" श्री गोपीवल्लभ विजयते"
प्यारी सुगना,
मधुर याद.
श्री कृष्ण कृपा से मैं यहाँ ठीक हूँ और तुम भी घर पर प्रभु कृपा से सानंद होंगी.मेरा मन तो बहुत कर रहा है कि पत्र के स्थान पर स्वयं उपस्थित हो जाऊं पर एक सेठ का मुनीम होना कितना ज़िम्मेदारी का काम है ये मैं पिछले देस-प्रवास में तुम्हे बता चुका हूँ. काम गाँव भर का और पगार धेला. वहीं सेठ के पास काम धेले का नहीं और माया अपार. वैसे अन्दर की बात ये है कि इस सेठ की नाव डूब रही है. मैं ये बात सेठजी को बता भी चुका हूँ पर लगता है मामला अब उनके बस का नहीं. देनदारियाँ भारी पड़ रही है.
ये मैं क्या बातें ले बैठा,पर बताना भी ज़रूरी है आखिर मुझे भी नई नौकरी तलाश करनी पड़ सकती है.कभी कभी सोचता हूँ सब छोड़ छाड़ के देस आ जाऊं.
यहाँ तो मैं लाल जिल्द वाली बही के पीले पन्नों में भी तुम्हारी छवि ही देखता हूँ,भगवान् झूठ न बुलवाए. पर दो ननदों, देवर शिवानन्द, सास,ससुर के साथ नैनू बेटे के भरे पूरे घर में रहते तुम्हे क्यों भला मेरी याद आएगी?
नैनू पहाडे सीख रहा होगा. पिताजी उसे डेढे और ढाईये भी अच्छे से याद करवा रहे होंगे. एक कामयाब मुनीम के लिए ये बहुत ज़रूरी है. मैंने भी बचपन में ये सब सीखा था.
इस बार यहाँ मेह इतना बरसा कि कांकरिया सेठ की पेढी डूबने के नौबत आ गयी थी पर वहां देस में छींटे-छिड्पर भी कहाँ!आदमी तो जैसे तैसे गुज़ारा कर ले पर गउओं का क्या होगा? भगवान् भलीस करेंगे.
पिताजी के मस्से ने उन्हें खूब परेशान कर रखा है. यहाँ एक आयुर्वेदिक दवा जानकारी में आई है, समय रहते भेज दूंगा. मां का स्वभाव थोडा तेज़ है पर तुम जानती हो वो शिवानन्द की चिंता में आधी हुई जाती है.मैं स्वयं शिवानन्द को लेकर बहुत आशंकित हूँ. भगवान् भलीस करेंगे, अगर वो पिताजी से विवाह-संस्कार विधि ही सीख लेता तो कोई संस्कारी परिवार अपनी कन्या देने आगे आ सकता था. आगे मर्ज़ी साँवलिए की.
बहनों की ज़्यादा चिंता फिकर नहीं है. गाय दुहना सीख गयी हैं,पापड बनाना भी सीख जायेंगी. तुम स्वयं इस विद्या में पारंगत होकर आई हो सो तुम्हारा ज्ञान उन्हें यहाँ उपलब्ध हो सकेगा.
और यहाँ सब ठीक है वहां मोहल्ले में भी सब बढ़िया ही चल रहा होगा.प्रभुलाल की औरतों के बीच पंचायती की आदत गयी नहीं होगी.क्या आदमी है! दिन रात औरतों के बीच. अब बुद्धि कहाँ से आएगी, बारह ही नहीं आई तो बत्तीस क्या आएगी.राह चलते औरतें भी दूसरी के बारे में उसी से पूछती है. महिलाओं का मुखबिर. और... वो दामोदर, वो आज भी लोगों के घरों में तांका झांकी करता होगा. सुबह हुई नहीं और घर की छत से लोगों के आँगन में झाँकने लग जाएगा. कुछ कहो तो झगडे पर उतारू. अब उससे कौन झगडा और निवेडा करे.खैर इन लोगों के बारे में बात न ही की जाय तो अच्छा. मंदिर में अपने घर की ओर से मनोरथ करवाया होगा इन दिनों. पुजारी वैसे तो कंजूस है प्रसाद देने में पर उसका तो क्या किया जा सकता है?उसको खाने दो.
और घर में काम ठीक ही चल रहा होगा अभी यहाँ भी पगार तीन महीनों की बाकी है.गोरकी गाय दूध ठीक दे रही होगी.मां की तरह उसका भी स्वभाव तेज़ है पर है तो गऊमाता ही.
चलो बहुत बातें हो गयी अब चिट्ठी यहीं समाप्त करता हूँ.और हाँ वो चित्रित किताब तुम्हारी शादी के वेश वाले बक्से में ही है न? किसी के हाथ न लग जाय. यहाँ बम्बोई में चारों तरफ पानी है देखता हूँ तुम्हे दिखा पाता हूँ कि नहीं.
सबको यथाजोग.
अगर यह सचमुच की चिठ्ठी है तो पुराने जमाने का अच्छा पीस आपके पास है। और अगर आपने अपनी सृजनशीलता से इसे लिखा है तो यह कमाल का टुकड़ा है। इसे संभालकर रखिएगा। किसी दिन आपका कोई संग्रह प्रकाशित होगा तो हीरे की तरह उसमें जड़ सकेगा।
ReplyDeleteपता नहीं दिल कैसा-कैसा हो रहा था पढ़ते पढ़ते।
क्या कहूं। बस इतना ही...
बहुत सधा हुआ और उम्दा!
ReplyDeleteहमारी पत्र लेखन शैली में उपस्थित रहे सुख दुःख खो चुके हैं, अब तो पत्र मात्र सूचना और स्पष्टीकरण बन कर रह गए हैं .
