उसकी स्मृतियों में जिस कीट की फड़फड़ाहट सबसे ज़्यादा थी वो जुगनू था।उसकी स्मृतियों में जिस दिये का उजाला सबसे ज़्यादा था वो जुगनू था।उसकी स्मृतियों में देर शाम गाँव के जिस तालाब का पानी झिलमिलाता था उसमें क्षीण कौंध जुगनू की थी।
उसकी याद में उमस भरी हर रात में ऊपर बादलों से रिसती सितारों की हलकी रौशनी थी तो उसी रात ज़मीन पर जुगनुओं की हल्की दिप दिप भी।
और फिर भी उसने जुगनुओं को कभी देखा नहीं था। सच में उसने जुगनुओं को कभी नहीं देखा था। बावजूद इसके, अगर स्मृतियाँ भौतिक तुलाओं से तौली जा सकती, तो उसकी स्मृतिओं के कुल भार का कई तोला जुगनुओं के हिस्से था और और यदि स्मृतियाँ बड़े तराजुओं से तुलती, तो कई सेर भार जुगनुओं का था उसके भीतर।
और अगर स्मृतियों से कोई गाँव बसाया जा सकता, उसमें जुगनू उस गाँव के बड़े से तालाब के जल में वैसी ही हल्की चमक से कौंधते।
बड़ा मुश्किल होता है सोचना कि हमारे स्मृति लोक में ऐसी भी कोई चीज़ हो जिसे हमने अभी तक देखा न हो और उससे भी मुश्किल होता है ये सोचना कि उसका वज़न और आकार भी इस कदर बड़ा हो।
वो इस कीट के बारे में अक्सर सोचता रहता था। मतलब जब भी मौका हाथ लगता।और इस नाम के दिमाग़ में आते ही एक जलता बुझता सा चित्र भी उसके दिमाग में बनने बिगड़ने लगता। जुगनू की छवि उसके दिमाग में स्थिर कभी नहीं हो पायी। वो हमेशा बनती बिगड़ती रहती थी। कभी उस छवि में बेहद नन्हा सा कीट होता जो एक चमक को लिए मंडरा रहा होता, कभी सिर्फ रौशनी का नन्हा सा घेरा ही उस छवि में दीखता। इस घेरे की रौशनी दीवाली पर छूटती रंगीन दियासलाई की धुएँदार ऑलिव ग्रीन रौशनी की तरह होती।
जुगनुओं के बारे में पढ़ने से या गल्प कथाओं में रखी किसी बोतल में इन्हें चमकते देखने से ये रिश्ता नहीं बना था। अगर ऐसा होता तो उसकी स्मृति में हमिंग बर्ड,पांडा या कोई कीटभक्षी पौधा भी इसी तरह की जगह अख्तियार किये होता। किन्ही अदेखी सुन्दरताओं के बारे में सोचने भर से स्मृति के पात्र में उनका आयतन नहीं बनने लग जाता। सिर्फ सोच कर उन्हें स्मृति के अंश नहीं बनाया जा सकता।चीज़ें हमारी स्मृति की दलदली भूमि में धँसकर मैंग्रोव की तरह बाहर फूटती हैं तब कहीं जाकर एक जैविक रिश्ता बनता है।
उसकी स्मृति में जुगनू रौशनी की मूल इकाई की तरह से थे शायद। उसके लिए रौशनी का मतलब जुगनू से था। वो रौशनी को जुगनुओं से ही मापने लगा था। एक दिए की रौशनी यानी एक हज़ार जुगनू। एक बल्ब की रौशनी दस हज़ार जुगनू। दीवाली की रात पूरे ब्रह्माण्ड के जुगनू धरती पर उतर आया करते थे।
उसकी स्मृति में जुगनू थे। वो स्मृति को जुगनुओं के सहारे देखता था। यद्यपि उसने जुगनू कभी देखे नहीं थे।
बहुत सुन्दर! यह शब्द भी जुगनू हैं और इनकी रौशनी कितनी दूर तक …
ReplyDeleteशुक्रिया नीरा जी.
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, संघर्ष ही सफलता का सोपान है - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसुंदर !
ReplyDeleteथैंक्स.
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ReplyDeleteमन की सतह को हौले से स्पर्श करती यह रचना. ऐसे जैसे किसी बेहद मुलायम और नाज़ुक पंख ने गालों को छू लिया हो और हम उसके छू के चले जाने के बाद उससे मिलने वाले आनंद को महसूस रहे हों.
ReplyDeleteशुक्रिया अनिल भाई.
Deleteगुस्ताखी माफ़ की जाये...
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उसने उस लड़की को पहली बार इक गहरी काली रात देखा था...मूसलाधार पानी में वो दौड़ती हुयी आँगन पार कर आई थी...उस वक़्त उसे वो इक परछाई जैसी ही लगी थी...ओसारे पर रखी ढिबरी उसने फूँक मार कर बुझा दी और बस, वो रौशनी उसकी आँखों में बंद हो गयी...उस दिन पहली बार उसने सोचा कि उसकी आँखों की चमक ज़िंदा है...
उसने जब से जुगनू नहीं देखे थे तब से भी उसे मालूम था कि लड़की की आँखों में जुगनू रहते हैं.
सबलाइम.
Deleteबेहद खूबसूरत और छू लेने वाली रचना।
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