस शहर से जुदा जो उसी की कुछ पुरानी यादें धुंधला नक्शा उतारे थीं. वो सोचने लगा, आया तो वो उसी शहर में था! फिर क्या हुआ कि उसकी याद के स्टिल्स से बना शहर कोई और शहर मालूम होता था.इस जिंदा से लगते शहर से जुदा.स्पर्श से भी जिसे पहचाना न जा सके.

स्पर्श पहचान करने की आखरी हद होता है.
कैसे कोई वृद्धा बरसों बाद परदेस से आये पाँव छूते पोते की तस्दीक उसे जगह जगह से छूकर करती है.यहाँ इस नए शहर में जितना मर्जी अपना पुराना खोजने की वो कोशिश करता, उसे कोई और ही शहर हाथ लगता. उसे शक होने लगा कि कहीं वो किसी अनजान शहर में तो गलती से नहीं आ गया. उसने सर उठाकर देखा, शहर का दुर्ग मजबूती से खड़ा था.

वो और ज्यादा परेशान हो गया. क्या दुर्ग शहर का हिस्सा था या शहर इसके पडौस में बसा हुआ था? दुर्ग उसका पहचाना था पर शहर से फिर भी जान पहचान निकल नहीं रही थी. क्या शहर खानाबदोशों का डेरा भर होता है? कि कुछ बरस किसी किले के बगल में डेरा डालो और फिर कहीं और के लिए निकल लो.पीछे कोई नया काफिला अपने खच्चरों- टट्टुओं के साथ तैयार खड़ा है इसी जगह  कुछ बरस डेरा डालने को. वो भी एक यायावर की तरह इस जगह आया था. आने के कई दिनों तक वो संकोच में रहा. शहर उसके लिए सिमटा रहा तो बाँहें उसने भी नहीं फैलाई. वो चाय की दुकानों में नरमाहट ढूंढता रहा. फिर एक दिन उसकी दोस्ती एक जूते चप्पलों के दुकानदार से हुई. वो गया था अपने लिए एक जोड़ी नए जूते खरीदने और साथ में एक दोस्त मुफ्त में ले आया. दुकानदार उसकी उम्र का ही था. कह रहा था बड़े भाईसाब और वो साथ में चलाते हैं ये दूकान.पैसा भाई साब का है और बैठता वो है.जेंट्स और लेडीज दोनों के लिए जूते सैंडल रखता है.

दोस्ती लगातार बढती गई. हीरालाल था दुकानदार का नाम. दिखने में सुन्दर.  वो शाम को वहीं बैठने लगा.हीरालाल की दूकान उसकी बैठक हो गयी. एकाध घंटा गप्प मार कर, चाय पीकर ही उठता वो. हीरालाल को भी उसकी संगत अच्छी लगती थी.

एक दिन..शाम का वक्त था. दुकान पर वो बैठा था. हीरालाल कहीं  गया हुआ था.ये कोई नई बात नहीं थी.हीरालाल उसके आने पर कई बार सिगरेट पीने पान के केबिन पर चला जाता था. दूकान में सिगरेट न पीने का उसूल था. उसी समय एक लम्बी सी लड़की दुकान में आई.वो एक आम ग्राहक थी. उसे अपने लिए सैंडल चाहिए थे. उसने उस लड़की को रुकने के लिए कहा. हीरालाल आने ही वाला था. लड़कियां परदेसियों को पहचान जाती है. कुछ मिनट की देरी के बाद उस लड़की ने उससे पूछा था कि कितना वक्त हो गया इस शहर में आये हुए, उसने दिन गिनकर बता दिए.

जैसा कस्बाई प्यार में होता है, परदेसी से दिल लगाने का मामला खतरनाक पर अनिवार्य सा होता है. छोटे शहरों की मुट्ठी में बंधे लोग अक्सर के दूसरे के पास आने को अभिशप्त होते है. वो दोनों अक्सर एक दूसरे को दिख ही जाते थे. वहां कई दिनों या महीनों की आँख मिचौली संभव ही नहीं थी. कोई दूर का ही प्रेमी हो सकता है एक क़स्बे की प्रेम कथा में. वर्ना हीरालाल ही क्या बुरा था? हीरालाल में एक एक प्रेमी की सारी खूबियाँ तो थी पर क़स्बे का प्रेम दूरियों और अपरिचय के तंतुओं से बनता है. उस परदेसी के रिश्ते-नातों की डोरियों का गुच्छा सुदूर में कहीं था जिसे वो लड़की नहीं जानती थी. उस परदेसी का घर, उसके परिजन उस लड़की के लिए अस्तित्व में नहीं थे. वो उस ‘बार गाम’ के लड़के को ही उसके ‘सम्पूर्ण’ के रूप में जानती थी.




