Sunday, June 9, 2013

लालटेन- घासलेट पर उगी एक लौ



(एक पुरानी पोस्ट पर कुछ और बहकते हुए)

एक लालटेन का जलना क्या खुद लालटेन के लिए एक त्रासदी है?
उसकी रौशनी की सेहत, उसकी तबीयत का मिज़ाज देखकर ऐसा ही कुछ सोच जा  सकता है.उसका रोशनी पैदा करने का उपक्रम खुद उसी के लिए बेहद थकाने वाला लगता है.निकलने वाले प्रकाश में निरंतरता नहीं हैं.वो अविछिन्न होकर बाहर नहीं  आता,बल्कि लालटेन के कांच की दीवारों से टूट टूट कर गिरता है और इस तरह टूटा हुआ टुकड़ा-टुकड़ा प्रकाश लालटेन के गिर्द जमा हो जाता है.उसकी रोशनी में चीज़ें पहचानी जानी मुश्किल है, वे सिर्फ अपने आकार का आभास कराती है.लालटेन की रोशनी में जो कुछ हम देखतें हैं उसे हम अनुमान के ज़रिये ही जान पाते हैं.वो भी थोड़ा बहुत.उसकी रोशनी चीज़ों के आकार के बारे में ही थोड़े भरोसे के साथ कुछ बता पातीं हैं.ये बड़ी ही हास्यास्पद बात हैं कि लालटेन का इस्तेमाल अक्सर गाँव की सीमा से दूर भटक चुके बकरी के बच्चे को ढूँढने,या पड़ौस के गाँव से आये चोर के पांवों के निशान देखने,या फिर आगत प्रेमी को उसके गुप्त ठिकाने पर धर दबोचने में किया जाता है.अँधेरे में ऐसे अभियानों को दूर से देखने पर सिर्फ लालटेन हवा में तैरती नज़र आती है.और लालटेन की मुर्दा रोशनी उन्हें किसी नतीजे पर नहीं ले जाती.लालटेन वापसी में उनके थके हुए क़दमों को पगडण्डी के सहारे घर ज़रूर ले जाती है.यद्यपि इसमें काफी भूमिका उनकी उस रास्ते पर चलने की आदत की होती है.सुबह शाम हर रोज़ हमेशा ताज़िंदगी वे उसी रास्ते पर चलते रहते हैं.रात के वक्त उनके हाथ में अलबत्ता लालटेन ज़रूर होती है.पर उसके बिना भी वे घर पहुँच सकते हैं.बस सिर्फ एक आदत के तौर पर ही उनके साथ रात को लालटेन भी चलती है.ये कमोबेश एक अनुष्ठान में वांछित किसी वस्तु की तरह होती है.कभी रात को तेज़ हवा में लालटेन बुझ भी जाए तो रास्ते में दल के लोग बिना उसकी परवाह किये चलते रहतें हैं.वे जानते हैं कि लालटेन न आग है न रोशनी.असल में आजकल लोग लालटेन को सिर्फ रिवायत के तौर पर साथ रखतें हैं कि पहले भी रात-बिरात काम पड़ने पर लालटेन को साथ रखा जाता था,तो अब क्यों इस रीत को छोड़ा जाय.दीगर बात है कि लालटेन किसी शगुन या शुभंकर के तौर पर साथ नहीं रखी जाती.ये सिर्फ किसी कदीमी परंपरा का हिस्सा है.लोग अब असल ढूँढने का काम टोर्च के ज़रिये करते हैं.किसी गुलेल की तरह टॉर्च रोशनी को दूर तक फेंकती है और लालटेन निस्पृह सी  होकर लगभग ढीठ भाव में ये सब देखती है.

