Sunday, March 7, 2010
नींद में, उससे बाहर
ढाबे पर बस रूकती है. ये रात की बस है जो एक छोटे शहर से लगभग महानगर को जोडती है. ढाबे की चारपाई पर बैठकर खाई गयी रोटियाँ और तीखी सब्ज़ी बेस्वादी लगती है.शायद असमय या 'कुवेला' इसका कारण हो. बहुत कम लोग उतरे हैं यहाँ. ज़्यादातर बस में और नींद में हैं. जो लोग उतरे हैं वे भी किसी ट्रांस में चलते हुए लगते हैं.सबसे सजग ढाबे का मालिक है जो अपने चरम साहूकार रूप में नज़र आता है. काम करने वाले लड़के नींद से बीमारी से और ज़िन्दगी से लड़ते हैं. नींद तब भी उनके पास मंडराती है उनके लिए कुछ सपने शायद साथ लाई है. पर बच्चे उसे परे झटकते हैं.ढाबे की सिस्टर कंसर्न एक पान की दूकान है.जिसमें एक गोविंदा पर फिल्माया गाना फुल वोल्यूम पर चल रहा है.रात के इस वक्त यहाँ सवारियों में कई तो इसलिए उतरी है कि पेशाब का मौका अब आगे नहीं मिलेगा और लगे हाथ चाय भी पी लें.
इस उमस और ढाबे की तेज़ रौशनी में बड़े बड़े टिड्डे प्रणय- उड़ान भर रहे हैं। उनकी एकमात्र इच्छा सब कुछ हैरत अंगेज़ करवा रही है.इससे बिलकुल अप्रभावित लोग चाय पी रहे हैं.
एक युवती क्यों अपने शयन को छोड़ यहाँ उतरी है? हमारे श्रीमान जी को इस कुसमय में कुछ नहीं सुहा रहा पर दिमाग में हार्मोन का वेग टिड्डों से टक्कर लेने लग गया है. युवती वापस बस में चढ़ गयी है. श्रीमान जी की प्रणय उड़ान की भी इसके साथ ही क्रेश लेंडिंग होगयी.
कुछ ही देर में बस ढाबे की आक्रामक रौशनी को छोड़ फिर से मखमली अँधेरे में घुसी जा रही थी. नींद फिर सभी सीटों पर पसर रही थी।ऐसे में धीमी धीमी आवाज़ में ' ओ गाडी वाले गाडी धीरे हांकना ' सुनना सुकून भरा था.लगता है ये ढाबे वाला स्टॉप कोई बुरा सपना था. बस में सोये यात्री कितने मासूम लग रहे थे ! विश्वास करना मुश्किल है कि सुबह ये नींद और मासूमियत की केंचुल यहीं छोड़ जायेंगे.
पर शायद कुछ इनमें भी बचे रहेंगे इसी चेहरे के साथ. कल सबसे ज्यादा ठोकरें इन्हीं के खाते में लिखी है.
( photo courtesy - wikimedia )
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एक रोजमर्रा की घटना को ताज़गी के साथ और कुछ दार्शनिक चिन्तन के साथ सजोया है.
ReplyDelete.तो वो बस यहाँ ढाबे पर आके रुकी जो लय में थी.पंजाबी में भी कुवेला' को कुवेला' ही कहते है..
ReplyDeleteise thoda or vistaar diya ja sakta tha..bus ke saath sath kahani badh leti to or mazaa aata. baharhaal ye bhi swikarya.. badhai
ReplyDeleteउनकी एकमात्र इच्छा सब कुछ हैरत अंगेज़ करवा रही है.
ReplyDeleteपता नहीं क्यों इन पंक्तियों में फ्रायड की फेल हो चुकी साइकोलॉजी की झलक दिखाई दी...
हम किसी सपने से जागते हैं और फिर उसी में लौट जाया करते हैं. वाह !! सबसे बेहतर ये कि लघुतम सन्दर्भों को चित्रित करने का आपका हुनर बहुत भाता है. सिद्धार्थ जोशी की बात भी फौरी तौर पर उचित जान पड़ती है मगर फ्रायड की स्थापनाओं को अधुनातन वैश्विक दवाब से इतर समझना होगा.
ReplyDeleteविश्वास करना मुश्किल है कि सुबह ये नींद और मासूमियत की केंचुल यहीं छोड़ जायेंगे.
