Friday, December 7, 2012

शुभ्र ढलान पर लाल तारा


उसे इस सीज़न का स्वेटर पहने एक हफ़्ता हो चुका था.आज सुबह जब उसकी नज़र स्वेटर की सफ़ेद पट्टियों पर पड़ी जो जगह जगह से ज़ंग खाइ लगने लगीं थीं तो याद आया कि बाज़ार से वो ईज़ी लाना पिछले तीन चार दिन से भूल रहा है. चीज़ें उसे इस तरह से ही याद आतीं थीं.सर पर गिर कर.ठीक उसी वक्त उसे याद आया कि कॉलोनी में पिछले सात दिन से लक्ष्मीनारायण दिखा नहीं है और आज तीसरा दिन है जब उसने सोचा था कि इस बारे में वो किसी कॉलोनी वाले से पूछेगा. लक्ष्मीनारायण उसके ही दफ्तर में चपरासी था और यूँ कॉलोनी का पुरोहित भी. उस तैंतीस घरों की वॉल्ड बस्ती के धार्मिक आयोजनों में कर्मकांडों को वो बड़ी दक्षता से सरलीकृत कर देता था.शक्ल से वो टीबी जैसी किसी बीमारी का मरीज़ भले ही लगता था पर असल में उसे कर्ज़े खाए जा रहे थे.एक दुसरे पर समकोण में और एक दुसरे के समानांतर कुछ अस्थियाँ उसके व्यक्तित्व की मूल ज्यामिति बनाए रख रही थीं.

उसने सोचा आज ही लक्ष्मी के बारे में किसी से पूछेगा पर तभी मोबाइल की घंटी बजी और उसे फिर इसी बहाने याद आया कि सुबह ही उसकी गर्ल फ्रेंड ने फोन पर बताया था कि आज शाम वो उसे उसके दफ्तर के बाहर मिले.ये डेट जैसा ही कुछ था, उसने सोचा.साथ ही लडकी ने ये भी कहा था कि पक्का तो वो शाम पांच बजे फोन करके ही बता पाएगी. इस फुटनोट के बाद उसका आकलन ये था कि डेट वाली बात को भूल जाना चाहिए क्योंकि उसका फ़ोन नहीं आने वाला था.ऐसा कई बार हो चुका था.ये रिश्ता लगभग ख़त्म होने वाला ही था.इसके बने रहने का कारण था कि कोई भी नीच या घटिया नही होना चाहता था.वैसे वो उसे पसंद करता था पर इस पसंद करने का वो क्या करने वाला था इस बारे में वो श्योर नहीं था.वो कई बार लड़की की गर्दन के पीछे लाल मस्से को लेकर भावुक हो जाया करता था.काले मस्से को वो अनाकर्षक मानता था पर उसकी नज़र में उसके दूधिया शरीर पर लाल मस्सा बहुत फबता था.एक शुभ्र ढलान में लाल तारे की तरह चमकता था वो दैवीय सा निशान.इससे उसे लगता था कि लड़की कोई क्लोन नहीं बल्कि विशिष्ट है,अपने में अनूठी.कुछ दुर्लभ आत्मीय क्षणों में जब वो उसकी गर्दन के पास अपना मुंह ले जाता था,लड़की समझ रही होती कि वो उसे चूम रहा है, दरअसल वो लाल मस्सा देख रहा होता था.लाल मस्से को देख कर वो खासा वर्कड अपभी हो जाता था और ये ठीक भी था. इसे लड़की उस वक्त की वाजिब प्रतिक्रिया ही समझती थी.

पर आज शाम उसके फोन कर डेट को पक्का करने की बात को याद रखने की कोई वजह रही नहीं थी.उसके इन दिनों के फ़ोन कॉल्स पर उसने हूँ हाँ की अन्यमनस्क प्रतिक्रिया ही दी थी.दोनों की तरफ से फ़ोन पर बात करना आवाज़ देने,पुकारने की ऐसी रस्म अदायगी जैसा था जिसमें ये डर भी शामिल था कि दूसरा कहीं सुन न ले.

अभी जो घंटी बजी थी उसमें सामने अनिल था.उसका खासा पुराना दोस्त.उसे याद नहीं था कि आखरी बार अनिल से बात कब हुई थी.इसे हफ्तों, महीनों या सालों में नहीं देखा जा सकता था.बस इतना था कि एक प्राचीन धूल उनके बीच में थी.एक लम्बी अजनबियत उनकी पुरानी दोस्ती पर पसरी हुई थी.जैसे किसी पहचाने रास्ते पर बरसों बाद चलने पर लगता डर.एक सहमापन.ठिठकते जाना.