घर में भी किसी कोने में लटकी लालटेन अँधेरे के विस्तार में कहीं कहीं उजाले के धब्बे छोड़ती है.इसकी रोशनी चीज़ों की बड़ी बड़ी छायाएं पैदा करती है.कोई उड़ता कीड़ा अपनी छाया में विशालकाय दैत्य सा लगता है. 
लालटेन की अभिशप्त रौशनी में अँधेरा अधिक स्याह होकर सामने आता है.उसकी लौ की भभक मानो अपनी ही पैदा की गयी चमक को उचक उचक कर निगलती है.वो रौशनी का मिथ्याभास है.उसकी आड़ में अँधेरे को वाचाल होने का अवसर मिलता है.वो आसानी से अपने छल पर लालटेनी रोशनी की बारीक चादर ओढा देता है.और तब अरसे से धराशायी खंडहर भुतहा लगने लगता है.लालटेन की रोशनी इतनी दूरस्थ है कि उस तक पहुँचने के लिए ठोस अन्धकार को भेदना ज़रूरी है. और इतनी निशक्त कि घर के किसी कोने में टंगी होने पर उसे एक बेचारगी भरा व्यक्तित्व प्रदान करती है.एक स्त्री लालटेन को उठा कर अपने चेहरे के करीब लाती है तो लालटेन उसके युवा चेहरे को झुर्रियों से भर देती है..

उसके कांच के गोले के ठीक बाहर अँधेरे का ठंडा बियाबान है.
इसकी रोशनी में भूतों के कई किस्सों को वाचाल होने का अवसर मिलता है.कोई लालटेन की रौशनी के भ्रमित करने वाले आलोक में,रात के तीसरे प्रहर किसी ऐसे शख्श को देखता है जो उसके परिचित मृत व्यक्ति से मिलता जुलता है.सुबह वो भूत को देखने का दावा करता है.सब उसकी इस बात की हामी भरते हैं.कोई ये नही कहता कि लालटेन की रोशनी से शिनाख्त नहीं की जा सकती.वो इसके लायक नहीं है.पर खैर इस व्यक्ति के दावे में सच जो भी है,जैसा भी है उसे लालटेन सीधा और सपाट नहीं रख पाती.उसके अपूर्ण प्रकाश में भूतों के कई कथानक चमकते हैं.उसकी रोशनी का उजाला कई किस्सों,बातों,और मिथकों को रोशन रखे हुए है, ये और बात है कि इन सब से बाहर के लोक में इसका आलोक बहुत फीका है. इसके उजाले का इतना उजाड़ होना एक बहुत बड़ी त्रासदी है.

बारिश की नम रात में लालटेन के एकाकीपन को कभी कभार कोई कीट अपनी प्रदक्षिणा से भंग करता है.उजाड़ उजाले में लालटेन का एकाकीपन डरावना लगता है.वो जहां भी रहती है अपने भूगोल से कटी रहती है.घर की दीवाल पर टंगी लालटेन एक खास तरह के बेतुकेपन की मुद्रा में दिखाई देती है.वहीं आसपास फिरती छिपकली की तरह जो रात में शिकार के अलावा कई बार बिना हिले डुले बेतुकी सी चिपकी रहती है.इस बेतुके एकांत में भी लालटेन कई बार अपने विगत के सक्रिय दिनों में झूलती है.कई बार इतनी आत्ममुग्ध कि लगता है वो बिना आग दिखाए भभक कर जल उठेगी.वैसे इसके अकेलेपन में कई शेड्स हैं.इसमें विगत के दिनों का चिंतन है.इसमें उम्मीद है.इसमें नाउम्मीदी है और इसमें इन दोनों के बीच उसका दोलन है.वो कई बार सोचती है उस जादुई प्रकाश के बारे में जो राक्षसों और राजकुमारों के बीच संघर्ष को निर्णायक स्थिति में लाता था.वो जिन्नों के दुनिया को रोशन करता था.वो सब ठीक ठाक या सब उल्टा पुल्टा कर देता था.

और कई बार उसके अकेलेपन में सिर्फ अकेलापन है.बेतुका.इस एकांत की इतनी अर्थछायाओं में वो दिन में सिर्फ दीवार से चिपकी ही रहना चाहती है.बिना कहीं जाए,बिना किसी में झूलते हुए.

रात में वो अपने ही अँधेरे से इतना लड़ती है कि वो दिन उगने का इंतज़ार करती है जिससे कि वो अपने रौशनीनुमा कुछ को तिरोहित कर थोड़ी देर चैन की नींद सो सके.