ReplyDeleteपर शायद कुछ इनमें भी बचे रहेंगे इसी चेहरे के साथ. कल सबसे ज्यादा ठोकरें इन्हीं के खाते में लिखी है.
meri buddhi yahin atak gai hai....
किसी ट्रांस में चलना.
ReplyDeleteकाम करने वाले लड़के नींद से बीमारी से लड़ना.
और अंतिम दो पंच लाइन. बेहतरीन...
एक ढाबे के पड़ाव पर बिखरी जिंदगी और गंदगी को बुहार लेना ...
ReplyDeleteशब्दों के ढेर से सच्चाई के पत्थरों को चुन पानी से धो देना...
इस रचना की सफ़लता इसी बात से आँकी जा सकती है कि पढ़ते पढ़ते रात के सफ़र के ऐसे कई लम्हे सजीव हो कर आँखों के सामने से तैर गये..और वो सारी अनुपेक्षणीय बातें भी जो ऐसे सफ़र के साथ नत्थी होती हैं मगर नजर नही आतीं..
ReplyDeleteयहाँ पर ’बस’ एक सेतु सी प्रतीत होती है जो कस्बे को महानगर से, रात को सुबह से, गोविंदा के चटपटे गाने को कामगार बच्चों के जीवन की कठोरता से, स्वप्न को यथार्थ से,एक कीट की प्रणय-कामना को सभ्यता के लबादे मे लिपटी वासना से, और रात की अंधेरी मासूमियत को दिन के छल-कपट भरे उजाले से जोड़ती है!! यहाँ पर बस भी जीवन के एक ’ट्रांस’ की तरह लगती है और वह ढाबा रात के गहरे अंधेरे समंदर मे छोटे टापू की तरह ...
और बच्चों का यह यथार्थ-
नींद तब भी उनके पास मंडराती है उनके लिए कुछ सपने शायद साथ लाई है. पर बच्चे उसे परे झटकते हैं.
अंत मे ’गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे’ रात के इस जादुई सफ़र के नशे को गहरा कर जाता है..और गहरा...
एक असमय की छुट्टी के बाद अपने प्रिय ब्लोगों को पढना ....सकून सा देता है .....कामकाजी दोपहर में तुम्हारे कुछ विम्ब मुस्कराहट दे गए ....खास तौर सेये
ReplyDeleteहार्मोन का वेग टिड्डों से टक्कर लेने लग गया है
शुक्रिया संजय ....इस कम्प्यूटरी दुनिया में .बने रहने के लिए ओर इसे ओक्सीज़न देने के लिए
सुकून देता है आपको पढ़ना ! खूबसूरत ।
ReplyDeleteshayd ise hi kehte hain
ReplyDeletesaargarbhit...bahut hi achha aur touching lekh...padh kar kuch soch rahi hun...par pata nahi kya
छूट गयी पोस्टों को पकड़ने की मुहीम और इनमें ये खास "संजयव्यासशैली" वाली बस-यात्रा।
ReplyDeleteगोविंदा के गाने का बिम्ब या टिड्डों के प्रणय-क्रीड़ा के जरिये नायक का युवती के लिये उकेरा गया भाव-पक्ष...जाने कितनी ही अपनी बस-यात्राओं की याद दिला गया। ढ़ाबे के लड़के मिचमिची आंखों से परोसते हुये आर्डर को...रात की उमस...सिस्तर कंसर्न वाली पान की दुकान...you are amazing sie jee...
और जन्म-दिन की उस खास शुभकामना के लिये आभार!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकेंचुल बदलने वाली बात और नादान को ठोकरें, कितना सही कहा है आपने. आम लगनेवाली बस यात्रा आपके शब्दों से बहुत खास हो गयी है.
ReplyDeleteआज ही आपके ब्लॉग का लिंक किशोर जी ने दिया. लगता है किशोर जी मुझे और दो रात सोने नहीं देंगे. शुक्रवार और शनिवार की रातें किशोर जी का ब्लॉग पढते निकल गयीं थी. अब आपका ब्लॉग पढ़ने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूँ.
रिगार्ड्स
मनोज खत्री
alfaj ka apna chunav rachav behad jahan sheel hai ...khushi huwi apki rachna padkar ..aapke andar gahrayi hai jo apke asrar me jhalakti hai
ReplyDeletesukriya