Wednesday, March 17, 2010
रोंडेवू
न पहुंचे हो जहां
दुस्साहसी यूरोपीय यात्रियों के कदम
या थम गया हो जहां
सदैव चलता बौद्ध भिक्षुओं का जीवट
घंटों थिर रहने वाला
योगियों का प्राण भी
जहां काँपता हो
जिस जगह अभी अभी उर्वर हुई
धरती का हरापन ही साक्षी हो
मैं वहीं मिलना चाहता हूँ
इससे पहले कि
कोई कीट पहुंचे वहां
और बाकी दुनिया में
भन्नाता पहुँच जाए कानाफूसी करने।
मिलना चाहता हूँ ऐसी ही किसी जगह
और बचाना उस चरम निजी पल को
जो सुरक्षित रखा जा सके
अभेद्य खोल में बीज की तरह
सतह से कई हाथ नीचे
शताब्दियों बाद ही
नमी और उमस से
किसी गाथा वृक्ष में
फूटने के लिए।
आने वाली संततियां जब
अपने पूर्वज के रूप में
किसी पौराणिक ऋषि से
मुझे विस्थापित कर दे
तो इसी गाथा में
बचा रह जाऊं मैं।
( image courtesy - Torley )
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Ultimate !
ReplyDeleteSuperb !
Bhai Jaan aapki kavita padhkar dil khush ho jata hai.
अजीब बात है के इन दिनों कविताओं का मौसम है .किसी दोस्त ने कविताओं की दो किताब भेट की है ,..........शाम को सरसरी से एक नज़र विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता पर पढ़ी थी.......कंप्यूटर खोला तो लगभग . उन्ही पहाड़ो को कमोबेश अपने अंदाज से याद करते हुए आपको पाया .कविता कुछ यूँ थी
ReplyDeleteपहाड़ को बुलाने
'आओ पहाड़' मैंने नहीं कहा
कहा 'पहाड़, मैं आ रहा हूँ।
पहाड़ मुझे देखे
इसलिए उसके सामने खड़ा
उसे देख रहा हूँ।
पहाड़ को घर लाने
पहाड़ पर एक घर बनाऊंगा
रहने के लिए एक गुफ़ा ढूँढूंगा
या पितामह के आशीर्वाद की तरह
चट्टान की छाया
कहूंगा यह हमारा पैतृक घर है।
कितना सबकुछ बचने की कोशिश कर रहे हैं हम !!! कितना सबकुछ बचने का जिम्मा है हम पर...
ReplyDeleteबेहतरीन !!!
ReplyDeleteगुलमोहर का फूल
संजय भाई बड़ी मोहक कविता है. मेरी उम्र चालीस का आंकड़ा छूने को आतुर है और ऐसे में मेरे बिखरे बिखरे से विचारों का सिमटा हुआ ठोस रूप है आपकी कविता.
ReplyDeleteगल्प और कल्पना से परे ज़िन्दगी के अनुभवों से उपजी प्रार्थना सी है. इसमें मुझे एक ऐसा विश्वास दिखाई दिया कि दुनिया कई सौ सालों तक और बची रहेगी और हमारे होने के बारे में बांचा जायेगा भले ही वह अपभ्रंश हो चुका हो.
इस कविता से प्यार हुआ.
"रोंडेवू"
ReplyDeletejitna sundar sheershak
जिस जगह अभी अभी उर्वर हुई
धरती का हरापन ही साक्षी हो
मैं वहीं मिलना चाहता हूँ
utni hi pavitra umeed...
मिलना चाहता हूँ ऐसी ही किसी जगह
ReplyDeleteऔर बचाना उस चरम निजी पल को
जो सुरक्षित रखा जा सके
अभेद्य खोल में बीज की तरह
सतह से कई हाथ नीचे
शताब्दियों बाद ही
नमी और उमस से
किसी गाथा वृक्ष में
फूटने के लिए।
BEHATAREEN PRASTUTI SANJAY BHAI
आने वाली संततियां जब
ReplyDeleteअपने पूर्वज के रूप में
किसी पौराणिक ऋषि से
मुझे विस्थापित कर दे
तो इसी गाथा में
बचा रह जाऊं मैं।
सुन्दर!
बढ़िया है।
ReplyDeleteस्तब्ध हूँ!शब्दों में दबे अर्थ से ...
ReplyDeleteपढ़कर ज़हन में हुई अनुभूति से...
कविताओ का मौसम...! हाँ मुझे भी यही लग रहा है..
ReplyDeleteइस कविता को समझने के लिए मुझे शायद संजय व्यास बनना पड़ेगा.. तभी मैं आपके अन्दर तक उतर कर ध्होंध साखू वो बिंदु.. कि जहा से कविता का जन्म हुआ है.
रेंडेवू बड़ा ज़हरीला और आकर्षक शब्द रहा है मेरे लिए. किशोरावस्था मे मेरी कोई 'डॆट' नहीं थी. तो कुछ गहरे में रिग्रेस्स कर गया था शायद.प्रकट में इस श्ब्द से बचता रहा, भीतर ही भीतर एक खौफनाक रेंडेवू तलाशता हुआ. कुछ ऐसी ही जगह..... संजय तुम इस युग के परम प्यासे भक्त हो .....और वह अगर् आएगा जिसे मुंतज़र, कल्कि, मैत्रेय , कहा गया है ...तो सब से पहले तुनम्हारे पास आएगा. मैं खुश किस्मत हूँ कि यह कविता मुझ तक पहुँची.आभार.