Saturday, May 25, 2013

नील लोक (स्मृतियों में समुद्र)

(अपनी एक और पुरानी पोस्ट को काफी भराव देकर आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ.



जिस जगह वो रहता आया था वो जगह समंदर से बहुत दूर थी.न घर की छत से न ऊंचे पेड़ से और  न पानी की टंकी से, कहीं से भी समंदर दिखाई नहीं देता था.दक्षिण से बहती हवाओं से भी सागर की नमकीन गंध वहां तक पहुँच नहीं पाती थी.समुद्री घास या शैवालों को भी उसके यहाँ से सूंघना मुमकिन न था.पानी के तालाब जो राजाओं के बनवाये हुए थे उनके पीछे सागर या समंद द्वितीय पद के तौर पर लगा होता था,पर वो जानता था वो महज एक शब्द भर हैं,अतिशयोक्ति की तरह. सागर या समुद्र  महान जल राशि है,उसकी अपनी एक अलग दुनिया है.समुद्र उसके लिए सुदूर जलराशि की तरह था,उसके अपने परिचित भूगोल से बाहर बहुत बाहर.पर कुछ ऐसा था कि समुद्र फिर भी उसकी चेतना में टिमटिमाता रहता था,किसी तारे की तरह.सुदूर पर हमेशा उसके आसपास,जिसे ऊपर देखने भर से पा लिया जा सकता था.

यद्यपि उसने समुद्र को कुछेक बार ही देखा था पर उसके भीतर समुद्री यात्राओं की गाढ़ी स्मृतियाँ थीं.उसने विश्व की कुछ महान यात्राओं के बारे में पढ़ रखा था.और उनमें समुद्र का एक बड़ा, महत्वपूर्ण भाग था.बल्कि वो उन यात्रा विवरणों को अपनी भारी भरकम उपस्थिति से आक्रांत सा करता था.वो उन वृत्तांतों में हर जगह दिखाई देता था.जल जंतुओं की विचित्र दुनिया,उसकी छाती पर चलने वाले जहाज,उसके नीले जल पर नर्तन करतीं सूर्य रश्मियाँ.एक बेहतरीन दृश्य.पर इससे भी ज़्यादा वो एक ऐसा व्यक्तित्व था जिससे वो प्रभावित सा था.उसकी समुद्र को लेकर समझ में किसी गोताखोर या जहाज के कप्तान जैसी समझ कतई नहीं थी और वो समुद्र को उतना समझना भी नहीं चाहता था,एक दुनियां के तौर पर समुद्र अबूझ था,पर तय था कि यात्राओं-किस्सों के पात्र के तौर पर वो बेहद प्रभावित करने वाला था.और इस रूप में उसकी विशेषताओं के कारण ही शायद समुद्र ने उसके मन को गहन कृतज्ञता से भर दिया था. उसे लगता था कि तमाम निर्दयताओं की बावजूद समुद्र आदमी से किलोल ही करता है, जो कि उसका स्वभाव है,और हम बस किसी तात्कालिक परिणाम से ही  उसके क्रूर या दयालु होने का अनुमान लगातें हैं.मानव के बरक्स उसे खड़ा करके हम उसमें मानवीय गुणों की उपस्थिति की इच्छा नहीं कर सकते.इस महान जल राशि में पलने वाले और मरने वाले तमाम जीव जंतुओं के जीवित बने रहने के खिलाफ पल पल खड़े होने,महान समुद्री यात्राओं पर निकले जहाज़ों को डुबोने,भीतर असंख्य मौत के गड्ढे जमा करने और स्वभावतः कभी तोला कभी माशा होने के बावजूद वो अपने चरित्र में ज़रूरी तरलता बचाए रखता है.उसका पनीला स्वरुप हर किसी में से गुज़र जाता है हर कोई उसमें से गुज़र जाता है.वो जीवन की विविधताओं को सहेजता था.बिना उसकी रूचि या आदतों में हस्तक्षेप किये. वैसे भी अंततः किसी भी तरह के जीवन का पहला घर समुद्र ही है. समय और दिशाओं के जूनून से मुक्त समुद्र आदमी को उसकी ज़रूरी वैयक्तिकता लौटाता था.इसमें उतरने पर साथ में न वक्त चलता था न दिशाएं.यहाँ अपना समय था या कहें यहाँ समय था ही नहीं.और दिशाएं,वो भी उसकी सतह पर ही थीं,उसकी सतह पर आकर आसमान में टंगे तारों से उनकी उपस्थिति का झीना बोध होता था पर जल में गोता लगाने पर सारी दिशाएं भी उसमें घुल कर एकमेक हो जातीं थी.

