इस किताब को अनगिनत रंगों से लिखा गया है। पर इसका कोई भी रंग हमारे किसी कलर कलेक्शन में नहीं है। हैं इसमें भी हमारे देखे हुए रंगों से मिलते जुलते रंग ,पर वे सिर्फ मिलते जुलते ही हैं। इनकी छटा और चमक स्वप्न के रंगों की है।ये रंग ड्राइंग शीट पर सपाट आकारों में भरे रंग नहीं हैं बल्कि अपने प्रवाह और गतिशीलता से एक सचल संसार की निर्मिति करते है।फिर अपने ही बनाए लोक के बाहर भी अपने गाढ़ेपन के साथ बहते भी रहते हैं.
ये रंग हमारे गिर्द बहते हैं और हमें आवरित कर लेते हैं।सारे के सारे रंग जिस एक प्राइमरी रंग से निकले हैं वो है प्रेम। एक ही रंग प्रेम में रंगी, 'प्रेम-रंजित' होकर भी किताब एकवर्णी नहीं है, बल्कि यहां पूरा का पूरा विब्ग्योर है। बल्कि उससे भी पहले और परे को भी समाहित करती है ये किताब।
हर कहानी हमारे सामने एक दुनिया खड़ी करती है और हम उस दुनिया को चमत्कृत से देखते रहते हैं।और देखते देखते हम अपना कोण थोड़ा बदलें तो उस दुनिया के नए ही चित्राम हमारे सामने उजागर होते हैं।
अपनी रचनात्मकता में ये फंतासीलोक लगता है पर इन्हें छूकर या थोड़ा पलटकर देखें तो इसमें हमारी ही दुनियां नज़र आती हैं।प्रकारांतर से ये हमारी दुनिया पर लेखक का रंगावरण है। यूँ कह सकते हैं कि शायद हमारी अपनी दुनिया अपने स्वप्न में अपने आप को कुछ इस तरह का देखती होगी। इसमें भाषा अपने पूर्ण सौंदर्य के साथ दिखती है.
पूनम के चाँद में आलोकित कोई नदी जैसे किसी जगह बल खाकर अपने में बहती चांदनी को देखती हो। हर कहानी में कुछ कुछ ऐसे ही चाक्षुष बिम्ब लड़ियों में टंगे लगते हैं। और जब हम मानने लगते हैं कि सब कुछ चांदनी में नहाया, रूप-मुग्ध है तो आगे अचानक आई धूप में जैसे हमारी ही दग्ध दुनिया में आगे की कथा लौट आती है।चांदनी और धूप दोनों का दाह बराबर पर तासीर में एक दम भिन्न होने के कारण हम स्वप्न और जाग में डूबते उतराते रहते हैं।
इस किताब में इस तरह की दर्शनीयता का जादू इतना लम्बा है कि हम ये मानते रहते हैं कि कहानियां भले ही छोटी छोटी और अलग अलग हैं पर वे एक मधु-ताल में बहते नीले पात हैं जो मद्धम मद्धम एक ही दिशा में बह रहे हैं।
सब कहानियों पर,खैर ये बात लागू नहीं होती। क्योंकि संग्रह में कई कहानियों हैं जो अलग अलग समय में लिखी गयीं हैं और इन पर अलग अलग चर्चा और तवज्जो की दरकार है। जो सही में इनके साथ न्याय भी होगा।
आकुल,तड़प से भरा,क्रुद्ध,हिंस्र,डबडबाया,मानवीय,दिव्य,वनैला सब तरह का प्रेम इसके पन्नों पर बिखरा है। कहीं नदी की धार में बहते चाहना के नीले दुपट्टों में असल कहानी के शुरू होने का इंतज़ार है,तो कहीं प्रेम में आत्मपीड़न के तीव्र आवेग को उलीच दिया गया है। कहीं वनगन्ध की स्मृतियों को पुकार है,तो किन्हीं पन्नों पर दवात से लुढ़का पड़ा नीला नास्टैल्जिया है। हम चाँद को यहां कई कई बार सिर्फ छूने लायक फासले पर पाते है।
कितनी छोटी फिर भी कितने बड़ी हैं कहानियां।तहों को में लिपटी कहानियां। तहों को खोलने के लिए कई कई बार कहानियों को पढ़ना होगा। इन कहानियों की भाषा में भी वैविध्य है। इनमें कुछेक में अंगिका का लालित्य भी है।
आखरी कहानी इस संग्रह की आखरी कहानी ही हो सकती थी। लेखक कहानियों की मोहिनी रचते रचते इस कहानी के इंद्रजाल में खुद भी आ जाती हैं। एक पात्र की तरह जैसे। खुद लेखक का ही रचा।
एक खूबसूरत, वास्तविक सी लगती दुनिया में लेखक की कलम के पात्र जुड़ जाते हैं और ये सब कुछ इतना सीमलैस है कि रचनाकार के लिए असंभव सा हो जाता है कि वो चयन कर एक परिधि खींच सके। इसमें यही स्वाभाविक है कि जो कुछ रचित है वो भी वास्तविक है क्योंकि उंसकी भी मन पर वैसी ही छाप पड़ती है जो अनुभूत की होती है।
प्रूफ की अशुद्धियाँ अखरतीं नहीं पर इनसे बचा जा सकता था।
कहानी संग्रह- तीन रोज़ इश्क़
लेखक - पूजा उपाध्याय
प्रकाशक- पेंगुइन इंडिया
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