ReplyDeleteकाल्पनिक वस्तुगतता ..अच्छी कविता
ReplyDeleteबहुत दिनों की आपकी कविता पढ़ने की साध पूरी हुई..और आपकी कविताएं अक्सर एक गहरे रहस्यमय तालाब की तरह होती हैं जिसके किनारे बेहद चिकने-फ़िसलन भरे हों..कि प्यास से आतुर कदम एक बार आगे बढ़ाते ही यह तालाब खुद प्यासे को अंदर खींच लेता है और स्वयं मे समाहित कर लेता है..सो अभी इसी प्यास के वशीभूत हो कर इस तालाब के इतरलोकीय रहस्य मे गोता लगा रहा हूं..रांदेवू भी क्या यही है..एक चरम नीजी पल से साक्षात्कार..जिसके नक्श-ए-पा शतियों की पेशानी पर छपे रह जायें आने वाली संततियों के द्वारा टोहे जाने के लिये..
ReplyDeleteजब किशोर जी आपकी इस कविता के प्रति प्यार की स्वीकृति करते हैं तो यह स्वर न जाने कितने हृदयों का ’इको’ बन जाता है..
दोबारा लौटना होगा जल्द.अगर यहाँ से जा पाया तो!!
पहली बार आपकी कविता पढ़ी .. सम्मोहन है आपकी लेखनी में ..अभी तक आपसे उपन्यास की आशा रखता था अब ...
ReplyDeleteअमृतकल्पी आस ! बेसुध-सा कर दिया भाई ! कविता दिनों बाद आयी है, पर छा गयी है मन पर !
ReplyDeleteकिशोर जी ने जिस विश्वास की बात की है वह तो सच में इस कविता का हृत-स्पन्दन है !
विस्मय-विमुग्ध !
very good........keep it up1
ReplyDeletesanjay ki kavita mein jijivisha kesaath apne hone ka satyapan kerne ki pyas hai ..ant tak akshun bache reh ker es pradushit duniya ke sabhi keeton se dur panap rehi unki komal bhavna kavita ke abhi bhi alag v vishudh rehne ki chah ko balwati kerti hai ..apni santano ke liye es samay ke shresth ko bacha ker surakhshit rekhne ki unki chah kavi ko to vishudh premi saabit kerti hai hai magar es anokhi lalak ke peeche unka manviy chehra jo ubharta hai wah kavita ko majboiot kerta hai ki kavita aponwe akakipan mein se esa sanggeet de dene mein ab bhi samarth hai jo aane wali sadiyon ko bhi anokhe bhav se rang de ...sanjay ..bahut achaa laga aapko padhna ...
ReplyDeleteकुछ दिन पहले ही पढ़कर चुपचाप लौट गया था। कुछ ऐसा ही प्लाट मन में कई सालों से उपज रहा था.. इन्हें आपकी लेखनी से संवरा देख झूम उठा।
ReplyDeleteएक प्रेमी की इस अद्भुत फैंटेसी को एक बेमिसाल कवि ही मूर्त रूप दे सकता है।
एक बेहतरीन कविता संजय जी!
[ये अत्याधुनिक तकनीक की खतो-किताबत भी गजब है ! अबीर भेजी कथाकार संजय व्यास को जयपुर और वह पहुंची आपके पास ! मेरी कमअक्ली कि सोचा ही नहीं कि पूरे भारत में संजय व्यास तो अनेक होंगे, हो सकते हैं ! और आपकी जिंदादिली ये कि अबीर स्वीकार भी की और साफगोई से सच लिख भेजा कि 'मैं वह संजय व्यास नहीं !' आपकी जिंदादिली और साफगोई का कायल हुआ बन्धु ! मेरा मन कहता है, वह अबीर तो आपके लिए ही थी !]
ReplyDeleteहोली पर भेजी हुई अबीर की चुटकी स्वीकृत होकर भी गलत पोस्ट से लौट आयी है; प्रतिक्रिया पुनः प्रेषित कर रहा हूँ ! ab to pahunchegi aap tak ?
बिलकुल नयी सोच और नवीन अवधारणाओं की यह कविता तो अप्रतिम है ! बधाई आपको !
सप्रीत--आ.
मिलना चाहता हूँ ऐसी ही किसी जगह
ReplyDeleteऔर बचाना उस चरम निजी पल को
जो सुरक्षित रखा जा सके
अभेद्य खोल में बीज की तरह
सतह से कई हाथ नीचे
शताब्दियों बाद ही
नमी और उमस से
किसी गाथा वृक्ष में
फूटने के लिए।
Mai rachana aur chitr dono ko leke nishabd hun!
जो सुरक्षित रखा जा सके
ReplyDeleteअभेद्य खोल में बीज की तरह
सतह से कई हाथ नीचे
शताब्दियों बाद ही
नमी और उमस से
किसी गाथा वृक्ष में
फूटने के लिए।
-वाह !बहुत ही अद्भुत लिखा है.
मनभायी यह रचना.
किसी किसी कविता पे टिप्पणी करना नामुमकिन सा भले न हो मुश्किल जरूर होता है.जहाँ कोई न पहुंचा हो अभी.जहाँ सिर्फ हरियाली ही मिलन की साक्षी हो.कोई कीट तक न हो वहां .ऐसी जगह के इतने खूबसूरत और अनूठे बिम्ब है ज़ो इस अंदाज़ में पहले कभी न पढ़े हैं.और अंत में पौराणिक गाथा भर में होना कविता में चमत्कार उत्पन्न करता है.
ReplyDeleteमिलना चाहता हूँ ऐसी ही किसी जगह
ReplyDeleteऔर बचाना उस चरम निजी पल को
जो सुरक्षित रखा जा सके
अभेद्य खोल में बीज की तरह...
बहुत अच्छे!