कई यात्राओं की प्रगाढ़ स्मृतियों के साथ, भले ही उनमें से कोई भी उसने नहीं की थी, पर जिनके बारे में महान वृत्तान्तकारों के बताए सूक्ष्म विवरण उसके सामने जीवंत थे, वो अपनी पहले समुद्री यात्रा के लिए निकला और कई दिन के बाद अब वो बीच समंदर में एक जहाज़ पर था. हवाएं खारेपन से लदी थी. दूर दूर तक सिर्फ समुद्र ही था. ऐसा लगता था कि जैसे ज़मीन सिर्फ एक कल्पना थी जो दूर कहीं थी. ठोस कुछ भी नहीं था. जितना तरल बाहर था उतना ही भीतर.समंदर का लवणीय जल कुछ भी ठोस रहने नहीं देता था,सब कुछ सख्त, जिद्दी गल जाता था. प्रेम को लेकर भी द्वंद्व का सख्त ढांचा टूट गया था. अब सिर्फ निर्द्वन्द्व प्रेम ही रह गया था. डेक पर उसने दो प्रेमियों को देखा जो समुद्र के आह्वान पर आये थे और कुछ ही देर में खारी हवाएं उनके बीच के सारे संकोच, आग्रह, झिझक, मर्यादा वगैरह को घोल चुकी थी. अब उनके बीच का सब कुछ पारदर्शी था. बिलकुल भीतर के मन तक.


तमाम सरलता का वास यहीं समुद्र में था. ये तो विकास-क्रम में कुछ जीवों की महत्वाकांक्षा थी जो उन्हें ज़मीन पर ले आयी थी.एक लिप्सा आगे बढ़ने की,किसी दूसरे की कीमत पर. यूँ समंदर भी मौत के खेल में पीछे नहीं था बल्कि पल पल यहाँ यही कुछ होता आया है पर इस जल-मैदान के कुछ सरल कायदों का सम्मान करने मात्र से आपके निजी अवकाश को पूरा सम्मान मिलता है. यहाँ सब कुछ सीमाहीन है पर यूँ अपनी अपनी सीमाएं जो निजता का सुख भोगने के लिए ज़रूरी है.

शाम के ढलने का वक्त था. समुद्री आकाश जल-पक्षियों से आच्छादित था.एक अंतहीन विस्तार में प्रेम की भाषा कौंध रही थी.जीवन के संघर्ष प्रेम की प्रदीप्ति के आगे अपने ताप को अस्थायी तौर पर छोड़ चुके थे.धीरे धीरे आसमान में सागर के प्रतिबिम्ब या सागर में आसमान के बिम्ब की चमक अब फीकी हो रही थी,उसमें अक्स मिटकर गहरा रंग भरते जा रहे थे.कुछ ही देर में आसमान तारों से भर गया.कोई तारा ज़्यादा चमक रहा था,कोई कम.कहीं कोई तारा टूट कर लम्बी प्रकाश रेखा में विलीन हो रहा था.उसे लगा आसमान के मंच पर कुछ अनूठे करतब सिर्फ बीच समंदर ही देखे जा सकतें हैं.ये अद्भुत था पर उसे लौटना था और कल उसके लौटने का दिन था.समुद्र से लगातार दूर जाकर अंततः वो फिर किसी किनारे से आ लगेगा.उसके कपड़ों से लिपटी खारी हवा की सीलन कई दिनों तक समुद्र के अंश के तौर पर उसके साथ रहेगी और उसकी स्मृतियों में खुद समंदर हमेशा प्रतिबिम्ब के तौर पर झलकता रहेगा.