लड़की की तरफ से एक महीन, सूक्ष्म और क्षणिक मुस्कान ने पहले से ही मौजूद हेडी मिक्स में तूफ़ान ला दिया. वो एक तीव्र बहाव में बह गया जिसके खिलाफ जाने की उसने कोई कोशिश नहीं की. असल में उसे समझ में आने से पहले ही ये सब घटित हो गया.

उस लड़की के साथ इस नए जन्मे रिश्ते में भले ही वासना या हवस ढूंढी जाय पर ये था प्रेम ही. ठीक ठीक किताबों वाला या अपने परिशुद्धतम रूप जैसा प्राचीन समय से लिपिबद्ध है वैसा नहीं पर प्यार वाला ही प्यार. इस ज़माने वाला भी नहीं. छोटे शहर- कस्बों वाला, अगर सटीक रूप से कहा जाय.

लड़की हीरालाल की दुकान पर एकाध बार ही आई फिर नहीं आई. हीरालाल को वो अपने प्यार की जानकारी देना नहीं चाहती थी क्योंकि वो भले उसके महबूब का दोस्त था, पर था वो असल में उसका अपना शहर जिस तक वो अपने प्यार की फुसफुसाहटों को पहुँचने नहें देना चाहती थी.शहर चाहे उसका पिता भाई या दोस्त ही क्यों न हों प्यार के मामले में क्रूर बनते देर नहीं लगती.

उसे एक कहानी की याद हो आई जिसमें झामन ने अपनी ही बेटी का क़त्ल कर दिया था. वो बेटी जिसने एक परदेसी को दिल दे दिया था.बाद में झामन ने भी एक पेड़ से लटक कर फंसी लगा ली थी. एक बिलकुल तनहा खड़े उसी पेड़ से झामन के रोने की आवाजें क़स्बा कई बरस सुनता रहा था.

लड़की के दूकान पर न आने से उसने भी अपने दोस्त हीरालाल को छोड़ दिया. उस छोटे से, कम आबादी के शहर में वो और लड़की कोने तलाशने लगे. शुरू में शहर में एकांत के अनेक द्वीप थे जहां वे समय से परे चले जाते थे, पर धीरे धीरे वे सब एक अनजान भय के कोहरे में डूबते गए. अब उन्हें शहर में कोने मुश्किल से नसीब होने लगे थे. उसे उन दिनों शहर अचानक आबादी से भरा, भीड़ से ठसा शहर लगने लग गया.वो बमुश्किल लड़की को मुख्य सड़क पर आते जाते ही देख पाता था. उसकी ख्वाहिशों में लड़की को देखना भर रह गया था. वो सड़क पर एक दिन सबके सामने लड़की को चूमना चाहता था. पर लड़की का दिखना भी उसके लिए उत्सव जैसा हो गया. वो छोटा शहर उसके लिए महानगर सा हो गया. और उसमें जैसे वो लड़की गुम हुए जा रही थी.

और एक दिन वो लड़की उस शहर से गायब हो गई. एक आदमकद अहसास बना रह गया.फिर उसके अस्तित्व से भी उस लड़की की उपस्थिति फिसलने लग गई. दुनिया के मेले में लड़की का हाथ उससे छूट ही गया था, उसकी आत्मा से भी वो लड़की जाती रही. पर उसका भार वो महसूस करता रहा.

शहर छोड़ने से पहले उसके पास उस लड़की का ब्लैक एंड वाइट फोटो था. पासपोर्ट साइज़ का. वो फोटो ही अब उसके लिए वो लड़की था. वो गुम भी गया तो भी उसका प्रिंट उसके मस्तिष्क में बना रह जाने वाला था.लड़की जैसे तिलतिल उससे आजाद हो रही थी. पहले वो कहीं चली गई, फिर उसकी मौजूदगी, फिर उसका अहसास और अब अरसे बाद लड़की की उपस्थिति का भार जब उसके मन से जाता रहा. पर इससे उसे काफी अच्छा लगने लगा. वो इस प्रक्रिया में खुद भी जैसे के पाश से छूटता गया था. उसने शहर को शुक्रिया कहा.  







फिर से इस शहर में किसी सड़क के कोलतार पर चलते उसके जूतों के सोल चिपक रहे थे. गर्मी ने कोलतार को गर्म लिसलिसे द्रव में बदल दिया था. पर उसकी याद में उतरा शहर ठंडा था.आसमान से नर्म बर्फ गिर रही थी.