ReplyDeleteव्यास जी, अब इस का उत्तर भी लिख दो... शैली ठेठ भौजाई वाली रहे... बस... मजा आ जायेगा....
ReplyDeleteयह प्रेमपत्र लाखों परिवार को एक आईने में उतार देता है इसमें प्रेम है, विरह है, सुख है, दुःख है, अन्तराल है, इंतज़ार है, विवशता है, मजबूरी है... जो इसमें अनकहा है वो सबसे सुंदर और प्रभावशाली है...
ReplyDeleteसुंदर बना पड़ा है. आनंद आ गया. अगली कड़ी का इंतज़ार.
ReplyDeleteइन्ही किस्म के पत्रों से अपने हिस्से का प्रेम ढूंढ कर निकाल कर रख लिया जाता था ...तब पड़ोस मोहल्ला ...ओर ..घर आदमी की दुनिया का बड़ा हिस्सा थे ....आपने खाका खीचा है उस दुनिया का...
ReplyDeleteअरे, यह प्रेम पत्र नहीं एक घर-बाहर में रचे बसे की जबरदस्त रचना है। सच्ची बताना मित्र कहीं से हाथ लग गई यह बहुमूल्य कृति या आपकी ऑब्जर्वेशन है।
ReplyDeleteआपकी लेखनी की सशक्तता जानता था, अब वह सोच और पुख्ता हो गई है!
यूँ दूसरे का प्रेम-पत्र पढना तो नहीं चाहिए था पर ब्लाग पर हर पोस्ट ठेली ही इसीलिए जाती है कि लोग पड़ें और टिपण्णी करें, सो पढने कि गुस्ताखी कर बैठा.
ReplyDeleteभाई मानना पड़ेगा, जिसने भी लिखा, गज़ब कि भाषा शैली पाई है उपरवाले से, इतना बढ़िया पत्र तो हम आज तक न लिख पाए न ब्लाग पर ठेल पाए...............
बधाई, बधाई, बधाई..................
अपने ही बड़े होने के स्थान, आत्मीय संसार को थोडा पीछे खींच कर देखने की कोशिश को जिस तरह आपने स्नेह-प्रेम दिया है,उसके लिए शुक्रिया. तहे दिल से. जोर देकर और सघोष.
ReplyDeleteदीपचंद अब सिर्फ मेरी सर्जना नहीं रह गया है लगता है कोई बहुत ढंग से देखा गया कोई बुजुर्ग.
आभार आप आत्मीय जनों का.
बहुत अच्छा !
ReplyDeleteआपके उपन्यास का इन्तजार है ! शायद भाषा के स्तर पर कोइ नयी बात मिले! अभी सिर्फ भाषा पर रुका हूँ इसका मतलब ये नहीं की आपके भाव - विचार का कायल नहीं ! उस पर फिर कभी !
व्यासजी,
ReplyDeleteअप्रतिम पत्रात्मक कथा-कृति ! पुराने किसी ख़त से झांकता घर-परिवार--एक पूरा संसार ! कथा के अनुरूप अनूठी भाषा-शैली ! परिवेश और प्रगाढ़ संबंधों की चिंता, विछोह की पीडा का अद्भुत दस्तावेज़. इस कथा की पंक्ति-पंक्ति में भावों की मीठी अनुगूंज है. आपकी भाषा-शैली की दक्षता प्रभावित करती है... sapreet ...
काफी पसन्द आया ,आप का यह प्रेम पत्र,जीवन के जद्दोजहद में जूझ रहे आम इन्सान के सच्चाई को बंया करता हुआ.
ReplyDeleteगुनगुनाते हुवे लिख दिया आपने ....सहज शब्दों में ...!!
ReplyDeleteप्रेम पत्र के माध्यम से एक कालखंड की झलक दिखला दी....आज के दौर में जो तकनीक के संसाधन आगये है हम प्रेम पत्रों को भूल गए है...संचार और परिवहन के साधन बढ़ने से जीवन शैली में जो तेजी आई है उससे कितनी संवेदनाएं पीछे छूती है इसका अहसास इस पत्र के माध्यम से आपने करा दिया है..
ReplyDeleteसंजय जी , पत्र पढ़कर गाँव की याद आ गई.... सातवे - आठवे दर्जे में पढ़ते वक़्त अक्सर ऐसे पत्र पढ़कर सुनाता था...
ReplyDeleteवैसे तो दूसरों के पत्र नहीं पढने चाहिए ...संस्कारों में तो यही पाया था ...पर जब आपने ही जग जाहिर कर दिया तो पढने की इच्छा तो होती ही है ...अब तो पत्र लिखने की प्रथा का समापन सा ही हो चला है ...परन्तु आपने इसे लिखकर यादों को जीवित कर दिया ...अपनों के हाल चाल पूछने का तथा इन पत्रों को सहेज कर रखने और फिर कुछ सालों बाद उन्हें पढने का मज़ा ही अलग है ...जैसे लैपटॉप में सहेजे हुए फोटो और एल्बम में चिपके फोटो में फर्क है ...इन पत्रों में भी फर्क है ....इन यादों को सहेज कर रखिये ...
ReplyDeleteचिट्ठी क्या है पूरा उपन्यास है या फिर किसी खोये ज़माने का इतिहास है, बधाई!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteSanjay ji
ReplyDeletewhat a write-up!!!
dil ko chu gaya..
Neelesh
Reminded me of the old days when our only touch with the loved ones staying away was through letters.
ReplyDeleteAttempted writing a short story. Please let me know what you thought of it.
अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteE-mail aur sms ke jamane me patr apni prasangikta kho chuke malum padte hain. Par patr me jo apnapan aur sondhe rishton ki mahek hoti hai wo bazar me to nahin mil sakti?
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