Friday, May 17, 2013

छोर की दुनिया और चमक का द्वीप


                                 (चित्र गूगल से साभार)

जिस जगह वो रहता था उस जगह के आगे कोई बस्ती नहीं थी. कई पीढीयों से इस आखरी बस्ती के छोर से आगे जाने की अघोषित मनाही थी..गाँव के लोग सरगोशियों में बात करते और बच्चों को इशारों इशारों में उस तरफ जाने से मना करते.किम्वदंतियां भी सच का अंश लेकर ही खड़ी की जातीं हैं और प्रचलित स्थानीय कथाएँ सुन सुन कर उसे पक्का विश्वास हो गया था कि  दुनिया के गोल होने बातें महज़ बकवास थीं,और दुनिया का छोर इसी बस्ती से आगे ही कहीं है जहां धरती एकदम किसी तीक्ष्ण किनारे में समाप्त होकर एक बड़े ही भयावह और अंतहीन खड्ड में गिर जाती थी.चूँकि ये दुनिया का छोर था इसलिए इस खड्ड में सब कुछ त्याज्य,गैर ज़रूरी,और अक्षम ठेल दिया जाता था.इस तरह ये एक विशालतम कचरा पात्र था और  दुनिया आखिर इसी कचरापात्र में समाप्त हो जाती थी. इस गाँव के लोग धरती की स्मृतियों से भी विस्थापित लोग थे.वे जगह जगह से बुहारे हुए लोग थे. इस आखिरी जगह वे किसी तरह टिक गए थे, क्योंकि वे ज्ञात सब कुछ से भी बाहर हो गए थे.उनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी इसलिए एक तरह से वे थे ही नही.वे किसी मानव विज्ञानी  के रजिस्टर में भी नहीं रह गए थे.उनके बचे होने के बारे में बीच में बसे यानी अंदरूनी दुनिया के किसी भी व्यक्ति को मालूम नहीं था और (क्योंकि) किसी को इसकी ज़रुरत भी नहीं रह गयी थी.

इस गाँव के लोग अंततः इसी विराट खड्ड में कचरे की तरह ठेल दिए जायेंगे. तमाम से निर्वासित होकर ही उन्हें यहाँ छोर पर रहने कि जगह मिली थी और ये निर्वासन सतत और क्रमिक होता गया था. अंतिम जगह इसी महान कूड़ा लोक में मिलनी थी.ऐसा नहीं था कि ये गाँव ही इस कूड़ा लोक से ठीक पहले का आखरी गाँव था,बल्कि ये नियति और भी कई बसावटों की थी.हर करकटलोक के किनारे एक महान झोपड़पट्टी विकसित होती है,बल्कि दोनों में कोई संरचनात्मक फर्क नहीं होता.वैसे ही बहुत सारे गाँव धरती के छोर पर बसे थे.वे हमेशा डरे रहते थे कि उन्हें  कभी भी, नीचे बजबजाते लोक में ठेल दिया जाएगा.डर कई संततियों के व्यक्तित्व में नैसर्गिक रूप से समा गया था.उसने हरेक को उसके चेहरे की मांसपेशियों में आवश्यक परिवर्तन करके उसे स्थायी रूप से भयभीत चेहरा दे दिया था. वे सब हर काम इसी डरे हुए चेहरे के साथ करते.प्रेम करते वक्त भी वे डरे हुए रहते.लड़की इसे बुरा नहीं मानती क्योंकि वो खुद भी वैसी ही थी. और उसने हर समवय पुरुष को ऐसा ही देखा था.एक नया ही सौन्दर्य शास्त्र विकसित हो गया था.बच्चे जवान और बूढ़े सभी डरे हुए.

