लालटेन की अभिशप्त रौशनी में अँधेरा अधिक स्याह होकर सामने आता
है.उसकी लौ की भभक मानो उचक उचक कर अपनी ही पैदा की गयी चमक को
निगलती है. उसे उजाले की दुनिया से निष्कासित कर दिया गया है.वो रौशनी का मिथ्याभास है.उसकी आड़ में अँधेरे को वाचाल होने का अवसर मिलता है.वो आसानी से अपने छल पर
लालटेनी रोशनी की बारीक चादर ओढा देता है. और तब अरसे से ज़मींदोज़ हुआ खंडहर भुतहा
लगने लगता है.लालटेन की रोशनी इतनी सुदूर है कि उस तक पहुँचने के लिए ठोस अन्धकार
को भेदना ज़रूरी है. और इतनी निशक्त कि घर के किसी कोने में टंगी होने पर उसे एक
बेचारगी भरा व्यक्तित्व प्रदान करती है.एक स्त्री लालटेन को उठा कर अपने चेहरे के
करीब लाती है तो लालटेन उसके युवा चेहरे को झुर्रियों से भर देती है..
उसके कांच के गोले के ठीक बाहर अँधेरे का ठंडा बियाबान है.
किसी भूत को देखने का दावा करने वाला पहला और अब तक का आखरी
शख्स जिसने ये दावा सीधे खुद मुझसे किया हो,मेरी दादी थी.उसने इसी लालटेन की रौशनी
में रात के तीसरे प्रहर में किसी मणि बेन को देखा था जिसके बारे में अगले दिन पता चला
कि वो तो इलाज के लिए शहर गई हुई थी और जिसे मेरी दादी ने लालटेन के भ्रमित करने
वाले आलोक में देखा था वो उसकी बरसों पहले मर चुकी दादी थी जिसकी हूबहू शक्ल लेकर
मणि बेन पैदा हुई थी.सच तो जो था वो था पर उसे भी लालटेन सीधा और सपाट नहीं रख पाई.
भूत देखने का ये अनुभव इतना व्यक्तिनिष्ठ था कि अंततः किसी भी विपरीत तर्क से
मुक्ति पाने के लिए मेरी दादी ने इस सिद्धांत की घोषणा ही कर डाली कि ‘दो
लोग एक ही भूत को एक ही जगह एक साथ नहीं देख सकते’.पर खैर उसकी
जिंदगी में ‘लालटेन के परिमित-आभासी-उजाले में किसी परिचित चल-आकृति का हमेशा
होना’
बना रहा.उजाले को इतना उजाड़ पाना बहुत बड़ी त्रासदी है जो बारिश की नम रात में
लालटेन के एकाकीपन को कभी कभार अपनी प्रदक्षिणा से भंग करते कीट से और बढते महसूस किया
सकता है.अपने इस एकांत में बिसूरती, डूसके भरती लालटेन इतनी पस्त है कि वो दिन
उगने का इंतज़ार करती है जिससे कि वो अपने रौशनीनुमा ‘कुछ’ को
तिरोहित कर थोड़ी देर चैन की नींद सो सके.
एक लालटेन हमारे नाना के पास भी थी.......
ReplyDeleteऔर उन्हें भी पड़ोस के जैन मंदिर की दीवार पर कोई ....दिखती थी.....
बस फर्क इतना है कि हमारे नाना नेत्रहीन थे....
सच्ची बड़ा डरते हम थे तब..
:-)
सादर.
अपने मतलब का जी लेना, यह सिद्धान्त प्रतिपादित करती है लालटेन।
ReplyDelete'वो रौशनी का मिथ्याभास है.उसकी आड़ में अँधेरे को वाचाल होने का अवसर मिलता है.'
ReplyDeleteपरिभाषा बड़ी आकर्षक बन पड़ी है... और सच भी तो यही है!
लालटेन के बहाने अँधेरे और उजाले को बहुत खूब लिखा आपने!
सादर!
‘लालटेन के परिमित-आभासी-उजाले में किसी परिचित चल-आकृति का हमेशा होना’ बना रहा.उजाले को इतना उजाड़ पाना बहुत बड़ी त्रासदी है .....
ReplyDeleteलालटेन पर इतना गहन लेख ....
एक अजीब सी अनुभूति दे रहा है ....
पढते पढते लालटेन ही दिख रही थी ....अँधेरे में हिलती हुई ...
सशक्त आलेख ...
बधाई एवं शुभकामनायें ....!!