फ़ोन पर अनिल की आवाज़ में भी खरखराहट थी.धूल खाए कैसेट से बजती कोई रिकार्डेड आवाज़.अनिल ने बातचीत में शाम को साथ में फिल्म देखने का प्रस्ताव दे डाला.उसके पास इसे मानने के अलावा शायद कोई विकल्प नहीं था क्योंकि उस वक्त वो ये जांचने में ज़्यादा लगा था कि फ़ोन पर कहीं उस शख्स की बरसों पुरानी फीते पर अंकित आवाज़ तो नहीं है जिसे इस दुनिया से रुखसत हुए ज़माना बीत गया है.

वो सोचने लगा कि मल्टीस्क्रीन की लिफ्ट के पास जब वो उसे देखेगा तो कैसा दिखेगा.कुरेदकर उसने अनिल का चेहरा याद किया.उसका चेहरा एक शिशु का था.या एक शर्मीली लड़की जैसा.स्त्रियोचित सुन्दरता से भरा.हलकी मूंछें उसके होठों पर ऐसे लगती जैसे किसी बच्चे ने नकली मूंछे चिपका ली हो.उसे स्वभावतः गुस्सा बहुत आता था पर स्वाभाविक नहीं लगता था उसके चेहरे पर.

शाम ही थी ये.कुछ जल्दी हो गयी थी पर शाम ही थी.अपने स्कूटी यान पर वो सिनेमा के लिए जा रहा था.चौराहे पर घर लौटने वाले व्यग्र खड़े थे.लाल बत्ती उन्हें कुछ पलों के लिए थामे खड़ी थी.हवा में धुंए के छर्रे आँखों में चुभ रहे थे.अपने व्यस्ततम समय पर ये शहर का सबसे व्यस्ततम चौराहा था.मैकडोनाल्ड वाला बर्गर के साथ यहाँ आलू टिक्की भी बेच रहा था. समोसों में ढलते रोज़ टनों मैदे को चाटने से इस शहर का पाचन बिगड़ चुका था.सेक्स क्लिनिक्स के नाम पट्ट फीके पड़ रहे थे, फर्टिलिटी क्लिनिक्स की बाढ़ थी.एक दिवंगत नेता की पुष्पमाल उछालते प्रतिमा इन सबसे से उदासीन थी.


हरी बत्ती हो गयी थी और वो फिर अपने यान पर चलायमान था.सिनेमा कुछ ही दूर था.उसने मन में सोचा कि बेसमेंट पार्किंग में जब वो स्कूटी पार्क करके लिफ्ट की तरफ बढेगा तो वो लोहे का कमरा कितना ठंडा और अपरिचय से भरा होगा.क्या अनिल के शिशुवत चेहरे की गर्मी उस शीत में राहत दे पायेगी?

11 comments:

  1. यादों का सिनेमा बड़ा ही तेज़ी से गुज़र जाता है, हाथ अगर कुछ आता है तो सिर्फ यादें।

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  2. प्रत्यक्षा सिन्हा को पढ़ रहा हूँ। एक शालीन और गहन सिनेमा को देखे जाने का अनुभव अंतस तक आता है। आपको हमेशा याद दिलाता हूँ कि यही खुराक चाहिए होती है मगर आप सुनते नहीं है।

    सिर्फ शुक्रिया कि जाने कब आओगे लौट कर।

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  3. प्रवाहमान, आनंद भयो..

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  4. बहुत दिन बाद पढ़ा और आपका लिखा और पढने की हसरत जागी ....

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  5. जानते है पिछले दो दिन से सिर्फ आपको पढ़ रहा हूँ .आपकी फॉर्म की निरंतरता चकित करती है .

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  6. http://urvija.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_2991.html

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  7. @ डॉ.अनुराग-शुक्रिया डाक्साब.आपकी उपस्थिति और शब्द हमेशा प्रेरित करते हैं.

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  8. रश्मि प्रभा जी-ब्लॉग रचना को स्थान देने के लिए आभार.

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  9. @ किशोर चौधरी- एक ताज़ा कहानी और मिल जाय...आपकी एक लम्बी कहानी पढने का मन कर रहा है.

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  10. बहुत दिनों से ब्लाग , ब्लागर और ब्लागिंग से दूर था. (अभी भी कोई पास नहीं हूं) ...लेकिन इस दौरान भी आपका ब्लाग ..ब्लाग के बहाने मूलतः आपका गद्य याद रहा , बीच बीच में याद आता रहा. हो सकता है इसलिये कि कुछ मुहावरे जो आप रचते हैं , वो मन में रच जाते हैं....एक प्राचीन धूल ......एक लम्बी अजनबियत ............एक सहमापन.ठिठकते जाना.......

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  11. शुक्रिया अभिषेक. शुभ नव वर्ष.

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