उनकी बसावटें अंधेरों में रहतीं थीं.गर्मियों में सूरज का दाह उनके टीनटप्पर तोड़ कर घरों में घुस जाता.वो हर चीज़ को जला डालने की ज़िद थामे रहता.उनकी मटकियें उबलने लगतीं,बच्चों के गले सूज जाते,स्त्रियों की आँख का पानी भाप बन कर उड़ जाता.सर्दियों में दिन पूरे चौबीस घंटे उनकी परीक्षा लेता.हिम दाह से उनकी चमड़ी पर नीले निशान बन जाते.उनकी आँखें पुतलियों सहित जम जाती.वे इस तीव्रता के बने रहने तक निर्निमेष ही देखते रहते.वे हर अगले मौसम की ही प्रतीक्षा करते रहते. सिर्फ मौसम ही नहीं बल्कि वे सुबह होती तो दुपहरी और दुपहरी में शाम का ही इंतज़ार करते.उनके जीवन के हर दिन का हर प्रहर प्रतीक्षा में ही लगा रहता था.शायद वे इसीलिए जीवन यात्रा में बने हुए थे कि उन्हें हर अगली बार में बेहतर होने की उम्मीद थी. और जिसकी प्रतीक्षा में वे थोड़ा और जी लेते थे. वो बेहतर क्या था इसकी सही परिभाषा यद्यपि उनके पास नहीं थी.मौसमों का बेहतर हो जाना उनके जीवन के बेहतर हो जाने की गारंटी नहीं था,बल्कि ये तो तात्कालिक राहत था.इसके  बाद भी जीवन अपने विकराल रूप में ही था.असल में वे बेहतर की उम्मीद ही कर रहे थे,उन्हें खुद पता नहीं था कि उनके लिए बेहतर क्या था.अँधेरे और उमस से भरे जीवन में कुछ भी अच्छा होना कितना सुदूर था! लगभग छलावे की तरह.मरीचिका जैसा कुछ.उनकी उम्मीद में पानी का सोता हमेशा तब भी बना हुआ था.

भीतर की दुनिया के बारे में वे ज़्यादा कुछ नहीं जानते थे.वो उनके लिए किम्वदंतियों में कहीं बसी थी.इसी भीतर की दुनिया से वे कभी निकाले गए थे,पर इसकी स्मृतियाँ उनके पूर्वजो के साथ ही समाप्त हो गयीं.स्मृतियों के किस्से ज़रूर प्रचलित थे यद्यपि  उनमें सिर्फ इतना ही सच ढूँढा जा सकता था जितना विश्व-सभ्यता की एक उस  प्राक्कथा में रह गया था जिसमें एक आदिम बाढ़ में तारणहार बनी इकलौती नाव में कुछ ही बच पाए थे. तो उन स्मृतियों के किस्सों में जो सच बचा रह गया था वो इतना तो था ही कि इस उमस भरे गीले अँधेरे से बहुत दूर चकाचौंध से भरी एक और दुनिया थी.
ये भीतर की और बसी दुनिया थी.यहाँ बसे लोगों और  छोर पर बसे लोगों में सिर्फ जेनेटिक समानता ही थी,और इस समानता में भी शायद अब फर्क बढ़ता जा रहा था, बाकी कोई मिलती जुलती बात अगर कोई रह गयी थी तो उपलब्ध तकनीक से तो उसे देखा नहीं जा सकता था.स्पेक्ट्रम के विपरीत छोर पर ये दूसरी दुनिया किलेबंद द्वीप की तरह थी जिसकी भित्तियां अभेद्य थी.इन दीवारों में दरवाज़े नहीं थे.उनकी ज़रुरत भी क्या थी?इस दुनिया से बाहर जाने की ज़रुरत ही नहीं थी.ऐसा नहीं था कि यहाँ से कोई बाहर जाता नहीं था,बल्कि कई लोग बाहर जाते थे पर उन्हें ठेला जाता था,भगाया जाता था,उनके पीछे खूंखार कुत्ते छोड़े जाते थे.भीतर के संसाधनों पर चोट होते ही सक्षमों में से अपेक्षया कमजोरों को बाहर फेंक दिया जाता था.इसके लिए किसी दरवाज़े की ज़रुरत नहीं थी,जिस रास्ते से उच्छिष्ट बाहर जाता था उसी रास्ते से उन्हें भी रवाना किया जाता,बहा दिया जाता,धकेल दिया जाता.इसके लिए किसी लम्बी चौड़ी प्रक्रिया की ज़रुरत नहीं थी,बस इंचार्ज की अपनी कल्पनाशीलता ही पर्याप्त थी. लगातार धकेल देने का प्रोसेस सभ्यता की चमक बनाये रखने के लिए ज़रूरी था.भीतर दुनिया का ज़र्रा ज़र्रा चमकता था.किसी सूरज की ज़रुरत नहीं थी.कोने कोने को चमक से भर दिया  गया था.उसके अंदरूनी कोनों पर मामूली सी छाया को भी अँधेरे का अंश मानकर बाहर फेंक दिया गया था. इस दुनिया की चमक थी ही कुछ ऐसी जो रात को निर्जन सड़कों पर बेशुमार बिखरी रहती थी,जबकि पांच सितारा पार्टियां आभासी अँधेरे में, कोलाहल के साथ परवान चढा करतीं थीं.

Wednesday, May 15, 2013

नाच(फिर से)

(इसी शीर्षक की अपनी पहले की पोस्ट में कुछ याद आया तो और जोड़ दिया.अब ये नए रूप में आपके सामने हैं,आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.)


उसका नाच कितना अलग था ! एक बिंदु में आकर जैसे उसकी कमर समाप्त हो जाती थी और फिर देह उसी बिंदु के गुरुत्व केंद्र पर दो हिस्सों में बंटकर घूर्णन करती थी। तेज़, और तेज़, फिर तेज़ ! कटि के नीचे का भाग अलग घूमता लगता और उसके ऊपर का भाग भिन्न वर्तुल में घूमता था.नर्तन दो वृत्त में होता दिखाई पड़ता था.ये दोनों वृत्त अपनी तीव्रता बढ़ाते जाते और फिर उनमें से एक एक और वृत्त निकलता फिर उन सब में से एक और. इस तरह कई सारे वृत्त घूमते जो पहले एक दूसरे से दूर जाते पर नृत्य गति में जैसे जैसे और तीव्र होता जाता ये सारे वृत्त सिमट कर पास आते और अंततः एक हो जाते. लगता जैसे कोई अद्भुत त्वरा से घूम रहा है.  इस नाच की गति में तीव्रता से गोल गोल गोल घूमती आकृति का ही आभास होता था.ये उसके नाच का ही प्रभाव था कि देखने वाले को सिर्फ उसका नाच ही दिखाई पड़ता था और इस तरह अक्सर लोग खुद उसके बारे में भूल जाते थे.बस गोल गोल घूमती किसी आकृति का नाच.


उसका गोल घूमना किसी ज्यामितीय आकार में गणितीय सटीकता से किया हुआ दोहराव हरगिज़ नहीं था.फिर तो वो नाच न रहकर कोई चक्करदार क्रिया भर होती. पर नहीं, उसका नाच नाच था.ये सिर्फ गोल गोल घूमना भर नहीं था.कुछ ऐसा था जो किसी घुमते वृत्त को देखने की अभ्यस्त आँखों को अलग से खटकता था.एक ही आवृति की तरंगों में बार बार कोई व्यवधान सा महसूस होता था,जो उस पूरे रेशमी एकसार में कोई हलकी सी गाँठ सा था. और वो था नाच के वर्तुल में कम्पन की लहरें. जैसे सपाट ज़िन्दगी में दर्द की लहरें हो. पर ये कम्पन इतने बारीक थे, इतने 'सटल' थे कि उन्हें महसूस करने के लिए उसके नाच का पूरा दर्शन समझना पड़ता था. एक विराट झंझा में आलपिन की नोक से पैदा किया गया हस्तक्षेप. बस इतना ही.पर ये बस इतना ही उसके नृत्य को गरिमा प्रदान करता था.उसकी इस कांप से ही नृत्य नृत्य रहता था, किसी भौतिकीय पिंड का आघूर्ण नहीं.उसकी यही झुरझुरी उसकी देह के गोलाकार पथ में भागने से अलग थी.कोई मानवीय सीमा जो उसके नाच को पारलौकिक होने से रोकती थी और ये विश्वास दिलाती थी कि सच में हम किसी का नृत्य देख रहे हैं.हो सकता है उसकी देह की प्रत्यास्थता में कहीं कुछ काष्ठमय हो.हो सकता है उसके रिफ्लेक्सेज़ में कोई अनूठी बात हो या फिर ये, उसकी नाचती देह से अलग, कोई आकुलता  थी जो संभवतः उसके जीवन में घटी किसी घटना से उसे जोडती थी.नाचते नाचते उसे याद आया हो बुखार में तपता अपना बच्चा या बिटिया की कोई महँगी ज़िद.या अपनी कोई व्यक्तिगत पीड़ा जिसका उसकी देह की मांसपेशियों कोई वास्ता न हो.कहीं गहरे किसी कोटर में छुपा दुःख या उसके  अपने बचपन का कोई प्रसंग भी याद आया हो सकता है.नृत्य के यांत्रिक पक्ष से बिलकुल हटकर थे उसके नाच में कम्पन.तमाम भौतिकीय नियमों से परे.किन्हीं चुम्बकीय कम्पनों से भी अलग.एक हलकी सी थरथराहट. किसी निपुण और पेशेवर रक्कासा की लरज़ से बिलकुल अलग जो कृत्रिम सकुचाहट से इन्हें पैदा करतीं है.

एक कुशल नृत्यांगना की तरह वो भी नाच की निरंतरता में कई अवकाश ढूंढ लेती थी. अपनी घूमती देह को एक संतुलन पर टिका कर उससे हट जाती थी और उपलब्ध अंतरालों में अपनी स्मृतियों को खेलने का मौका देती थी.उन स्मृतियों का नृत्य वो अकेली देखती थी.दर्शक उसका नाच देखते थे और वो अपने विगत को.

घूमती देह खुद रुकना भूल जाती.देह स्वयं उसके ही सम्मोहन में होती.उसका सम्मोहन अपने आप नहीं टूटता.वो फिर लौटती थी नाच में.

नाच उसके गिरने पर ही समाप्त होता था. और ये नाच के दौरान रचे गए स्वाभाविक में सबसे असहज था. सृष्टि की गति के यकायक खो जाने जैसा. लय के टूटने की पीड़ा उपजाता. सब कुछ नष्ट करने के भाव से शुरू होता था नर्तन. पर धीरे धीरे किसी आदिम लय से एकाकार होता यूँ रंग में आता कि देखने वाला उसके कभी समाप्त होने की प्रार्थना में कातरता से बैठ जाता. पर उसका कोई तार्किक समापन हो नहीं सकता था.इस नर्तन की कारा से बाहर आने के लिए कांच की भित्ति को तोडना ही होता. यूँ चटखकर ख़त्म होता था नाच.असल में ख़त्म नहीं टूटता था नाच.और लगता कि इसके टूटते ही जैसे बचेगा नहीं कुछ. दुनिया जैसे उसके नाच पर ही टिक गयी थी. उसके वर्तुल में सृष्टि का पूरा वृत्त समा गया था.
नाच के दौरान उसमें जो स्थिर था वो उसकी आँखें थीं. अपना ही नाच खुद देख रही हो जैसे, अलग हटकर.देखते देह को उसके पागलपन से निकलते हुए. दीर्घा में औरों के साथ इस नाच को वो भी उतने ही अविश्वसनीय भाव से देखती. हर बार. कब ये नाच उसके पेशे से अलग होकर विशुद्ध अतीन्द्रीय हो जाता था इसे कोई नहीं चिन्हित कर पाया. और यूँ ये एक ऐंद्रिकता का भंवर ही था. देह का ही गान. उसी का उत्सव.
पता नहीं ये जगह कौनसी थी. हाँ ये पता था कि ये जगह कौनसी नहीं थी. ये घर,बाज़ार, टाउन हाल, होटल,समारोह-स्थल,मंदिर या ऐसा कुछ नहीं था. ये किसी फिल्म का सेट भी नहीं था. देखने वालों को इससे मतलब नहीं था कि ये कहाँ हो रहा था. वो अपना भूगोल खुद बनाती थी. और यूँ ये कहीं भी हो सकता था.
उसे आप सिर्फ एक नर्तकी नहीं कह सकते.